हैप्पी वेलेंटाइन डे Rajvendra Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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हैप्पी वेलेंटाइन डे

राजो इसी नाम से सब उसे पुकारते थे। बड़े घर की इकलौती लड़की। लाड़ प्यार में कुछ बिगड़ सी गई थी। मां चंचल स्वभाव पर अकुलाया करती थी, लेकिन बाबूजी कहते अभी उम्र ही क्या है कुल जमा दस साल की तो है हमारी बिटिया। राजो पूरा दिन कस्बे भर में घूमा करती। धमा-चौकड़ी मचाती, कभी इसे चिढ़ाती तो कभी उसे परेशान करती। उसके बाबूजी कस्बे के सेठ थे, नाम रमाकांत श्रीवास्तव। उनके अदब और प्रभाव के मारे कोई कुछ कह नहीं पाता। वैसे तो रमाकांत सरल और सुलझे स्वभाव के थे, सबसे प्रेम से बात करते, घर आए हर व्यक्ति को आदर देते, पर कस्बे के लोग उससे डरते थे जो उनके बड़े से घर के दरवाजे पर लाठी लिए खड़ा रहता था। उस छह फुटे दैत्य जैसे इनसान को देखकर अच्छे-अच्छों की घिग्गी बंध जाया करती थी।

वह दैत्य रमाकांत को दहेज में मिला था। राजरानी से जब उनका ब्याह हुआ और वे उन्हें विदा करवाकर ला रहे थे, तो राजरानी के पिता ने उस दैत्य को साथ भेज दिया, यह कहकर कि 'दामादजी आपकी सुरक्षा करेगा। ससुर कस्बे में कोहु की हिम्मत न होइहे, तोहर तरफ तिरछी नजरन से देखबे की।'

बस तब से वह दैत्य रमाकांत का बॉडीगार्ड भी था और चौकीदार भी। मजाल है कि उसकी अनुमति के बिना कोई घर में घुस जाए। घर में घुसना तो दूर कोई बाहर तक नहीं खड़ा हो सकता था। रमाकांत कभी-कभी उसके स्वभाव से चिढ़ जाते, तब राजरानी उन्हें समझा ले जाती। कहते हैं कि मायके का कुकुर भी प्यारा होता है, यह तो उनके पिता का बॉडीगार्ड था। राजरानी ऐसे हर मौके पर कहतीं, 'रहबे दो राजो के पिताजी, इके डर से कौनो नीच-गलीच तो दरवाजे न आवे। बिटिया बड़ी हो रही है। स्वभाव तो जानो हो उका, ई जो दैत्य है, इके दम पर कोउ कछु कही तो न सके बिटिया को।' रमाकांत पत्नी के तर्क के आगे बेबस हो जाते और राजो उनकी कमजोरी थी, इसलिए उसकी सुरक्षा की चिंता में मन को समझा लेते।

राजो उस दैत्य के दम कुछ और इतराने लगी थी। वह जानती थी कि उसकी शिकायत करने कोई बाबूजी के पास तक पहुंच ही नहीं सकता। इसलिए वह अपनी शरारतों से सबके लिए शैतान की नानी बनी घूमा करती थी। उसके मोहल्ले के ही कुछ लड़कों और लड़कियों का झुंड था, जिसकी लीडर वही थी। सबको साथ लेकर तरह-तरह के खेल खेलती और बनाती भी थी। इन बच्चों के भी पसंदीदा खेल वही होते थे, जब राजो किसी सब्जी के ठेले से मूली या ककड़ी उठाकर भाग जाती या पास के मोहल्ले में जाकर कुम्हारों के मटके फोड़ आती या फिर साइकिल से जा रहे किसी सीधे-सादे आदमी पर नकली सांप फेंक देती और जब वह हड़बड़ाकर गिर जाता तो ताली बजा-बजाकर हंसती। उसकी हंसी में उसकी पूरी वानर सेना उसका साथ देती।

ऐसा नहीं था कि रमाकांत के पास उसकी शिकायतें नहीं पहुंचती। जब कभी वे कस्बे में निकलते या बाजार के हाल-चाल जानने के लिए पहुंचते तो लोग दबे स्वर में उनसे राजों की करतूतें बताते। तब वे किसी का नुकसान पूरा करते और किसी से माफी मांगकर सांत्वना देते, पर राजो को कुछ नहीं कह पाते। सोचते थे कि कितने दिन की है यहां, एक तो विदा होकर चली जाएगी। पिता के घर में आजादी नहीं पाएगी तो कहां पाएगी।

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पर अब कुछ बदलने लगा था। राजो के व्यवहार में तब्दीली सी आने लगी थी। उसके स्कूल में इसी साल एक नए लड़के का दाखिला हुआ था। रघुवीर सिंह उससे एक क्लास आगे था। राजो यूं तो किसी पर जल्दी मेहरबान नहीं होती थी, लेकिन रघुवीर में न जाने ऐसा क्या नजर आया कि उसे अपने ग्रुप में शामिल करने के लिए मचलने लगी। पर रघुवीर उस पर जरा भी ध्यान नहीं देता था। सुबह समय पर स्कूल आना, पूरे दिन क्लास में किताबों में खोए रहना और घंटी बजते ही साइकिल उठाकर घर की तरफ रवाना हो जाना... यही उसका रुटीन था।

राजो स्कूल में भी हुड़दंग मचाए रहती। कभी किसी मास्टर की कुर्सी की टांग तोड़ देना, कभी ब्लैकबोर्ड पर मास्टर के हिटलर अवतार का चित्र बना देना तो कभी साइकिल की हवा निकाल देना। इन सबमें पीछे से शर्ट पर स्याही फेंकना उसका पंसदीदा करतब था।

वह किसी सधे हुए निशानेबाज की तरह शिकार चुनती, हवा की गति, दूरी और शर्ट के रंग का आकलन करती और फिर फाउंटेन पेन को किसी योद्धा की भांति हाथ में ऐसे पकडऩा, जैसे भाले से लक्ष्य का संधान कर रही हो और फिर फचाक स्याही की तेज धार हवा में और शिकार की शर्ट पर नीली चित्रकारी का अमिट निशान। इसके बाद भी भागती नहीं, सीना फुलाकर शिकार को ऐसे देखती, जैसे एक ही गोली में शेर को मारने वाला गर्व और घमंड से उसे घूरता। शिकार भी राजो को देख भुनभुनाता और निकल जाता, तब वह ताली बजाकर खूब हंसती और साथ में उसका ग्रुप भी।

ऐसे ही एक दिन राजो का शिकार बना रघुवीर। उस दिन बुधवार था। रघुवीर स्कूल पहुंचा। सफेद शर्ट-पैंट पहने, नीचे सफेद ही रंग के कैनवास के जूते। बालों में एक तरफ की मांग निकाले और उनसे निकली लटों को उड़ाता साइकिल में पैडल मारते हुए रघुवीर स्कूल पहुंचा ही था।

स्टैंड पर साइकिल खड़ी कर झुककर ताला लगा ही रहा था कि राजो किसी जिन्न की तरह पीछे प्रकट हुई और उसके सधे हुए निशाने का कमाल था कि जो स्याही कुछ देर पहले उसके फाउंटेन पेन की शोभा बढ़ा रहा था, जिनसे अक्षर बनने चाहिए थे, वही स्याही अब रघुवीर की शर्ट पर नजर आ रही थी। एक विचित्र सी आकृति बनाते हुए और राजो जोर से हंस दी।

रघुवीर अचानक से पलटा। उसे अहसास हो गया था कि उसकी पीठ पर कुछ गिरा है, राजो के हाथ में पेन थामे देख वह सब समझ गया। उसकी इस शरारत का दूसरों को शिकार बनते कई बार देख चुका था, लेकिन आज उसका नंबर आ गया था। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था, आखिर वह इंजीनियर साहब का बेटा था। वह तेज आवाज में चिल्लाया, 'यह क्या है। मेरी पूरी शर्ट खराब कर दी।'

राजो पर उसके चिल्लाने का कोई असर नहीं पड़ा। उलटे वह हंसते हुए बोली, 'कर दी तो कर दी, क्या कर लेगा। जा मास्टर साहब से शिकायत कर दे या बाबूजी के पास चला जा।'

उसके हंसने से रघुवीर ने आपा खो दिया। वह तेजी से आगे बढ़ा और राजो को मारने के लिए हाथ उठा लिया। राजो ने जब देखा कि रघुवीर उसे मारने वाला है तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। मार क्या होती है, यह तो वह जानती ही नहीं थी। उसे कभी किसी ने छुआ तक नहीं था और यहां रघुवीर उसे चांटा मारने ही वाला था। यह देख वह एकदम से बुक्का फाड़कर रोने लगी। यह देख रघुवीर एकदम से हतप्रभ रह गया। उसका उठा हुआ हाथ वैसे ही रह गया। वह मुंह बाए कभी राजो की तरफ देखता तो कभी उसकी चांडाल चौकड़ी की तरफ, जो उसे ऐसे घूर रही थी मानो रघुवीर ने न जाने क्या गुनाह कर दिया हो। और फिर राजो रोते-रोते भाग गई। उसकी टीम रघुवीर को आंखों ही आंखों में धमकाते हुए से लगे, मानो कह रहे हो... “बच्चू अब मिलना बताते हैं, तुझे” और पलटकर चले गए।

उसके बाद रघुवीर की चर्चा पूरे स्कूल में हो रही थी। जो भी राजो का शिकार बना था, वह उसे तरीफी नजरों से देखता, जैसे मन ही मन धन्यवाद दे रहा हो। उसके दोस्तों ने तो उसे हीरो ही बना दिया। क्लास में यह कहते नहीं थकते कि इसने राजो को मारा, उस राजो को जो किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती थी। किसी से डरती नहीं थी, उलटे पूरा मोहल्ला, बाजार और स्कूल के सभी मास्टर भी उससे खौफ खाते थे। पर रघुवीर को कुछ ठीक नहीं लग रहा था। वह अंदर ही अंदर बैचेन सा था।

न जाने क्यों उसके सामने बार-बार राजो का चेहरा घूम रहा था। गोरा, गोल मुखड़ा और बड़ी-बड़ी आंखें, जिनसे आंसू यूं टूटकर बह रहे थे मानो सावन-भादौ के बादल हों। पूरा चेहरा लाल पड़ गया था और आंसुओं से तर था। और उसके रोने की आवाज में कितना दर्द था। नहीं रघु ये तूने ठीक नहीं किया, उसका अपना मन उसे धिक्कार रहा था। कैसी गुडिय़ा सी लगती है राजो और उसे रुला दिया। ये तूने ठीक नहीं किया रघु। तुझे उससे माफी मांगना होगी। उसे सॉरी कहना होगा। उसका बालमन उसे समझा रहा था कि कैसे अपनी गलती को सुधार सकता था।

स्कूल की छुट्टी होने के बाद मोहल्ले के उस पार नदी किनारे बने सरकारी क्वार्टर की तरफ जब जा रहा था, तो उसका मन भी उदास था, वह सोच रहा था कि कैसे राजो से माफी मांगेगा। कैसे उसे कहेगा कि गलती हो गई, माफ कर दे। अब नहीं रुलाउंगा। उसे न जाने क्यों राजो पर लाड़ आने लगा, उसकी सारी शरारतें अब प्यारी लगने लगी थीं। 

नदी पर बन रहे डेम के चीफ इंजीनियर थे, अजय प्रताप सिंह। शाम को घर लौटे तो पाया रघुवीर बैठक में नहीं था। टीवी बंद पड़ा था। उन्होंने बैठक से ही आवाज लगाई, 'रघु, ओ रघु, कहां हो। आज सूर्य पश्चिम से तो नहीं निकला था।' तब तक किचन से पानी का गिलास लेकर बाहर आते हुए उनकी पत्नी शालिनी बोलीं, 'पता नहीं क्या हुआ इस लड़के को। स्कूल से आया, तब से ही उदास है। कुछ उखड़ा-उखड़ा था, जल्दी खाना खा लिया और सोने चला गया।'

'अरे कहीं तबियत तो खराब नहीं है, तुम भी कैसी मां हो। देख भी नहीं रही कि बेटे को क्या हुआ।' अजय चिंतातुर स्वर में बोले।

'आप भी न। इतना लाड़ मत करो उसे। बिगड़ जाएगा। कुछ नहीं हुआ है। मैं चेक कर चुकी हूं। पूछने पर कुछ बताता भी नहीं। मैंने सोचा हुआ होगा स्कूल में किसी से झगड़ा या मास्टर से डांट पड़ी होगी। सुबह तक ठीक हो जाएगा।' शालिनी ने पानी का गिलास थमाते हुए कहा।

'हूं।' अजय केवल इतना बोले और कपड़े बदले अपने कमरे में चले गए।

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यूं तो रघुवीर को यहां आए एक साल भी नहीं हुआ था। उसके ज्यादा दोस्त नहीं थे। अपने में खोया रहने वाला लड़का था वह। लड़कियों से तो यूं डरता था कि सामने जाते ही हकलाने लगता। गुस्से में राजो पर हाथ तो उठा दिया, पर अब समझ नहीं पा रहा था कि उसका सामना कैसे करेगा। आज स्कूल भी नहीं आना चाहता था, लेकिन घर पर क्या बहाना बनाता, इसलिए आ गया।

राजो मानो उसी का इंतजार कर रही थी। अपनी चांडाल चौकड़ी के साथ स्कूल के गेट पर ही खड़ी थी। रघुवीर ने दूर से ही उसे गेट पर खड़ा देख लिया। वह साइकिल घुमाकर भाग जाना चाहता था, लेकिन तब तक राजो की नजर उस पर पड़ गई और दोनों की आंखें मिलीं तो राजो उसे चुनौती सी देती जान पड़ी। रघुवीर चाहे जैसा हो, लेकिन डरकर भागने वालों में से नहीं था। उसने गहरी सांस ली और सोचा जो होगा देखा जाएगा। धीरे-धीरे साइकिल चलाते स्कूल के गेट तक पहुंचा। उसकी नजरें लगातार राजो पर टिकीं थीं और राजो भी उसे ही घूर रही थी।

राजो के आसपास और भी लड़के-लड़कियां जमा हो गए थेे। दोनों की तकरार में कम और उसके परिणाम के लिए ज्यादा उत्सुक थे। रघुवीर ने पास पहुंचकर भी साइकिल नहीं रोगी, बल्कि अब वह सामने देखने लगा। यह देख राजो खुद उसकी साइकिल के आगे आ गई। यह देख रघुवीर ने अपनी रेंजर साइकिल के ब्रेक कस दिए। साइकिल वहीं जाम हो गई। राजो आगे बढ़ी और आंखों ही आंखों में रघुवीर को चुनौती सी देते साइकिल का हैंडल पकड़ लिया। रघुवीर समझ नहीं पा रहा था कि वह क्या करे। कभी लगता कि माफी मांग ले, तो कभी लगता कि इस नकचढ़ी लड़की के साथ जो किया ठीक किया। इसे तो जमकर थप्पड़ पडऩा ही चाहिए। जरा भी तो तमीज नहीं है। और फिर उसका रोता हुआ चेहरा सामने आ जाता, रघुवीर का कोमल मन पिघलने लगता।

रघुवीर कुछ कहने जा रहा था कि तभी राजो बोली, 'क्यों कहीं का बड़ा लाड़ साहब है क्या? मुझे मारने के लिए हाथ उठाया, जानता है मैं कौन हूं?'

'पर मैंने मारा तो नहीं न। तेरी जगह कोई लड़का होता तो फिर उसे अच्छे से दिखाता कि मेरी शर्ट पर स्याही डालने का क्या अंजाम होता है।' रघुवीर ने नरमाई से ही जवाब दिया।

हां, जैसे तू तो रैम्बो है न, मार-मारकर सबकी खटिया खड़ी करने वाला। पहले अपने हाथ-पैर देख, फिर किसी को मारने का सोचना।' इतना कहकर राजो खिलखिलाकर हंस पड़ी।

उसकी निस्छल हंसी सुनकर ही रघुवीर के मन का सारा विषाद गायब हो गया, सारी उदासी यूं धुआं हो गई मानो कपूर में किसी ने जलती तीली छुआ दी हो। वह भी हंस पड़ा और बोला, 'मारने के लिए हाथ-पैर नहीं देखे जाते, हिम्मत देखी जाती है। तूने मेरी हिम्मत देखी कहां है अभी।'

'चल जाने दे, देख ली तेरी हिम्मत भी और तुझे भी।' राजो हंसते हुए बोली, 'चल अब भूल जा सबकुछ, दोस्ती करेगा मुझसे।'

रघुवीर ने बस अपना सिर हिला दिया। और राजो का चेहरा किसी गुलाब की फूल की तरह खिल उठा। कश्मीरी सेब की तरह उसके लाल गालों पर एक डिंपल सा नजर आया, जो उसके मुस्कुराने से उभरा था। बोली, 'तो शाम को घर आ जाना। आज मेरी गुडिय़ा का ब्याह है। मिलकर दावत उड़ाएंगे। तुझे अभी से न्योता दे रही हूं। आएगा न।' राजो ने जैसे मनुहार सी की।

रघुवीर ने सिर हिलाकर सहमति दे दी। उनकी तकरार का मजा लूटने के लिए आसपास जमा हुए बच्चे हैरानी से एक-दूसरे का मुंह देख ही रहे थे कि तभी स्कूल की घंटी बजी और सब एकदम से पलटकर ऐसे भागे कि जैसे चींटियों के झुंड के बीच आटा गिरने पर भगदड़ मचती है। राजो भी सरपट ग्राउंड की तरफ भागी, जहां प्रार्थना होती है और रघुवीर साइकिल थामे स्टैंड की तरफ बढ़ गया।

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शाम को रघुवीर धारीदार हाफ पैंट, सबसे अच्छी टी-शर्ट, कैनवास के स्पोर्ट शू पहनकर तैयार हुआ। करीने से बाल संवारे। कमरे से निकला और शालिनी से बोला, 'मम्मी, मैं खेलने जा रहा हूं।'

शालिनी ने टीवी से नजरें उठाईं और उसकी तरफ देखकर बोलीं, 'इन कपड़ों में यूं सज-धजकर खेलने जा रहा कि किसी की शादी में।'

'क्या मम्मी तुम भी ना। खेलने ही जा रहा हूं। आज कुछ नए दोस्त बने हैं। उनके घर जा रहा हूं।' इतना कहकर रघुवीर दौड़ते हुए बाहर निकल गया। शालिनी पीछे से आवाज देती रह गई, पर तब तक साइकिल उठाकर वो हवा हो चुका था।

कुछ ही देर में वह राजो के घर के गेट पर था। गेट पर खड़े दैत्य को देखकर वह जड़ हो गया। उसकी साइकिल वहीं जाम हो गई। वह तय नहीं कर पा रहा था कि आगे बढ़े या लौट चले। दैत्य अपनी खूंखार आंखों से लगातार उसी को देखे जा रहा था। तब तक राजो ने उसे देख लिया। शायद वह उसी का इंतजार कर रही थी। चहकते हुए दौड़़ लगाकर बाहर आई और झट उसका हाथ पकड़ खींचने लगी। रघुवीर भी उसके साथ खिंचता चला गया। गेट पर खड़ा दैत्य अब भी उसे घूर रहा था। भीतर पहुंचते ही रघुवीर की जान में जान आई।

वह बोला, 'बाप रे, कितना डरावना आदमी है यह।'

'क्यों बच्चू हो गई न सिट्टी पिट्टी गुम। सुबह तो बड़े हिम्मतवाले बन रहे थे। अब दिखाओ हिम्मत।' राजो खिलखिलाते हुए बोली। उसके मोती जैसे दांत चमक उठे।

'ना बाबा, इस राक्षस के सामने कौन हिम्मत दिखाएगा। यह तो एक ही बार में मुझे खा जाए।' रघुवीर ने बालसुलभ मासूमियत से जवाब दिया। राजो एक बार फिर खिलखिलाकर हंस पड़ी।

रघुवीर ने देखा कि अंदर चौक में राजो के सारे दोस्त बैठे थे। एक तरफ राजो का गुडिय़ा घर रखा था, जिसके सामने छोटा सा मंडप बनाया गया था। मंडप में करीने से सजाकर गुडिय़ा को रखा गया था और पास ही बैठा था सफेद कलंगी लगाए गुड्डा राजा। मंडप के आसपास कागज की प्लेटों में मिठाई, नमकीन, बिस्किट सजे धरे थे। राजो हाथ पकड़कर रघुवीर को लाई और अपने पास ही बैठा लिया। फिर शुरू हुआ राजो का पंसदीदा खेल। रघुवीर ने भी खेल का भरपूर आनंद लिया। छककर मिठाई, नमकीन और बिस्किट उड़ाए। राजो बार-बार खिलखिला रही थी, आज तो कुछ ज्यादा ही। गुलाबी फूलों वाली फ्राक में बड़ी प्यारी लग रही थी वह। अंधेरा होने लगा तो रघुवीर ने बोला, 'राजो अब मैं निकलता हूं, नहीं तो अंधेरा हो जाएगा। मम्मी चिंता करेंगी।'

'ठीक है रघु।' राजो ने उसे उसी नाम से पुकारा, जिस नाम से उसके मम्मी-पापा ही पुकारते थे। बोली, 'कल फिर आएगा न।' रघुवीर ने केवल सिर हिला दिया। साइकिल उठाई और गेट पर खड़े दैत्य की तरफ देखे बिना जल्दी से गेट पार कर गया। पीछे से उसे राजो की खिलखिलाहट के साथ ही सुनाई दिया, 'डरपोक कहीं का।' वह हलके से मुस्कुरा दिया। उसके पैर साइकिल के पैडल पर तेजी से चलने लगे थे। आज वह हवा से भी रेस करने को तैयार था, लगता था कि जैसे उडऩे लगे और सब नीचे रह जाए। तब बादलों के बीच साइकिल चलाते हुए राजो को देखेगा और अंगूठा दिखाकर चिढ़ाएगा कि देखी मेरी हिम्मत।

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अब तो यह जैसे रोज का सिलसिला हो गया था। रघुवीर शाम होने के पहले तैयार होता, साइकिल उठाता और चल देता राजो के घर की तरफ। राजो भी शाम होने का इंतजार किया करती। रघुवीर को देखते ही खिल उठती थी। उसका शरारतें अब कम हो गई थीं। यूं तो रघुवीर पढ़ाई लिखाई में अव्वल था, शांत और गंभीर। पर पता नहीं क्यों उसे भी राजो का साथ ही सुहाने लगा था। गुड्डे गुडिय़ा का ब्याह राजो का पसंदीदा खेल था। दूसरों को चिढ़ाना तो राजो ने बंद कर दिया, लेकिन रघुवीर को चिढ़ाने में उसे मजा सा आने लगा।

एक दिन ऐसे ही खेल-खेल में रघुवीर से पूछ बैठी, "मुझसे ब्याह करेगा।"

और रघुवीर के गाल एकदम लाल हो गए। वह बुरी तरह से झेंप गया। तब राजो ने सबके सामने उसकी खिंचाई शुरू कर दी। खिल्ली उड़ाने लगी। पूरे झुंड के सामने मजाक बनाते हुए कहने लगी, "देखो-देखो कैसे शरमा रहा है, जैसे मैं सचमुच लंगूर से ब्याह करुंगी।" और जोर-जोर से हंसने लगी। तब रघुवीर तमककर उठ गया। जाने लगा। राजो की हंसी को एकदम से ब्रेक लग गया। वह रुंआसी सी हो गई। उसकी आंखों में आंसू आ गए। पानी रघुवीर की आंखों में भी तैर रहा था, लेकिन उसके जबड़े भी भिंचे हुए थे।

राजो ने झपटकर उसका हाथ पकड़ लिया और, 'भरे गले से बोली, क्या हुआ रघु कहां जा रहा है। मजाक कर रही थी। क्या थोड़ा सा हंसी भी नहीं कर सकती।'

रघुवीर ने गुस्से से कहा, 'ये मजाक है, तुझे पता है ब्याह का क्या मतलब होता है। कुछ भी बोल जाती है। मुझे नहीं खेलना तेरे साथ। जाने दे मुझे। अब यहां कभी नहीं आउंगा।'

राजो रो पडऩे को एकदम तैयार थी। उसने झट अपने कान पकड़ लिए। दो बार उठक-बैठक भी लगा ली। बोली, 'रघु सॉरी दे दे ना, यार। पता नहीं था तुझे इतना बुरा लग जाएगा, नहीं तो ऐसा नहीं बोलती। चल अब मान भी जा। अब कभी नहीं बोलुंगी। पक्का प्रामिस।' राजो ने गले को पकड़ते हुए आखिरी वाक्य कहा।

रघवीर कुछ देर तो उसे देखता रहा फिर न जाने क्या सोचकर बैठ गया। बोला कुछ नहीं, पर उसका चेहरा उतरा हुआ ही रहा। पूरे खेल में वह हां-हूं करता रहा और राजो, वह तो पहले की तरह फिर खिलखिलाने लगी थी। शाम को उतरे चेहरे के साथ रघुवीर घर की तरफ चल दिया।

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पर वो राजो ही क्या जो प्रॉमिस याद रखे। जब भी गुड्डे-गुडिय़ा का खेल होता वह रघवीर को चिढ़ाने से बाज नहीं आती। हर बार वही पूछती, 'मुझसे ब्याह करेगा।' और फिर खुद ही कहती, 'शकल देखी है अपनी, बड़ा आया ब्याह करने वाला।' रघुवीर हर बार तुनक जाता। कई बार तो मामला ज्यादा गंभीर हो जाता। पर राजो हर बार उसे मना लेती। जब भी रघुवीर रूठकर जाने लगता तो झपटकर हाथ भी पकड़ लेती। कान पकड़ लेती और फिर दोनों हंसने लगते। अब तो रघुवीर को भी इस नोंकझोंक में एक मजा सा आने लगा था। वह जानबूझकर गुस्सा होता, राजो मनाती तो झट मान जाता।

समय जैसे पंख लगाकर उड़ा जा रहा था। दोनों की नोंकझोंक, लड़ाई-झगड़े, रूठना-मनना, इस सबके बाद भी दोनों एक-दूसरे के बिना मानों रह ही नहीं पाते थे। जब तक रघुवीर नहीं आता राजो का खेल ही शुरू नहीं होता और रघुवीर भी कहां खुश रह पाता था। स्कूल में दोनों साथ होते। पूरे झूंठ के सामने राजो उसे चिढ़ाती पर अब रघुवीर चिढ़ता नहीं, हंसकर रह जाता।

सालाना परीक्षाएं शुरू होने में कुछ दिन बचे थे। राजो को पांचवी की परीक्षा देनी थी और रघुवीर को छठवीं की। दोनों का पूरा ध्यान पढ़ाई की तरफ था। राजो के घर अब भी जाता था, लेकिन अब राजो किताबें लेकर बैठी होती थी और रघुवीर भी अपना बस्ता लेकर ही पहुंचता था। दोनों कुछ देर खेलते और फिर पढऩे लगते।

उस दिन शायद 13 फरवरी थी। अगले दिन छुट्टी थी और इसलिए राजों ने फिर गुड्डे-गुडिय़ा का ब्याह रचाया था। पूरी पलटन मौजूद थी। शाम का धुंधलका उतरने लगा था। कस्बे से सटे ग्वालों के घरों में लौट रही गायों का झुरमुट और उड़ती धूल से धुंधलका बढ़ गया था। राजो अपने झुंड के साथ खेल तो रही थी, लेकिन उसका मन खेल में नहीं लग रहा था। बाबूजी ने लाड़ली के कहने पर बच्चों के लिए मिठाई भी मंगा दी और सबकी नजरें मिठाई का प्लेटों पर टिकी थीं, मगर राजो का ध्यान कहीं और अटका था।

 

वह व्याकुल थी, रघुवीर अब तक नहीं आया था। साथियों पर झुंझला भी रही थी। अंधेरा होने के करीब रघुवीर नजर आया। धीरे-धीरे कदम रखता हुआ आया और राजो के ठीक बगल में बैठ गया। राजो को उसका चेहरा बदला सा नजर आया मगर उसका बाल मन ताड़ नहीं सका कि वह उदास है। रघुवीर को देखते ही वह पूरे जतन से खेल में लग गई। गुड्डे की बारात आई। उसके बाल संगी बरातियों ने मिठाई उड़ाई। गुड्डे गुडिय़ा के फेरे हुए और राजो ने मुंह में उंगली डालकर आंखों के नीचे लगाई और झूठमूठ रोते हुए गुडिय़ा को विदा कर दिया। रघुवीर चुपचाप बैठा यह सब देखता रहा।

राजो ने देखा कि उसके सामने रखी मिठाई की प्लेट जस की तस पड़ी है तो उसने पूछा, "क्यों आज घर से पेट भर कर आया है।"

रघुवीर ने बस नजरें उठाकर उसकी तरफ देखभर लिया। उसकी आंखों में पानी के चंद कतरे तैर रहे थे। राजो ने पहली बार आंखों की उदासी को महसूस किया।

उसने अपनत्व से उसका हाथ पकड़कर पूछा क्या हुआ, "पिताजी ने फिर पढ़ाई के लिए डांटा क्या।"

रघुवीर ने कोई जवाब नहीं दिया वह बस राजो के चेहरे की तरफ देखता रहा। इस उदासी को राजो बदाज़्श्त नहीं कर पा रही थी।

उसने हंसते हुए कहा, "अच्छा गुडिय़ा के जाने से उदास है न। चल बता मुझसे ब्याह करेगा। हम तुम यहीं ब्याह कर लेते हैं। देख बाराती भी हैं और मिठाई भी।"

रघुवीर की आंखों में थमा पानी बह निकला। राजो ने आपा खो दिया। उसे झंझोड़ते हुए कहा, "बोल न क्या हुआ रो क्यों रहा है। चल अब तेरा मजाक नहीं बनाउंगी।"

"मैं यहां से जा रहा हूं राजो।"

"क्या कहा जा रहा है। अरे बाबा बोला न अब मजाक नहीं बनाउंगी। कहां जा रहा है। थोड़ी देर और खेलते हैं न।"

"नहीं राजो पिताजी का तबादला दूर किसी बड़े शहर में हो गया। हम सब लोग वहीं जा रहे हैं। आज पूरा दिन सामान बांधा जा रहा था। हम लोग कल की ट्रेन से ही निकल जाएंगे।"

थोड़ी देर पहले तक खिलखिला रही राजो एक ही पल में ऐसी हो गई मानो सदियों से बीमार हो। उसकी आंखे डबडबाईं और फिर वह रोते रोते दौड़ गई। रघुवीर कुछ समझ पाता कि वह बाबूजी का हाथ पकड़कर लगभग घसीटते हुए आई। उसका दुख गुस्से में बदल चुका था।

वह बाबूजी से बार बार कह रही थी, "देखो न रघुवीर कह रहा है वह दूर शहर जा रहा है। इसे रोको न बाबूजी मैं किसके साथ खेलुंगी। मैं इसे नहीं जाने दूंगी। बाबूजी इसे रोक लो न। यह क्यों जा रहा है।"

उसके बाबूजी भी समझ नहीं पा रहे थे कि उसे कैसे समझाएं। उन्हें पहले ही पता लग चुका था कि इंजीनियर साहब का तबादला हो चुका है। उनकी जगह नए इंजीनियर ने काम भी संभाल लिया था। आखिर वे रोती बिलखती राजो को गोद में उठाकर घर ले गए। रघुवीर आंखों में आंसू भरे वहां से लौट आया।

मां ने देखा तो पूछा, "क्या बात है रघु रो क्यों रहा है।"

"मां  हमारा जाना जरूरी है क्या। पिताजी से कहो न कि वे यहां से न जाएं।"

"तू तो जानता है रघु तेरी पढ़ाई के लिए ही उन्होंने बड़े शहर में तबादला करवाया। तुझे भी इंजीनियर बनना है।"

"मां मैं नहीं जाना चाहता यहां से।"

"जाना तो पड़ेगा ही रघु। तेरे पिताजी के आगे भला चली है किसी की" और रघुवीर को आंचल में समेट लिया। वह सिसक सिसककर रोने लगा और रोते रोते ही सो गया।

अगले दिन दोपहर स्टेशन पर इंजीनियर साहब के परिवार को विदा करने कस्बे के कई लोग आए थे। राजो भी बाबूजी के साथ आ गई। एक ही दिन में बदल गई। सदा खिला रहने वाला चेहरा कुम्हला गया था। बस एकटक रघुवीर को देखे जा रही थी। रघुवीर भी अकुलाया सा उसकी तरफ ही निहार रहा था। तभी ट्रेन ने सीटी दे दी और राजो ने झपटकर रघुवीर का हाथ पकड़ लिया।

चिल्लाने लगी, "मैं नहीं जाने दूंगी। रघुवीर कहीं नहीं जाएगा। रघुवीर तू मुझे छोड़कर चला जाएगा क्या।  देख मत जा न मैं कभी तेरा मजाक नहीं बनाउंगी। अब कभी बनाऊं तो पीट लेना, पर यहां से मत जा न। मैं किसके साथ खेलूंगी।"

राजो चिल्लाती जा रही थी और उसके बाबूजी उसे काबू में करने की कोशिश कर रहे थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने राजो के हाथ से रघुवीर का हाथ छुड़ाया और उसे गोद में लिया। इधर रघुवीर के पिताजी ने उसे खींचकर डिब्बे में चढ़ा लिया। ट्रेन रेंगने लगी और राजो अब मचल रही थी बाबूजी की गोद से कूदने और रघुवीर के पास जाने के लिए।

आखिर नहीं छूट पाई तो चिल्लाकर कहा, "रघुवीर तुझे मेरी कसम अगली ट्रेन से वापस आ जाना।"

रघुवीर ने भी चिल्ला कर कहा, "रो मत राजो मैं अगली ट्रेन से जरूर आ जाउंगा।"

राजो ने कहा, "देख रघुवीर आ जरूर जाना नहीं तो तेरी मेरी कट्टी हो जाएगी।"

ट्रेन तेज हो गई थी। उधर ट्रेन ने प्लेटफॉमज़् छोड़ा और इधर राजो बाबूजी की गोद में बेहोश हो गई।

अगले दिन राजो उदास तो थी मगर खुश भी। ट्रेन आने के पहले ही वह स्टेशन पहुंच गई रघुवीर को लेने। ट्रेन आई और वह टकटकी लगाए देखती रही। चंद सवारियां उतरीं और सीटी बजाती हुई ट्रेन चली गई वह उसी तरह टकटकी लगाए देखती रही। शायद यूं ही सदियों खड़ी रहती तभी उसके बाबूजी ने उसे गोद में उठा लिया। राजो ने एक शब्द नहीं कहा।

बाबूजी ने कहा, "रज्जो अब वह कभी नहीं आएगा। तू भूल जा और फिर यहां तेरे कितने संगी साथी हैं। चल आज फिर गुड्डे गुडिय़ा का ब्याह रचाएंगे। मैं भी खेलंूगा और ढेर सारी मिठाई लाउंगा। "

राजो के होंठ नहीं खुले। लाड़ली की यह दशा देख बाबूजी की आंखों में आंसू आ गए। अब वे उस बालमन को कैसे समझाते कि जाने वाला चला गया। कभी न लौटने के लिए।

..और यंू ही पता नहीं कितने ही साल बीत गए। कस्बा भी काफी बदल गया। डेम शुरू होने के बाद शहर का रूप ले लिया। राजो स्कूल की पढ़ाई के बाद नए खुले कॉलेज जाने लगी, मगर उस दिन उसने जो खामोशी ओढ़ी तो गंभीरता की मूरत बन गई। बात भी उतना ही करती कि काम चल जाए।  कॉलेज के बाद घर का काम करती या पूरा दिन कमरे में बंद रहती।

इतने सालों में एक बात नहीं बदली थी। उस एक बात पर कस्बे के सारे लोग हैरान थे। हर दिन ट्रेन आने के ठीक समय स्टेशन पहुंच जाती। एक बेंच पर बैठी रहती। ट्रेन आती उसकी व्याकुल नजरें एक-एक डिब्बे के दरवाजे पर जम जाती। कुछ सवारियां उतरती कुछ चढ़ती मगर वह यूं ही खामोशी से बैठी रहती। ट्रेन सीटी बजाती हुई चली जाती। कुछ देर बाद वह भी उठती। इतने सालों में उसे सबने समझाया कि वह नहीं आएगा। उसने किसी की बात का प्रतिकार नहीं किया बस यूं ही हर दिन रघुवीर का इंतजार ही मानो उसका भाग्य बन चुका था।

शायद आज भी 14 फरवरी ही था। राजो का मन कुछ ज्यादा व्याकुल हो रहा था। ट्रेन आने के काफी पहले स्टेशन पहुंच गई।

स्टेशन मास्टर ने कहा भी, "बिटिया अभी ट्रेन आने में काफी समय है।"

वह कुछ बोले बिना बेंच पर जाकर बैठ गई। आज पता नहीं क्यों एक-एक पल काटना मुश्किल हो रहा था उसके लिए। तभी दूर कहीं ट्रेन की सीटी की आवाज सुनाई दी। वह दौड़कर प्लेटफॉमज़् के किनारे तक गई ट्रेन का इंजन नजर आने लगा था। जैसे जैसे इंजन नजदीक आ रहा था उसकी धड़कनें तेज होने लगी। उसके खुद को संभाले रखना मुश्किल हो रहा था। वह फिर से जाकर बेंच पर बैठ गई।

ट्रेन आई और प्लेटफॉमज़् पर रुक गई, लेकिन आज राजो की नजरें नहीं उठ पा रही थीं। ट्रेन के फस्टज़् क्लास कंपाटज़्मेंट का दरवाजा खुला। कंधे पर बैग लटकाए खिलंदड़ा सा युवक कूदा। पहनावे से ही बड़े शहर का लग रहा था। उसने चारों तरफ नजरें घूमाकर देखा फिर अचानक ही उसकी नजरें उस बेंच पर जम गईं। राजो अब भी नजर झुकाए बैठी थी।

अचानक उसके मन में तरंग सी उठी और झटके से नजरें उठ गईं। नजरें सीधी उस युवक की आंखों से टकराईं। कुछ देर तक दोनों एकटक से एक दूसरे को देखते रहे। सालों से जमी बफज़् पिघलकर राजो की आंखों से बहने लगी। पानी युवक की आंखों में भी तैर रहा था। उसके हाथ से बैग छूट गया।

वह धीरे धीरे राजो के नजदीक पहुंचा और धीरे से कहा, "राजो।"

राजो के होंठ थरथराए मगर शब्दों को आवाज नहीं मिली।

राजो लडख़ड़ाती हुई खड़ी हुई और युवक के सीने पर सिर रखकर फूट फूटकर रोने लगी।

युवक ने कहा, "अब क्यों रो रही है पगली मैंं आ गया।"

राजो बस उसके गले से लगी रोती रही। 

युवक ने उसे बांहों में भर लिया और कान के पास मुंह ले जाकर कहा, "राजो हैप्पी वेलेंटाइन डे। मुझसे ब्याह करेगी।"

राजो ने बस इतना ही कहा, "मेरे प्रीतम। कितनी देर लगा दी तुमने।"

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