उसने मुझे जीना सिखाया Ashok Kaushik द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उसने मुझे जीना सिखाया

 

उससे मेरी पहली मुलाकात अचानक एक दिन हो गयी जब मैं अपने नए घर में आया था.

रविवार की सुबह देर से सो कर उठा था. बाहर से अख़बार उठाया और किचन में जाकर चाय बनाई. बेडरूम में खिड़की के पास वाली कुर्सी पर बैठ कर चाय पीते हुए खिड़की से बाहर देखा तो मेरा ध्यान अचानक उसकी ओर गया. दिसंबर की ठंडी सुबह की चमकीली धूप सीधी उस पर पड़ रही थी, जिसने उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा दिये थे. देखने से लग रहा था कि उसकी यौवन अवस्था शुरू हो चुकी थी.

शनिवार, रविवार को ऑफिस नहीं जाना होता था. दोनों दिन फुर्सत में सुबह खिड़की के पास तसल्ली से चाय पीते हुए उसे निहारता था. कभी कभी जब तेज़ ठंडी हवा चल रही होती थी, तब उसे भी हवा के साथ झूमते हुए देखता था. झुलसती हुई गर्मी के मौसम में उसे कुम्हलाते हुए देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता था, परन्तु सावन आने पर उसका मूड बिलकुल बदल जाता था. कभी हलकी फुहारें.. तो कभी तेज़ झमाझम बारिश में जब जोरों की हवा चलती थी तो उसका अंग अंग नाचने लगता था. धीरे धीरे चुपचाप उसके साथ एक अनजाना सा रिश्ता बनने लगा था, जिसे कोई नाम नहीं था. मुझे पता भी नहीं चला जब मुझे अहसास हुआ कि हमारे बीच एक मूक संवाद चल रहा था. यह संवाद मुझ में हमेशा नयी ऊर्जा का संचार करता रहता था.

समय अपनी गति से चलता रहा. धीरे-धीरे उस के यौवन में नए आयाम आते रहे. यौवन पार कर हम दोनों ने अधेढ़ अवस्था में दस्तक दे दी थी. इस पर भी उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया था. भीनी-भीनी हवाओं के साथ जब भीउसे झूमते हुए देखता तो उसके नृत्य में वही अल्हड़पन दिखता.

दो साल बाद मैं रिटायर हो गया. अब लगा कि अब तो समय ही समय है, जब मन हो तब खिड़की पर आकर उसे निहार सकता हूँ. मूड और मौसम के मुताबिक कभी सुबह, कभी शाम चाय का कप या खाने की थाली लेकर खिड़की पर बैठे उसकी मुद्राओं को निहारना मेरा रोज़ का सिलसिला बन गया.

‘रिटायरमेंट’ के बाद मैंने संगीत का अपना पुराना पुराना शौक फिर से ज़िन्दा कर लिया. अच्छी पुस्तकें भी पढ़ता था. खिड़की पर बैठकर गुनगुनाता था तो स्वर उसके कानों में भी पहुँचते थे. एक दूसरे के सान्निध्य में हम अच्छे मित्र हो गए थे. 

जीवन कभी भी  रेल की पटरी की भांति सीधा नहीं चलता. इस बार मैंने ‘हेल्थ चेकअप’ कराया तो अचानक पेट के कैंसर का पता चला, जो अब तक काफी बढ़ चुका था. हंसती खेलती जिंदगी में अचानक ये कैसा मोड़ आ गया था? कैंसर शब्द सुनते ही एक बार को तो पैरों तले जमीन खिसक गयी. अनेक प्रकार की आशंकाओं ने मुझे घेर लिया. डॉक्टर की सलाह पर बम्बई में टाटा मेमोरियल अस्पताल चला गया. वहाँ तीन महीने के इलाज के बाद घर लौटा. बीमारी में कुछ लाभ हुआ था, मगर दवा आगे लगातार चलनी थी. कई महीने तेज़ दवाओं के प्रयोग से शरीर में शक्ति कम हो गयी थी. कैंसर के इस आक्रमण से मन पूरी तरह से बुझ सा गया था... मेरा संगीत रुक गया और जीवन का उत्साह समाप्त हो गया था. मिलना-जुलना बंद सा हो गया. खिड़की पर बैठना तो भूल ही गया था.

दवाई अब कुछ काम कर रही थी और धीरे धीरे मन बदलने लगा था. एक दिन उसने मुझे खिड़की पर बैठा देखा तो हल्का गुस्सा दिखाते कई सवाल एक सांस में ही पूछ डाले - “अरे, तुम इतने दिन तक  कहाँ गायब हो गए थे? तुम्हें क्या हुआ है? इतने कमज़ोर क्यों दिख रहे हो?” उसे देख कर मेरा बांध टूट गया और सारा दुःख होठों पर आ गया. मैंने अपनी सारी व्यथा उसे सुना डाली.

मुझे एक प्यारी सी डाट लगते हुए उसने कहा - “मैं तुमको एक मजबूत इन्सान समझता था, मगर  तुम तो बडे कमज़ोर निकले, दोस्त. जरा मुझे ध्यान से देखो! तुम्हारे जाने के बाद मुझे भी पता नहीं क्या बीमारी हुई कि मेरी बहुत सी डालियों के गुच्छे मर कर सूख गए.”

मेरा ध्यान अभी तक इस ओर नहीं गया था. इतने विशाल पेड़ के एक बड़ा हिस्सा सूख चुका था जिसके सारे पत्तों का रंग भूरा हो गया था. मैं तो उसको भला-चंगा छोड़कर बम्बई गया था.

मित्र की बात अभी भी जारी थी.... “देखो, तुम्हें बीच-बीच में ये भूरे रंग के सूखे पत्ते दिखाई देंगे. इस सब से मैं भी दुखी हूँ. मगर इतनी गंभीर बीमारी भी मुझे आगे बढ़ने से नहीं रोक पाई. मेरी हर  डाली पर हमेशा नए पत्ते आते हैं. मेरी छाँव में बैठने वालों को मैं अभी भी लगातार ठंडी छाया और खुशबूदार पीली निम्बोली देता हूँ. दातुन करने वालों को कच्ची टहनियां देता हूँ. कभी कभी सड़क पर चलने वाले और ऊपर के मकान वाले लोगों को मेरी लम्बी टहनियों से असुविधा होती है और वे गुस्से से उन्हें काट देते हैं. मगर मैं कभी विचलित नहीं होता और शान्त मन से वहीँ से फिर नयी कोंपल उगाने लगता हूँ. 

मित्र के नाते मेरी सलाह है कि जीवन को रुकने मत दो. जो कुछ खो गया है उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ते रहो. जिस दिन तुम आगे बढ़ना बंद कर दोगे, तुम्हारा मन बुझ जायेगा और वही तुम्हारी मृत्यु का क्षण होगा. बस तुम्हारा शरीर जिन्दा रहेगा.” 

इस मूक हमसफ़र ने बड़े सहज भाव से जीवन और मृत्यु का रहस्य समझा दिया था. उसकी कहानी  सुनकर मुझ में फिर से जीने की चाह जगने लगी. खिड़की के आर-पार हम हम सुबह-शाम मिलने लगे और एक दूसरे का सहारा बनते रहे.
 
आज मेरे होठों पर रफ़ी का यह गीत आ रहा था.... "मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया , हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ा sss ...."
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