.... मन का मीत. - 2 A U M द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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.... मन का मीत. - 2

......राधा .और नीरज .सामान्य से परिवार से तालुक रखते थे।
नीरज की पढ़ाई अधूरी रह गई थी।
पारिवारिक जिम्मेदारी उसपे बहुत जल्द आ पड़ी थी।
महज पांचवीं कक्षा में होगा वह,तब उसके सर पे मा का साया हट गया था।
जीवन में जिसकी माता खो जाती है।उसका कोई नहीं होता।
वह अनंत ममत्व भाव को जानने से पहले ही उससे वह छूट गया।
परिवार में औरत का महत्व ऐसा है,
जैसे किसी अंधेरे कमरे में रोशनी।
उसके बगैर जीवन अंधकार में डूब जाता है।
जरा सी बीमारी ।
जिसका इलाज भी चल रहा था मगर पूरा समाधान न हो पाया और ,
नीरज ने अपनी माता को हमेशा के लिए खो दिया।
दिन भर भेड़ बकरियों के चरा ने की लिए नीरज के पिता जी चले जाते थे।
सुबह जल्दी उठकर वह अपनी और नीरज के लिए रोटी बनाकर रखते थे।
उसे इस सदमे से निकलने को बहुत महीने लगे।
बीच में उसने स्कूल जाना भी बंद कर दिया।
उसे अब हर तरह मायूसी ही नजर आती थी।
कोई उसे बात करने की कोशिश करता तो रोने लग जाता था।
यह बात जब स्कूल के शिक्षक को पता चली।
तो उस दिन स्कूल के समय पूरा होने पर वे और स्कूल के चपरासी के साथ वे नीरज के घर पहुंचे।

उन्होंने उसे कुछ बाते समझाए।
जीवन के कुछ नियम भी की,
जीवन किसी के हाथ में नहीं है।
यह नश्वर शरीर सदैव अमरत्व नहीं है।
यह निर्धारित समय के लिए ही अपने पास है
बाद में यह पुनः अंतराल में विलीन हो जाता है।
शिक्षक की बातों का पूरा अर्थ तो उसे मालूम न हुआ मगर,
उसके मन में कही न कही उम्मीद जग गई।

दूसरे दिन उसने खुद सुबह उठकर पिता को चाय बनाकर दे दी।
स्वयं भी ले ली।
थोड़ी देर बाद उसके पिता ने खाने का डिब्बा देकर उसे स्कूल भेज दिया।
बहुत दिन से स्कूल में नहीं होने के कारण वह खुद ,
को अलग महसूस कर रहा था ।
मगर मास्टरजी को यह अहसास था कि ,
वह क्या सोच रहा होगा।
उन्होंने बहुत ही नरमी से बर्ताव करते हुए उसे स्कूल में बैठने की ,
प्रोत्साहित किया।
दिन महीने साल बीत गए।
अपनी निजी जीवन को जीने के लिए वह अब लोगों के खेतो में। मजदूरी भी करता था ।
और साथ में पढ़ाई भी।
जिससे उसके कपड़े तथा किताबों का खर्च निकल सके।
लोग भी उसे हमदर्दी रखते थे।
जैसे तैसे करके नीरज ने दसवीं पास कर ली।
आगे पढ़ाई करने के लिए अब उसे शहर का रुख करना ही पड़ता।
दसवीं भी उसने अपने गांव से 10 किमी दूर हरिपुर गांव में की थी।
जहा वह पैदल आ जा या करता था।
उसकी यह हालत देखकर उसके पिता जी ने उसे एक कबाड़ी के दुकान से एक सायकिल खरीद कर दी थी।
जिसके काफी पुर्जे खराब हो चुके थे।
मगर काम चल रह था।
वह सायकिल पाकर वह पैदल चलकर जाने का सारा दर्द भूल गया था।
जीवन में कभी कभी हालत हमारे मन की विपरीत भी जाती है।मगर संयम के साथ उसे पार किया जा सकता है।