एमी - भाग 2 Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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एमी - भाग 2

भाग -2

दिल्ली में भाई और कई रिलेटिव्स को मैंने कॉल कर दी थी। कुछ रिलेटिव रात भर हमारे साथ बने रहे। हमें सांत्वना देते रहे। अगले दिन शाम होने से कुछ पहले ही फ़ादर की बॉडी मिली। मैं चाह रही थी कि फ़ादर को पहले घर लाया जाए। भाई भी यही चाहता था। कुछ रिलेटिव्स भी हमारी बात से एग्री थे। लेकिन मदर नहीं। कुछ रिलेटिव्स भी मदर के साथ थे। अंततः हम हॉस्पिटल से ही उन्हें लेकर सीधे क़ब्रिस्तान गए। वहाँ उन्हें अंतिम विदा देकर घर आ गए।

कुछ दोस्त, दो-तीन रिश्तेदारों को छोड़कर बाक़ी सभी लोग अपने-अपने घरों को चले गए थे। हम रात भर घर में इधर-उधर बैठते, जागते रहे। मदर अपने कमरे में ही बैठी रहीं। हम जितनी बार उन्हें देखने उनके पास पहुँचते उतनी बार उन्हें एकदम शांत बैठे पाते। वह बेंत की चेयर पर बैठी सामने दीवार पर टँगे प्रभु यीशु मसीह के चित्र को बराबर एकटक देखतीं थीं, तो कभी आँखें बंद कर लेतीं थीं। जैसे भीतर-ही-भीतर रो रही हों। उस वक़्त बीच-बीच में उनका शरीर एकदम से हिल उठता था, जैसे रोते-रोते हिचकी ली हो। हमें आसपास खड़ा देखतीं तो हाथ से इशारा कर बाहर जाने को कह देतीं। पूरी रात ऐसे ही बीत गई।

हमारा अगला एक हफ़्ता ऐसे ही भयानक सन्नाटे में बीता। भाई सहित हम तीन घर में थे। लेकिन लगता जैसे कोई है ही नहीं। इस गहन सन्नाटे को बस एक चीज़ थी जो हर घंटे बाद तोड़ रही थी, वह थी दीवार घड़ी। हर घंटे के बाद टिन्न-टिन्न करती उसकी आवाज़ कमरों में, आँगन में, बरामदे में सुनाई देती थी। मगर पहले यही आवाज़ केवल उसी कमरे में सुनी जा सकती थी जिस कमरे में वह लगी थी। वह घड़ी आज भी उसी कमरे में वहीं लगी है। भाई जस्टिन की छह-सात दिन बाद ही मदर से किसी बात पर बहस हो गई थी। आवाज़ सुनकर मैं उनके कमरे में पहुँची तो जस्टिन को इतना ही कहते सुना कि, "मैं यहाँ नहीं रह सकता। अब मैं दोबारा नहीं लौटूँगा।" मैं बहुत दिन बाद जान पाई कि उस दिन दोनों के बीच किस बात को लेकर बहस हुई थी।

मैंने तब दोनों से बहुत पूछा लेकिन किसी ने कुछ नहीं बताया। मदर ऐसे चुप हो जातीं, ऐसे दूसरी तरफ़ देखने लगतीं जैसे कि मैं किसी और से बात कर रही हूँ। जस्टिन बार-बार पूछने पर बहुत नाराज़ हुआ तो मैंने उससे दोबारा पूछा ही नहीं। वह अगले ही दिन सुबह दिल्ली लौट गया था। फिर उसने काफ़ी समय तक फोन पर भी हम दोनों से बात नहीं की। जाते समय उसने घर में ना खाना खाया, ना चाय-नाश्ता किया। मेरी सारी कोशिश बेकार रही। मदर ने तो ख़ैर कुछ कहा ही नहीं। ऐसी कौन सी बात थी जिसने दोनों के बीच इतनी नफ़रत पैदा कर दी, यह जानने का प्रयास करना मैंने कुछ समय तक बंद कर दिया था। उस दिन जाने के बाद भाई फिर कभी लौट कर घर नहीं आया।

कुछ दिन तो फोन करने पर मुश्किल से हाल-चाल बता देता था, फिर एक दिन मुझसे बड़े क्लियर वर्ड्स में कहा, "हमारी यह आख़िरी बातचीत है।" मैं कुछ कहती उसके पहले ही उसने फोन काट दिया था। मैंने कॉल किया तो मोबाइल स्विच ऑफ़ मिला। उसके एड्रेस पर जितने कोरियर मैंने भेजे वह सब अनडिलीवर होकर लौट आए थे। मैंने मदर से इस बारे में बात करनी चाही, लेकिन वह कुछ बोलती ही नहीं थीं। ज़्यादा कहती तो वह उठकर कर दूसरी जगह चली जातीं। उनके इस व्यवहार के कारण मेरा मन भाई से मिलने के लिए बेचैन हो उठा। क्रिसमस एकदम क़रीब था। मैं चाहती थी कि वह कम से कम क्रिसमस पर तो आ ही जाए। कम से कम त्यौहार पर तो परिवार के सारे लोग मिल कर रहें।

मदर को बोलकर मैं दिल्ली उसके घर पहुँची। तो लैंडलॉर्ड से मालूम हुआ कि भाई ने काफ़ी पहले ही मकान छोड़ दिया है। कहाँ गए कुछ बताया नहीं। मेरे सामने बड़ी मुसीबत आ खड़ी हुई कि अब मैं क्या करूँ। लैंडलॉर्ड ने तभी एक ऐड्रेस बताते हुए कहा कि, "आप उनके ऑफ़िस चली जाइए।" मेरे लिए यह नई जानकारी थी कि भाई नौकरी कर रहा है।

बड़ी मुश्किल से ऑफ़िस पहुँची तो पता चला भाई ऑफ़िस के काम से आउट ऑफ़ स्टेशन है, चार दिन बाद लौटेगा। यह सुनते ही मेरा सिर चकरा गया कि अब क्या करूँ। मैं शहर से अनजान थी। मेरे सामने सबसे बड़ी समस्या यह थी कि कहाँ रुकूँ। वैसे भी मेरे पास पैसे ज़्यादा नहीं थे। आख़िर मैंने तय किया कि सीधे स्टेशन चलती हूँ, जो भी ट्रेन मिल जाएगी उसी से वापस चल दूँगी। इसके अलावा और कोई रास्ता मेरे लिए नहीं बचा था।

उसके ऑफ़िस में मैंने यह नहीं बताया कि मैं उसकी सिस्टर हूँ। स्टेशन पर मैं ना किसी ट्रेन में रिज़र्वेशन का ठीक से पता कर पाई, ना कुछ खा-पी सकी। अंदर ही अंदर बहुत डर रही थी। आख़िर एक ट्रेन की स्लीपर बोगी में बिना रिज़र्वेशन के ही चढ़ गई। टीटी को पेनॉल्टी देनी पड़ी। संयोग से बोगी में एक बहुत ही सभ्य फ़ैमिली मिल गई थी। उनकी महिलाओं ने मुझे अकेला एवं परेशान देखकर अपने साथ कर लिया था। पूरा परिवार किसी तीर्थ स्थान से लौट रहा था। उन्होंने खाने-पीने के लिए बहुत प्रेशर डाला। लेकिन मैं डर के मारे मना करती रही।

वह लोग मेरा डर समझ गए तो उस परिवार की सबसे बुज़ुर्ग महिला ने मुझे बेटी-बेटी कहकर बड़े प्यार से समझाया। उनकी अनुभवी आँखों ने मेरे चेहरे से पहचान लिया था कि मैं भूखी-प्यासी हूँ। उन्होंने अपनी बातों से मुझे बड़ा इमोशनल कर दिया। फिर मैं मना नहीं कर सकी। उनके साथ पूरा डिनर किया। घर की बनी बहुत ही टेस्टी मिठाई भी खाई। उस महिला ने मिठाई का नाम बालूशाही बताया था। साथ ही यह भी बताया कि यह उनके बड़े बेटे की मिसेज ने बनाया है। वह उसे बहू-बहू कह कर उसकी ख़ूब तारीफ़ कर रही थीं।

उस बुज़ुर्ग महिला ने अपनी बर्थ पर ही मुझे रात भर सोने भी दिया। आधे में वह, आधे में मैं सोई। तभी मुझे अनुभव हुआ कि जब शरीर थका हो, भूखा हो। तो वह जो पसंद नहीं करता वह भी ख़ूब खा लेता है। पथरीली ज़मीन पर भी गहरी नींद सो लेता है। सबसे बड़ी बात कि उस परिवार ने मुझे भीड़ की धक्का-मुक्की से बचाया। सुबह आठ बजे जब लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन से उतरी तो पूरे परिवार ने मुझे ऐसे विदा किया जैसे मैं उनके परिवार की ही सदस्य हूँ।

मैं ट्रेन से उतर कर उनकी खिड़की के सामने खड़ी तब-तक बात करती रही जब-तक ट्रेन चल नहीं दी। बोगी दूर होती जा रही थी और मैं उन्हें देखती तब-तक हाथ हिलाती रही जब-तक कि वह ओझल नहीं हो गईं। वह सभी प्रयागराज जा रहे थे। मैं थक कर इतना चूर हो गई थी कि मुझसे खड़ा नहीं हुआ जा रहा था। प्लेटफ़ॉर्म एक की बेंच पर बैठी मैं कुछ देर तक आराम करती रही। मैं रात भर जब-तक जगी तब-तक जिस तरह भाई की बेरुख़ी के बारे में सोच रही थी, वैसे ही तब भी सोच रही थी कि मदर के साथ ऐसी कौन सी बात हुई थी कि उसने अपने दिल में घर के लिए इतनी नफ़रत भर ली है। इतने दिन से नौकरी कर रहा है यह तक नहीं बताया। मैं बहुत ही परेशान मन के साथ घर आ गई।

मदर नाइट ड्यूटी से लौट कर सो रही थीं। उन्होंने इतनी जल्दी वापस आया देख कर पूछा, "सब ठीक तो है।" मदर को यह आशा थी कि मैं भाई के पास चार-छः दिन रह कर लौटूँगी। उन्होंने जब पूछा तो न जाने क्यों मुझे ग़ुस्सा आ गया। मैंने बिना कुछ छिपाए जो कुछ हुआ सब बता दिया। मैंने सोचा था मदर ग़ुस्सा होंगी। बहुत सी कड़वी बातें बोलेंगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह कुछ देर मेरे पास चुपचाप बैठी रहीं। फिर अपने रूम में जाकर पुनः सो गईं। वह नहीं, मैं शॉक्ड कमरे में बैठी रह गई। मैं शॉक्ड इसलिए हुई कि मदर ने यह तक नहीं पूछा कि जब भाई नहीं मिला तो तुम कहाँ रही, कैसे आई। इससे ज़्यादा मैं इस बात से शॉक्ड हुई कि भाई कहाँ है? कैसा है? इस बारे में कुछ पूछा ही नहीं।

मैंने जितना बताया उतना ही सुन लिया। वह भी बेमन से। मैं कंपेयर करने लगी ट्रेन में मिले परिवार से अपने परिवार की, मदद की, बिहेवियर की। कुछ देर को तो मैं अपनी थकान ही भूल गई। मैं इस बात से भी बहुत शॉक्ड हुई कि मदर यह जानकर भी कि मैं कल से ठीक से सोयी नहीं हूँ। लगातार जर्नी से बहुत थकी हूँ। इसके बाद भी उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा कि एमी आराम करो, मैं ब्रेकफ़ास्ट तैयार करके लाती हूँ। कैसी मदर हैं? आख़िर ऐसी कौन सी बात है कि इनका व्यवहार ऐसा हो गया है। इतना बदल गया है। शारीरिक थकान से मैं पस्त हुई जा रही थी। लेकिन मदर के बिहेवियर ने मानसिक थकान इतनी दी कि मैं ज़्यादा देर बैठ नहीं सकी। फ़्रेश होकर सो गई।

मैंने मन में यह भी डिसाइड कर लिया कि अब मैं इनसे बात तभी करूँगी, उतनी ही करूँगी जब यह कुछ पूछेंगी, बात करेंगी। मैं शाम के क़रीब उठी। जब भूख महसूस हुई तो किचेन में गई। मैंने सोचा कि खाने के लिए कुछ बनाना पड़ेगा। लेकिन मदर ने मेरे सोने के बाद जो खाना बनाया था वह मेरे लिए भी रखा था। मैंने राहत महसूस की और उसे ही गरम करके खा लिया। खाते वक़्त मैंने सोचा जब बनाया था तो मुझे खाने के लिए कह भी सकती थीं। जगा सकती थीं। खाना खाकर मैं फिर सो गई। मेरे मन में आया कि देखूँ मदर क्या कर रही हैं, लेकिन फिर सोचा छोड़ो जाने दो, जब बात नहीं कर रही हैं तो क्या जाना उनके पास। रात क़रीब नौ बजे उन्होंने मुझे उठाया कि दरवाजा बंद कर लूँ, वह अपनी नाइट ड्यूटी पर जा रही हैं।

मुझसे बहुत उदास सी आवाज़ में यह भी कहा कि, "खाना किचेन में रखा है, खा लेना।" मन में सोचा कि अन्य नर्सों की तरह यह भी अपनी नाइट ड्यूटी क्यों नहीं कम करा लेतीं। जब वह चली गईं तो मैंने गेट बंद किया और ड्रॉइंग रूम में बैठकर टीवी देखने लगी। मेरे मन में बराबर यह बात उठती रही कि ऐसे माहौल में कैसे पढ़ूँगी। कैसे रहूँगी। भाई का जो नया नंबर ऑफ़िस से मिला था उस पर कॉल किया तो उसने साफ़-साफ़ कह दिया कि, "मैंने सारे रिलेशन ख़त्म कर दिए हैं। मुझसे काँटेक्ट करने की कोशिश ना करो।"

उसके हद दर्जे के रूखे बिहेवियर से मैं बहुत नाराज़ हो गई। मैंने भी कह दिया कि अब बात तभी करूँगी जब तुम आओगे या कॉल करोगे। मैंने सोचा भाई ने रिश्ता ख़त्म किया है। यह मामूली बात नहीं है। मदर भी उनका नाम नहीं ले रहीं। वजह अब जाननी ही पड़ेगी। ऐसे काम नहीं चलेगा। जिस दिन मदर का मूड सही होगा उस दिन ज़रूर पूछूँगी। उनके सही मूड का इंतज़ार करते-करते महीनों निकल गए लेकिन उन के मूड में कोई चेंज नहीं आया। ऑफ़िस, घर, बस यही रूटीन था।

मैंने देखा कि फ़ादर के देहांत के बाद उन्होंने एक भी डे ड्यूटी नहीं की। यह बात बिल्कुल साफ़ थी कि उन्होंने कह कर अपनी नाइट शिफ़्ट ही करवा रखी थी। दिन में वह ज़्यादा समय घर का काम करती हुई बितातीं और थोड़ा बहुत समय प्रार्थना में। रोज़री लेकर प्रार्थना करतीं। अब महीने में एकाध संडे को ही चर्च जातीं। मुझसे कभी भूल कर भी नहीं कहतीं कि तुम भी साथ चलो। भाई के यहाँ से मेरी वापसी के बाद वह क्रिसमस में भी चर्च नहीं गईं। सर्दी का बहाना करके घर पर ही रहीं।

एक दिन मैंने उन्हें अचानक ही देखा कि वह प्रभु यीशु से प्रार्थना करती हुई क्षमा कर दिए जाने की भीख माँग रही हैं। वह चर्च में कन्फ़ेशन करने के बजाय घर में ही कन्फ़ेशन कर रही थीं। प्रभु यीशु से क्षमा कर देने की कृपा करने के लिए गिड़गिड़ा रही थीं। गिड़गिड़ाते हुए कह रही थीं कि, "मुझसे बहुत बड़ा पाप हुआ है। मैं पापी हूँ। प्रभु तुम तो अपनी शरण में आए बड़े-बड़े पापियों को भी क्षमा कर देते हो, मुझे भी कर दो। उनका यह कन्फ़ेशन मैंने उस दिन संयोगवश ही देख लिया था।

वह मुझे सोया हुआ समझ कर प्रेयर कर रही थीं। उन्हें इस बात का एहसास नहीं था कि वह कुछ ज़्यादा ही तेज़ बोल रही हैं। उनकी आवाज़ मुझ तक पहुँच रही है। बहुत बड़े पाप की बात सुनकर मैं शॉक्ड रह गई। समझ नहीं पा रही थी कि उन्होंने कौन-सा पाप किया है? उस दिन मैं फिर अपने को रोक नहीं सकी।