भाग -2
सकीना के दिमाग़ में एक बार यह बात भी आई कि गाड़ी से चला था, कहीं रास्ते में कोई अनहोनी तो नहीं हुई, किसी ने उसे नुक़्सान पहुँचाया और मुझे यहाँ लाकर फेंक दिया। फिर सोचा कि नहीं, ऐसा कैसे होगा, कोई अगर उसे नुक़्सान पहुँचाता, तो मुझे भी पहुँचाता, मुझे इतनी दूर लाकर फेंकने की ज़हमत क्यों उठाता। कोई अनहोनी होती तो चोट-चपेट मुझे भी तो आती न।
वह यह सोचकर ही फफक कर रो पड़ी कि उसके शौहर का बनवाया उसका इतना बड़ा घर, लेकिन बाहर सड़क पर किसी ने उसे ग़रीब भिखारी आदि समझकर दया करके उस पर एक कंबल डाल दिया कि रात में ठंड से ठिठुर कर मौत न हो जाए। अल्लाह ता'ला उसका भला करें, उसने कंबल नहीं डाला होता तो अब-तक मैं शायद ही बचती।
बचती तो मैं शायद तब भी नहीं यदि यह लोग बाहर ठण्ड से बचा कर अंदर न ले आते, दवा-दारू न करते। शुक्र है अल्लाह ता'ला को कि शायद उसी ने मेरी मदद के लिए फ़रिश्ते के रूप में इन्हीं लोगों को भेज दिया। इन्हें भी जितना शुक्रिया कहूँ कम ही है।
वह रोती रही। उसे इस बात का एहसास नहीं रहा कि उसके रोने की आवाज़ हाल से बाहर भी जा रही है। कुछ ही देर में एक सेविका आकर उसे समझाने-बुझाने लगी। उसने कहा, ‘ईश्वर पर भरोसा रखिए, सब ठीक हो जाएगा।’
वह उसे बहुत समझा-बुझाकर कर, शांत कराकर चली गई। लेकिन वह उसके मस्तिष्क में उठ रहे तूफ़ान को शांत नहीं करा पाई। हालाँकि वह उसकी मनोदशा को बहुत अच्छी तरह समझ रही थी।
सकीना यह सोचकर भी परेशान हो रही थी कि साध्वी जिन्हें सभी गुरु माँ कह रही हैं, ने फ़ुर्सत में आकर फिर से बात करने के लिए कहा है। ज़ाहिर है वह सारा क़िस्सा जानने की कोशिश करेंगी। उन्हें मैं क्या बताऊँगी?
इसी समय सकीना के कानों में प्रवचन की आवाज़ पड़ने लगी। उसने आवाज़ तुरंत पहचान ली। गुरु माँ ही प्रवचन दे रही थीं।
उसे उनकी आवाज़ गुलाब के शरबत सी मीठी और मधुर लग रही थी। उनकी बातों को सुनकर उसे यह अच्छी तरह समझ में आ गया कि वह ‘रामायण’ की ही कोई बात कर रही हैं।
उसे जल्दी ही याद आ गया तीस-बत्तीस साल पहले टेलीविज़न पर देखा गया ‘रामायण’ सीरियल। आज भी यह सीरियल उसके दिलो-दिमाग़ से पूरी तरह से धूमिल नहीं हुआ है। उसे यह भी याद आया कि यही सबसे छोटा बेटा जुनैद होने वाला था। तबीयत उसकी बहुत ख़राब रहती थी।
डॉक्टर ने आराम करने के लिए कहा था। ख़ून की बहुत ज़्यादा कमी बताई थी। बहुत नाराज़ होते हुए कहा था, ‘इतनी जल्दी-जल्दी, इतने ज़्यादा बच्चे पैदा करके अपना जीवन क्यों ख़त्म करने पर तुली हुई हो। यह तुम्हारा सातवाँ बच्चा है। शरीर में ख़ून नाम की चीज़ नहीं है, कैसे बचाओगी ख़ुद की और अपने होने वाले बच्चे की जान।’ फिर बग़ल में खड़े शौहर से कहा था, ‘इसके बाद अगला बच्चा करने की सोचने से पहले, यह ध्यान रखिएगा कि अपनी बेगम से निश्चित ही हाथ धो बैठेंगे।’
उनकी इस बात से नाराज़ शौहर ने घर पहुँच कर कहा भी कि ‘तुम तो एक बार भी बोली नहीं। सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर ही डाल दी, जैसे कि सिर्फ़ मेरे कहने पर ही तुम यह बच्चे पैदा कर रही हो, तुम्हारी तो मर्ज़ी होती नहीं, एक बार भी नहीं बोल पाई कि मेरी भी रज़ामंदी होती है।’
तब उसने कहा था, ‘नाराज़ मत हो, वह हिंदू है, डॉक्टर है। उसे क्या मालूम कि अल्लाह ता'ला की नैमत क्या होती है।’ लेकिन उसी समय दोनों ने डॉक्टर की बात को सही कहते हुए और बच्चे पैदा न करना भी तय किया था। मगर जुनैद के पैदा होने के कुछ महीने बाद ही शौहर और बच्चे पैदा करने पर ज़ोर देने लगा था।
तब वह ग़ुस्सा होकर मना करती हुई बोली थी, ‘शाहजहाँ ने जैसे चौदह बच्चे पैदा कर-कर के अपनी बेगम मुमताज़ को मार डाला था, फिर हवस पूरी करने के लिए अपनी ही बेटी जहाँआरा से निकाह कर लिया था, क्या अब मुझसे ऊब कर, तुम भी उसी तरह मुझे बच्चे पैदा कर कर के मारना चाहते हो।’
उस समय उसके मुँह से यह बात कई दिन से तकलीफ़ों से परेशान होने के कारण निकल गई थी। जो उसने कुछ ही दिन पहले किसी से सुना था। दोनों में कई दिन तक बड़ी बहसबाज़ी हुई थी, लेकिन वह टस से मस नहीं हुई थी। तब जाकर बच्चों की गिनती सात पर रुक पाई थी।
उस समय यह सीरियल इतना प्रसिद्धि पा चुका था कि इतवार के दिन जब यह सुबह-सुबह आता था तो सड़कों पर मानो कर्फ़्यू सा लग जाता था। एक घंटे तक हर तरफ़ सन्नाटा ही सन्नाटा पसरा रहता था। जिसके घर में टेलीविज़न होता था, उसका घर पड़ोसियों से खचाखच भर जाता था। क्योंकि तब कुछ ही लोगों के पास टेलीविज़न हुआ करता था।
उसके बड़े वाले बच्चे भी मोहल्ले में दस-बारह घर छोड़कर विश्वकर्मा जी के घर देखने जाते थे। जो मोहल्ले का सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा परिवार था। उसका भी मन यह सीरियल देखने के लिए बहुत मचलता था, कि ऐसा क्या है कि पूरी दुनिया ही देखने के लिए टूट पड़ती है।
तब उसने एक तरह से ज़िद कर ली थी शौहर से टीवी लाने के लिए कि बच्चे दूसरे के यहाँ जाकर देखते हैं, अब एक टीवी जैसे भी हो ले ही लो। तब पैसों की तंगी के चलते वह किश्तों पर टीवी ले आए थे। जिस दिन आया था, उस दिन घर में जश्न जैसा माहौल बन गया था।
उसे याद आ रहा था कि पैसों की तंगी से पार पाने के लिए शौहर ने ऐसे काम भी किए जिसके चलते कई बार जेल भी गए। जान का ख़तरा अलग बना रहता था। पैसा कमाने के लिए वह यह ख़तरा बराबर उठाते भी रहे। और पैसा कमाया भी ख़ूब।
लेकिन अब यह सब किस काम का। घर के कूड़े की तरह मैं सड़क पर फेंक दी गई। जब पैसे आए तो उनके खाने-पीने के शौक़ भी बदल गए और आख़िर जानलेवा साबित हुए। अल्लाह ता'ला की बड़ी रहमत हुई कि इंतकाल से पहले वह तीनों लड़कियों का निकाह कर गए थे। नहीं तो इन लड़कों के जो काम धंधे, मिज़ाज़ हैं, ये लड़िकयों का निकाह नहीं, उन्हें बेच ज़रूर डालते। या फिर शाहजहाँ बन जाते।
सकीना को बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था चारों लड़कों पर कि जाहिलों ने ऐसे-ऐसे काम किए, आए दिन इतने झगड़े-फ़साद किए कि लड़कियों, दामादों, सारे रिश्तेदारों ने रिश्ते ही ख़त्म कर लिए।
उसे बड़ी याद आ रही थी अपनी लड़कियों की। उसका मन उनसे बात करने के लिए तड़प रहा था। सालों बीत गए थे उन सब को देखे हुए, उनसे बात किए हुए। मोबाइल पर जो कभी-कभार बात कर लिया करती थी, वह भी उन सब को बर्दाश्त नहीं होता था, बड़ी चालाकी से इन सब के नंबर ही मोबाइल से मिटा दिए थे।
वह सोच रही थी कि अब पता नहीं ज़िन्दगी में कभी उन सब को देख भी पाऊँगी, कभी उनकी आवाज़ भी सुन पाऊँगी, नातियों, पोतियों को देख पाऊँगी। घर पर होती तो कभी कोई रास्ता निकालती, उन सब को बुलाती या किसी तरह ख़ुद ही चली जाती। मगर इन नामुरादों ने तो घर ही से निकाल फेंका है।
उसके कानों में साध्वी गुरु माँ के प्रवचन के शब्द बराबर पड़ रहे थे। वह महाराजा दशरथ के पुत्र भगवान राम के वन-गमन का वाक़या बता रही थीं। कि किस प्रकार महाराजा दशरथ ने अपनी रानी कैकेयी को कभी दिए गए अपने एक वचन को पूरा करने के लिए अपने प्राण प्रिय बड़े पुत्र भगवान राम को चौदह वर्षों का वनवास देने का निर्णय सुनाया।
और परम मातृ-पितृ भक्त भगवान राम, पिता अपना वचन पूरा कर सकें, इस हेतु वन जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। एक-दूसरे को अगाध प्यार करने वाले भाइयों में से उनके एक छोटे भाई भरत ने उन्हें रोकने का प्रयास किया, मगर उन्होंने पिता का वचन पूरा हो इसलिए इनकार कर दिया और अपनी धर्म-पत्नी सीता के साथ वन की ओर चल दिए। भरत ने लाख प्रयास किए, मनाते रहे लेकिन वे नहीं माने। दूसरे छोटे भाई लक्ष्मण राम के लाख मना करने के बावजूद उन्हीं के साथ वन को चल दिए। राजा दशरथ ने पुत्र के विछोह में अपने प्राण त्याग दिए।
गुरु माँ कहे जा रही थीं कि “राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग कर भी कुल की मर्यादा बनाए रखी कि ‘रघुकुल रीति सदा चलि आई। प्रान जायं पर बचन न जाई॥’ राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न ने माता-पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करने, भाइयों में अटूट परस्पर प्यार को निभाते हुए समाज में उदाहरण प्रस्तुत किया कि किस प्रकार माँ-बाप का आदर सम्मान करना चाहिए, भाइयों में प्यार होना चाहिए। शिष्टाचार, सम्मान का ऐसा अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया जो दुनिया में आज भी कहीं और देखने को नहीं मिलता।”