दो बूँद आँसू - भाग 4 (अंतिम भाग) Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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दो बूँद आँसू - भाग 4 (अंतिम भाग)

भाग -4

क्या उन्हें यह बताऊँगी कि शौहर ने अपनी जिन कमज़र्फ़ औलादों को मज़हबी तालीम देने के लिए, अपने जिस सबसे क़रीबी हाफ़िज़ को लगाया था, उसकी पहले दिन से ही मुझ पर ग़लत नज़र थी। मुक़द्दर ने भी उसी का साथ दिया और दूसरे महीने में ही शौहर किसी लड़की को बेचने के इल्ज़ाम में जेल चले गए। 

वह उन्हें छुड़ाने का झाँसा देकर मेरी अस्मत लूटने लगा। कुछ महीने बाद वह ज़मानत पर छूट कर आ गए, लेकिन उसके बाद भी अस्मत लूटते हुए मेरी जो बहुत सी वीडियो बना ली थी, मुझे वही दिखा-दिखा कर डराता रहा, अस्मत लूटता रहा, मेरा मुँह बंद किए रहा कि वो शौहर से कहेगा कि मैं उनकी ग़ैर-हाज़िरी में उस पर ज़ोर डाल कर नाजायज़ रिश्ते बनाती रही। 

क्या उन्हें यह बताऊँगी कि जब-तक शौहर ज़िंदा थे, तब-तक सात औलादों में से जो दो औलादें उस हाफ़िज़ से थीं, उन्हें देखते ही मेरी रूह काँप उठती थी कि ख़ुदा-न-ख़ास्ता कभी जो शौहर का ध्यान इस ओर चला गया और पूछ लिया कि इन दोनों के चेहरे हाफ़िज़ से क्यों लगते हैं, तब उन्हें क्या बताऊँगी, कौन-कौन से झूठ बोलूँगी? कोई अजूबा नहीं होता यदि सच जानकर वह उसकी दोनों औलादों और मेरा सिर तन से जुदा कर देते, हाफ़िज़ से शायद वह कुछ न कहते क्योंकि न जाने क्यों वह उससे घबराते थे। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि यही हाफ़िज़ मुझे यह समझाता था कि हिंदू मुशरिक होते हैं, काफ़िर होते हैं, काफ़िरों का मौक़ा मिलते ही क़त्ल करना हर मुसलमान का फ़र्ज़ होता है। इनसे कोई रिश्ता, मिलना-जुलना बिल्कुल नहीं रखो। इनकी दुकानों से कोई सामान नहीं ख़रीदो। 

क्या उनको ये बताऊँगी कि वह हमेशा इस बात के लिए मुझ पर दबाव डालता था कि मैं हिंदू लड़कियों औरतों को उसके चंगुल में फँसाने में मदद करूँ। और मैंने कोशिश की भी थी, एक औरत इसके चलते उसके चंगुल में फँसते-फँसते रह गई थी। 

उसी ने मेरे, पूरे परिवार के दिमाग़ में ठूँस-ठूँस कर यह बात भर दी थी कि हिंदुओं, सिक्खों, बौद्धों, क्रिश्चियनों के पूजा-पाठ का एक भी शब्द हमारे कानों में नहीं पड़ना चाहिए। जैसे ही सुनाई दे कानों में उँगली कर लो। इसीलिए जब से यहाँ आई हूँ, हाथ बार-बार कान की तरफ़ चले जाते हैं। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि उसी के कहने समझाने पर शौहर ने अच्छा-ख़ासा बड़ा सा मकान बेचकर उस मोहल्ले में नया मकान लिया, जहाँ क़रीब-क़रीब सभी अपनी ही जमात के लोग थे। जहाँ पहले वाले मोहल्ले की अमन-चैन की जगह आए दिन झगड़ा-फ़साद होता रहता था। 

उन्हें क्या यह भी बताऊँगी कि वह लड़कों को मुशरिकों के ख़िलाफ़ हमेशा जिहाद करते रहने के लिए भड़काता रहता था, उनसे कहता रहता था कि मुशरिकों को जहाँ भी पाओ, उन्हें जहाँ भी जितना भी नुक़्सान पहुँचा पाओ, उसे हमेशा पहुँचाने की कोशिश करते रहो। 

हिन्दू, सिक्ख, क्रिश्चियन बौद्ध इनकी महिलाओं से अपनी असलियत छिपा कर इश्क़ फ़रमाओ, जब वो चंगुल में आ जाएँ तो उनसे निकाह करो, ज़्यादा बच्चे पैदा करो फिर उसे तलाक़ देकर दूसरी से करो। यह एक जिहाद है, अल्लाह ता'ला ख़ुश होंगे, जन्नत बख़्शेंगे, वहाँ तुम्हारे लिए बहत्तर हूरें होगी। इस बात की परवाह ही नहीं करो कि वो इसे लव-जिहाद कर कह रहे हैं। तुम अपने काम में लगे रहो, उन्हें कोई तवज्जोह ही नहीं दो। 

उसी के तरह-तरह से बार-बार भड़काने पर लड़के आए दिन किसी ना किसी फ़साद में पुलिस के हत्थे चढ़ते रहते थे। लड़कों से न जाने कितने पैसे मज़हब के नाम पर लूट-लूट कर अपना कितना बड़ा मकान बना लिया था। 

उन्हें क्या यह बताऊँगी कि मदरसों में थोड़ी-बहुत पढ़ी-लिखी एक तरह से अनपढ़ों की जमात मेरे घर के आपसी लड़ाई-झगड़े का उसने ख़ूब फ़ायदा उठाया, पैसा भी लूटा, औरतों की आबरू भी। लड़कों की नशे और लड़ाकू-झगड़ालू होने की आदत का इस्तेमाल कर पहले उन्हें भड़का कर उनकी बीवियों को तलाक़ दिलवा देता था, फिर समझाने-बुझाने का नाटक करके उनकी बीवियों का हलाला भी करता, उसके एवज़ में भी ख़ूब पैसे खींचता था। उनको क्या यह बताऊँगी कि मेरा घर उसकी कमाई और अय्याशी का अड्डा था। 

दो लड़कों की बीवियाँ उससे अपनी अस्मत केवल इसलिए बचा पाईं, क्योंकि उन दोनों ने अपने शौहरों से साफ़-साफ़ कह दिया था कि अगर तुमने तलाक़ दिया तो दोबारा तुम्हारे साथ नहीं आऊँगी, हलाला की तो बात ही भूल जाओ, मायके में नहीं रखा गया तो किसी भिखारी के साथ चली जाऊँगी, उसके साथ घर बसा लूँगी पर तुम्हारे पास लौटने की सोचूँगी भी नहीं। उसके दिमाग़ में उधेड़-बुन का बवंडर गुरु माँ के आने तक चलता रहा। 

साध्वी गुरु माँ ने उससे बहुत ही प्यार स्नेह से बातें की, जानना चाहा कि वह कौन है? कहाँ की रहने वाली है? घर के लोगों का कोई संपर्क सूत्र है, जिससे उन्हें संपर्क किया जा सके, और उसे घर वापस भेजा जा सके। यदि घर के लोगों से वह झगड़ कर आई है या उन लोगों ने उसे निकाला है, तो सभी को समझा-बुझाकर उसे घर वापस भेजा जाए। लेकिन बड़े आश्चर्य-जनक ढंग से उसे कुछ भी याद नहीं आ रहा था। अपना घर, घर के लोग, मोहल्ले, शहर का नाम या फिर कोई फोन नंबर। 

तो गुरु माँ ने उसे समझाते हुए कहा कि ‘आपको परेशान होने की कोई भी ज़रूरत नहीं है, जब-तक घर का पता नहीं चलता है, घर के लोग ले जाने के लिए तैयार नहीं होते हैं, तब-तक आप इसी आश्रम में पूर्ण निश्चिंतता के साथ रहिए।’

और फिर देखते-देखते दिन बीतते गए। सकीना आश्रम का एक हिस्सा बनती गई। सभी आश्रम-वासियों के साथ ऐसे घुल-मिल गई जैसे नदी में बारिश की बूँदें। पहले दिन के बाद फिर कभी गुरु माँ या किसी ने भी उससे कोई पूछ-ताछ नहीं की। 

लेकिन उसे उसके घर वाले मिल जाएँ इसके लिए प्रयास ज़रूर किए। सोशल-मीडिया पर उसका विवरण सर्कुलेट किया, कि उसके परिवार, रिश्तेदार, कोई देखे तो आश्रम में संपर्क करे। इसके लिए जब उसे बता कर, उसकी फोटो ली गई, तो सकीना ने बहुत ही दुखी मन से सोचा कि जिन कमज़र्फ़ औलादों ने छुटकारा पाने के लिए ज़हर देकर रातोंरात चार सौ किलोमीटर दूर लाकर फेंक दिया, वह दुबारा क्यों ले जाएँगे? वह तो देख कर भी अनदेखा कर देंगे। 

थाने पर भी उसकी सूचना दी गई। लेकिन सकीना की आशंका ही सच निकली। दिन महीने साल करते-करते कई साल निकल गए। कहीं से कोई फोन तक नहीं आया। सकीना ने आश्रम को ही अपना घर मान लिया। उसने कई बार ऐसा महसूस किया कि जो सुकून उसे आश्रम में मिल रहा है, वैसा जीवन में पहले कभी नहीं मिला। 

निकाह हुआ, एक-एक कर सात बच्चे हुए, चालीस पोती-पोते, नाती-नातिन हुए, इतना लंबा जीवन निकल गया लेकिन ऐसा सुकून कभी नसीब ही नहीं हुआ। वह शुरू के कुछ दिनों तक जहाँ घर परिवार के बारे में सोच-सोच कर आँसू बहाया करती थी, बाद में उस घर को ही भूल गई। 

गुरु माँ के प्रवचन सुन-सुन कर अपने सारे ग़म भूलती चली गई। पहले जहाँ उनकी बातों को क़िस्सा कहानी समझकर सुनती थी, वहीं बाद में जैसे-जैसे बातें समझ में आती गईं, उसे जीवन क्या है? समझ में आता गया और उसके मन में यह बात बार-बार उठती कि उसका जीवन तो यूँ ही जाया हो गया। भजन-कीर्तन में शामिल होकर उसे लगता जैसे उसके जीवन में भी बहार आ गई है। 

प्रवचन में एक दिन जीवन की नश्वरता, क्षण-भंगुरता के बारे में सुनने के बाद उसने गुरु माँ से अपनी अंतिम इच्छा बताई कि उसकी मृत्यु होने पर उसका अंतिम संस्कार कैसे किया जाए। उसकी इच्छा को सुनकर गुरु माँ ने स्नेह-पूर्वक उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, “ईश्वर ने मनुष्य को जीवन जीने और स्वयं द्वारा उसके लिए निर्धारित किए गए कर्त्तव्यों का निर्वहन करने के लिए दिया है। 

“जितना जीवन उसने हमें दिया है, उसके लिए प्रसन्नता-पूर्वक हमें उसको धन्यवाद देते हुए, सदैव उसको स्मरण में रखते हुए, कर्त्तव्यों का निर्वहन करते रहना चाहिए। अखिल ब्रह्मांड का वही एकमात्र स्वामी है, उसी की इच्छा मात्र से सब-कुछ हो रहा है, होता रहेगा, हम सब तो निमित्त मात्र हैं।” 

और जब कुछ बरसों बाद सकीना ने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो गुरु माँ ने उसकी इच्छानुसार उसका अंतिम संस्कार अपनी ही देख रेख में संपन्न करवाया। पुष्पांजलि अर्पित की। 

उसके लिए उनके अंतिम वाक्य थे, “सकीना ईश्वर तुम्हें सद्गति प्रदान करें। तुम सदैव हमारी स्मृति-पटल पर अंकित रहोगी।” 

निश्चित ही सकीना की रूह यह देख कर, इस हृदय-विदारक पीड़ा से बिलख पड़ी होगी कि जिन्हें काफ़िर कह कर वह नफ़रत करती थी, वो अंतिम रुख़सती पर नम आँखों से फूलों की वर्षा कर रहे हैं, और जिन सात को पैदा किया, चालीस नाती-पोतों में से इस आख़िरी पल में कोई भी नहीं, जो उसके लिए दो बूँद आँसू भी गिराता। 

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