वो मस्ताना बादल Pradeep Shrivastava द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वो मस्ताना बादल

प्रदीप श्रीवास्तव

कोविड-१९ महामारी से दुनिया में लाखों की संख्या में हो रही मौतें भी उन्हें नहीं डरा पाईं थीं। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी-टेक थे। नौकरी में रुचि नहीं थी। आर्ट्स कॉलेज लखनऊ में ऊँची पढ़ाई की थी। स्वयं को स्त्री सौंदर्य, प्रकृति सौंदर्य का पारखी और क़द्रदान मानते थे। इस बात से उनको समझने वाले सहमत थे। 

मॉडलों की प्रोफ़ाइल बहुत अच्छी बनाते थे। कई नवांगतुक मॉडल उनकी बनाई प्रोफ़ाइल से सफलता के रास्ते पर बढ़ चली थीं। कई अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में आ चुकी थीं। मॉडल्स निःसंकोच सहजता से उनसे न्यूड फोटो शूट भी करवाती थीं। 

उन्होंने ग्रामीण महिलाओं की कई बहुत ही सुंदर न्यूड, सेमी न्यूड पेंटिंग्स भी बनाई थीं। पेंटिंग्स की प्रदर्शनी लगाने की मित्रों की सलाह मुस्कुरा कर भुला देते थे। पचीस वर्षों से एक साप्ताहिक अख़बार भी निकालते आ रहे थे। दो आम की बाग़ों, बीस बीघा खेतों में कुशलता-पूर्वक कृषि-कार्य भी करवाते आ रहे थे। सदैव असंतुष्ट पिता कहते, दो नहीं तुम दस नावों की सवारी के चलते जीवन बर्बाद कर रहे हो। 

हर किसी की मदद करना उनका स्वभाव था। सामान्यतः महिलाओं से घिरे रहते थे। पहले दिन से ही दाम्पत्य जीवन से असंतुष्ट ही चले आ रहे थे। एक नवबाला को भीषण संकट की घड़ी में सक्षम बनने लायक़ सहारा दिया। जल्दी ही वह अपने पूरे परिवार को सँभालने लगी। साथ ही उनके संकोच के बावजूद, उनके बहुत समीप होती गई। 

इतनी कि बेटी की उम्र की होकर, पत्नी जैसा स्थान पा लिया। यह रिश्ता उनके पूरे परिवार में तनाव का सबसे बड़ा और स्थायी कारण बन गया। उनकी पत्नि क्रोध में गाहे-बगाहे उनकी मौत की कामना कर डालती। उनके मन में तनाव का ज्वालामुखी फूटता रहता था। लेकिन चेहरे पर हँसी-मज़ाक का निर्मल झरना झरता रहता था। 

मिलनसार, बातूनी इतने कि, कोविड-१९ से रोज़ ही हज़ारों की संख्या में अनवरत हो रही मौतों के बावजूद घूमना-फिरना, आना-जाना बंद नहीं कर पाए। मैंने घर पर बुज़ुर्ग माँ को ध्यान में रखते हुए किसी के भी आने-जाने को प्रतिबंधित कर रखा था। उनको भी मना कर दिया। फिर भी वह नाराज़ नहीं हुए। 

नवबाला ने भी उन्हें सोशल-डिस्टेंसिंग मेंटेन करते रहने के लिए कहा। बोली, इस बीमारी से ऐसे ही बचा जा सकता है। तो वह कहते, मैं कोविड-१९ से नहीं, सोशल डिस्टेंसिंग से मर जाऊँगा। कोविड-१९ से पीड़ित लोगों की मदद को दौड़ जाते थे। मॉस्क की अनिवार्यता को भी धता बताते रहते थे। 

दस सदस्यीय परिवार वाला उनका एक मित्र सपरिवार कोविड-१९ से संक्रमित हो गया। सभी होम आइसोलेसन में चले गए। उनके सभी रिस्तेदार कोसों दूर भाग गए। प्रशासन ने उनके घर के सामने बल्लियों से बैरिकेडिंग कर दी। किसी को कोई एक गिलास पानी भी देने योग्य नहीं रहा। 

पता चलते ही वह अपने इस मित्र, परिवार को खाना-पानी, नाश्ता देने जाने लगे। सातवें दिन परिवार के एक बुज़ुर्ग सदस्य को कोविड-१९ ने निगल लिया। उन्होंने अकेले ही उनका कोविड-१९ दिशा-निर्देशों का लापरवाही से पालन करते हुए, अंतिम संस्कार कर दिया। श्मशान घाट पर कोविड-१९ से मरे लोगों की अर्थियों की लंबी क़तार के चलते, उन्हें अठारह घंटे लग गए थे। वापस मित्र के घर जाकर बता दिया कि दाह-संस्कार हो गया है। बाक़ी संस्कार सब लोग ठीक होने के बाद कर देना। 

उनकी इस मित्र-सेवा का घर में भारी विरोध होने लगा। उन्हें बड़े भारी मकान के पिछले हिस्से की एकांत कोठरी में अकेले रहने को कह दिया गया। सभी उनकी छाया से भी दूर भागने लगे। उनकी छाया भी सभी को संक्रामक दिखने लगी। ऐसे विरोध की भी परवाह किये बिना, वह मित्र की मदद में लगे रहे। 

बीस घंटे की थकान से टूटते शरीर के बावजूद अगले दिन भोर में ही उठकर मित्र के लिए खाना बनाया। कई डिब्बों में लेकर उनके घर पहुँचे तो, उन्हें रोने की आवाज़ें सुनाई दीं। उनका संदेह सही निकला। परिवार के एक बुज़ुर्ग एवं युवा सदस्य को कोविड-१९ क्रूरता-पूर्वक अपने साथ खींच ले गया था।  

गली में सन्नाटा था। हर चौथा-पाँचवा मकान बल्लियों से घिरा कोविड-१९ मरीज़-धारी होने की गवाही दे रहा था। उन्हें श्मशान से भी ज़्यादा सन्नाटा गली में दिख रहा था। इक्का-दुक्का मकानों की छतों, बॉलकनी से झाँक कर अदृश्य होते चेहरे भी उनकी आँखें क़ैद कर रही थीं। 

उन्होंने बिना हिचक दोनों सदस्यों के संस्कार की ज़िम्मेदारी ले ली। बड़ी दौड़-धूप के बाद कई गुना ज़्यादा भुगतान करके दो शव वाहन ले आए। बुज़ुर्ग का वाहन आगे था। अंतिम यात्रा वह अकेले कर रहे थे। उनके पोते के साथ वो पीछे वाली गाड़ी में थे। उन्हें पीछे तीन शव वाहन और आते दिखे। पूरी गली में सन्नाटा पसरा हुआ था। 

ऐसे समय पर पत्थर-हृदय को भी दरका देने वाली करुण चीत्कार की आहट भी उन्हें नहीं सुनाई दी। श्मशान पर लकड़ियों की कमी भी उन्हें विचलित नहीं कर पाई। फोन पर परिवार से सहमति लेकर, इलेक्ट्रिक भट्टी में अंतिम संस्कार कर दिया। शेष क्रिया-कर्म एक बार फिर से टाल दिया गया। 

वह एक बार फिर श्मशान में दूर-दूर तक धू-धू कर जलती चिताओं, इलेक्ट्रिक भट्टिओं की चिमनियों से निकलते गाढ़े बादामी धुओं, अर्थियों की लम्बी क़तारों की हृदय-विदारक तस्वीर मन में ही उकेरते, कोठरी में अकेले पड़े हुए थे। बीच-बीच में कोने में रखी स्वनिर्मित यक्षिणी की मूर्ति देख लेते। उसकी आँखों में उन्हें आँसू से दीखते। नवबाला पहले ही झगड़ कर फोन काट चुकी थी। 

खाना बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। कुछ केले खा कर अपना काम चलाया। मित्र के परिवार के लिए खाने-पीने की व्यवस्था एक टिफ़िन सर्विस वाले की मदद से कर आए थे।  जिसका काम कोविड-१९ के चलते ठप्प हो गया था। वह दुगुना पैसा ले रहा था। फिर भी खाना पहुँचाने उन्हें ही जाना था। आगे अपना खाना भी उसी से लेने लगे। 

अख़बार समय से निकालते रहने की फेर में, सत्रह-अठारह घंटे काम कर रहे थे। हमेशा चहल-पहल से जीवंत रहने वाली नगर की हर गलियाँ उन्हें विरान लगतीं। कर्फ़्यू के बावजूद प्रेस-पास के चलते उन्हें कहीं भी जाना-आना सुगम था। उनकी गाड़ी पर आगे-पीछे प्रेस लिखा हुआ था। 

महामारी दिन पर दिन और भयावह होती जा रही थी। एक दिन वह मित्र के यहाँ नाश्ता पहुँचाने जा रहे थे, गली के चौथे मोड़ के बाद, तीसरे मकान के सामने पुलिस, एँबुलेंस को देख कर रुक गए। स्वभाव के अनुसार एक-एक जानकारी लेने लगे। 

चलते समय इंस्पेक्टर से बोले, यह चीनियों का जैविक युद्ध है। दुनिया तीसरा विश्व-युद्ध लड़ रही है। विश्व-विजेता बनने के लिए उसने साज़िशन कोरोना वायरस फैलवाया है, लेकिन उसका यह जैविक हथियार कितनों की भी जान ले ले, जीतेगी अंततः मानवता ही। उसने सौ साल पहले स्पेनिस फ़्लू से जीत कर यह पहले ही सिद्ध किया हुआ है। बिखरती दुनिया, बिखरते रिश्ते फिर जुड़ेंगे ही। 

इंस्पेक्टर ने एक हाथ ऊपर ईश्वर की तरफ़ उठाते हुए निराशा व्यक्त की। मॉस्क और फ़ेस शील्ड से ढँके, उसके चेहरे को वह ठीक से पढ़ नहीं पाए। वह स्वयं भी मॉस्क लगाए हुए थे।  लेकिन भयानक बदबू के कारण ज़्यादा समय वहाँ ठहर नहीं पाए। वह पीपीई किट पहने एँबुलेंस ड्राइवर से भी बात करना चाहते थे। 

उन्हें यह जानकर बहुत कष्ट हुआ कि, तनेजा दंपती कई दिन पहले कोविड-१९ के शिकार हो गए थे। बुज़ुर्ग दंपत्ति को कोई देखने वाला नहीं था। नश्वर शरीर स्वयं को निस्तारित करने की प्रक्रिया में, भीषण गंध से आस-पास के लोगों की नाक में दम किये था। 

उन्हें इंस्पेक्टर ने बताया कि, गंध से परेशान पड़ोसियों ने फोन किया था। दो बेटे इसी शहर में हैं। माँ-बाप की बीमारी की सूचना मिलने पर भी नहीं आए। डेथ की सूचना पर, फोन काट कर स्विच ऑफ़ कर दिया। 

उन्होंने गाड़ी आगे बढ़ाई, तभी सैनिटाइज़ेशन की गाड़ी कॉलोनी को सैनिटाइज़ करने आ पहुँची। उन्होंने तेज़ आवाज़ में कहा, मन को साफ़ करने वाला भी कोई सैनिटाइज़र ले आते। वह ऐसे बोले, जैसे गाड़ी में कोई और भी बैठा है। 

मित्र के घर के सामने पहुँचे तो स्वास्थ्य-विभाग के कर्मचारी परिवार को दवाओं का पैकेट पकड़ाते हुए मिले। उनके पास पहुँचकर बोले, चलो सरकार ने यह अच्छा किया कि, होम आइसोलेशन वालों को घर पर ही दवा दे रही है। कर्मचारी नहीं चाहते थे कि, वह उनके क़रीब पहुँचें। इसलिए बिना बोले फ़ुर्ती से अपना काम कर आगे बढ़ गए। 

उन्होंने राहत महसूस की, कि मित्र के परिवार में शेष बचे सात सदस्यों में से दो को छोड़कर बाक़ी की स्थिति में सुधार हो रहा है। दो को एडमिट करना ज़रूरी है। वह फिर आगे आए। शाम तक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। लेकिन किसी भी हॉस्पिटल में जगह नहीं मिली। 

प्राइवेट, सरकारी सभी ओवर-क्राउडेड मिले। फिर भी उनकी कोशिश अगले दिन भी तब-तक जारी रही, जब-तक कि शाम होते-होते दोनों सदस्य परलोक नहीं सिधार गए। उन्होंने स्वयं को बहुत हारा हुआ महसूस किया। 

उन दोनों सदस्यों, जो कि मित्र की पत्नी और भाई थे, का अंतिम संस्कार करके वह रात तीन बजे उनके घर पहुँचे। बाहर से ही सारी बातें बताने के लिए मोबाइल निकाला, तभी मित्र की कॉल आ गई। वह रो रहे थे। कुछ मिनट पहले एक और भाई की इह-लीला हार्ट-अटैक ने समाप्त कर दी थी। 

यह सुनते ही उन्हें अपनी भीषण थकान याद नहीं रही। मित्र को सांत्वना देते रहे। उनसे यह सुन कर वह सकते में आ गए कि परिवार के बचे सदस्यों की हालत, अब सुधर नहीं, बिगड़ रही है। सभी अब तेज़ बुख़ार से पस्त हैं। साँस लेने में मुश्किल हो रही है। 

उन्होंने डिसाइड किया कि अब किसी भी तरह जीवित बचे सदस्यों को एडमिट करके उनकी जीवन-लीला बचायेंगे। इसके लिए अपने संपर्कों के सभी तार उन्होंने फिर जोड़े। दो साँसद, मंत्री से भी। लेकिन सर्किट ठीक नहीं बैठा। 

मित्र की करुण रुलाई उन्हें पल-पल झकझोर रही थी। मदद के लिए कोई और मित्र बार-बार फोन करने पर भी आगे नहीं आया। आख़िर घर में पड़ी डेड-बॉडी को लेकर वह फिर शमशान पहुँचे। हॉस्पिटल की तरह श्मशान भी परम्पराओं के विपरीत चौबीस घंटे सक्रिय थे। पैसे के दम पर चार घंटे बाद ही मित्र के घर की ओर चले। 

मन में आशंकाओं की आँधी के बीच सोच रहे थे कि, शेष बचे सदस्य बचे रहें। जैसे भी हो, ईश्वर उन्हें सुरक्षित रखें। लेकिन फिर निराश हुए। घर पहुँचने पर मित्र ने बताया कि, अब चारों की हालत निराश कर रही है। 

मुझे लग रहा है कि, अब कुछ घंटों में ही, मेरा घर सदस्य शून्य हो जाएगा। मेरी अंतिम इच्छा है कि तुम अब इस घर के मालिक बनो। किसी एक कमरे में परिवार के सभी सदस्यों की फोटो लगा देना। 

मेरे किसी भी रिश्तेदार को घर की छाया के क़रीब भी ना आने देना। तुम विपत्ति में अपनी जान की परवाह किये बिना, रात-दिन मेरे परिवार को बचाने में लगे हो। इसलिए तुम्हीं हमारे हो। सब-कुछ तुम्हारे नाम लिख दिया है। कई सादे पन्नों पर साइन कर के अँगूठा भी लगा दिया है। अपनी बातों का विडियो भी बना कर मेल कर दिया है। क़ानूनी कार्रवाई पूरी करने के लिए काम आएँगे। 

उन्होंने उसे समझाते हुए ऐसा ना सोचने के लिए कहा। एक बार फिर पूरा ज़ोर लगाया, मीडिया से लेकर राजनीति तक, लेकिन अंततः पैसे का ज़ोर काम आ गया। मरीज़ों के बोझ तले दबे एक हॉस्पिटल में जगह मिली। एक बेड पर दो-दो मरीज़, ऐसा दृश्य वह पहले ही देख-सुन रहे थे। 

हॉस्पिटल में उन्होंने ऑन-लाइन दस लाख पेमेंट किया। पेमेंट करते हुए बुदबुदाए, गवर्नमेंट ने यह सिस्टम न डिवेलप किया होता तो, हालत और बदतर होती। इन चारों को एडमिट ही न करा पाता। 

मगर उनकी आँखों से तब पहली बार आँसू बह चले थे, जब अगले दिन सूर्यास्त के साथ ही उनका मित्र अकेला रह गया। शेष तीन सदस्यों ने विदा ले ली। उन्होंने मित्र को सूचना नहीं दी। उन लोगों को भोर चार बजे तक अंतिम विदाई दे दी। श्मशान की भयावह स्थितिओं, जलते मांस-मज्जा की दुर्गंध में भी, उनकी आँखें तपती रेत सी शुष्क थीं। 

अपनी अथक मेहनत, पानी सा पैसा बहा कर, परिवार में एकमात्र बचे सदस्य अपने मित्र को, कोविड-१९ के जबड़ों से खींच लाए। 

तीन हफ़्ते उन्होंने, हॉस्पिटल के बाहर अपनी कार में ही बिताये। घर बस तैयार होने जाते थे। इस दौरान उन्होंने अख़बार के लिए उस डॉक्टर पर एक स्टोरी भी तैयार की, जो उन्हीं की तरह हॉस्पिटल पार्किंग में खड़ी, अपनी कार में दो महीने से रह रहे थे। 

मरीज़ों की चिकित्सा बाधित न हो, इसलिए घर नहीं जा रहे थे। चालीस-चालीस घंटे पीपीई किट पहने मरीज़ देख रहे थे। इससे उनकी त्वचा अजीब सी सफ़ेद-सफ़ेद हो रही थी।   

वीडियो कॉल पर घरवालों से हाय-हेलो कर लेते थे। उन्होंने उनसे कहा, कम से कम एकाध घंटे तो घर हो ही आया करिए। उसने कहा, परिवार को ख़तरे में नहीं डाल सकता। बेटा एक साल का, और बेटी छह साल की है। मिसेज इस उम्र में ही डायबिटीज़, ब्लड-प्रेशर की पेशेंट है। उसके लिए ख़तरा अन्य लोगों से बहुत ज़्यादा है। वह हिम्मत से काम ले रही है। 

मुझे प्रेरित करती हुई कहती है, परिवार की तरह पेशेंट की भी केयर कीजिए। इस समय सभी की आशाएँ आप डॉक्टर्स ही हैं। उसका मॉरल सपोर्ट ही मुझे यहाँ एक्टिव किए रहता है। लॉक-डाउन के कारण वह अपने पेरेंट्स की एक साथ डेथ होने पर भी नहीं जा सकी। 

मैंने सोचा टूट जाएगी, खूब रोयेगी-धोएगी, लेकिन उसने धैर्य से काम लिया। वीडियो कॉल से ही पेरेंट्स के अंतिम दर्शन किए। पूजा करते समय भगवान से रोज़ मेरी, सब की सुरक्षा की प्रार्थना करती है। 

उन्होंने डॉक्टर से कहा, सही मायने में आप दोनों मानवता की रक्षा के लिए बहुत बड़ा युद्ध लड़ रहे हैं। 

डॉक्टर से उन्होंने परिवार की एक ग्रुप फोटो माँग ली, स्टोरी के साथ अख़बार में लगाने के लिए। 

मित्र को घर पहुँचाने से पहले, पूरे घर को म्युनिस्पैलिटी वालों से सेनिटाइज़ करवा दिया। पूरे परिवार को खो देने से मित्र डिप्रेशन में ना चला जाए, ऐसा सोच कर उनके घर में ही कोविड-१९ पीड़ितों, परिजन के लिए, खाना बनवाने लगे। उनको व्यस्त रखने के लिए, खाना ठीक से बने, यह ज़िम्मेदारी उन्हें ही दे दी। 

स्वयं बनाने वालों की व्यवस्था से लेकर, सामान, खाना लाने-देने जाने में जुटे रहे। दोनों टाइम क़रीब दो सौ लोगों को खाना देते रहे। इससे अख़बार का काम बाधित हुआ तो, उसका प्रकाशन स्थगित कर दिया। 

उनके जैसे लोगों, मेडिकल स्टॉफ़, गवर्नमेंट की अनवरत अथक मेहनत से कोविड-१९ साल बीतते-बीतते, क़रीब पौने दो लाख लोगों की जान लेकर नियंत्रण में आ गया। लेकिन अर्थ-व्यवस्था चरमरा गई। ग्रोथ रेट माइनस में हो गई। करोड़ों लोग बेरोज़गार हो गए। अनगिनत घर उजड़ गए। 

चरणों में लॉक-डाऊन अनलॉक होने लगा। उन्होंने अपना अख़बार फिर निकालना शुरू कर दिया। अस्त-व्यस्त हो चुकी खेती-बाड़ी फिर रास्ते पर लाने में जुट गए। मित्र के बंद हुए बीस सदस्यीय स्टॉफ़ वाले रेस्टोरेंट को खुलवाने में मदद की। सरकारी स्कीम के तहत लोन दिलवा दिया। 

पेपर के सम्पादकीय में सरकार की कोविड-१९ प्रबंधन की प्रशंसा की। लिखा यदि सरकार ने उदारमना होकर अस्सी करोड़ लोगों को नौ महीने तक मुफ़्त अनाज ना दिया होता तो, लाख नहीं, करोड़ लोग भूख से मर जाते। 

अपनी चिर-युवा नवबाला को भी मनाया। वह नाराज़ थी कि, लॉक-डाऊन में वह भयावह स्थितिओं में, अनजान लोगों की मदद के लिए, अपनी जान ख़तरे में क्यों डालते रहे। लॉक-डाऊन का इतना लंबा समय, उसके साथ घर में सुरक्षित रह कर क्यों नहीं बिताया। ऐसा अवसर अब कहाँ मिलेगा। 

उन्होंने ठिठोली करते हुए न्यूज़ की दो कटिंग उसे व्हाट्सएप पर भेज दीं। पहली डब्ल्यू.एच.ओ. की थी कि, दुनिया में लॉक-डाऊन के चलते पिचहत्तर से अस्सी लाख अनचाहे गर्भ हो सकते हैं। दूसरी कंडोम की डिमांड कई गुना बढ़ जाने की थी। उनका यह मज़ाक नवबाला को और ज़्यादा क्रोधित कर गई। 

उसने भी मैसेज कर दिया कि कब से तुम्हें गर्भ, कंडोम की चिंता होने लगी। ऐसी सारी बातों को सँभालने का ठेका तो तुमने शुरू से ही मुझे दे रखा है। मैं अकेले ही ठेका पूरा भी करती आ रही हूँ। फिर ऐसी बातों के पीछे क्यों छिप रहे हैं। मैं अपने हिस्से के समय, अधिकार, सुख के साथ तुम्हें खिलवाड़ नहीं करने दँगी। कल छुट्टी का पूरा दिन मेरे साथ बिताओगे। 

उनके घर पर महाभारत का कोई ना कोई फ्रंट रोज़ खुलता रहा। लेकिन वह नवबाला के अधिकारों में कटौती करने को तैयार नहीं हुए। नवबाला को वह प्रकृति की अनुपम रचनाओं में भी अनुपम मानते थे। एक कला मनीषी की तरह उसे अपलक देखते रहने का अवसर ढूँढ़ते थे। 

उनके दो मोबाइल की मेमोरी नवबाला की हज़ारों फोटुओं से भरी रहती थी। मेरी इस बात को हँसी में उड़ा देते कि, ऐसी फोटो आपके बच्चों, किसी और ने देख ली तो बड़ी समस्या हो सकती है। 

वह नवबाला की कई ख़ूबसूरत पेंटिंग बनाना चाहते थे। लेकिन उनकी कार्य-शैली इसके लिए उन्हें समय नहीं देती थी, तो उसकी फोटो ही खींचते रहते थे। नवबाला भी अपनी तमाम तस्वीरें खींच कर उनको भेजती रहती थी। 

कोविड को लेकर उनकी बढ़ती लापरवाही, निश्चिंतता से मैं चिंतित हो जब कहता कि,आप गवर्नमेंट, वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों की बात क्यों नहीं मानते कि, जब-तक दवाई नहीं, तब-तक ढिलाई नहीं। इस बीमारी से मॉस्क, सोशल डिस्टेंसिंग से ही बचा जा सकता है।  

तो वो मज़ाकिया लहजे में कहते, हम मर्द हूँ, डरता नहीं हूँ। सब अनलॉक हो गया है। शादी, पार्टी, त्यौहार सब पहले की तरह मनाए जा रहे हैं। वैक्सीन भी जल्दी ही आने वाली है। 

उनकी यह बात सच निकली। महामारी देश में जनवरी २०२० में आई, और सारे ट्रायल से गुज़रते हुए १६ जनवरी २०२१ से वैक्सिनेशन शुरू हो गया। मुझे चिढ़ाते, डरपोक कहते, तो मैं कहता कि, मानव इतिहास के सारे रिकॉर्ड तोड़ते हुए, देश ने साल भर में ही वैक्सिनेशन शुरू कर दिया, अच्छा है। लेकिन जो भीषण लापरवाही बरती जा रही, शादी, पार्टी, चुनाव,त्यौहार, घूमना-फिरना, सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाते हुए की जा रही हैं, उसका परिणाम भी ज़रूर आएगा। 

अब पहले की तरह हर दिन लाखों में भले ही नहीं, लेकिन दस-बारह हज़ार केस तो आ ही रहे हैं। जो सावधान रहने की चेतावनी दे रहे हैं। 

लेकिन उन्होंने सारी बातें किनारे करते हुए, मथुरा घूमने जाने की तैयारी कर ली। 

मुझसे कहा, तुम भी अपनी कुछ नायिकाओं के साथ चलो। होली बीत गई तो क्या, मौसम अभी भी अच्छा है। मैंने खीझ कर कहा, आख़िर आप मानते क्यों नहीं, गवर्नमेंट बार-बार कह रही है, यह लापरवाही बहुत भारी पड़ सकती है। आप समझते क्यों नहीं, एक पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं। 

लेकिन वो नहीं माने। और अपनी कुछ नायिकाओं, एक मित्र को लेकर चले गए। वह उन नायिकाओं के प्रेशर में भी थे। नवबाला भी उनके साथ गई थी, लेकिन किसी बात पर नाराज़ हो गई, यात्रा बीच में ही छोड़ कर अकेली ही लौट आई। 

आख़िर वही हुआ जिस बात का डर था। विशेषज्ञों की आशंका सच होने लगी। नए वेरिएंट के साथ मार्च का आख़िर आते-आते, कोविड-१९ ने तीव्र गति से बढ़ना शुरू कर दिया। वह देशाटन से लौटे तो एक नायिका सहित कोविड-१९ की चपेट में आ गए। मगर बातें पहले के ही अंदाज़ में करते रहे। 

घर भर की भौंहे तन गईं। नवबाला तो पहले से ही नाराज़ थी, हालाँकि उसकी नाराज़गी के कारण और थे। उनकी लापरवाही अब भी जारी थी, कई दिन सर्दी-ज़ुख़ाम ही मानते रहे। घरेलू दवाई करते रहे। जब डॉक्टर के पास पहुँचे तो उन्होंने बताया कि कोविड-१९ ने पूरी तरह पकड़ बना ली है। उन पर ही नहीं पूरे देश पर।  

हर तरफ़ फिर हाहाकार मचने लगा। प्रतिबन्ध फिर लगने लगे। दिन भर में मैं कई बार उनका हाल-चाल लेता। हर बार स्थितियाँ मुझे बिगड़ती ही दिखतीं। किसी तरह वह एक हॉस्पिटल में, अपनी पहुँच के चलते भर्ती हो गए। पत्नी पहले से बीमार थी। मगर कोविड-१९ से नहीं। 

ग़ुस्से के बावजूद पूरा परिवार उनके साथ खड़ा हो गया। मेरा विश्वास बना रहा कि, मज़बूत आदमी हैं, सही हो जाएँगे। दसवें दिन रात को बारह बजे उनकी बेटी का फोन आया। जिसकी वह तीन महीने बाद ही शादी करने की तैयारी कर रहे थे। वह दिल्ली में एक बैंक में सर्विस करती थी। 

इतनी रात को उसने मुझे पहली बार फोन किया था। कई आशंकाओं से घिरा हुआ, उससे बात की। उसने बताया अंकल डॉक्टर ने ऑक्सीजन की तत्काल ज़रूरत बताई है। पापा को  साँस लेने में बहुत दिक़्क़त हो रही है। हॉस्पिटल के पास ऑक्सीजन ख़त्म हो गई है। वहाँ सब लोग परेशान हैं। मैंने एक और दोस्त की मदद से, किसी तरह कई गुना क़ीमत पर रात एक बजते-बजते ऑक्सीजन की व्यवस्था करवाई। 

दिल्ली में बेटी स्वयं कोविड-१९ पॉज़िटिव थी। मुझसे कहा कि, घर में किसी को ना बताइएगा। पिता के लिए वह किसी तरह हवाई जहाज़ से अगले दिन लखनऊ आ गई। उसे अपना भी ध्यान रखने के लिए कहता रहा। 

वो जल्दी ही अपने होशो-हवास खो बैठे। बिना ऑक्सीजन एक मिनट नहीं रह सकते थे। नवबाला उनके बुज़ुर्ग माँ-बाप, बीमार पत्नी की देखभाल करने घर पहुँच गई। बाक़ी सब हॉस्पिटल में थे। हॉस्पिटल, कोविड-१९ डेडिकेटेड हॉस्पिटल ले जाने के लिए पीछे पड़ गया। जो पहले से ही ओवरक्राउडेड थे। यह और बड़ी समस्या थी। आख़िर एक रिश्तेदार ने सरकार के एक मंत्री से फोन कराया कि, जब-तक किसी हॉस्पिटल में बेड नहीं मिल जाता, तब-तक उन्हें बाहर नहीं करेंगे। 

मगर पैसा-रुपया, पहुँच सब रखा रह गया। कोविड-१९ उन्हें अगले ही दिन, उनके सारे परिजनों से देखते-देखते जबरिया छीन ले गया। वो छोड़ गए सब को रोता-बिलखता।  परिजन की तरह नवबाला के आँसू अब भी झरते हैं। घर के कोनों, छत, ऑफ़िस के बाथरूम में। 

अब वह नेल-पॉलिश भी नहीं लगाती। जब भी मुझे फोन करती है तो, उनकी अनगिनत बातों को याद करके रोती है। वो यादें मुझे भी भावुक करती हैं। नींद मेरी साथ लिए जाती हैं। भोर में आँखें उन्हें आस-पास होने का आभास करती हैं। 

जिस मित्र को वह कोविड से बचा लाये थे, उनके जाने के डेढ़ महीने बाद ही वह ब्लैक फंगस बीमारी के सामने अपना जीवन हार गए। कोविड उपचार के लिए प्रयोग हुईं दवाओं के, साइड इफ़ेक्ट के रूप में उपजी, इस बिमारी का वो मित्र की अनुपस्थिति में सामना नहीं कर पाए। उनका घर सदस्य शून्य हो गया। यह सुनते ही एक रिश्तेदार गेट पर अपना बड़ा सा ताला लगा गया।   

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-जीवन वृत्त-

प्रदीप श्रीवास्तव      

जन्म : लखनऊ में जुलाई, १९७० 

प्रकाशन :

उपन्यास–

'मन्नू की वह एक रात', 'बेनज़ीर- दरिया किनारे का ख़्वाब', 'वह अब भी वहीं है', 'अनसुनी यात्राओं की नायिकाएं'  

कहानी संग्रह–

'मेरी जनहित याचिका', 'हार गया फौजी बेटा', 'औघड़ का दान', 'नक्सली राजा का बाजा' ('शब्द निष्ठा पुरस्कार-२०२३' से पुरस्कृत पुस्तक '), 'मेरा आखिरी आशियाना', 'वह मस्ताना बादल', 'मेरे बाबू जी', 'प्रोफ़ेसर तरंगिता',  ‘जेहादन’

'' टेढ़ा जूता ''  कहानी  RVS COLLEGE OF ARTS AND SCIENCE (AUTONOMOUS) SULUR, COIMBATORE – 641 402. के पाठ्यक्रम में सम्मिलित. सिंधी भाषा में अनुवाद. आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित. 

कथा संचयन-

मेरी कहानियाँ : खंड-एक जून २०२२ में कैनेडा से प्रकाशित (एक हज़ार सात सौ तीन पृष्ठों में पचीस लम्बी कहानियां)

मेरी कहानियाँ : खंड-दो, प्रकाशनाधीन  (दो हज़ार से अधिक पृष्ठों में बत्तीस लम्बी कहानियां)

नाटक– 'खंडित संवाद के बाद'

संपादन-  'हर रोज़ सुबह होती है' (काव्य संग्रह) एवं ' वर्ण व्यवस्था ' पुस्तक का संपादन.

पुरस्कार- 'मातृभारती रीडर्स च्वाइस अवॉर्ड' -२०२०, विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली में प्रदान किया गया. 

‘उत्तर प्रदेश साहित्य गौरव सम्मान’-२०२२, बरेली, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.

डॉ. रमाकांत श्रीवास्तव स्मृति 'कहानी सम्राट सम्मान'-२०२३, हिंदी संस्थान, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में प्रदान किया गया.