चंदु चैंपियन Mahendra Sharma द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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चंदु चैंपियन

भारत की सुनहरी उपलब्धियों को जानने की उत्सुकता आज जितनी है शायद पहले कभी नहीं हुई। हमें कभी अपने भारत देश पर और देश के सपूतों पर इतना गर्व नहीं हुआ जितना आज है। चंदु चैंपियन एक ऐसे ही असामान्य खिलाड़ी की कहानी है जीसे सामान्य समझकर भुला दिया गया था। ऐसी सेंकड़ों कहानियाँ हमारे आस पास हैं जिन्हें जानकार हमारी नई पीढ़ी प्रोत्साहित और प्रशिक्षित हो सकती है, पर उन कहानियों को हम तक कौन लाएगा? हम फिर फिल्मों की प्रतीक्षा ही करेंगे की कोई उन्हें हमारे सामने लाए।

आपको परिवार सहित इस फिल्म को जल्द से जल्द देखना चाहिए, खास तौर पर अगर आपके घर में किशोर और युवा सदस्य हैं तो उन्हें इस फिल्म से बरसों तक चले इतनी मात्रा में प्रेरणा मिल सकती है । यह उन फिल्मों में से एक है जिन्हें देखते समय आँखें अनेक बार नम हो जातीं हैं । इस रिव्यू के माध्यम से कई बातें कहनी है और एक चर्चा शुरू करनी है जिसपर पूरा देश एक जुट होकर बात करे, विचार करे और प्रतिज्ञा ले ।

इस फिल्म के प्रेरणास्त्रोत हैं श्री मुरलीकांत पेटकर। 1972 में भारत के लिए पहला पैरालंपिक गोल्ड लाने वाले खिलाड़ी। अब जब हमें भारतीय ऑलम्पिक खिलाड़ियों के बारे मे ज्ञान लेने के लिए गूगल श्री का सहयोग लेना पड़ता है तो इनके बारे मे ज्ञान न होना बड़ी बात नहीं। मुरलीकांत पेटकर महाराष्ट्र के सांगली जिले से हैं और हाल ही में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया है। वे 1964 में हुए अन्तराष्ट्रिय मिलिट्री गेम्स मे सिल्वर मेडल जीत चुके हैं । दोनों ही प्रतियोगिताओं मे खेल अलग थे, पहले बॉक्सिंग में सिल्वर लाए और फिर स्विमिंग में गोल्ड।

कहानी शुरू होती है मुरली के गाँव से जहां पहली बार उन्होंने अपने जिले के एक खिलाड़ी को रैलवे स्टेशन पर देखा जहां वह खिलाड़ी देश के लिए कांस्य पदक जीतकर लाया था और पूरा जिला उसके स्वागत के लिए स्टेशन पर पहुँच गया था। 10,000 लोगों की भीड़ एक व्यक्ति के सम्मान के लिए जब आती है उसे देखकर मुरली की आँखें सुनहरे सपने देखने लगती हैं की एक दिन उसे भी देश के लिए ओलंपिक मेडल लाना है । पर किस खेल में ? कौनसा मेडल , स्वर्ण, रजत या कांस्य?

मेडल की तलाश में मुरली पहुँच जाता है कुश्ती सीखने , बचपन का देखा सपना जवानी तक पूरा नहीं हुआ, क्यूँ ? क्यूंकी तभी मतलकब 60-70 के दशक के माँबाप भी वही सोचते थे जो आप सोचते हैं की पढ़ाई से पैसा कमाओ, खेल कूद में क्या रखा है ? पर मुरली की जिद थी एक दिन मेडल जितना है तो जितना है , उसने गाँव मे एक दिन अपनी कुश्ती का करतब दिखा दिया तो अन्य गाँव वाले उसे मारने को दौड़े, उस दिन मुरली अपनी जान बचाकर ऐसा दौड़ा की फिर घर नहीं आया, तो फिर कहाँ गया मुरली ?

मुरली पहुँच गया भारतीय सेना में। क्यूंकी भारतीय सेना जवानों को न केवल लड़ाई के लिए तैयार करती है पर उन्हें खेलकूद की प्रतियोगिताओं के लिए भी प्रशिक्षित किया जाता है। तो मुरली को तो मेडल जीतना था, सेना में उसे अपने सपने साकार करने का मार्ग मिलता दिखा तो हो गए फौज में भरती और साथ ही तैयारी शुरू हुई ओलंपिक मेडल जीतने की।

एक इंसान जो तनतोड़ मेहनत करता है , पर भाग्य साथ नहीं देता । फिर मेहनत करता है पर समय परिस्थिति साथ नहीं देती । फिर मेहनत करता है तो शरीर साथ नहीं देता और फिर एक दिन सब कुछ छोड़ने की इच्छा होती है तो एक व्यक्ति उसे फिर उठ खड़े होने की प्रेरणा देता है। आगे क्या है? आगे देखने, हंसने , रोने और अपने अंतर आत्मा को जगाने के लिए फिल्म तो देखनी पड़ेगी।

फिल्म के बारे में कई नेगेटिव रिव्यू पढ़े, किसी ने लिखा है फिल्म में प्रेरणा नहीं मिलती, बहुत धीमी है, कार्तिक आर्यन एक्टिंग नहीं करता और गाने अच्छे नहीं। पर मैंने पूरा समय लिया और एक बार देखने की इच्छा बना दी। मुझे खुशी है की मैने यह फिल्म थियेटर में देखी। मुझे और मेरे बच्चों को बिलकुल भी निराशा नहीं हुई।

कई टिकाकर शायद खान ग्रुप के फैन हैं जो उन बढ़ी उम्र के एक्टर्स को आज भी सुपर हीरो के रोल में देखना चाहते हैं और कलाकारों की नई पीढ़ी को आगे आने नहीं देते। पर अब कार्तिक आर्यन, विकी कौशल, आयुष्यमान खुराना, राजकुमार राव जैसे एक्टर्स ने अपनी जगह बना ली है। उन्हें अपने हिस्से के किरदार मिल रहे हैं और मिलने भी चाहिएं।

कार्तिक आर्यन बने हैं मुख्य किरदार मतलब मुरलीकांत पेटकर । किरदार में कार्तिक ने जान फूंक दी है। मंझे हुए कलाकार और कौआ बिरयानी डायलॉग वाले विजय राज बने हैं कोच टाइगर अली। राजपाल यादव फिर एक बार सिनेमा में दिखे , छोटा पर महत्पूर्ण किरदार है। श्रेयस तलपड़े बने हैं इंस्पेक्टर। भुवन अरोरा बने फौजी दोस्त करनाल। सोनाली कुलकर्णी ( दिल चाहता है वाली, जो सैफ की गर्लफ्रेंड बनीं थीं) बरसों बाद सिनेमा में दिखीं।

निर्देशन है कबीर खान का। कबीर खान की यह स्पोर्ट्स पर बनी दूसरी फिल्म है, पहली थी 83, वर्ल्ड कप वाली। बहुत ही अच्छा निर्देशन दिया गया है। वो स्पोर्ट्स और प्रतियोगिता वाली फीलिंग जहां आवश्यकता थी वहां आ गई है। गीतकार हैं कौसर मुनीर और संगीतकार प्रीतम। गाने बहुत अच्छे नहीं हैं पर ठीक ठाक हैं।

अब अंत में कुछ सवाल, क्या आप अपने बच्चों से पूछते हैं या उनका निरीक्षण करते हैं की उन्हें कौनसा खेल पसंद है? क्या आप उन्हें खेल कूद में भविष्य बनाने देंगे? हर मां बाप अपने बच्चे को एक समय के बाद खेलना बंद करके पढ़ाई में मन लगाने को कहता है क्योंकि उन्हें लगता है पढ़ाई करेगा तो कुछ न कुछ कमा लेगा, क्या बच्चों को देश के लिए मेडल लाने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता? क्यों हमें लगता है हमारा बच्चा नहीं कर पाएगा? क्या प्रयत्न पर्याप्त थे उन्हें मैदान में लाने के लिए?

चंदू चैंपियन फिल्म देखने लायक है, अवश्य देखें और यह रिव्यू कैसा लगा , इस बारे में कमेंट में लिखें।

– महेंद्र शर्मा