वाजिद हुसैन सिद्दीक़ी की कहानी
कार तीव्र गति से समुंद्र के साहिल की सड़क पर दौड़ती हुई जा रही थी मंजिलों पर मंजिलें तय करती। रात हो चुकी थी। समुंद्र की उठती हुई लहरों की बहुत ही महीन फुआरें कार के शीशो पर कभी-कभी पौड़ती और सामने धुंध सी छा जाती। लेकिन इस धुंध से कार की गति में कोई अंतर न आता। न गति कम होती और न दिल का दर्द कम हुआ। वह दर्द जो अब उसके रग-रग में में फैल चुका था, विष बनकर खून में उतर चुका था। ऐसा लगता था कि उसकी शख्सियत अपने सभी मान सम्मान और प्रसिद्धि के बावजूद टूट- फूट के रह गई है। लोग उसे अत्यधिक बुद्धिमान, विचारक साहित्यकार और कथाकार समझते थे - स्वतंत्र, रोशन ख्याल लेकिन उस समय उसका दिमाग खौल रहा था और ठंडी हवा के झोंके एवं समुंद्र के पानी की फुहारें भी उसके अंग प्रत्यंग के तनाव में कमी न ला सकीं।
उसने कार का दरवाज़ा खोला और फिर समुंदर के पानी के निकट आकर खड़ा हो गया। समुद्र की लहरों को निहारता रहा। फिर उसने सिगरेट सुलगाई और गर्दन की टाई ढीली की। वह चाहता था कि अपने फेफड़ें में नमक मिश्रित हवा को भर दे। वह थककर टीले पर बैठ गया। दूर-दूर तक समुंद्र फैला हुआ था। रात का अंधकार प्रारंभ हो चुका था। आकाश में न चांद था और न तारे थे। साहिल, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पौधे और उनके साए नज़र आ रहे थे। दूसरी ओर बिजली के खंभे, जिनसे मध्यम-मध्यम प्रकाश फूट रहा था। समुंद्र के साहिल के निकट एक सड़क जा रही थी।
पच्चीस वर्ष पहले वह इंडिया से आस्ट्रेलिया आया था तो एयरपोर्ट से इसी सड़क से अपने एपार्टमेंट गया था और एक चपरासी का बेटा, बिल्लू से बिलावर खां बन गया था। उसी सड़क के मुहाने पर वह कशमकश में खड़ा हुआ था, 'सनम बेवफा' के पास वापस चला जाए, और ग़म मिटाने के लिए शराब और शबाब में सराबोर हो जाए या अपने घर नवाबगंज वापस जाकर फिर से बिल्लू बन जाए।
तभी उसके ज़मीर ने उससे पूछा, तुम्हारे अब्बा ने तुम्हारी पढ़ाई के लिए बैंक से क़र्ज़ लिया था। जब तुम यहां आए थे, क़र्ज़ के रूपये अब्बा को भेजते थे। आस्ट्रेलियन सिटिज़नशिप मिलने के बाद तुमने वहीं की लड़की लुइस को पत्नी बना लिया और बेटी इरोज़ के पिता बन गए। जब तुम अब्बा को ख़र्च भेजते, तो लुइस कहती, 'वाई आर यू वेस्टिंग मनी आन ओल्ड मैन?' तुमने अब्बा को तिलांजलि दे दी और उन्हें बदहाली में जीने पर मजबूर कर दिया। तुम्हारी मां तो इस गम में पहले ही मर चुकी थी, बाप भी मर गए। पच्चीस साल बाद ऐसा क्या हुआ कि तुम उसी पत्नी और बेटी को छोड़कर अपने घर वापिस जा रहे हो?
तुम्हारा परिवार एक विशाल वृक्ष की तरह है जिसकी शाखाएं दूर-दूर तक फैली हुई है। तुम तो अपने परिवार से बिल्कुल ही अलग दूर चले गए, स्वयं अपनी इच्छा और इरादे से। अब तो उनकी कोई याद ही तुम्हारे पास होगी। तुमने तो सबको भुला दिया। अपना पुराना नाम भी, जिससे अभी केवल एक सप्ताह पहले तुम्हारे मित्र अनवर ने तुम्हें पुकारा, तो तुम विफर गए थे।
वह यूनिवर्सिटी में तुमसे सीनियर था और तुमसे पहले मेलबर्न यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हो गया था। तुम्हारे पी.एच.डी करने के बाद उसने ही तुमको यहां प्रवक्ता में लगवाया था। लोग तुम दोनों को एक दूसरे का हमराह समझते थे। फिर भी तुमने उससे कट आफ कर लिया।
तुम प्रवक्ता बनकर यूनिवर्सिटी में पढ़ाने लगे, लेकिन तुम्हारी महत्वाकांक्षाऔर इरादे की उड़ान बहुत ऊंची थी। तुम्हें वह सब कुछ प्राप्त हो गया जो तुमने चाहा- धन, सम्मान और प्रसिद्धि। तुम लोक प्रियता के शिखर पर रहे। धन तुम्हारा पीछे लपकता रहा और फोटोग्राफर एवं कैमरे हर जगह तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा करते थे। रेडियो और टीवी के नुमाइंदे तथा समाचार पत्रों के संपादक इंटरव्यू लेने के लिए तुम्हें हर समय घेरे रहते थे। तुम्हारे उपंयास और तुम्हारी कहानियों की किताबें गलियों बाजारों में हर दुकान पर दिखाई पड़ती थी। बहुत पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी और साहित्यकार ही नहीं अपितु सड़क पर चलने वाला आम आदमी भी तुम्हें जानता है, क्योंकि तुम्हारी तस्वीर आए दिन समाचार- पत्रों और पत्रिकाओं में छपती रहती है। लोग तुम्हें टीवी के स्क्रीन पर देखते हैं, लेकिन रहा वह तुम्हारा मित्र, उसे तुम्हारे मुकाबले में तनिक भर भी प्रसिद्धि न मिली, बस यूनिवर्सिटी स्टाफ और स्टूडैंट्स ही उसे पहचानते हैं, जिन्हें तुम बैकवर्ड कहते हो एवं संकीर्ण समझते हो।
आज तुमने जाना है कि वही सही रास्ते पर है। उसी के विचार और नज़रिया ठीक है। वही तुम्हारा मित्र, जो जब कभी तुम्हें मिला, तुम्हें समझाता रहा, लेकिन उसकी हर बात और हर नसीहत तुम्हें बुरी लगती थी। आज तुम्हें पता चल गया कि वही अपने नज़रिये में और अपने आचरण व वार्तालाप में सही था। पहले तुम्हें उसकी बातें बुरी लगती थी, क्योंकि चमगादड़ को प्रकाश बुरा लगता है। अब तो तुम्हें एहसास हो ही गया कि गलत रास्ते पर वह नहीं था, तुम थे। तुमने कितना उसका मज़ाक उड़ाया था, जब तुम ऑस्ट्रेलियन लड़की से शादी करने वाले थे। उसने तुम्हें समझाया था और कहा था-
'हम ऐसे देश के रहने वाले हैं जहां के लोगों की अपनी एक धारणा है, परंपरा है, अपने मूल्य है। तुम इन सब चीजों को भूलाकर क्यों एक ऐसी लड़की से शादी कर रहे हो, जिसका समाज, ईट ड्रिंक एंड बी मेरी' में विश्वास करता है। उनके समाज में रेप यानी बलात्कार के बारे में कुछ लोगों की सोच हैं, व्हेन रेप इस सर्टेन वहाय नॉट एंजॉय। ऐसे समाज की लड़की को अपना जीवन साथी बनाने से कितना नुकसान होगा- धर्म, नैतिकता मूल्य और सिद्धांत सब के सब बर्बाद हो जाएंगे। क्या तुम्हें यक़ीन है, बच्चे तुम्हारे धर्म पर रहेंगे?' ...तुमने मज़ाक उड़ाते हुए इसका यह उत्तर दिया था, 'तुम बिल्कुल दक़ियानूसी विचार के आदमी हो। वही नवाबगंज वालो जैसी घिसी-पिटी बातें। लेकिन इस समय तुम्हारे मन में नवाबगंज जाने का विचार क्यूं आया?'
एक दिन तुम्हारे मुंह से सिगार का थुआं निकल रहा था और तुम्हारा दमकता चेहरा हाल में बैठी मेकअप में लदी हुई हज़ारों महिलाओं की नज़रों को आकर्षित कर रहा था। और एक लड़की के अश्लीलता और नग्नता विषय पर किए प्रश्नों के उत्तर में तुमने किस शान से कहा था-
'साहित्यकार स्वतंत्र है। उसकी लेखनी स्वतंत्र है। उसकी कला स्वतंत्र है। कोई भी प्रतिबंध उसके रचनात्मक स्रोत को बंद करने के सदृश है। यह कहना भी उचित नहीं के कुछ नैतिक सिद्धांत होते हैं, जिनका साहित्यकार को लिहाज़ रखना होगा। साहित्य तो केवल एक सृजना है। इसके अतिरिक्त साहित्यकार के लिए न कोई नियम रहता है, न कोई सिद्धांत।
'स्त्री के चाल- चलन, उसकी सोच पर और आर्थिक विषयों एवं सामाजिकता को लेकर उस पर किसी तरह की रोकथाम एवं प्रतिबंध एक मानसिक पिछड़ापन तथा कट्टरता व बुनियादपरस्ति की निशानी है। यह तो ज़माने की गति को पीछे की ओर लौटाने तथा घड़ी की सुई को उल्टी दिशा में घुमाने जैसा है। यह समाज को एक अंधकार युग में ले जाने की साजिश है,संकीर्णर्ता और रूढ़िवादिता है।
स्वंय मैंने इसी विचार को अपने जीवन में उतारा है। मैंने अपनी इकलौती बेटी पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लगाया। वह हर चीज़ में अपनी इच्छा के अनुसार जीवन जीने के लिए स्वतंत्र है -मिलने-जुलने में, पढ़ाई में, नौकरी के चयन में। मैंने उसे हर मामले में पूरी आज़दी दी है। उसका बहुत अच्छा लानन-पालन किया है। अपने घर का ऐसा माहौल बनाने में मेरी पत्नी की महत्वपूर्ण भूमिका है। सचमुच मेरी पत्नी एक महान स्त्री है। सच तो यह है कि मेरी और मेरी इकलौती बेटी की सफलता में उसी का योग है। लुइस ऑस्ट्रेलियन है और वहीं शिक्षा ग्रहण की है। वह रोशन ख़्याल भी है। मुझे इस बात को स्वीकार करने में तनिक भी संकोच नहीं कि स्वयं मेरे ज़ेहन में अतीत की जो परछाइयां और निशानियां थीं, गलत विचारों के जो प्रभाव थे, वे सब उनके व्यक्तित्व के कारण मुझसे दूर हो गए: अपनी तक़़रीर में तुम यह सब कहते हुए ऐसे लचक रहे थे जैसे फूलों की शाखा लचकती है और जैसे मोर नाचता है।
हाल में बैठी हुई स्त्रियों में डायना चीफ गैस्ट थी। वह उम्र दराज़ थी तथा कुंवारी थी। वह तुमसे इतना इम्प्रेस हुई कि तुम्हारा चुंबन लेने के बाद भी बहुत देर तक चिपकी रही थी। शायद उसने तुम्हें अपने बच्चें का पिता बनानेे का निर्णय ले लिया था। फिर उसने एक शुक्राणु बैंक के माध्यम से तुमसे संपर्क किया और शुक्राणु डोनेट करने के लिए रिक्वेस्ट की, जिसे तुमने थोड़ी न-नकूर के बाद स्वीकार कर लिया।
शुक्राणु टेस्ट की रिपोर्ट ने तुम्हें चौका दिया, ' तुम्हारे शुक्राणुओं में बच्चा पैदा करने की सलाहियत नहीं है, फिर पिता कैसे बन गए?' इतना बड़ा छल तुम्हारी पत्नी ने तुम्हारे साथ किया था। तुम्हारे ह्रदय को ऐसा आघात लगा, कि फट ही गया होता, यदि हाड़-मांस का न बना होता।' तुम इस सदमे से नहीं उबर पाए थे कि पुलिस ने तुम्हारी बेटी को नशे की हालत में ड्रग इस्तेमाल करते हुए पकड़ा था और लगभग नग्न दशा में उसके नवयुवक मित्र के साथ गिरफ्तार किया था। पुलिस ने कुछ विदेशियों को भी पकड़ा है और बताया कि उनके डाॅक्टर बिलावर खां की ऑस्ट्रेलियन पत्नी से अवैध संबंध थे। इस सब में से तुम्हारी प्रसिद्धि धूल धुसरित हो गई थी। तुम मुंह दिखाने लायक नहीं रहे।'
सनम की बेवफाई ने मुझे फिर बिलावर ख़ां से बिल्लू बना दिया। मैंने गाड़ी एयरपोर्ट की ओर दौड़ा दी और अगले दिन नवाबगंज पहुंच गया।
घर का ताला खोलकर जैसे ही अंदर गया, सीली हुई बासी हवा ने मेरा स्वागत किया। अब्बा के जाने के बाद से पिछले कई साल से यह घर बंद था। ऐसा नहीं था, इस घर से मुझे कोई खास लगाव था। मैं तो हमेशा किसी तरह इस घर से दूर जाने के सपने देखा करता था, बड़े शहर में रहने के और अमीर बनने के सपने देखा करता था। अपने बच्चों का हीरो बनने के सपने देखा करता था जो मेरे अब्बा कभी नहीं बन पाए। घर में घुसते ही अजीब सी उदासी का एहसास हुआ। जब तक अब्बा थे, घर छोटा और पुराना ही सही वह इस घर को साफ सुथरा और चमकाकर रखते थे पर आज यह घर उदास खंडहर जैसा लग रहा था। बैग किनारे रखकर मैंने खिड़कियां खोल दी। खिड़की खोलते ही घर में थोड़ी सी रोशनी हो गई । मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई, दरवाज़े खिड़कियां बंद होने के बाद भी हर चीज पर धूल की परत चढ़ गई थी, वैसी ही परत जैसी मुझ पर चढ़ गई थी।
मेज़ पर अब्बा के साथ मेरा एक फोटो रखा था। बीस साल पुराना फोटो था। फोटो में अब्बा मुस्कुरा रहे थे, शायद मेरे जन्मदिन का फोटो था। अब्बा मुझे कुछ खिलाते हुए दिख रहे थे। मैं मुस्कुरा दिया, फोटो में एक पल उन्हें देखता रहा फिर मेरी मुस्कान बुझ गई, ऐसा लगा जैसे अब्बा मुझे चिढ़ा रहे हैं, ' देख तू इतने पैसे कमाने के बाद भी खुश नहीं है और मैं रूखी- सूखी खाकर भी खुश था।' मैंने हाथ से उसकी धूल हटाई, फोटो फिर मेज़ पर रख दिया।
फिर ठेकेदार सुरेन्द्र सिंह से मिलने चला गया। मैंने उसे पागल समझा था, जो इस घर को दुगनी क़ीमत पर खरीदने को तैयार था पर आज जब मैं उससे मिलके आया तो अपने आप में खो गया, 'बिल्लू भाई आपका घर ख़ाली पड़ा रहता है। एक न एक दिन आप बेचेंगे, जो कहें मैं इसकी क़ीमत देने को तैयार हूं।' उस के मिलने के बाद उसकी बात से मेरे मन में उथल-पुथल मचने लगी। दो घंटे हो गए थे पर उसकी बातें मेरे दिमाग में टन- टन करके बज रही थी, 'करीम अंकल के घर को मैं इस तरह बर्बाद होते नहीं देख सकता।'
स्कूल में झाड़ू लगाने वाले अब्बा और घर से मुझे कोई ख़ास लगाव नहीं रहा था। वह बहुत मामूली आदमी थे कि अपने दोस्तों के सामने उन्हें अपने अब्बा कहते मुझे शर्म आती थी। वह वैसे अब्बा नहीं थे जैसा मैं चाहता था। उनको खाकी वर्दी पहने स्कूल में हुकुम बजाते देखता तो घुटन होती थी।
सुरेन्द्र सिंह से मिलने के बाद मुझे लगा, अब्बा की भी कोई हैसियत है दुनिया में। हर बात याद आ रही थी, किसी के घर में शादी हो या मातम, अब्बा मदद करने वालों में सबसे आगे होते थे। वह कहते थे, 'जो ज़्यादा कमाता है, वह अमीर नहीं होता है। अमीर वह होता है जो ज़्यादा देता है।' मैं सोचने लगा, मेरे चेहरे पर वह खुशी क्यों नहीं होती जो अब्बा के चेहरे पर होती थी? मैंने अपने अब्बा के लिए पहली बार इज़्ज़त को महसूस किया। आज उनके अलावा मैं किसी को नहीं सोच पा रहा था।
यह एहसास कराने वाले उस अंजान शख़्स की सच्चाई जानने के लिए मैं अपनी मुंह बोली बुआ से मिला। मेरे स्कूल के सामने जो चाट का ठेला लगता था वह राधा बुआ का था। वह अब्बा को राखी बांधती थी। मुझे देखकर बुआ बोली, 'अरे बिल्लू तू कब आया, बेटा?' अब्बा को याद करके बताने लगी, 'कैसे विधवा होने के बाद से वह उनका सहारा बने थे।' मैंने उस ठेकेदार से हुई बात के बारे में बुआ को बताया फिर पूछा, 'कौन है यह सुरेंद्र सिंह? इसे अब्बा के घर से इतना लगाव क्यों है?'
उसे शख़्स के बारे में जो बुआ ने बताया, मेरा सिर शर्म और ग्लानी से झुक गया। उन्होंने कहा, 'इस क़स्बे में नाजाने कितने बच्चे थे, जिन्हें स्मैक पीने की लत पड़ गई थी। कुछ भीख मांगते, कुछ चोरी करते थे। तेरे अब्बा हफ्ते भर घर- घर जाकर किताबें और कपड़े इकट्ठे करते थै। उनके पास जाकर बाटंते और प्यार मोहब्बत से उनकी लत छुड़ाते थे। सुना है उनमें से एक सुरेन्द्र भी था जो बहुत बड़ा ठेकेदार बन गया है। करीम भाई ने नेकी कमाई थी। उनके पास दुआऐं थी, दौलत नहीं थी। यह कहकर बुआ बेसाख़्ता रोने लगी।
मैं उसी वक्त उसके घर गया। मैंने कहा, 'मैंने सोच लिया है, मैं यह घर आपको नहीं बेच सकता। उसका चेहरा उतर गया। 'ऐसा न कहिए बिल्लू भाई मैंने करीम अंकल से वादा किया था, अनाथ बच्चों के लिए इस घर को अनाथालय बनाउंगा।' पर उसके लिए घर बेचना ज़रूरी नहीं है। मैंने उसकी बात आधे में ही काट दी। वैसे तो मैंने बेटे का कोई फर्ज़ नहीं निभाया है। उनके सपनों को पूरा करने का फर्ज निभा सकूं, मैंने कांपती हुई आवाज में कहा तो सुरेंद्र ने अपना हाथ बढ़ा दिया। मैंने बेवफा सनम पर लानत भेजी और अब्बा के रास्ते पर चलने का फैसला कर लिया था। नाजाने मुझे क्यों लगा अब्बा वहीं खड़े मुस्कुरा रहे थे।
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