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‘उठाले’ से एक दिन पूर्व मुक्ता को अस्पताल से छुट्टी मिल गई थी। ‘उठाले’ की रस्म पूरी होने के बाद सुबह से शाम तक के लिए एक नौकरानी का प्रबन्ध करके शीतल ने अपनी ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी। एक तो ऑपरेशन के बाद मुक्ता वाकर के बिना चल-फिर नहीं सकती थी, दूसरे घर के सारे कामकाज नौकरानी ने सँभाल लिए थे, इसलिए मुक्ता सारा दिन ख़ाली बैठी कान्हा के बारे में ही सोचती रहती। मुरलीधर बहुत समझाते कि जो होना था, सो हो गया। कान्हा का हमारे साथ इतना ही सम्बन्ध था। परमात्मा के विधान को स्वीकार करने में ही भलाई है वरना तुम इस तरह सोचती रही तो बहुत जल्दी अपनी सेहत ख़राब कर लोगी। अक्सर तो मुक्ता मुरलीधर की बातें चुपचाप सुन लेती, लेकिन कभी-कभार ममता के वशीभूत वह तुनक कर कह देती - ‘अब मैंने और जीकर क्या करना है! कान्हा जैसा भी था, था तो मेरा पुत्र। उसके काम करते हुए मैं व्यस्त ही नहीं रहती थी, मुझे ख़ुशी होती थी। अब इस बेमक़सद ज़िन्दगी को ढोने से क्या हासिल होगा? हे प्रभु! मुझे भी अपने पास बुला लो।’
इन कुछ ही दिनों में मुक्ता के चेहरे पर झुर्रियों ने आक्रमण-सा कर दिया था। जब व्यक्ति मन से हार जाता है तो शरीर भी जवाब देने लगता है। उसकी अवस्था ढलते सूरज-सी हो गई थी जिसका प्रकाश सिमटकर एक लाल गोले में परिवर्तित हो जाता है और लगता है जैसे वह निढाल-सा पश्चिम की ओर बढ़ रहा हो! कहाँ तो डॉक्टर ने ऑपरेशन के बाद कहा था कि माँ जी जल्दी ही चलने-फिरने लगेंगी, क्योंकि इनकी इच्छाशक्ति बहुत दृढ़ है और कहाँ अब हर बीते दिन के साथ उसका शरीर ढलता जा रहा था, शरीर की ऊर्जा क्षीण होती जा रही थी। लगता था जैसे उसने बीमारी से पक्का गठबंधन कर लिया हो!
……
‘उठाले’ वाले दिन रस्म अदायगी के बाद प्रिंसिपल तथा प्रवीर कुमार मुरलीधर के साथ ड्राइंगरूम में बैठे थे। बातों के बीच प्रिंसिपल ने प्रवीर कुमार को माध्यम बनाकर कहा - ‘सर, यह समय और हालात तो ऐसे नहीं हैं कि मैं अपने मन की बात इस समय कहूँ, किन्तु हालात को देखते हुए ही मैं अपनी बात आप लोगों के सामने रखने के लिए विवश हूँ….।’
प्रिंसिपल ने बात अधूरी छोड़ी तो मुरलीधर और प्रवीर कुमार दोनों को जिज्ञासा हुई कि वे क्या कहना चाहते हैं। क्योंकि उपरोक्त बात प्रवीर कुमार को सम्बोधित थी, इसलिए उसने कहा - ‘प्रिंसिपल साहब, हम परिवार के मेम्बर ही बैठे हैं। जो कहना चाहते हैं, कह दीजिए।’
अब प्रिंसिपल ने अनौपचारिक होते हुए कहा - ‘प्रवीर जी, माँ जी जब अस्पताल में थीं और मैं उनका पता लेने आया था तो ‘सर’ ने मुझे शीतल को दुबारा विवाह करने के लिए समझाने के लिए कहा था और मैंने इन्हें भरोसा भी दिलाया था, किन्तु हालात ऐसे बने कि मैं शीतल से इस विषय पर बात ही नहीं कर पाया। …. अब मैं जो कहना चाहता हूँ, इस पर मैंने बहुत सोच-विचार किया है। … मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में आप दोनों को शायद पता नहीं होगा और ‘सर’ को तो शायद शीतल से पता चल भी गया होगा मेरे जीवन की घटनाओं के बारे में … मैं शीतल को अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूँ…।’
जवान बेटे, चाहे वह मंद-बुद्धि ही था, के रस्म भोग के पश्चात् मुरलीधर का गमगीन होना स्वाभाविक था, किन्तु इस माहौल में भी प्रिंसिपल की प्रपोज़ल उनके लिए बहुत बड़ी राहत ही नहीं, प्रसन्नता की बात थी। फिर भी उन्होंने अपनी प्रसन्नता को दबाए रखकर कहा - ‘मानवेन्द्र, शीतल ने तो तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन के बारे में मुझे कुछ नहीं बताया। अच्छा होगा कि तुम ही अपने बारे में तफ़सील से बताओ ताकि तुम्हारी प्रपोज़ल पर विचार किया जा सके।’
प्रिंसिपल ने अपने विवाह से सम्बन्धित सारी बातें जो उन्होंने शीतल को बताई थीं, अब दुहरा दीं। साथ ही बताया कि पूनम की बदचलनी का जब मेरे पेरेंट्स को पता चला तो वे इस सदमे को बहुत देर तक नहीं सह पाए तथा एक साल के भीतर-भीतर दोनों का साया मेरे सिर से उठ गया। यह सब सुनकर मुरलीधर और प्रवीर कुमार ने अफ़सोस जताया। प्रवीर कुमार ने पूछा - ‘प्रिंसिपल साहब, आपने अपने मन की बात शीतल से की है?’
‘अभी तक तो नहीं।’
‘मेरे विचार में, आपकी प्रपोज़ल पर विचार करने से पहले शीतल का मन टटोलना भी ज़रूरी है।’
मुरलीधर ने प्रवीर कुमार की बात से सहमत होते हुए शीतल को आवाज़ दी।
शीतल ने आकर पूछा - ‘जी, पापा . ..?’
‘बेटे, वैसे तो यह समय ऐसी बातें करने का नहीं है, कुछ दिन पहले ही कान्हा हमें सदा के लिए छोड़ गया है, लेकिन मानवेन्द्र ने जो प्रपोज़ल रखी है, यदि तुम्हें वह स्वीकार्य होगी तो मैं तो गंगा नहा लूँगा।’
मुरलीधर की आख़िरी बात सुनते ही शीतल समझ गई कि प्रिंसिपल सर ने क्या प्रपोज़ल रखी होगी। फिर भी उसने पूछा - ‘पापा, सर ने क्या प्रपोज़ल रखी है?’
जवाब मुरलीधर की बजाय प्रवीर कुमार ने दिया - ‘शीतल, प्रिंसिपल साहब ने तुम्हें अपने असफल वैवाहिक जीवन के बारे में तो बताया हुआ है, अब वे तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहते हैं। यदि तुम ‘हाँ’ करती हो तो हम सबको बहुत ख़ुशी होगी!’
कान्हा द्वारा की गई हरकत के बाद जब प्रवीर कुमार ने उसे दुबारा विवाह करने की सलाह दी थी और बाद में प्रिंसिपल ने जब उसे बताया था कि वे उसके पापा के स्टूडेंट रहे हैं और अपनी दुखद दास्तान सुनाई थी, तब से शीतल के मन में भी प्रिंसिपल के प्रति कोमल भाव अंकुरित होने लगे थे। इस सबके बावजूद उसके लिए इस समय सीधे-सीधे ‘हाँ’ करना सम्भव नहीं था। उसने कहा - ‘अब तक तो पापा-मम्मी कान्हा के कारण व्यस्त रहते थे, किन्तु कान्हा के न रहने से मम्मी तो बुरी तरह टूट गई हैं। ऐसे में मैं इन्हें अकेला छोड़ने की कैसे सोच सकती हूँ?’
मुरलीधर कुछ कहने लगे थे कि प्रिंसिपल ने उन्हें रोकते हुए कहा - ‘शीतल, ‘सर’ और माँ जी अकेले नहीं रहेंगे। हम इन्हें अपने साथ रखेंगे। …. यह मेरी ओर से ‘गुरु दक्षिणा’ होगी।’
प्रवीर कुमार ने प्रफुल्लित होते हुए कहा - ‘वाह प्रिंसिपल साहब, वाह! आपने तो सिद्ध कर दिया कि एक गुरु का अपने शिष्य के जीवन में कितना महत्त्व होता है! … बहुत-बहुत बधाई आपको और बाबूजी, आपको भी।’
शीतल सिर झुकाए वहाँ से उठकर अन्दर मम्मी के पास चली गई। पीछे-पीछे प्रवीर कुमार ने आकर सारी बात मुक्ता को बताई। शीतल व्हीलचेयर पर बैठी अपनी मम्मी के गले लग गई, उसकी रुलाई फूट पड़ी। इस रुलाई में भी ख़ुशी छिपी हुई थी। बिना शब्दों के आदान-प्रदान के भी माँ बेटी के भाव समझ गई। उसके झुर्रियों से भरे चेहरे पर भी एकबारगी चमक उभर आई। और मुक्ता ने शीतल के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देते हुए कहा - ‘बेटा, मानवेन्द्र जैसा इंसान तुम्हें और साथ में हमें भी सहारा दे रहा है तो यह मेरे प्रभु की कृपा का ही फल है। …. कान्हा आज हमारे बीच नहीं है, यदि होता तो उसे भी बहुत ख़ुशी होती!’ कहते हुए मुक्ता के भी आँसू बह निकले।
इतिश्री
लाजपत राय गर्ग
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