1 रहट पद्धति
कहाँ गई रहट पद्धति की सिंचाई
कुँए से पानी भर आई
बैल कोल्हू को जोड़ आपस में
होती खेतों की सिंचाई
कहाँ गई रहट पद्धति की सिंचाई
शृंखला में बाल्टीयां बँधी
बैलें गोल चक्कर लगाएँ
भर-भर के जब गिरे खेतों में
किसान मग्न हो जाएँ
ऐसे ही होती थी,
हर खेतों की बुआई
कहाँ गई रहट पद्धति की सिंचाई
थक जाते किसान जब भी
भर अंजुरी प्यास बुझाते
गर्मी के दिनों में सभी
लोग खूब यहीँ नहाते
ढूँढ रहें हैं फिरसे वो रैना
जाने कब लौट के आई
कहाँ गई रहट पद्धति की सिंचाई।
2 हाय ज़माना कैसा आई
हाय ज़माना कैसा आई
छोड़ करीबी दूरियाँ लाई
पास रहकर भी दूरी लगे
हर घर में हरजन अलगाई
सोच में पड़ जाता हूँ कि
हाय ज़माना कैसा आई
ग़ज़ब के थे वो दिन पुराने
लोग साथ बैठे गप्पे उड़ाते
चनाचूड दही की लस्सी
सत्तू चटनी से पार्टी मनाते
एक बदलाव की आँधी आई
सोच में पड़ जाता हूँ कि
हाय ज़माना कैसा आई
ढिबरी- दिया- लालटेन जलाकर
रोज पढ़ा हम करते थे
रात में जुगनू की चमक से,
रात सजा सा लगते थे
अब चक्का- चौंध की दुनियाँ आई
सोच में पड़ जाता हूँ कि
हाय ज़माना कैसा आई
संस्कारों में पले - बढ़े हम
संस्कार निभाए जाते थे
बड़ो के आगे कभी ना अपने
सिर उठाए जाते थे
आधुनिकता की आड़ में
संस्कारों की हुई धुलाई
सोच में पड़ जाता हूँ कि
हाय ज़माना कैसा आई।
3 मैं हड्प्पा हूँ भारत की प्राचीन सभ्यता
मैं हड्प्पा हूँ भारत की प्राचीन सभ्यता
मेरे और नाम भी है मोहनजोदडो और सिंधुघाटी सभ्यता
मेरा जन्म भारत में सिंधु नदी के किनारे हुआ
मैं वहीं पली बढ़ी और विकसित हुई
यह बात इसलिए बता रही हूँ
कि जो तुम आधुनिक हो चुके हो
मैं तुम्हारे बीते दौर की आईना हूँ
अपने भोग विलास के आगे
मुझे क्यों भूलते जा रहे हो
आज तुम गाँव से उठकर
शहर और इमारते खड़ा किए हो
हज़ारों वर्षों पूर्व मैंने ही इसकी नीव रखी
मैंने तुम्हें ब्रह्मांड और प्रकृति में बसे
जल, जीव और वनस्पतियों की पूजा करना सिखाया
खेती- बाड़ी और व्यापार करना सिखाया
और तुम धर्म जाति के नामपर लड़कर
मेरे संस्कार और सभ्यता की बखिया ऊधेड दिया
अपना पेट चीरकर फ़सले और अनाज उगाई
तुम्हें ब्रह्मांड की हर सुख सुविधा दिया
प्रकृति को शायद यही मंजूर था कि
हमारी फली-फूली सुन्दर सी सभ्यता नष्टकर
तुम जैसे नालायको को जन्म दिया।
4 बचपन का रेला
होत सवेरे हम,
घर से निकलते
बाग बगीचों और,
खेतों में खेलते
नन्हें- नन्हें पाँव मेरे थकते मगर
हम खेलना ना छोड़ते
खाली पेट हमारे तो
आधे दिन कट जाते थे
लगती थी भूख हमें जब
घर को अपने जाते थे
खाना खाने से पहले
अम्मा का थप्पड खाते थे
खाना खाके छुप छुपाके
फिर भागे चले जाते थे
सावन के मौसम में
पोखरे से बेरा का फूल निकालते
तितलियां और जोल्हों को पकड़
मुर्गा मुर्गी पालते थे
बारिश के मौसम में सभी
गाँव की गालियों में नहाते थे
शाम को मक्का भूनकर
पार्टी एक मनाते थे
चोर- सिपाही ओल्हा पाती
यही हमारा खेला था
कितना सुंदर और सुनहरा
अपना बचपन का रेला था।
Er.Vishal Kumar Dhusiya
नोट:- यह कविताएँ मेरी खुद की लिखी हुई है।