पथरीले कंटीले रास्ते - 13 Sneh Goswami द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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पथरीले कंटीले रास्ते - 13

 

पथरीले कंटीले रास्ते 

13


बैरक की साफ सफाई निपट चुकी थी । रविंद्र और नरेश आपस में बातें कर रहे थे । नरेश ने अपने अतीत के बारे में बताना शुरू किया ही था कि कैसे हालात से मजबूर होकर एक साधारण सीधा सादा आदमी चोर बन गया । रविंद्र उसके बारे में और विस्तार से जानना चाहता था कि घंटा दूसरी बार बजा । अचानक अलग अलग दिशाओं से कैदी लपकते हुए आते दिखाई दिये । सब हङबङी में थे । लगभग भागते हुए सारे कैदी जल्दी से जल्दी मेस में पहुँच जाना चाहते थे । कुछ नलके पर हाथ धोने लपके । कुछ सीधे ही लंगरहाल की ओर हो लिए । ये दोनों भी मेस में पहुँच गये । तब तक लंगर में कैदियों की लंबी लाइन लग गयी थी । सामने की तरफ मेज लगाकर दो कैदी सबके मग में बारी बारी से दाल डाल रहे थे । दो लोग रोटियाँ गिन गिन कर थाली में रोटी डाल रहे थे । रविंद्र को देखते ही सारे कैदी थोङा पीछे होकर एक तरफ हो गये और उसे आगे होकर रोटी लेने का इशारा किया । रविंद्र ने अपना मग और थाली आगे बढा दी । लांगरी ने छ रोटी थाली में रख दी और मग पानी जैसी पतली दाल से भर दिया ।
सुनो इतनी जल्दी रोटी ? क्या मैं थोङी देर से रोटी नहीं ले सकता ?
न रोटी तो इसी समय मिलेगी । यह जेल का रूल है । साढे पाँच बजे मेस और लंगर बंद हो जाता है ।
हाँ , उधर कैंटीन से आप सात बजे तक सामान ले सकते हो पर उसके लिए जेलर साब की रिटन परमिशन चाहिए ।
रविंद्र रोटी डलवा कर आगे बढ गया । पीछे लंबी लाइन लगी थी । रोटी कमरे में रख वह हाजरी गरांउड में पहुँचा तो वहाँ करीब करीब सारे कैदी पहुँच चुके थे । एक कैदी हाथ में डंडा लेकर डंडा हवा में उछाल रहा था ।
कैदियों ने अपना अपना नम्बर बोलना शुरु किया – एक सौ एक हाजिर है , एक सौ दो हाजिर है ,इसी तरह सब लोग अपना अपना नम्बर बोलते रहे । सब की हाजरी हो गयी ।
हाजरी लेने वाले ने घोषणा की – दस मिनट है तुम्हारे पास । जो काम करना है कर लो फिर बैरकें बंद हो जाएँगी । कैदी कैंटीन की ओर बढ गये । सबने अपनी जरूरत की चीजें खरीदी । कुछ लोग टायलेट की ओर गये थे । सही दस मिनट बाद फिर से घंटा बजा । कैदी अपनी अपनी बैरक में चले गये । दो लोगों ने सारी बैरकों को ताले लगाये और ठक ठक जूते बजाते हुए चले गये ।
रविंद्र ने अनुमान लगाया कि अभी मुश्किल से साढे छ बजे होंगे । कब रात के दस बजेंगे और वह सो पाएगा । ऊपर से कोठरी में मच्छर अलग संगीत बजा रहे थे । वह ऊब गया ।
अब क्या करे । रात तो अभी कोसों दूर थी । अभी बाहर होता तो दोस्तों में घूम रहा होता । कहीं किसी मैदान में बैडमिंटन की बाजी लगी होती । एक दो घंटा खेलकर यार दोस्तों से मिलते हुए आठ बजे तक वह घर पहुँचता । जाकर नलके के ठंडे पानी से नहाता । फिर चौंके में जाता और माँ के हाथ की दाल रोटी खाता । कई बार वह तुनक जाता – क्या बीबी , तू रोज ही ये दाल बना देती है । कभी कुछ अलग भी बना दिया कर ।
माँ बिना कुछ बोले उसके आगे से थाली हटाती । दाल अलग ढक कर रख देती और उसके लिए ढेर सारा घी शक्कर डाल कर चूरी बना देती और वह मजे ले लेकर खाता । कभी पापा सुन लेते तो जाकर मोङ से अंडे पकङ लाते और उसके लिए भुर्जी बना देते । वह खुश हो जाता और चटकारे लेकर सारी कटोरी खा जाता ।
उसने एक निगाह सामने नंगी पङी थाली पर डाली । दाल ठंडी हो गयी थी और रोटियाँ सूख कर लकङी हो गयी थी । आज इन्हीं से गुजारा करना पङेगा । उसने एक ठंडी सांस ली । और उठ कर थाली उठा लाया ।
इस दाल को दाल न कह कर दाल का सूप कहा जाता तो ज्यादा सही होता । दाल में दाल का एक भी दाना नहीं था । बेहद हल्का नमक मिर्च डाला गया था । पानी की बहुतायत थी । ऐसी पतली दाल भी हो सकती है , ऐसा उसने कभी सोचा न था । उसकी बीबी तो दाल में देसी घी का तङका लगाकर ऐसी गाढी , संघनी दाल बनाती थी कि खाने बैठा आदमी चार की जगह सात रोटी खा कर उठे । ऊपर से फूले फूले नरम गरम फुल्के । यहां तो रोटी भी मोटी मोटी मिली और वो रोटी भी कहीं से कच्ची और कहीं से जली । ऊपर से दाल रोटी सब ठंडी । उसने जैसे तैसे दो रोटियाँ निगल ली पर उससे ज्यादा रोटी खाने की उसकी हिम्मत न हुई तो उसने थाली एक ओर सरका कर रख दी । कोने में पङे घङे से दो तीन गिलास पानी पिया तो उसका मन नरेश के प्रति कृतज्ञता से भर गया । वह लङका यह घङा धोकर भर गया । अब जब चाहे वह पानी तो पी ही सकता है । दुनिया इतनी भी बुरी नहीं है जितनी हम सोच लेते हैं ।
वह कोठरी में चहल कदमी करने लगा । घूम घूम कर थक गया तो सींखचों के पास खङा होकर बाहर झांकने की कोशिश करने लगा पर दूर दूर तक गहरा सन्नाटा छाया था । बाहर घना अंधेरा घिर आया था । कहीं कोई आदमी या उसकी परछाई दिखाई नहीं दे रही थी । आखिर थक हार कर वह अपने लिए बने उस पत्थर के चबूतरे पर बैठ गया । जिस पर उसे सोना था कि अचानक जेल के एक कोने से गाने की आवाज हवा में तैरने लगी –
लोकी पूजन हज वे मैं तेरा बिरहङा ।
मैंनू सौ मक्के या हज वे तेरा बिरहङा ।
लोग हज की पूजा करते हैं तो करें , मेरे लिए तो तेरा विछोह ही हज है । मेरे लिए तेरा विरह सौ बार मक्का शरीफ जाकर हज करने के बराबर है ।
कानों में मिश्री घोलती आवाज दर्द से भीगी थी । सीधे गाने वाले के सीने से निकली दर्दीली आवाज दिल में उतरती चली जाती ।वह इतमिनान से गीत सुनने लगा । गाने वाला एक गीत खत्म करता , साथ की साथ दूसरा गीत छेङ लेता ।
पीङ तेरे जान दी किद्दा जरांगा मैं ।
तेरे बगैर जिंदगी दस की करांगा मैं ।
गाने सुनते सुनते कब वह नींद के आगोश में चला गया , उसे पता ही नहीं चला । सुबह जब सीटियाँ बजनी शुरु हुई और बाहर हलचल शुरु हुई तो उसकी नींद खुली ।
बाहर कैदी तेजी से इधर से होते हुए जा रहे थे । उसने भी पैरों में चप्पल फंसाई और बाहर आ गया । उसकी बैठक का दरवाजा संतरी कब खोल गया , उसे पता ही नहीं चला । वह नल पर पहुँचा तो सारे कैदी एक तरफ हो गये । एक कैदी नल पर हाथ धो रहा था उसने जल्दी से हाथ धोए और अपने कुर्ते से ही पौंछता हुआ सामने से हट गया । उसने हाथ धोकर मुँह और आँखों पर पानी के छींटे मारे और योग अभ्यास करने वालों की टोली में शामिल हो गया । किसी संस्था का कार्यकर्ता इन लोगों को प्राणायाम और अनुलोम विलोम सिखाने आया करता था । वह सबको सरल सरल योग आसनों का अभ्यास कराता रहा । करीब एक घंटा योग अभ्यास करने के बाद ये लोग अपनी अपनी कोठरियों की सफाई और नित्य क्रियाओं के लिए चले गये । रविंद्र एक पेङ के नीचे बैठा इन लोगों की भाग दौङ देखता रहा । अचानक उसे रात में गीत गाने वाले की याद आई । कितना सुंदर कितना मीठा गा रहा था वह लेकिन किससे पूछे कि कौन था वह । उसने इधर उधर देखा ।

बाकी फिर ...