होनी एव संयोग एक दूसरे के सहोदर है जो प्रारब्ध कि प्रेरणा है लेकिन इन तीनो को कर्म ज्ञान और सत्य से परिवर्तित किया जा सकता है।
प्रस्तुत कहानी में सुभद्रा से अजुर्न को किसी संतान का योग नही था मामा भगवान श्री कृष्ण स्वंय इंद्र का स्वरूप 16 वर्षो के लिए मांग कर लाएं थे जो अभिमन्यु था ।
सत्यता यह थी कि महाविनाशकारी महाभारत होना था जिसमे हुए युद्ध हत्याओं के अपराध को भी पांडव पक्ष को भोगना था जो पांडवों का प्रारब्ध था और उनके विजय के बाद भी स्थायी धर्म सत्ता स्थापना के मार्ग में बाधा थी क्योकि पांडवों के बाद उनकी वंश बेल का प्रारब्ध ही नही था जिसकी प्रेरणा से अश्वत्थामा ने शिविर में सोते पांडव पुत्रो का वध कर दिया और ब्रम्हास्त्र से उत्तरा के गर्भस्थ शिशु परीक्षित को भी मार डाला जिसके कारण उत्तरा के गर्भ में पल रहे परीक्षित मृत ही पैदा हुए जिसे भगवान श्री कृष्ण जीवन देकर परीक्षित नाम दिया और चिरंजीवी अश्वत्थामा कि जन्म के साथ मिली मणि निकाल कर पीड़ा कराह के जीवन के साथ ब्रह्मांड में निरंतर भ्रमण करते रहने का श्राप दिया।
सत्य सनातन के धर्म दर्शन सिंद्धान्त में आस्था रखने वालों के लिए बहुत स्प्ष्ट है कि कर्म योग के मार्ग दर्शक भगवान श्री कृष्ण जिनके द्वारा कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश देते हुए कर्म प्रधान जीवन मार्ग ही सत्य सनातन के धर्म दर्शन के रूप में स्थापित किया था ने कर्म प्रधान प्रभाव से संतानहीन पांडवों के भाग्य को परिवर्तित किया एव उन्हें उनका उत्तराधिकारी अभिमन्यु फिर परीक्षित के माध्यम से दिया दोनों ही कृष्ण कर्म योग के शाश्वत सत्य है ।
भाग्य प्रारब्ध को ही विधि विधान बताया जा सकता है धर्म के द्वारा ज्योतिष के द्वारा लेकिन इन्हें खोज कर आत्मसाथ किया जा सकता है कर्म के द्वारा जिसके द्वारा प्रारब्ध को परिवर्तित किया जा सकता है।
एक तथ्य यहॉ और स्प्ष्ट करना आवश्यक है कि महाभारत के युद्ध मे जब भीम ने अश्वत्थामा नाम के हाथी का वध किया और शोर मचाना शुरू किया कि अश्वस्थामा मारा गया तब गुरु द्रोण ने युधिष्ठिर से पूछा क्या अश्वत्थामा मारा गया?
युधिष्ठिर के उत्तर पर भगवान श्री कृष्ण द्वारा द्वारा शंख बजाए जाने पर गुरु द्रोण द्वारा स्थिति को स्प्ष्ट ना करते हुए हथियार रख दिया गया जबकि प्रारब्ध उनको स्वंय पता था
1- उनका बेटा चिरंजीवी है और उसे ब्रह्मांड में कोई मार ही नही सकता है यानी प्रारब्ध ही परिवर्तित हो गया
नही तो महाभारत युद्ध का परिणाम कुछ और ही होता।
2- जब तक गुरु द्रोणाचार्य कुरुक्षेत्र में युद्धरत थे तब तक अश्वस्थामा युद्ध भूमि में नही उतरा यह भी पिता होने के नाते गुरु द्रोण को ज्ञात था अर्थात प्रारब्ध परिवर्तित हो गया।
व्यक्ति के कर्म ही उसके जीवन वर्तमान का मर्म निर्धारित करते है जिसके अनुसार वह दिशा दृष्टि प्राप्त करता है और अपने सुख दुख का स्वंय वरण करता है# जाके प्रभु दारुण दुःख दीना ताकर मति पहिले हरि लीन्हा # को चरितार्थ करता परिहास एव पीड़ा का पात्र बनता रहता है।।
ईश्वरीय दो अवधारणाए ब्रह्मांड में सदैव लिए शाश्वत सत्य एव विराजमान है -
1-नारायण के पंचम अवतार भगवान परशुराम ।
2- शिव के ग्यारहवें रुद्रांश नर स्वरूप बानर हनुमान।
यही दो परमात्मा के सत्य है जो शाश्वत विराजमान है भक्ति किसकी करना है यह निर्णय स्वंय कर लीजिए
शैव है तो हनुमान जी कि वैष्णव है तो परशुराम जी कि शेष सब अवतार कार्य विशेष के लिए आए और चले मस्तसावतार सृष्टि निर्माण उद्देश्य था कच्छप अवतार नकारात्मक एव स्कारात्मक शक्तियों के समन्वय कि शक्ति से सृष्टि को परिचित करवाना था सर्वविदित है कि देव दानवों कि सयुक्त शक्ति से समुद्र मंथन से सृष्टि को अनमोल चौदह रत्न प्राप्त हुए विज्ञान भी इसे स्वीकार करता है एडिशन वल्व का आविष्कार किया और उसमें दो पोल बनाये पोसिटिव एव निगेटिव जब दोनों को मिलाते है तो दोनों कि समन्वय शक्ति से ही प्रकाश उत्तपन्न होता है।
भक्ति में भी मन मे उठते विचारो के विकार का शमन करना होता है उदाहरण के लिए यदि मानव कोई कार्य करने का विचार करता है तो उसके अंतर्मन से ही आवाज आती है कि जो वह करने जा रहा है वह सत्य है या असत्य नकारात्मक है या सकारात्मक ।
उदाहरण के लिए यदि आप किसी को आहत करने या हानि पहुंचाने का विचार कर रहे होते है तो आत्म सत्ता कि सकारात्मकता अंतर्मन से आवाज देती है यह उचित नही है मत करो ऐसा यदि आत्मसत्ता कि सकारात्मता प्रभवी हुई तो निश्चय ही मनुष्य अनुचित कार्य के विचार को त्याग देगा
यदि आत्मसत्ता कि नकारात्मता प्रभवी हुई तो वह मनुष्य को अनैतिक पीड़ादायक मार्ग के लिए तर्क कुतर्क के साथ आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करेगी जो विनाशकारी परिणाम के साथ अंत के अंधकार दल दल में धकेल देगा देव दांवव कि संयुक्त शक्ति का समुद्र मंथन युग सृष्टि प्राणि को नाकारात्मक प्रवृत्ति जो उसकी आत्म चेतन सत्ता में निहित है और जो उसे असत्य भोग विलास के अंधकार मार्ग कि प्रेरणा है को सयंम नियम आचरण से निष्प्रभावी करते हुए आत्म सत्ता कि चेतन सत्ता में विद्यमान सकारात्मता को जागृत करना होता है तब आत्म सत्ता कि नाकारात्मक सत्ता सकारात्मता कि सहोदर बन जाती है फल स्वरूप आत्मसत्ता से परम प्रकाश का प्रस्फुटन होता है जिसमे ईश्वरीय सत्य का दर्शन होता है तब प्राणि प्रारब्ध के परिणाम को परिवर्तित करने में सफलता प्राप्त कर लेता है भक्ति कि शक्ति का सत्य भी यही है।
धार्मिक मार्मिक पौराणिक सत्य तो यही है
#आश्वथाम बलिर व्यासो हनुमानः च विभीषणः परशुराम कृपाचार्य इति सप्तचिरंजीविनः#
अर्थात अभिशप्त आश्वथामा,देव प्रताड़ित पाताल लोक वासी बलि ,शिव रुद्रांश बानर हनुमान जो प्रकृति परमेश्वर के समन्वयक अवतार है विभीषण दानव कुल के राम भक्त मानव व्यास लेखक कवि विद्वान गुरूपरम्परा प्रतीक कृपा चार्य एव नारायण अवतार परशुराम यही सत्य है सनातन अनंत है जिन्होंने अपने प्रदुर्भाव के बाद सृष्टि को कभी छोड़ा।
हनुमान जी कि भक्ति की जाती है क्योकि वे स्वयं शिवांश है एव नारायणाश भगवान राम के भक्त भी लेकिन विभीषण के भक्ति की बात नही कि जाती जबकि वह हनुमान जी से कम राम भक्त विभीषण नही थे।
नारायण के साक्षात अवतार भगवान परशुराम ने राम को अपना धनुष दिया और# राम रमा धन करधन लेहु खिंचहू छाप मिटे संदेहू # यह राम विवाह के बाद का प्रसंग है जो राम को परशुराम का संकेत है कि आप विष्णु धनुष को धारण कर अपने अवतार कार्य पूर्ण करे ।
द्वापर में श्री कृष्ण को पाञ्चजन्य शंख देकर यही संकेत भगवान परशुराम श्री कृष्ण को देते है ।
कल्कि अवतार के समय भगवान कल्कि को अन्याय अत्याचार से पृथ्वी को भार मुक्त कराने के लिए तलवार भी भगवान परशुराम ही प्रदान करेंगे।
धर्म आस्था का अस्तिस्त्व है तो सत्य सनातन सत्यार्थ है सदैव धर्म को युग विज्ञान साक्ष्य सत्य के दर्पण से देखना एव आचरित करना चाहिए दृष्टिहीन होकर नही ।
एक तथ्य यह भी सत्य है कि भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि थे जो ब्रह्मर्षि थे तो माता चंद्रवंशी राजपूत पुरश्रेष्वा की पुत्री रेणुका थी जाती विवाद भी नही है भगवान परशुराम जी के साथ एव ईश्वरीय अवधारणा में कण कण व्याप्त का सत्य सारः भी है ।
भगवान परशुराम का पृथ्वी पर आगमन ही नारायण के उस प्रतिबिंब के स्वरुप में है जो सृष्टि को नित्य निरंतर अन्याय अत्याचार भय भ्र्ष्टाचार आदि से जागरूक करता रहता है और करता रहेगा नारायण स्वरूप कि उपस्थित में नारायण स्वरूपों का निश्चित उद्देश्यों के लिए राम ,कृष्ण कल्कि रूपों में आना और नारायण द्वरा ही उन्हें उनके अवतार उद्देश्य का मार्ग बताना प्रारब्ध भाग्य नही बल्कि #कर्म प्रधान विश्व करी राखा # का यथार्थ # यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत अभ्युथानम अधर्मस्य तादातम्य सृजान्यह्म परित्रणायम साधुच विनायाच् दुष्कृता धर्म स्थापनार्थाय संभवनि यगे यगे#
अर्थात कण कण में व्याप्त सृष्टि के पल पल को देख भी रहा है अपने बजरंग दृष्टि से परशुराम कि दृष्टि से और अधर्म कि दानवता प्रभवी होने पर प्रारब्ध को परिवर्तित करने वह किसी न किसी स्वरूप में एक अवतरित होता है जिससे कि धर्म कि धारणा को जीवंत बनाये रखा जाय एव उंसे धारण करने योग्य सुगम सरल सर्वग्रह बनाये रखा जाय।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।