अंतिम भेंट HARSH PAL द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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अंतिम भेंट





रवि मेरा नाम है और मैं भारतीय सेना के चौथे रेजीमेंट का सिपाही था यहां पर मैं पाठकगण को यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरे था कहने का पर्याय यह कतई नहीं है कि मुझे नौकरी से निकाल दिया गया अथवा मैं रिटायर ले ली या मैं इस्तीफा दे दिया अभी मेरी उम्र 21 वर्ष की है अथवा थी "थी" कहने का मेरा तात्पर्य यही है कि अब मैं जीवित नहीं सवेरे ही रेजीमेंट ने मुझे तिरंगे में लपेटकर मेरे परिवार को सौंप दिया तब से मेरे परिवार में सो के बादल छाए हैं मेरी माता जी का रो रो बुरा हाल है मेरी पत्नी प्रेमा अचेत-सी अवस्था में भूमि पर पड़ी है हमारे विवाह को अभी एक महीना भी पूरा ना हुआ था एक माह पहले शादी के दिन ही मैंने अपनी पत्नी से विदा ली थी और आज एक महीने बाद इस घर में प्रवेश किया स्वयं नहीं बल्कि चार साथियों के कंधों पर| उसे समय में चल सकता था बोल सकता था प्रेमा को अपने प्रेम से अनुभावित कर सकता था परंतु अब इस समय इस अवस्था में मैं यह सब करना तो चाहता हूं परंतु कर नहीं सकता क्योंकि अब मेरा शरीर संचालित नहीं गतिमान नहीं कांतिमान नहीं अब तो मेरा शरीर सूखे हुए लक्कड़ की भांति शिथिल हो जमीन पर पड़ा है सारी कांति सारी शोभा सारी सुंदरता क्षण भर में न जाने कहां लुप्त हो गई अब तो मैं प्राणहीन होकर सुखकर लक्कड़ हुआ जाता हूं शरीर पीला पड़ चुका है मरने के उपरांत मेरे सुंदर और संजीव शरीर की यह दशा होगी मैं जीवित रहते ऐसा कभी नहीं सोचा था मैं ही क्या कोई भी मनुष्य अपनी मृत्यु उपरांत होने वाले ऐसे शारीरिक बदलाव की कल्पना नहीं कर सकता हम जीवन भर अपनी सुंदर काया पर घमंड करते रहते हैं मरण उपरांत वही काया मिट्टी में मिल जाती है पाठकगण का समय मूल्यवान है और मैं इसे नष्ट नहीं करना चाहता इसलिए अब मैं वह बात कहता हूं जो मेरे जीवन के लिए महत्वपूर्ण है जहां से मेरे जीवन की शुरुआत हुई आप यह तो पहले ही जानते हैं कि रवि मेरा नाम है अब मेरे जन्म के बारे में सुनिए मेरा जन्म पंजाब के लोनवाला गांव में हुआ यह पंजाब के अमेठी जिले का एक गांव है यहां की सुबह निराली है सुबह का वह दृश्य अभी भी मेरी आंखों के सामने आता है वह सुबह की चाय वह सुबह की मोर की आवाजे वह चिड़ियों का चहचहाना वह जी को ठंडा कर देने वाली बयार सब कुछ प्रत्यक्ष जान पड़ता है मेरे पिताजी का नाम रामकिशन था वह कायस्थ ब्राह्मण थे मेरी माता जी का नाम कमला था वह एक साधारण सी स्त्री थी परंतु पूजा पाठ धर्म संस्कृति आदि में उनकी विशेष रूचि थी वह घंटो भगवान की मूर्ति के सामने बैठी रहती थी मेरी माता की एक और विशेषता थी द्वार पर आए भिक्षुक को कभी खाली न भेजती थी यह थी मेरी माता की बात अब मेरी बहन के बारे में सुनिए दुलारी मेरे से तीन वर्ष छोटी थी जब मैं 11 का था तो वह 8 की थी जब मैं 16 का हुआ तो वह 13 की सुंदर युवती हो गई अब मेरी आयु रुक चुकी है परंतु वह अब 18 की हो गई है और उसकी उम्र अभी भी क्रमबद्ध रूप से चल रही है वह हमारे घर में सबसे छोटी थी उसकी नटखट शरारतें आज भी मेरे जहन में घूमती रहती हैं उसकी शरारतों का एक किस्सा अभी भी मुझे याद है गर्मी का मौसम था उसे समय मेरी उम्र लगभग 10 वर्ष की होगी दुलारी की उम्र 7 वर्ष की थी जी को लुभाने वाली ठंडी ठंडी बयार चल रही थी मैं चारपाई बिछा आंगन में लेट रहा था कुछ देर में मां निंद्रा ने मुझे अपनी गोद में सुला दिया जब मेरी निंद्र टूटी तो मैंने देखा दुलारी मेरी तरफ देख देख खिल- खिलाकर कर हंस रही थी मैंने चारपाई से उठने का प्रयास किया कुछ ही समय में मुझे ज्ञात हो गया की दुलारी ने मेरे हाथों पैरों को खाट से बांध मेरे चेहरे पर स्याही से विचित्र आकृति बना दी है उसे समय मुझे बहुत गुस्सा आया परंतु आज हंसी आती है और दुख इसलिए होता है कि आज वह मेरी लाश को देख देख बिलख बिलख कर रो रही है और मैं उसे शांत नहीं कर पाता यह था मेरे परिवार का परिचय अब आगे सुनिए मेरी प्रारंभिक शिक्षा गांव लोन वाला में ही हुई और इंटर की शिक्षा पंजाब मेडिकल कॉलेज से हुई इसके बाद में पंजाब के सैन्य संगठन में भर्ती किया गया मेरे नाना जनरल थे उन्होंने ही मुझे यहां भर्ती कराया था उनका नाम प्रकट करना मैं उचित नहीं समझना क्योंकि वह अब इस दुनिया में नहीं रहे वहां मुझे 6 महीने का प्रशिक्षण दिया गया जैसे दौड़ भाग ,बंदूक चलाना, निशाने लगाना, परमाणु हथियारों का ज्ञान, उन्हें चलाना आदि सब कुछ मैंने सीखा इसके बाद में फिर घर लौट आया क्योंकि पूस के महीने में मैंने नौकरी की हामी भरी थी अब घर की उसे बात को विस्तार से कहता हूं संध्या का समय था सूरज आकाश मंडल में विलुप्त हो चुका था बस उनके सारथी अरुण की लालिमा दिख पड़ती थी मैं दुलारी माता जी और पिताजी आंगन में चारपाई बिछाए बैठे थे पिताजी ने मुझसे कहा :- क्यों रवि कब जा रहे हो पहरे पर
मैंने कहा:- पिताजी अभी समय है लगभग 3 महीना
पिताजी:- 3 महीना इतना लंबा समय
मैं :- जी, पिताजी
पिताजी ने माता जी की तरफ देखा उन्हें देख पिताजी मुस्कुराए उनकी मुस्कुराहट में एक रहस्य छुपा था मैं यह तो समझ गया लेकिन वह रहस्य क्या था यह अभी प्रकट न हुआ था पिताजी ने मेरी तरफ हंसते हुए कहा:- तो रवि बेटा पढ़ाई पूरी हो गई| नौकरी लग गई अब शादी के बारे में क्या ख्याल है
मैंने झेंपते हुए कहा:- किसकी शादी पिताजी
पिताजी ने हंसते हुए कहा:- तुम्हारी बेटा और किसकी शादी
मैं:- परंतु पिताजी मैंने कभी शादी का विचार नहीं किया और ना ही मैं शादी करना चाहता हूं मैं उसे अकेला छोड़ने के लिए शादी नहीं कर सकता और फिर पिताजी आप तो जानते हैं सैनिक की नौकरी कैसी होती है हमारे जीवित लौटने या न लौटने का कोई अंदाजा नहीं है हम आज जीवित हैं पर कल शायद जीवित न रहे मुझे बीच में रोक..
माताजी ने कहा:- ऐसा ना कहो बेटा !तुम्हारे सिवा हमारा कौन है अगर ऐसा कभी हुआ तो हम तो जीते जी मर जाएंगे और फिर बेटा शादी विवाह तो समाज का उसूल है तुम इसे तोड़ नहीं सकते अगर तुम शादी नहीं करोगे तो क्या यूं ही जीवन काट दोगे अकेले तुम्हारे बुढ़ापे में तुम्हें तुम्हारी औलाद की आवश्यकता होगी तुम्हारी औलाद तुम्हारी सेवा करेगी इस पर विचार करो बेटा
मैं:- माताजी, मैं अपने लिए किसी की पूरी जिंदगी नरक बनते नहीं देख सकता
मैं इतना का ही रहा था कि पिताजी ने मुझे डांटे हुए कहा:- चुप रहो तुम, दो अक्षर क्या जान गए हमें सीखने लगे तुम्हारा विवाह होगा और जरूर होगा और अगर कुछ इधर-उधर करने की कोशिश की तो मुझसे बुरा कोई ना होगा समझ लेना रामपुर के पंडित दीनदयाल अपनी कन्या के लिए कह रहे थे सोमवार को आने का वचन दे आया हूं बड़ी प्यारी बच्ची है फूलों सा रंग है उसका प्रेमा नाम है सोमवार को तैयार रहना इतना कहकर पिताजी भीतर चले गए अब धीरे-धीरे दिन बीतने लगे एक दिन बीता दूसरा दिन बीता और सोमवार आ गया पिताजी सुबह से ही तैयार हो इधर-उधर घूम रहे थे वे हम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे कुछ समय पश्चात हम बाहर आए हम पिताजी के साथ रामपुर पहुंचे पंडित दीनदयाल और पिताजी आपस में घनिष्ठ मित्र थे वह भी हमारे ही तरह कायस्थ ब्राह्मण थे परंतु उनका गोत्र हमसे कुछ भिन्न था उन्होंने भली प्रकार हमारा स्वागत किया उनके आदर सत्कार में कोई कमी ने दिख पड़ती थी यहां पर मैं यह बात भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि मेरे पिताजी ने मुझे पहले ही समझा दिया था कि वहां कोई बखेड़ा ने खड़ा कर देना मैं चुपचाप नज़रे नीचे किए बैठा था पंडित दीनदयाल ने मेरी और देखकर मुस्कुराते हुए कहा:- पंडित जी, लड़का बड़ा सीधा है आपका
पिताजी बोले:- भनते ,अब लड़का हमारा कहां अब तो लड़का तुम्हारा हुआ और लड़की हमारी हुई
इतना कहकर पिताजी हंसने लगे पंडित जी के मुख पर भी मुस्कान की लहर दौड़ गई
माता जी ने कहा:- भाई साहब जरा लड़की को बुला दीजिए पंडित जी ने आवाज लगाई:- प्रेम बेटी! जरा बाहर तो आना
वह बाहर आई उसका वह अनुपम सौंदर्य देख मैं भी दंग रह गया गोरा दूध जैसा रंग हिरण के समान आंखें चाल डाल सब कुछ अनूठा था उसके बाल लताओं की भांति लहर रहे थे उसके कानों के कुंडल पांव की पाजेब सब कुछ उसके रूप को और अधिक निखार रहे थे ऐसा लग रहा था मानो मेनका सरग छोड़ धरती पर उतरी है उसके रूप सौंदर्य को देख में स्तंभित रह गया मेरी समाधि तब भंग हुई जब पंडित जी ने मुझे प्रश्न किया:-क्या करते हो बेटा
मैं:- जी, सेना में भर्ती हुआ हूं 3 महीने बाद जॉइनिंग है मेरी माता ने प्रश्न
किया:- बेटी तुम कहां तक पढ़ी हो
प्रेमा:- माता जी में डॉक्टरी कर रही हूं इसके बाद माताजी ने और ने जाने कितने प्रश्न किये और वह भी उन सब प्रश्नों का सहजता से उत्तर देती रही मैं तो बस वहां बैठा उसे देवी की सूरत को निहार रहा था मेरी समाधि तब भंग हुई जब पिताजी ने मुझसे कहा अब हमें चलना चाहिए इसके बाद हम सब घर आ गए घर जाकर पिताजी ने मुझसे कहा:- कहो अब जनाब की क्या राय है मैं मुस्कुराकर वहां से चला गया कुछ समय पश्चात दुलारी द्वारा मुझे पता चला कि अगले महीने की 27 तारीख को मेरा विवाह है मैं फूल ने समाया अब एक-एक दिन भारी हो गया मैं इस बात को भी स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसके बाद प्रेमा से मेरी और कई भेंट हुई और हम दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे धीरे-धीरे दिल बीते महीना बिता और शादी का दिन आ गया मैं आज बहुत खुश था सवेरे से ही घर में विवाह की तैयारी होने लगी घर आंगन सब जगह सगे संबंधी रिश्तेदारों की चहल-पहल थी बड़ी धूमधाम से मेरा विवाह हुआ संध्या समय की बात है मैं विवाह कार्य से निर्वत हो चारपाई पर बैठा अपने मंगल दोनों की कामना कर रहा था कि मेरे फोन की घंटी बजी मैंने फोन उठाया उस तरफ से आवाज आई:- हेलो ,हेलो मेजर विक्रम सिंह स्पीकिंग.....
मैं:- जी कहिए
विक्रम सिंह:- क्या तुम रविराज सिंह सराभा बोल रहे हो
मैं:- जी सर, में ही रविराज सिंह हूं
मेजर:- रविराज तुम्हें आज से ड्यूटी ज्वाइन करनी होगी
मैं:- मगर मेजर साहब मेरी जॉइनिंग तो....
मैं इतना ही कहा पाया था कि मेजर ने कहा:- मैं जानता हूं कि तुम क्या कहना चाहते हो यह समय इन बातों का नहीं है हमें सेना की आवश्यकता है कश्मीरी बॉर्डर पर हमला हो चुका है शत्रु हम पर भारी हो रहे हैं आज शाम एक ट्रेन पंजाब से कश्मीर की तरफ आएगी उसमें कुछ सैनिक होंगे तुम भी उनके साथ कश्मीरी बॉर्डर पर आ जाना
इतना कहकर मेजर साहब ने फोन काट दिया मैं यह सोचने लगा कि इस खबर को सुनकर प्रेमा की क्या हालत होगी आज ही हमारा विवाह हुआ और आज ही में उसे छोडे जाता हूं मैं यह सब सो रहा था कि पिताजी आ गए मैंने सारी बात पिताजी को बताई पिताजी ने पूछा:- फिर कब आना होगा
मैंने उत्तर दिया:- पता नहीं कब आना हो
पिताजी ने कहा:- मैं तुम्हारी मां का ख्याल रखूंगा और उसे समझा दूंगा परंतु उस बेचारी को कौन समझाएगा आज ही तुम्हारा विवाह हुआ और आज ही तुम जा रहे हो
मैं:- पिताजी जाना तो होगा
उसके बाद पिताजी कुछ ने बोले और वहां से चले गए मैं भी उठ साहस घर प्रेमा के पास पहुंचा मैंने डरते डरते प्रेमा को सारी बात बताई परंतु यह देखकर मुझे कुतूहल हुआ की प्रेमा के भाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ उसने विनय पूर्वक कहा:- तो संध्या में ही जाओगे
मैंने कहा:- हां
मेरे इतना कहते ही वह उठी और उसने मेरे जाने की तैयारी की मैं अब भी आवाक- सा उसे ताक रहा था कुछ समय बाद में घर से विदा होने लगा अब मुझे द्वारा तक छोड़ने सब आए परंतु प्रेमा ने आई मैं प्रेमा से मिलने कमरे में गया तो देखा प्रेमा पलंग पर लेटी रो रही है मैंने उससे कहा:- प्रेमा यह आंसू क्यों
प्रेमा ने रोते हुए मुझे प्रसन्न किया:- फिर कब भेंट होगी
मैंने कहा:- ईश्वर ने चाहा तो जल्दी ही भेंट होगी
इसके आगे में कुछ में बोल सका मेरी आंखें भी नम हो गई इसके बाद प्रेमा मुझे छोड़ने द्वारा तक आई और मैं घर से विदा ली ट्रेन पंजाब से चली और लगभग रात के 3:00 कश्मीर पहुंची वहां मुझे मेरे दो मित्र मिले एक का नाम निहाल सिंह और दूसरे का नाम दयाल सिंह था वे बचपन के मित्र थे उनके साथ ही मैं स्टेशन से कश्मीरी बॉर्डर पर गया वहां का दृश्य आप समझ ही सकते हैं इसके बाद हम मेजर से मिले उन्होंने हमसे कहा:- देखो, हमारे पास सेना की कमी है इसलिए तुम्हें होशियारी से काम लेना होगा तुम तीनों सेना की एक टुकड़ी लेकर पश्चिम का मोर्चा संभालो इसके बाद मुझे निहाल सिंह और भाई दयाल सिंह को पश्चिम की मोर्चे पर खड़ा कर दिया गया हम केवल 18- 20 लोग थे हम लोग ने सारी रात शांतिपूर्वक बिताई परंतु सूर्य की लालिमा के साथ हम पर काले बादल छाए सुबह होने में कुछ देर थी अभी थोड़ा अंधेरा ही था शत्रु ने हम पर हमला कर दिया हमने भी अपने हथियार तैयार कर लिए दोनों तरफ से गोली की बरसात होने लगी हमारे साथी भी धीरे-धीरे मरने लगे कुछ देर बाद लड़ाई समाप्त हो गई मैं निहाल सिंह भाई दयाल सिंह बस हम तीनों ही जिंदा बच गए थे उसे भीषण लड़ाई में लाशों के ढेर लग गए चारों तरफ खून की नदी दौड़ पड़ी जब हम अपने कैंप में जाने लगे तो एक शत्रु जो अदमरी हालत में तड़प रहा था उसने पीछे से मेरे ऊपर गोली चला दी बेशर्म गोली मेरे सीने को पार कर गई यह देखते ही मेरे दोनों मित्र घबरा गए उन्होंने एक खाली बंदूक उठाई और उसके सिर पर दे मारी मैं तड़प तड़प कर वही शांत हो गया मैं भूमि पर गिर पड़ा यह सब देख मेरे मित्रों की आंखों से आंसू गिरने लगे मेरी हालत अब बहुत नाजुक हो चुकी थी मुझे अब लगने लगा कि मेरा बचना कठिन है मैंने अपने मित्रों से कहा:- भनते! तुम दोनों ने मेरे कदम कदम पर मेरी सहायता की है जीवन के इस अंत समय में मैं तुम्हारा आभार व्यक्त करता हूं तुम्हारे जैसा मित्र प्रत्येक मनुष्य के साथ हो जीवन के अंत में मैं तुम्हें एक कार्य सौंपे जाता हूं घर जाकर प्रेमा से कहना कि वह हमारी अंतिम भेंट थी और मेरे परिवार का ख्याल रखना इतना कहते ही मैं भाई दयाल सिंह की गोद में अपने प्राण त्याग दिए भाई निहाल सिंह ने रोते हुए मेरी आंखें बंद कर दी यही मेरे जीवन का अंत हुआ इसके बाद मेरे शरीर को तिरंगे में लपेट ताबूत में रखकर मेरे घर भिजवाया गया घर जाकर निहाल सिंह ने मेरा संदेश प्रेमा को दिया तब से वह अचेत पड़ी है उसका चित ठिकाने नहीं है और मैं अभागा उसे समझा नहीं सकता मैं उससे बात करना चाहता हूं कहना चाहता हूं की प्यारी मुझे क्षमा करना मैं तुम्हें कोई सुख ने दे सका इस नश्वर संसार में तुम्हें अकेला छोड जाता हूं और यह भी की अपना ख्याल रखना क्योंकि अब तुम्हारा पति तुम्हारे पास नहीं है मैं तुम्हारे पास नहीं हूं अब मैं जाता हूं अब मैं तुम्हें छोड़ जाता हूं अब हम कभी ना मिलेंगे वह क्योंकि वो हमारी "अंतिम भेंट" थी

शीर्षक:-अंतिम भेंट