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रक्तदान शिविर के कुछ दिन बाद की बात है। सुबह की ठंडी हवाओं के बाद सूर्योदय के साथ ही पृथ्वी ठंडक की केंचुल उतार जीवंत होने लगी थी। ऐसे सुहाने मौसम में कॉलेज-कैंटीन के बाहर रखी कुर्सियों पर बैठे तथा धूप का आनन्द लेते हुए प्रो. दर्शन अपने दो साथियों के साथ चाय की चुस्कियों के बीच गपशप कर रहे थे। इसी बीच उसने कहा - ‘रक्तदान शिविर के आयोजन से एक बात तो क्लीयर हो गई कि यह आयोजन प्रिंसिपल ने शीतल मैम को खुश करने के लिए किया था। कोई व्यक्ति किसी अन्य के लिए तभी ज़हमत उठाने को तैयार होता है, जब उसका कोई स्वार्थ होता है। प्रिंसिपल और शीतल के बीच नज़दीकियाँ बढ़ रही हैं, यह साफ़ दिखाई देने लगा है। … मुझे तो यह भी पता चला है कि डॉ. मधुकांत को आमन्त्रित करने से पहले ये दोनों उनसे मिलने के लिए रोहतक गए थे….।’
प्रो. श्रीनिवास ने उसे टोकते हुए कहा - ‘प्रो. साहब, शीतल बहुत सबमिसिव किन्तु इंटेलिजेंट लेडी है, फुकरेपन से कोसों दूर है। वह डॉ. मधुकांत के साहित्य पर पीएचडी कर रही है। यह बात भरी मीटिंग में प्रिंसिपल साहब ने खुद बताई थी। यदि उनके मन में चोर होता तो वे यह बात जगज़ाहिर क्यों करते, किसी और की ड्यूटी भी लगा सकते थे! दूसरे, कॉलेज में रक्तदान शिविर का आयोजन करना एक बहुत ही बढ़िया कदम था। इससे विद्यार्थियों को बहुत अच्छा संदेश मिला है। सेठ जगन्नाथ की उदारता से यह भी सिद्ध हो गया कि भविष्य में जन-कल्याण के किसी कार्यक्रम की योजना बनती है तो सरकारी अनुमति और अनुदान की प्रतीक्षा किए बिना भी शहर के दानवीरों की सहायता से ऐसे कार्यक्रम आसानी से आयोजित किए जा सकते हैं। …. देखा नहीं आपने, कितनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों ने आगामी रक्तदान शिविर के लिए हाथ उठाए थे!’
प्रो. दर्शन के तवे की सूई तो वहीं अटकी हुई थी, जहाँ उसने बात छोड़ी थी। उसने कहा - ‘सर, मैं आपकी बात से सहमत हूँ कि शीतल सबमिसिव लेडी है, लेकिन उसमें ग़ज़ब का आकर्षण है। उसके चेहरे की लुनाई को देखकर कोई भी उसकी उम्र को लेकर भ्रम में पड़ सकता है। उसके दुखद अतीत की छाया उसकी काया को प्रभावित करने में असफल रही है। प्रिंसिपल का उसकी तरफ़ झुकाव बेवजह नहीं लगता मुझे! …. आप सबको अपने जैसा सच्चरित्र समझते हैं, लेकिन दुनिया रंग-बिरंगी है, सर। कौन, कब, कौन-सा गुल खिला देगा, कोई नहीं जानता? लेकिन इतना मुझे पता है कि प्रिंसिपल और शीतल इकट्ठे रोहतक गए थे।’
‘चलो, मान लेते हैं कि …’
‘सर, मानने की बात नहीं, यह फैक्ट है।’
‘फैक्ट भी है तो कौन-सा आसमान टूट पड़ा! दोनों मैच्योर हैं, अपना भला-बुरा अच्छी तरह समझते हैं। किसी के निजी मामलों से हमें क्या लेना-देना?’ कहकर प्रो. श्रीनिवास उठ खड़े हुए।
प्रो. दर्शन को बुरा तो लगा कि चटपटी बातचीत का मज़ा किरकिरा कर दिया प्रो. श्रीनिवास ने, लेकिन अब उसे भी उठना पड़ा। तीसरा व्यक्ति सारी गप्पबाजी का मूक दर्शक बना रहा था। जैसा प्रायः संस्थानों में होता है, कोई-न-कोई व्यक्ति संस्थान के मुखिया के लिए उसकी पीठ पीछे उसके कान और आँखों का काम करता है, वैसा ही यह व्यक्ति था।
प्रिंसिपल किसी का मुँह तो बन्द नहीं कर सकते थे। इसलिए सोचने लगे कि इस कानाफूसी का अन्त करना है तो अपने मन की बात मुरलीधर सर के सामने रखकर शीतल का हाथ माँगना पड़ेगा। उस रात उन्होंने मन में यही निर्णय लिया।
कहावत है - मेरे मन कछु और है, साईं के कछु और। मनुष्य कोई योजना बनाता है, लेकिन परमात्मा ने कुछ और तय कर रखा होता है। प्रिंसिपल ने रात को सोचा था कि कॉलेज में शीतल को कहूँगा कि वीकेंड में मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा मुरलीधर सर से मिलने। किन्तु कॉलेज जाने से पहले ही शीतल का फ़ोन आ गया। उसने बताया कि उसके भाई ने मम्मी को धक्का दे दिया और मम्मी फ़र्श पर गिर गई। गिरने से उनके कूल्हे का चूला टूट गया है। इसलिए मैं घर जा रही हूँ तथा मैंने अपने पड़ोसी को लीव एप्लिकेशन कॉलेज में देने के लिए कहा है। प्रिंसिपल ने उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा कि यदि किसी तरह की मदद की ज़रूरत हो तो कहने में संकोच मत करना। शीतल ने धन्यवाद करते हुए फ़ोन बन्द कर दिया।
प्रिंसिपल ने सोचा, दो दिन बाद कॉलेज की छुट्टी रहेगी। मैं छुट्टी वाले दिन शीतल की मम्मी का पता लेने के लिए जाऊँ तो उन्हें अच्छा लगेगा।
शाम को घर आकर प्रिंसिपल ने फ़ोन करके शीतल की मम्मी का हाल-चाल पूछा। शीतल ने उन्हें बताया कि ऑपरेशन तो हो गया है, किन्तु चार-पाँच दिन अस्पताल में लगेंगे। जब तक मम्मी घर नहीं आ जाती, तब तक मेरा कॉलेज आना सम्भव नहीं होगा। इसपर प्रिंसिपल ने कहा कि तुम्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं, मैं लीव एक्सटेंड कर दूँगा।
सप्ताहांत में जब प्रिंसिपल ने फ़ोन किया तो शीतल ने पहले तो उन्हें न आने के लिए कहा, लेकिन उनके निश्चय को देखकर अस्पताल आने के लिए कह दिया।
जब प्रिंसिपल अस्पताल पहुँचे तो मुरलीधर और शीतल वहाँ उपस्थित थे। प्रिंसिपल ने मुरलीधर के चरणस्पर्श करते हुए प्रणाम किया तो उन्होंने आशीर्वाद देते हुए कहा - ‘प्रिंसिपल साहब, आपने आने का कष्ट क्यों किया? फ़ोन पर आपको शीतल ने स्थिति से अवगत तो करवा ही दिया था।’
प्रिंसिपल ने हल्के से उलाहने के स्वर में कहा - ‘सर, क्या आप मेरा नाम भूल गए हैं जो प्रिंसिपल साहब कहकर बुला रहे हैं?’
चाहे शीतल मुरलीधर को प्रिंसिपल के वर्तमान में स्वभाव तथा सद्व्यवहार के बारे में बता चुकी थी, फिर भी लगभग तीस वर्ष पूर्व रहे अपने शिष्य की विनम्रता ने उन्हें अभिभूत कर दिया। इस समय उनकी मन की आँखों के समक्ष मानवेन्द्र के स्कूली जीवन की बहुत-सी स्मृतियाँ प्रत्यक्ष हो उठीं। उन्होंने कहा - ‘नहीं मानवेन्द्र, मुझे तो तुम्हारी सभी बातें स्मरण हैं। होता क्या है कि जब अपना शिष्य जीवन में उन्नति के शिखर छूता है तो गर्व से सीना फूल जाता है।’
‘सर, यह सब आपकी शिक्षा और संस्कारों का सुफल है।’
मानवेन्द्र द्वारा कृतज्ञता ज्ञापन मुरलीधर और शीतल दोनों को बहुत अच्छा लगा। शीतल की मम्मी मुक्ता ने भी बेड पर लेटे हुए हाथ उठाकर मानवेन्द्र को आशीर्वाद दिया।
चाय के बाद मुरलीधर संकेत करके मानवेन्द्र को अपने साथ बाहर ले आए। कुछ औपचारिक बातों के बाद उन्होंने उनसे कहा - ‘मानवेन्द्र, तुम्हें तो शायद पता ही होगा कि शीतल का हमने विवाह किया था जो बुरी तरह से असफल रहा। उसमें शीतल का कोई दोष नहीं था। हम ही हालात के मारे लड़के वालों को परखने में चूक कर गए। …. शीतल तुम्हारा बहुत सम्मान करती है। एक बात कहना चाहता हूँ कि तुम उसे पुनः विवाह करने के लिए समझाओ, क्योंकि जीवन का सफ़र अकेली लड़की के लिए पूरा करना बड़ा मुश्किल होता है। ….’
प्रिंसिपल को लगा कि अब अपने मन की बात ‘सर’ से की जा सकती है, किन्तु उसने इतना जल्दी करना उचित न समझते हुए इतना ही कहा - ‘मैं समझ सकता हूँ सर, आपकी चिंता। मैं कोशिश करूँगा।’
‘हो सकता है, तुम्हारे समझाने से शीतल अपना इरादा बदल ले। ज़रूरी नहीं होता कि एक बार धोखा खाने के बाद जीवन में हर कदम पर आपको धोखा ही मिलेगा। देखो न, शीतल के जीवन में प्रवीर जैसा मित्र और तुम्हारे जैसा सरपरस्त भी तो आया है। इसलिए यदि वह विवाह के लिए तैयार हो जाए तो वर की तलाश भी शुरू की जा सकती है।’
‘सर, मैं पूरी कोशिश करूँगा। अब आज्ञा दें, मैं चलता हूँ।’
‘मानवेन्द्र, तुम्हारा आना बहुत अच्छा लगा। धन्यवाद।’
प्रिंसिपल के जाने के लगभग एक घंटे बाद प्रवीर कुमार भी अस्पताल पहुँच गया। वह अपने साथ दोपहर का खाना बनवाकर लाया था। मुरलीधर ने कहा - ‘प्रवीर बेटे, खाना लाने की क्या आवश्यकता थी? यहाँ कैंटीन में खाना मिल जाता है।’
‘बाबू जी, यह विचार तो शीतल की भाभी के मन में आया था, मैंने तो इस विषय में सोचा भी नहीं था। … कान्हा कहाँ है, दिखाई नहीं दे रहा?’
‘बेटे, जबसे शीतल की मम्मी को अस्पताल लेकर आए हैं, तब से जब मुझे और शीतल दोनों को अस्पताल आना होता है तो उसे घर में छोड़कर बाहर ताला लगाकर आना पड़ता है।’
‘बाबू जी, वैसे तो आप बड़े हैं, आपका अनुभव भी बहुत है, किन्तु मेरे विचार में इस हादसे के बाद कान्हा को घर में बन्द करके आना ठीक नहीं।’
मुरलीधर की बजाय जवाब शीतल ने दिया - ‘प्रवीर, पहले दिन जब मैं अस्पताल पहुँची थी तो मैंने भी पापा को यही बात कही थी, किन्तु विवशता है, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं। उसे अपने साथ अस्पताल में भी नहीं ला सकते। अब तो एक-दो दिन की बात है। मम्मी की हालत पहले से बेहतर है। छुट्टी मिलने के बाद कान्हा वाली समस्या भी नहीं रहेगी।’
शाम होने के साथ अँधेरा ही नहीं घिरने लगा था, मौसम भी ख़राब होने लगा था। बादलों का गर्जन-तर्जन सुनाई देने लगा था। इसलिए मुरलीधर ने प्रवीर कुमार को कहा - ‘बेटे, तुम समय से निकल लो, मौसम को देखते हुए देरी करने का कोई फ़ायदा नहीं।’
प्रवीर कुमार को विदा करके शीतल भी रात का खाना बनाने तथा कान्हा को खिलाने के लिए अस्पताल से घर की ओर रवाना हो ली। जब उसने घर पहुँचकर ताला खोला तो घर में अँधेरा था। उसने लाइट जलाई तो सामने का दृश्य देखकर उसकी चीख निकल गई।
सामने पड़ा था कान्हा का मृत शरीर। उसके मुख से निकली झाग भी पपड़ी में बदल चुकी थी। पास ही पड़ी थी फिनाइल की बोतल, जिसमें से काफ़ी फिनाइल फ़र्श पर बिखरी हुई थी। स्पष्ट था कि कान्हा ने फिनाइल पी थी और उसकी मृत्यु काफ़ी पहले हो चुकी थी।
सुबह नाश्ता बनाकर, कान्हा को खिलाकर जब वह अस्पताल जाने के लिए तैयार हो रही थी तो कान्हा ने साथ चलने की ज़िद की थी, लेकिन उसने उसे समझाकर घर पर रहने के लिए राज़ी कर लिया था। वैसे शीतल जिस दिन से यहाँ आई है, वह देख रही थी कि जब भी कान्हा को घर में बन्द करके जाने लगते थे तो वह मुँह बिसूरने लगता था। बार-बार मम्मी के पास जाने की ज़िद करता।
अपने को सँभालते हुए शीतल ने मुरलीधर को फ़ोन मिलाया। फ़ोन मिलते ही कहा - ‘पापा, कान्हा …. ,’ बात पूरी किए बिना ही सुबकने लगी।
शीतल के सुबकने की आवाज़ सुनकर मुरलीधर ने बेचैनी से पूछा - ‘क्या हुआ कान्हा को?’
‘कान्हा नहीं रहा …..,’ कहकर शीतल ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।
‘शीतल बेटे, मैं अभी आ रहा हूँ,’ कहकर उन्होंने फ़ोन बन्द कर दिया। मुक्ता को बिना कुछ बताए तथा नर्स को स्थिति से अवगत करवाकर उन्होंने घर की राह पकड़ी।
मुरलीधर के घर पहुँचते ही शीतल रोती हुई उनसे लिपट गई। रोते-रोते कहने लगी - ‘पापा, मैं ना कहती थी कि भाई को इस तरह अकेले घर में बन्द करना ठीक नहीं।’
‘बेटे, बिल्कुल तूने कहा था। मैं भी समझता था कि ऐसा करना ठीक नहीं, लेकिन हमारी विवशता थी। …. फिर भी ऐसा ख़्याल तक मन में नहीं आया था कि कान्हा ऐसा कुछ कर सकता है… क्या किया जा सकता है? मैं तो परेशान हूँ कि तेरी मम्मी को कैसे बता पाऊँगा! वो तो अपना बुरा हाल कर लेगी।’
‘तो क्या अभी आपने मम्मी को नहीं बताया?’
‘कैसे बता सकता था बेटे? पता लगने पर मेरा यहाँ आना सम्भव हो पाता! मैं तो नर्स को समझाकर चला आया हूँ।’
पिता-पुत्री का रोना सुनकर दो-एक पड़ोसी भी आ गए। मृत शरीर के नीचे दरी बिछाकर कपड़े से ढका गया। पड़ोसियों ने मुरलीधर को ढाढ़स बँधाया। एक पड़ोसन ने पिता-पुत्री को पानी पिलाया और पूछा - ‘मास्टर जी, अब ‘संस्कार’ तो सुबह ही किया जाएगा?’
‘हाँ, सुबह ही करेंगे बहन जी। अभी तो मुझे अस्पताल जाकर मुक्ता को भी बताना है और उसे सम्भालना है।’
‘आप अस्पताल जाकर मुक्ता बहन को सम्भालो, हम शीतल के पास हैं।’
जैसा मुरलीधर ने सोचा था, वैसा ही हुआ। कान्हा की मृत्यु की बात सुनते ही मुक्ता तो बुरी तरह विलाप करने लगी - ‘हाय ओए रब्बा, मुझे छोड़ मेरे लाल को क्यों छीन लिया। उसके कामों में लगी रहती थी तो तेरा अन्याय भी भूल गई थी। अब मैं कैसे जिऊँगी …..?’
मुरलीधर ने दुखद समाचार देने से पहले नर्स को बुला लिया था। उसने ही मुक्ता को बेड पर अपने हाथ के दबाव से हिलने नहीं दिया। मुरलीधर ने ढाढ़स देते हुए कहा - ‘मुक्ता, कान्हा का हमारे साथ इतना ही सम्बन्ध था। मैं ख़ुद अपने आपको उसकी मृत्यु के लिए दोषी मानता हूँ। इन हालात में उसे घर पर अकेला छोड़ना और बाहर से ताला लगाना ही ग़लत था …।’
‘नहीं, इसमें आपका कोई क़सूर नहीं। मेरी ही क़िस्मत ख़राब है। ना मैं गिरती, ना मेरा कूल्हा टूटता, ना यह नौबत आती!’
‘बस मुक्ता, बस। तुम्हें हिम्मत करनी पड़ेगी, तभी ठीक हो पाओगी, नहीं तो बेड से उठना मुश्किल हो जाएगा।’
‘अब मैं जी कर क्या करूँगी? रब्बा, मुझे भी अपने पास बुला ले।’
‘मुक्ता, हालात को समझो। घर में शीतल अकेली है। मुझे उसके पास जाना होगा, रात को नर्स तुम्हारे पास रहेगी। मैंने उसे सब समझा दिया है ….। तेरे भानजे को फ़ोन पर सूचित कर देता हूँ, और तो कोई आने वाला नहीं है।’
मुक्ता ने सिसकते हुए पूछा - ‘क्यों, शीतल के ताया नहीं आ सकते?’
‘तुझे पता तो है भाभी की हालत का, वे बेड पर हैं, उनको किसके सहारे छोड़कर आ सकते हैं भाई साहब? बच्चे तो दोनों कनाडा हैं।’
‘ओह, मैं तो अपने ग़म में ये सब भूल ही गई थी। अच्छा, एक काम करना, शीतल के दोस्त को ज़रूर इत्तला कर देना। बड़ा भला लड़का है, शीतल को सहारा हो जाएगा।’
‘हाँ, यह तुमने ठीक कहा। प्रवीर को तो अवश्य सूचना दूँगा। अब मैं चलूँ?’
‘हाँ, रात हो रही है। जवान लड़की को भी तो सँभालना है। आप चलो।’
‘नर्स की मदद के बिना खुद उठने की कोशिश मत करना।’
‘मेरी चिंता ना करो। इससे बुरा और क्या होगा मेरे साथ? जाकर शीतल को सम्भालो।’
मुरलीधर घर आए तो उन्होंने शीतल को बताया कि मैंने प्रवीर को फ़ोन कर दिया है। वह सुबह जल्दी ही आ जाएगा।
‘पापा, प्रिंसिपल सर को भी सूचना दे देते हैं।’
‘बेटे, मानवेन्द्र को तुम फ़ोन कर दो।’
‘ठीक है पापा।’
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