- 14 -
रात को बिस्तर पर लेटे हुए प्रिंसिपल सोचने लगे, कॉलेज में होने वाली कानाफूसी का शीतल को तो पहले से आभास था, किन्तु उसने मुझे बताने या मुझसे डिसकस करने की ज़रूरत नहीं समझी। मेरे बताने पर भी उसने कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं दी। इसका मतलब यही हुआ कि वह बहुत मैच्योर है, इस तरह की बातों से उसे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता। लेकिन, यदि इस अफ़वाह को रोका नहीं गया तो मेरी इमेज तो प्रभावित होगी ही। ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? यह बहुत बड़ा प्रश्न है, इसका उत्तर तो ढूँढना ही होगा। …. शीतल पूनम के साथ मेरे सम्बन्धों को जानने के लिए बहुत गहरी रुचि ले रही थी। आख़िर में तो उसने सीधे-सीधे पूछ ही लिया - ‘कभी दुबारा मन में किसी का साथ पाने की अभिलाषा उत्पन्न नहीं हुई?’ चाहे मैंने टेनीसन की लाइनें सुनाकर और उनके शब्दों को आगे पीछे करके अपने मनोभाव प्रकट कर दिए, किन्तु मन में तो मेरे भी कई बार अबूझ इच्छाओं की नदी उफनती है, कई बार मन करता है कि कोई अपना हो, जिससे सुख-दु:ख साझा किया जा सके! … शीतल का वैवाहिक जीवन एक दु:स्वप्न-सा था। कई साल गुजर गए हैं उन बातों को। मन तो उसका भी करता होगा जैसा कि मेरे मन में कई बार आता है। उसने इतना तो कह दिया कि मुझे तो प्यार मिला ही नहीं, कुछ मिलने से पहले ही मेरे सपने चकनाचूर हो गए। इसका अर्थ तो साफ़ है कि प्यार पाने की चाहत तो उसके दिल में भी है। …. मैंने आज तक पूनम-प्रसंग किसी के साथ शेयर नहीं किया था। शीतल में अपनापन लगा तो सारा चिट्ठा खोलकर रख दिया। मैंने कुछ ग़लत तो नहीं किया! शीतल एक समझदार, व्यावहारिक एवं संस्कारी लड़की है। यदि मैं बात करूँ तो शायद वह ना न करे, लेकिन क्या मेरा सीधे इस विषय को उठाना उचित होगा? मन ने कहा, तुम दोनों जीवन में ऊबड़-खाबड़ रास्ते पार कर चुके हो। अब भावुकता से नहीं, व्यावहारिक होकर ही फ़ैसला लेना होगा। मन ने एक उपाय सुझाया, तुमने शीतल को कहा था कि मैं तुम्हारे पिताजी के दर्शन करना चाहता हूँ। फिर उसे कहो कि जब वह अपने घर जाए तो मुझे भी साथ ले चले। इस बहाने मुरलीधर सर से मिलना भी हो जाएगा और समय और स्थिति देखकर शीतल के साथ विवाह की बात भी उठाई जा सकती है। मन की यह बात उसे ठीक लगी। साथ ही, एक अन्य विचार मन में उभरा। क्यों न इस वीकेंड पर शीतल को साथ लेकर डॉ. मधुकांत से मिलने का प्रोग्राम बनाया जाए। मन ने इस विचार पर भी स्वीकृति की मोहर लगा दी।
चिंतन रुका तो नींद ने अपना काम शुरू कर दिया।
सुबह नींद खुली तो वातावरण नि:शब्द था, पंछियों का उल्लास भरा कलरव, ज़िन्दगी के नए गीत की धुन भी सुनाई नहीं दे रही थी। दीवार घड़ी पर नज़र डाली तो अभी पाँच ही बजे थे। पर्दा हटाकर बाहर देखा तो लगा कि रात्रि की शून्यता अभी बनी हुई थी और चहुँओर ओर फैली धुँध में कहीं कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। सोचने लगा, पंछी भी मौसम देखकर ही घोंसलों से बाहर निकलते हैं तो मैं क्यों नहीं रज़ाई की गरमाई का और आनन्द लूँ! असल में, प्रिंसिपल भोर के समय पंछियों के संगीत के इतने अभ्यस्त हो गए थे कि उन्हें अपना एकांत जीवन नि:संगीत या ख़ामोश नहीं लगता था, बल्कि आने वाले सारे दिन के लिए उन में संगीत-रस घोलकर कर नई ऊर्जा का संचारण कर देता था।
एम.टेक. का डिग्री-धारक होने के बावजूद समय-समय पर कॉलेज में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों तथा कार्यक्रमों के कारण प्रिंसिपल का साहित्य के प्रति अनुराग हो गया था। शीतल उन्हें डॉ. मधुकांत का उपन्यास ‘गूगल बॉय’ दे गई थी। समय बिताने के लिए उन्होंने उपन्यास उठाया और पढ़ना आरम्भ किया। सात बजे के लगभग समाचार पत्र देने वाले लड़के ने बेल बजाकर समाचार पत्र फेंके तो बहादुर ने द्वार खोलकर समाचार पत्र उठाए और अन्दर आकर प्रिंसिपल को दिए। साथ ही उसने पूछा - ‘सर, चाय बना दूँ?’
‘हाँ, तुम चाय बनाओ, मैं फ़्रेश होकर आता हूँ,’ कहने के साथ ही उन्होंने उपन्यास में ‘बुकमार्क’ रखकर पढ़ना बन्द किया और बाथरूम में चले गए। चाय पीने के बाद, लेकिन समाचार पत्र खोलने से पहले उन्होंने शीतल को फ़ोन पर डॉ. मधुकांत से मिलने की बात कही।
शीतल ने तुरन्त हामी भरते हुए कहा - ‘सर, मैं आज ही डॉ. साहब से बात कर लेती हूँ। यदि उनका वीकेंड में कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम न हुआ तो उनसे मिल आते हैं।’
शीतल ने पहला पीरियड लगाने के बाद डॉ. मधुकांत को फ़ोन लगाकर उनकी व्यस्तता की जानकारी ली। डॉ. साहब ने कहा - ‘शीतल, मुझे यह सुनकर बड़ा अच्छा लग रहा है कि तुम्हारे प्रिंसिपल भी साथ आना चाहते हैं। मेरी एक प्रार्थना है कि आप लोग दोपहर का खाना मेरे साथ लोगे।’
‘डॉ. साहब, यह तो हमारा सौभाग्य होगा। इस बहाने आपसे खुलकर बातें करने के लिए पर्याप्त समय भी मिल जाएगा।’
‘कृपया चलते समय सूचित अवश्य कर देना।’
‘अवश्य। धन्यवाद व प्रणाम।’
******