किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 3 Ravi Thakur द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 3

*महाराजा वीरसिंह जू देव आख्यान-1*

*राजधर्म*

(बुंदेलखण्ड के ओरछा राज्य की एक ऐतिहासिक घटना पर आधारित)

*चैप्टर-2, "शिकार" ।*
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*भुवन भास्कर*, अस्तांचलगामी होकर मंद हो चले थे। अरुणाभ क्षितिज की मनोहारी छटा दर्शनीय थी। तुंगारण्य महावन की सघन वृक्षावली के शीर्ष पर विंध्यश्रेणी श्रृंखला के, दो अन्यतम शिखरों के मध्य, शनैःशनैः गगन से धरा की ओर झुकते रवि की सुनहरी रस्मियाँ, समूचे नभ मंडल पर, एक अलौकिक 'जाल' सा निर्मित कर रही थीं। मानो तिमिर से संसार को सुरक्षित रखने के लिए, कोई कवच छत्र, एक निशा अवधि के लिए स्थापित हो रहा हो।
दिवस अवसान समीप जानकर, अपनी पाल में लौट आए वन्य प्राणियों की ही भांति, पखेरू, अपने नींड़ों में लौट आए थे। वृक्षों की शाखा-प्रशाखाओं-कोटरों से खग-बिहग की अनवरत चहकन और सरित प्रवाह की कल-कल ध्वनि, निस्तब्धता को बेधकर मधुर संगीत प्रस्तुत कर रहे थे। भर उठा था समूचा वन्य प्रांतर, प्रकृति की मोहनी माया के इस सुरमई सम्मोहन से।
ऐसे में विंध्याटवी की पश्चिमी उपत्यका के इस भाग में, पुण्य सलिला वेत्रवती के तट पर, वनाच्छादित लघु गिरि की द्रोण तलहटी में स्थित, एक विशाल टीले के विस्तृत समतल शिखर पर सुस्थापित ब्रह्मचारी आश्रम के सन्निकट, छह अश्वारोही, अपने मुख पर व्यग्र भाव लिए, चहुँदिश दृष्टिपात करते हुए, अश्वारूढ़ खड़े थे। देखने मात्र से ही भान होता था कि वे, कहीं दूर से, द्रुतवेग में अश्व दौड़ाते यहाँ पहुँचे हैं। उनकी दृष्टि कुछ ढूंढने का असफल प्रयास कर रही थी। अश्वों के नासारंध्र उष्ण स्वाँस छोड़ रहे थे। अश्वारोहियों के इस दल के अंतिम अश्व के निकट ही, चार बृहदाकार शिकारी स्वान, आतुर भाव से जिव्हा निकाले हाँफ रहे थे ।

'हुकुम, यहाँ तो कहीं नजर नहीं आता। लगता है दूसरी ओर कहीं निकल गया।' एक श्याम वर्ण युवा अश्व सवार, जो वेशभूषा से सैनिक दिखाई पड़ता था, यकायक ही बोल उठा।

'किंतु वन प्रांतर के इस भाग में, इन अत्यंत घनी एवं कँटीली झाड़ियों के मध्य से निकल भागने का, कोई अन्य मार्ग भी तो दृष्टिगोचर नहीं होता।' एक अन्य दीर्घकाय अश्वारोही का धीर गंभीर स्वर।

'यहीं कहीं, किसी कुंज में छुप गया होगा। 'और कहाँ जावेगा'। छहों अश्वारोहियों का प्रधान एवं राजपुरुष प्रतीत होते, युवा अश्वारोही ने चारों ओर सम्यक दृष्टि निपात करते हुए कहा।

'आखेट का समय समाप्त हो चुका है कुंवर जी, अंधकार बढ़ने लगा है। आपको अब वापस चलना चाहिए।' श्वान समूह का संरक्षक/प्रशिक्षक ज्ञात होते, छठे अश्वारोही के मुख से संकोच में लिप्त शब्द प्रस्फुटित हुए।

चारों श्वान, सैनिकों की ही भांति अनुशासनबद्ध थे। कदाचित, अपने प्रशिक्षक के संकेत अथवा अभ्यासवश। अपने स्वभाव के विपरीत। नितांत मौन।

'नहीं।' राजपुरुष का हठ जैसे जाग उठा। 'हम आखेट करके ही लौटेंगे।'

'ठीक मरजी हो रई जू । नायँ आऔ है, तौ जै है क्याँयँ।' एक अन्य अल्प वयस्क, सेवक ज्ञात होते अश्वारोही ने राज हठ को हवा दी।
'मैं उतायँ देखत हौं,(समीपस्थ टीले पर खड़ी झाड़ियों की पिछली ओर इंगित करता है), 'मायँ कौनऊँ कुंज सौ दिखा परत।' नदी तट से चढ़ती ऊंचाई की ओर खड़े, विशाल वृक्ष समूह के पीछे की, घनी झाड़ियों पर दृष्टि एकाग्र किये, वह उस ओर बढ़ जाता है।

वृक्षों की छाया सघन तथा गहन श्याम वर्ण हो चली थी। अधपकी दाढ़ी मूछों वाला अधेड़ अश्वारोही चिंतातुर हो उठा,

'रजऊ, हम अपने अधिकारित वनक्षेत्र के सीमांत को लांघकर, आखेट के लिए सर्वथा वर्जित, राजधानी ओरछा के सुरक्षित तुंगारण्य वन प्रक्षेत्र में आप पहुँचे हैं। यह राजाज्ञा से संरक्षित है। राजाज्ञा का उल्लंघन क्या उचित होगा ? 'हम दंड के भागीदार हो सकते हैं।'

'आप भी काका जी'। 'यहाँं कौन हमारी चुगली करने को उपस्थित है'। राजकुँवर की खीझ भरी वाणी में, थकान, हताशा, आकांक्षा सहित, दुराग्रह के भाव परिलक्षित हुए।

अधेड़ अश्वारोही सोने जू की चिंता अकारण ही नहीं थी। यह राजपुरुष कोई और नहीं, ओरछा महाराज बृसिंगदेव के ज्येष्ठ पुत्र तथा टारौली (टहरौली) के जागीरदार कुँवर बाघराज बुंदेला थे।

राजकुँवर बाघराज, एक कुशल योद्धा एवं शूरवीर थे, अपनी इस वीरता तथा युद्ध कौशल का परिचय, वे अपने पिता के साथ कई युद्धों में जाकर दे चुके थे। किंतु वे एक मदोन्मत्त, क्रूर, उद्दंड, हठी तथा अदूरदर्शी राजकुमार थे।
अपने ओरछावास के काल में, जन सामान्य तथा राज्य कर्मचारी, इस कुमार की क्रूर क्रीड़ाओं के शिकार होकर, अत्यंत कष्ट वहन करते थे, राजनिष्ठा के कारण कुछ कह भी नहीं पाते थे। किंतु भिन्न माध्यमों से महाराज को अपने ज्येष्ठ पुत्र बाघराज की इन दुष्ट प्रवित्तियों के संबंध में अंततः ज्ञात हो ही गया। होना ही था। एक सजग राजा से कोई कब तक कुछ छुपा सकता है।
इनके असह्य दुराचरणों के फलस्वरूप, पिता, ओरछा नरेश महाराजा बृसिंगदेव (वीरसिंह देव) बुंदेला ने इन्हें, राजधानी ओरछा से 20 कोस दूर, टहरौली की जागीर देकर, स्वयं से दूर हटा दिया था। इसके साथ ही उन्होंने टौरिया वाले सैन्य दलपति, दीवान सोने जू को कुँवर बाघराज एवं टहरौली का संरक्षक तथा मार्गदर्शक नियुक्त किया था।
अब अनुशासन के निर्देशों-प्रतिबंधों के साथ, राजकुँवर बाघराज, टहरौली के युवा जागीरदार होने का सुख भोगने के लिए स्वतंत्र थे।

काशी के गहरवार राजवंश की विंध्य शाखा के बुंदेला कुलध्वज, ओरछा नरेश, महाराजा बृसिंगदेव (वीरसिंह देव को स्थानीय बोली में बृसिंगदेव ही कहा जाता है) एक महापराक्रमी, महान दृष्टा, न्यायप्रिय, प्रजावत्सल, धर्म पालक, महत्वाकांक्षी एवं अत्यंत कुशल शासक थे।
जिस समय संपूर्ण भारत मुगलों तथा अन्यान्य आक्रमणकारियों से आक्रांत था, उस समय बुंदेलखंड का जनजीवन बृसिंगदेव की छत्रछाया में, कला-साहित्य, धर्म-संस्कृति के उत्सर्ग भोग, निर्भय रहकर फल फूल रहा था।

बृसिंगदेव को उनके पिता भक्त शिरोमणि महाराजा मधुकरशाह द्वारा 5 गांव की एक छोटी सी जागीर, "बड़ौनी", दतिया के निकट, पश्चिम में, विरसेे में दी गई थी। तत्कालीन ओरछा राज्य के उत्तर पश्चिम सीमांत पर, नागवंशी, ब्राह्मण भारनाग राजाओं से प्रतिहारों के हस्तगत होकर, कालांतर में परमारों का शक्तिशाली केंद्र रह चुके, पवायाँ (पद्मावती) राज्य की सीमा से सटा, यह ग्राम क्षेत्र, विंध्य पर्वत श्रेणी की, दुर्गम गिरीश्रृंखलाओं, सिंधु नद की गहन घाटियों एवं सघनतम वनों, बीहड़ों के मध्य स्थित, एक अनुपजाऊ, ठगों-बटमारो से ग्रसित, दुर्घर्ष भूमि थी।

इस क्षेत्र का तीस कोस विस्तृत वनांचल एवं ग्रामीण क्षेत्र, इसे चारों ओर से घेरे पहूज (पुष्पावती), सोनभद्र, अनगौरी, महुअर एवं अन्य नदियों के कारण बाह्य तत्वों के आगमन-आक्रमण से सुरक्षित था, किंतु भीतरी आताताइयों से त्रस्त था।
क्रमशः 4