किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 1 Ravi Thakur द्वारा रोमांचक कहानियाँ में हिंदी पीडीएफ

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किस्से वीर बुन्देलों के - राज धर्म - 1

*किस्से वीर बुंदेलों के-1*

*वीरसिंह जू देव आख्यान-1*
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बुंदेलखंड की धरा, अद्भुत, अभूतपूर्व किस्से-कहानियों से अटी पड़ी है। यहाँ जन्म लेने वाले साधु-संत, कवि-साहित्यकार, रणबांकुरे, त्यागी- बलिदानी नर-नारियों के चरित्र आख्यान, अब तक छुटपुट ही सही, देश के छोटे-बड़े तमाम रचनाकारों ने अपने काव्य-आलेखों-कहानियों में समाहित किए हैं।
परंतु नई पीढ़ी, जो अब किताबों से विमुख हो चुकी है, उसके सामने अपनी पहचान का संकट, विकराल रूप लेकर सामने उपस्थित है। जब हम अपनी संस्कृति, अपने महापुरुष, अपने क्षेत्र, अपनी भाषा और अपनी भूमि को पहचानेंगे, तभी खुद को भी पहचान पाएंगे।
इसी दृष्टिकोण से बुंदेलखंड की किस्सा परंपरा को नया रूप देते हुए, कहानी और किस्से की पारंपरिक कसौटी से दूर, नए किस्सों की एक श्रृंखला आरंभ कर रहा हूं। उम्मीद करता हूं आपका समर्थन, मार्गदर्शन और सहयोग मिलेगा। किस्सों की इस श्रृंखला में पहला नाम, मैं बुंदेलखंड के उस राजा का रखता हूं, जिसके शासनकाल को बुंदेलखंड का स्वर्णयुग कहा जाता है। यह नाम है ओरछा नरेश महाराजा वीरसिंह जू देव का।
महाराजा वीरसिंह जू देव नाम की इस माला में उनके ही कुछ किस्से अलग-अलग टुकड़ों में प्रस्तुत करूँगा। इन किस्सों को धागे की तरह परस्पर पिरोने के लिए, रंगमंचीय अभिनव प्रयोग के तौर पर, या कहिए नवाचार के रूप में, एक काल्पनिक पात्र, सूत्रधार की तरह कल्पित किया है। शायद यह प्रयोग आपको अच्छा लगे।।
― रवि ठाकुर
दतिया म.प्र.

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चैप्टर वन- ।। राजा काका ।।
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*राजा काका* कल की ही तरह आज भी, पुराने महल की बाहमी सीढ़ियों पर, दरवाजे की पथरीली चौखट से पीठ टिकाए, नवरात्र मेले का नजारा कर रहे थे।
क्वाँर (अश्विन मास ) का महीना था। शाम ढलते-ढलते ठंडक का अहसास होने लगता था।
पुराने सतखण्डा महल के पूर्वोत्तर पार्श्व में माँ विजयकाली का मंदिर है। इस मंदिर की स्थापना, दतिया के प्रजावत्सल, धर्म प्रेमी, भक्त राजा विजयबहादुर जू द्वारा कराई गई थी।
पुत्रहीन राजा विजयबहादुर जू की एक ही संतान थी। बेटी धर्मकुँवरि। राजा उससे बहुत प्रेम करते थे। जब धर्मकुँवर 4 वर्ष की थी, तभी उसे चेचक नाम की महामारी ने घेर लिया। वैद्य-हकीमों ने हाथ खड़े कर दिए। राजा निराश होकर दुख में डूब गए। राजकाज में रुचि न रही। देश के सभी प्रमुख तीर्थों में जाकर अपनी पुत्री को जीवन देने की याचना करते रहे। मन्नतें माँगते रहे। राजा के साथ-साथ समूची प्रजा में भी, दुख, लहर बनकर दौड़ गया। तभी जैसे अंधेरे में चिराग बनकर सामने आये, महान मंत्रज्ञाता, तांत्रिक हिमकर ओझा जी।
हिमकर ओझा ने राजा से पुराने महल वाली पहाड़ी की पूर्वी ढलान पर, सर्वप्रथम माँ छिन्नमस्ता की स्थापना करवाई। तत्पश्चात महल के पूर्वोत्तर पार्श्व में बड़ी माता महाकाली की स्थापना करवाई। विजय बहादुर के नाम से ही माता का नाम पड़ा विजय काली। राजा ने 9 दिन निराहार रह कर, जमीन में सोते, विधि-विधान पूर्वक माँ की आराधना की। हवन एवं कन्या नगर भोज हुआ। माँ की कृपा से धर्मकुँवर मृत्युमुख से वापस आकर, राजमहल की चहक बन गई।
तभी से वर्ष में दो बार, चैत्रमास एवं क्वाँर (अश्विन ) मास की नवरात्र के अवसर पर, महल वाली पहाड़ी, माता मंदिर तथा संपूर्ण पूर्वी ढलान पर मेला लगता है। यह मेला एक पारंपरिक मेला है। शहरी ट्रेड फेयर वाली चमक-दमक इसमें नहीं है। वरन् बुंदेलखंड की ग्राम्य संस्कृति की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। हिंडोले वाले झूले, चकरी वाले झूले, निशानेबाजी के ठियों के अलावा टिकुली-बूंदा, सेंदुर-चूड़ी, उरसा-बेलन, माला-गुड़िया, देसी मिठाईयां इमली, बेर-मिर्चन, सिंघाड़े-गँड़ेरीं,मसलपट्टी, फिरकी-चकरी तथा घरेलू उपयोग की बहुत सारी वस्तुएँ यहाँ मिल जाएँगी। गोदना गोदने वाले लिलहारी, लाख निर्मित चूड़ियाँ-कड़े बेचते मनिहारी, कपड़े रंगने के लकड़ी के ठप्पे लिये रँगरेज, बच्चों के खिलौने, मिट्टी, लकड़ी, गिलट, पीतल के खिलौने, बर्तन एवं सजावटी सामान लिए कुम्हार-बुलकिया, सुनार, बढ़ई, लुहार, तमेरे, कुचबँदिया-पारदी भी।
मुख्यतः यह मेला स्त्रियों और बच्चों का है। 9 दिनों में इस मेले में सभी नजदीकी ग्रामों के नर-नारी भ्रमण कर ही जाते हैं। प्रथम दिन से ही सुबह 4:00 बजे से रात्रि 8:00 बजे तक, माता पर फूल-जल चढ़ाने के लिए नगर की स्त्रियों का तांता लगा रहता है। अष्टमी-नवमी के दिन, कन्या भोज, खीर-पेड़ा-जलेबी के भंडारे होते हैं। कन्याएं, भुँजरिया (कजरी - कजरिया) जवारे, नर-नारियों को भेंट करके, दक्षिणा भी प्राप्त करती हैं। नवमी को सुबह ही मेला उठ जाता है। शाम को, शहर तथा दूर-दूर से जवारों के घट सिरों पर लिए, पारंपरिक वेशभूषा में जातिगत आभूषणों से सजी-धजी स्त्रियों के समूह, छोटी-बड़ी सांग, ( लोहे की अत्यंत नुकीली लम्बी बल्लमनुमा छड़, किसी जमाने में यह भी युद्ध में प्रयुक्त होने वाला एक शस्त्र होता था ) जीभ या गालों में आरपार चुभाये सवारी पुरुष (भगत), ढोल-नगरिया-हारमोनियम के साथ, क्षेत्रीय बुंदेली भाषा में माता की भेंटें (भजन) गाते कलाकारों सहित, माँ महाकाली के दरबार में पहुँचकर, पूजा चढ़ाते हैं।
पुराने समय में इस दिन बकरों की बलि दी जाती थी। आजादी के बाद यह प्रथा टूट गई। अब बकरों के कान की लौ (नोक) काटकर छोड़ दिया जाता है। बलि का स्थान, नींबू- नारियल ने ले लिया है। मां के आशीर्वाद के लिए लोग सवारी की साँगोंं के नीचे से निकल कर, घुल्ला (भगत) से मोर पंख की झाड़ू सेे झारा लेते हैं।
गाल या जीभ अथवा मुंह में सांग लगाए, सवारी भगत, घट स्थापना स्थल से माई के दरबार तक, खूब खेलते, चीखते-गुर्राते, गुलाटी मारते, जाते हैं। इनके साथ, सांग पकड़ने वाले भी ठीक उसी अंदाज में आगे-पीछे होते, गुलाटी मारते चलते हैं। भगत की हर हरकत पर, माई के गगनभेदी जयकारे लगते हैं।
एक घट समूह में 9 से 21 घट होते हैं। इसी तरह मुख्य भगत के अलावा भी इस समूह में कई अन्य पुरुष सांग छेदवा कर भगत की तरह ही दोनों हाथों में तलवार अथवा मोर पंख की झाड़ू लेकर चलते हैं। मुख्य भगत, बड़ी सांग, जिसका वजन 25 से 40 किलो, लंबाई 8 से 12 फुट होती है, अपने दोनों गालों के आरपार कर, गाल के दूसरी ओर निकली सांग की नोक पर नींबू लगाकर चलते हैं। ये साँगें, मां के पूजन के पश्चात, बलि देकर, भगत के मुंह से बाहर निकाल दी जाती हैं। सभी घटों से जवारे खोंट-खोंट कर (कुरुप कर) थोड़े-थोड़े, माँ के चरणों में चढ़ा दिए जाते हैं। ..और तब, सारे घट समूह एक के बाद एक, माँ के मंदिर की परिक्रमा देकर, महल के उत्तर की ओर के ढलवान से होते हुए, महल के ठीक पीछे, लाला का ताल (तालाब) पर पहुँच, घट विसर्जन करके, अपने घरों को लौट जाते हैं।
आज मेले का दूसरा दिन था। राजा काका हमेशा की तरह माँ काली के दर्शन कर, महल की पहली सीढ़ियों पर आ बैठे थे। राजा काका वैसे तो किसी और प्रदेश के रहने वाले थे, लेकिन उनके पूर्वज ओरछा की प्रेमधारा में बँधकर बुंदेलखंड में आ बसे थे। दतिया आने के बाद वे यहीं के होकर रह गए। जाति क्षत्रिय होने के नाते, स्थानीय परंपरा के अनुसार लोग उन्हें राजा या राजा साहब कहने लगे थे। वस्तुतः वे एक सामान्य मध्यमवर्गीय परिवार से थे। नई पीढ़ी उन्हें कक्काजू, काका जी कहते-कहते राजा काका पुकारने लगी थी। राजा काका इतिहास, संगीत एवं साहित्य में अत्यधिक रुचि रखते थे। अध्ययन तो जैसे उनका व्यसन बन गया था। उनके कंधे पर पड़े झोले/बैग अथवा हाथ में एक न एक किताब रहती थी। अपने भ्रमण तथा अध्ययन के शौक में, राजा काका दतिया ही नहीं वरन बुंदेलखंड के इतिहास तथा सांस्कृतिक परंपराओं की, स्वयं ही एक अलिखित किताब बन गए थे।
कल जब हमारा मित्र मंडल, पुराना महल घूमने-देखने पहुंचा, तो केंद्रीय पुरातत्व विभाग की ओर से तैनात मार्गदर्शक गाइड ने संक्षिप्त में महल निर्माण की कहानी सुनाकर, सतखंडा महल की, जिसे पुराना महल तथा वीरसिंह महल भी कहते हैं, 5 मंजिले ही दिखाने के बाद, हमें विदा कर दिया। कुछ अतृप्त भाव मन में जगे तो हम सभी साथी परस्पर कल्पनापूर्ण बातें करके मनोरंजन करने लगे। इस दौरान राजे-रजवाड़ों पर कुछ साथियों ने कटाक्ष भी किये। स्थानीय मित्रों के अलावा हमारे इस भ्रमण दल में, दिल्ली से आए कुछ साथी भी थे। इनमें कांता, श्रोती, इड़ा तीन लड़कियाँ तथा विक्रम, अभिषेक, विकास, अर्णव, मोहित, गजेंद्र, अनवर एवं मुझ सहित 9 लड़के थे ।
क्रमशः