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सत्यार्थ -सात भागो में


सत्यार्थ - प्रथम


प्राणि के जन्म जीवन की खास बात यह है कि जो उसके निहित स्वार्थ शुख बैभव भोग के तथ्य तत्व माध्यम है उन्हें ना तो वह छोड़ना चाहता ना ही विस्मृत करना चाहता है।

अपने निहित स्वार्थ भोग को ब्रह्माण्ड में जीवन सत्यार्थ स्वीकार कर उसी में रम जाना चाहता है जबकि उंसे भी यह पता है कि यह सत्य नही है।

मौलिक मूल्यों संस्कारो को तिलांजलि दे देता है जो उसके जीवन जन्म का वास्तविक सृष्टिगत उद्देश्य होता है क्योंकि नैतिकता सांस्कारआचरण के आस्तित्व को तमश से उजियार तक प्रखर निखर होने में उंसे चुनौतियों संघर्षो कि कठिन परिस्थितियों से गुजरना होता है।

जन्म जीवन की युग सृष्टि दृष्टि और ब्रह्म एव ब्रह्मांडीय सत्य है यदि भगवान श्री कृष्ण को कारागार में जन्म लेना पड़ा एव माँ की आँचल की जगह चोरी छिपे से यशोदा के यहां पलना पड़ा तो प्रभु ईशु को सलीब पर चढ़ना पड़ा हज़रत मोहम्मद को समूचे कुंनबे की कुर्बानी देनी पड़ी तो गुरुओं को कठिन बलिदान देने पड़े ।

जीवन के प्रथम सूर्योदय एवं ब्रह्म ब्रह्मांड की यथार्थता की
स्वीकार्यता वास्तविकता में जन्म जीवन एव उद्देश पथ के मौलिक मुल्यों को नैतिकताओं के दर्शन की दिशा दृष्टि मार्ग पथ प्रदर्शक है।
इस गरिमामयी कि विशेषता यह है कि यह देश समय समाज काल के बिभिन्न आयामों के उत्कृष्ट भाव प्रबाहित श्रेष्ठतम निर्माण की निरन्तरता के प्रबाह द्वारा राष्ट्र समाज को अपनी उपस्थिति के अभिमान का आवाहन करे जो
जीवन के उद्देश्य की वैधता का दिग्दर्शन करता है।

जीवन के सभी पड़ाव गति मोड़ विनम्रता पूर्वक स्वीकार करते हुए नियत के निर्धारण को चुनौती देने के बजाय उसकी स्वीकार्यता के बोध में उसका आदर करते हुए अपने यथोचित मार्गो का निर्धारण करना चहिए।।

धृष्टता या त्रुटि कि संभावना जीवन के वास्तविक मार्ग में नहीं होती क्योंकि दोबारा अवसर नहीं मिलता जो बीत जाता है वह भूत हो जाता है अतः जीवन के पल पल का मात्र उद्देश्य कि वैधता के अनुसार योजाना बद्घ उपयोग ही जीवन का यथार्थ अभिमान के साथ साथ समय समाज राष्ट्र काल के सार्थक सकारात्मक निर्माण का संकल्प है ।

योग्य युग उपयोगी राष्ट्र समाज के लिये मूल्यवान
निर्माण की निरंतता का प्रभा प्रबाह ही जन्म जीवन कि सृष्टिगत निर्धारित ईश्वरीय परम्परा का सुंदर सत्यार्थ हैं।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीतांम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश
सत्यार्थ -द्वितीय


मनुष्य प्राणियों में सर्वश्रेष्ट प्राणि है क्योंकि उसमें सोचने समझने कि छमता होती है और संवेदनाओं का प्रत्यक्ष प्रवाह होता है जिसके कारण ब्रह्मांड में मनुष्य सभी प्राणियों के लिए जिम्म्मेदार उत्तरदायी भी होता है।

ब्रह्मांड के दो महत्वपूर्ण अवयव है प्रथम है प्रकृति दूसरा है प्राणि दोनों का नियंता परमेश्वर ईश्वर भगवान है अब प्रश्न यह उठता है कि भगवान वास्तव में क्या है ईश्वर भगवान यानी जो जन्म नहीं लेता है ना मरता है ना ही जलता है ना ही कटता है एव जो नित्य निरंतर है वही सत्य है।

तो क्या ईश्वर आस्था है जो कल्पनाओं कि यथार्तता है बचपन मे माता पिता द्वारा यह बताया जाता है कि भगवान विष्णु ऐसे है, शंकर जी ऐसे है, ब्रह्मा जी ऐसे है और बाल मन मे ईश्वरीय अवधारणा के अस्तित्व कि प्रबल आस्था जन्म ले लेती है जिसके कारण पत्थर कि में भगवान दृष्टव्य होने लगते है ।

आस्था वह अवनी है जिसकी उपज कि शक्ति का अनुमान शायद ईश्वर को भी नही होती और आस्था के आवाहन पर उसे अपनी वास्तविकता का दर्शन देना पड़ता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण बालक प्रहलाद है जिसकी बाल आस्था कि श्री हरि विष्णु ब्रह्मांड के कण कण में व्याप्त है को चरितार्थ करने भगवान नरसिंह जी खम्भे से अवतरित होते है ।

भगवान किसी कोख से जन्म नही लेते वह तो कोख के नियंता है जो नित्य निरंतर और सत्य है इसीलिये सनातन में अवतारों में ईश्वर अपने चतुर्भुज रूप में प्रगट होकर प्राणि कल्यारार्थ बाल रूप धारण कर समाज युग सृष्टि कि आवश्यकता समय एव उसके कल्यारार्थ अपने मुल्यों को निर्धारित करते है।

कोख जो भी जन्म लेता है उसका समापन भी निश्चित होता है यह प्रत्येक प्राणी को मालूम होता है फिर भी वह इस सत्य से स्वय को अनजान रखते हुए ऐसे आचरण करता है जैसे उसका कभी अंत नही होने वाला जबकि वह अपने पीढियो को जिनके सानिध्य में जन्म लेता है उनकी अवस्थाओं को स्वय देखता है माता पिता का जरा रूप उनका बिछड़ना फिर भी स्वय के विषय मे निश्चित रहता है ।

यही सृष्टि का सत्य है जो कल था वो आज नही जो आज है वह कल नही रहेगा लेकिन ईश्वरीय सत्ता सदैव रहेगी ।

मनुष्य में सोचने समझने चिन्तन एवं कि क्षमता होती है वह साक्षात परब्रह्म को भी खोज सकता है परब्रह्म कहां मिलेगा यह प्रश्न जटिल भी है और आसान भी ईश्वर के दो रूप सदा युग सृष्टि में विद्यमान रहते है जानने और समझने वाले के लिये वह प्रत्यक्ष भी है ईश्वर का पहला रूप है समय काल जिसे ना तो जलाया जा सकता है ना ही बांधा जा सकता है ना ही काटा जा सकता है और जिसका ना कोई आदि है ना ही अंत समय काल नित्य निरंतर अनंत है ।

ईश्वर का दूसरा रूप है आत्मा जो ना तो जन्म लेती है ना मरती है ना जलती है ना ही उसका कोई आदि है ना ही अंत इसे भगवान श्री कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में गीता उपदेश में बहुत स्प्ष्ट परिभाषित किया हैं और मानस में गोस्वामी जी ने भी कहा है (ईश्वर अंश जीव अविनासी) बहुत स्प्ष्ट है समय काल और आत्मा ईश्वरीय अंश सृष्टि में प्रत्येक प्राणी के साथ है।

ईश्वर किसी के साथ अन्याय नही करता वह सभी आत्माओं को एक स्थूल शरीर प्रदान करता है और एक निर्धारित समय यानी अपने आत्मीय अंश को एक सांचे में अपने काल अंश के साथ छोड़ देता है और पूरी स्वतंत्रता देता है कि जो समय दिया गया है उंसे प्राणि अपने अनुसार उपयोग करे सबके लिए समान समय एव समान अवसर उपलब्ध कराता है परमात्मा ।

प्राणि पर निर्भर करता है कि परमात्मा अंश के वतर्मान स्वरूप को किस तरह प्रस्तुत करता हुआ प्राप्त काल समय मे स्वय कि सार्थकता या निरर्थकता प्रमाणित करता है परमात्मा प्रत्येक प्राणी में गुण विशेष देता है जबकि मनुष्यो मे अपने सभी गुणो को प्रदान करता है जो आत्मीय संग्रहालय में सुसुप्ता अवस्था मे रहता मनुष्य आत्मीय संग्रहालय से जितने भी गुणों को प्रत्यक्ष करना चाहे कर सकता है या कोई गुण विशेष भी लोक कल्यारार्थ एव स्वय के हितार्थ प्रत्यक्ष कर सकता है आवश्यकता सिर्फ स्वय में उसकी खोज एव अभ्यास कि कि होती है जिसे साधना ध्यान तपस्या कहते है।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।
सत्यार्थ भाग -तृतीय

ब्रह्मांड के अधिकतर प्राणी भाग्य भगव अनिभिज्ञ वर्तमान भविष्य से निश्चित अपने हिस्से के काल समय को व्यतीत करते है उनमें सुख दुख मिलने बिछड़ने का भाव तो होता है लेकिन ना तो वे व्यक्त करने में सक्षम होते है ना ही उसका कोई निदान खोज सकने में सक्षम होते है उनके जीवन मे जो कुछ घटित होता है उंसे अपने जीवन का निर्धारण स्वीकार कर लेना उसकी विवसता है क्योंकि उनके पास विकल्प एव संसाधन दोनों ही सीमित रहते है या ना मात्र है ।

कभी कभी ऐसी ही स्थिति मनुष्यो में देखने को मिलती है कोई मनुषयः मंदिर कि सीढ़ियों पर अपनी छुधा को तृप्त करने के लिये भिक्षा मांगता मान सम्मान लोक लाज जे बेपरवाह तो वही दूसरा मानव ईश्वर के दरबार मे चढ़ावे के लिए जाने कितने रुपये व्यय कर देता है और भिक्षा मांगने वालों को कुछ भी देने में हज़ारों बार सोचता है तो कही कोई मनुष्य रेशमी रजाई ओढ़ता है तो कही कोई मनुष्य सर्द के कहर से किसी गली मोहल्ले सड़क पर दम तोड़ देता है।

ईश्वरीय ब्रह्मांड की यह सच्चाई कही ज्यादा कही कम सम्पूर्ण विश्व मे दृष्टव्य है।

क्या यह करमार्जित फल का भोग है या भाग्य प्रारब्ध या कर्मानुसार स्वर्ग नर्क का भोग बहुत से विद्वानों दार्शनिकों द्वारा मत इस विषय पर अपने अनुभव शोध ज्ञान के आधार पर प्रतिपादित किये गए है।

सनातन धर्म के मुख्य तीन सिद्धांतो प्रथम ईश्वर प्रत्यक्ष है यानी साकार ब्रह्म ,द्वितीय कर्मानुसार जीवन का मिलना या बिछड़ना यानी कर्मानुसार जन्म मृत्यु पुनः जन्म तृतीय स्वर्ग नर्क यानी प्राणि को कर्मानुसार जीवन एव जीवन के प्रारब्ध प्राप्त होते है।

इस बात के प्रमाण है कि कर्म श्रेष्ठ है जिसके आधार पर जीवन एव प्रारब्ध का निर्धारण होता है तो जीवन मे कर्म ही महत्वपूर्ण है प्रश्न यह उठता है कि कर्म क्या है

कर्म ही धर्म है या दायित्वबोध के साथ कर्म का निष्पादन कर्म कि वास्तविक परिभाषा है या ईमानदारी से कर्म का निष्पादन ही धर्म कि सच्चाई है ।

एक किसान अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपने जीवन को जीता है और अपने दायित्व बोध के कर्मो को ईमानदारी से निष्पादित करता है तब भी उसे कभी बाढ़,सूखा ,अतिवृष्टि आदि आपदाओं कि चुनौतियों का सामान करना पड़ता है स्प्ष्ट है कि प्राणि का कर्म पर ही अधिकार है परिणाम पर नही भगवान श्री कृष्ण का कुरुक्षेत्र में गीता का उपदेश किसी युग काल समय मे बहुत प्रसंगिग है।

मानस में गोस्वामी जी ने भी लिखा है(कर्म प्रधान विश्व करी राखा)कर्म प्राणि को श्रेष्ट या तुक्ष बनाते है कर्म ही प्रारब्ध यानी भाग्य का निर्धारण करते है चाहे वर्तमान हो या भविष्य कर्म कि अवधारण में त्याग तपस्या आराधना सभी का समावेश होता है ।यहाँ दो उदाहरणों को प्रस्तुत करना चाहूंगा
उदाहरण -1

युद्ध मैदान में दो सेनाएं आमने सामने खड़ी थी युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व दोनों सेनाओं के
सेनापतियों ने अपनी अपनी सेनाओं को संबोधित किया एक सेनापति ने अपनी सेना से कहा कि बीरो पूरी दृढ़ता साहस शक्ति से युद्ध लड़ो और विजय के लिये लड़ो ।

दूसरी सेना के सेना पति ने अपनी सेना को कहा वीरों तुम पूरी शक्ति दृढ़ता साहस के साथ युद्ध सिर्फ विजय के लिए लड़ो या बीर गति के लिए पराजित होकर लौटना सैनिक का कर्तव्य नही है युद्ध का परिणाम दूसरी सेना के पक्ष में गया क्योकि सेना के समक्ष कर्म के उद्देश्य लक्ष्य बहुत स्पष्ठ थे विजयी होना या बीर गति को प्राप्त हो जाना पहली सेना के समक्ष उद्देश्य कि वैधता का संदेश था कर्म के क्रांति का बोध नही।

उदाहरण-2

दो चिकित्सको द्वारा एक ही चिकिसालय में एक ही दिन कार्य प्रारंभ किया गया पहले चिकित्सक द्वारा सिर्फ अपने निर्धारित समय मे ही रोगियों का उपचार किया जाता उसके बाद नही दूसरे चिकित्सक द्वारा निर्धारित समय के बाद भी रोगियों का उपचार किया जाता कोई ऐसा रोगी जिसके पास धनाभाव होता उंसे सहायता भी कर देता या करा देता पहला चिकिसक बहुत शीघ्र महंगी गाड़ी महल का मालिक बन गया दूसरा दोपहिया वाहन से ही चिकिसालय आता जाता एक दिन पहले चिकित्सक कि लापरवाही से एक नौजवान कि मृत्यु हो गयी नागरिकों ने आक्रोश से चिकित्सक के वाहन महल को जलाने लूटने के उद्देश्य हल्ला बोल दिया स्थिति बेकाबू देख पहला चिकित्सक दूसरे के पास गया बोला मुझे बचा लो नही तो जनता मुझे मेरे परिवार को मार देगी दूसरा चिकित्सक फौरन उठा भीड़ के बीच खड़ा हो बोला भाईयों नौजवान कि मृत्यु मेरी गलती से हुई है जो सजा देना हो मुझे दे पूरी आक्रोशित जनता ने बढे ध्यान धैर्य से चिकित्सक की बात सुनी और एक ही स्वर गूंज उठा आवनी और आकाश में डॉ साहब आप से गलती हो ही नही सकती आप तो स्वय ईश्वर के दूसरे रूप है लेकिन यदि आप कहते है तो हम सभी यह स्वीकार करते है कि मरने वाले नौजवान का जीवन इतना ही था भीड़ में सबकी आंखे नम थी।

दोनों ही उदाहरण चीख चीख कर कहते है कि कर्म ही धर्म है और निष्काम कर्म धर्म धारणा कि आत्मा मौलिक बोध दोनों चिकितसको में अंतर इतना था कि पहला चिकित्सा को सेवा ना मानकर भोग संसाधन का मार्ग मानता था तो दूसरा चिकित्सा को सेवा का अवसर स्वीकार करता था यही कर्म सिंद्धान्त भी है जो भी छोटा या बड़ा दायित्व प्राप्त हुआ है उसका निर्वहन जन कल्याण प्राणि कल्याण कि भावना प्रधान के साथ होना चाहिए तब कर्म ही धर्म है धर्म ही कर्म है कर्म ही कल्याणकारी है कर्म ही विनाशकारी कर्म से ही प्रारब्ध है और वर्तमान भविष्य का निर्धारण।


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।
सत्यार्थ - चतुर्थ



ब्रह्मांड के दो प्रमुख आयाम अवयव एक दूसरे के पूरक है यदि किसी एक के द्वारा दूसरे के संतुलन या शक्ति को चुनौती दी गयी तो दोनों के लिए भयावह स्थिति उतपन्न होती है और ब्रह्मांडीय संतुलन डगमगाने लगता है ।

प्रकृति में चेतना तो है मगर मूक है प्राणि के जीवन का आधार स्वांस पवन पर ही निर्भर है जिसके लिए किसी को कोई मूल्य चुकाना नही होता कोरोना उन्नीस जब आया और ऑक्सीजन सिलेंडरों की आवश्यकता महसूस हुई तब लोंगो ने हिसाब लगाना शुरू किया कि प्रकृति उन्हें जीवन के लिए कितने मूल्य का आक्सीजन बिना मूल्य देती है तो गणना से पता चला कि सात से दस करोड़ लागत का आक्सीजन एक मनुष्य अपने जीवन मे प्रकृति द्वारा निःशुल्क प्राप्त करता है फिर भी मनुष्य प्रकृति कि अनिवार्यता को गंभीरता से नही स्वीकारता एव मनमानी अपनी आकांक्षाओं के लिये प्रकृति के साथ खिलवाड़ करता है।

वन आच्छादित क्षेत्रो में कमी बहुत से ऐसे प्राणियों का विलुप्त हो जाना जो मनुष्य एव प्रकृति के मित्र थे आने वाली पीढ़ियों के लिए कौतूहल का विषय एवं इतिहास हो चुके है।

इसी प्रकार जल स्रोतों की कमी जल का दुरुपयोग जल स्तर का नीचे जाना कहीं ना कहीं ना कही मनुष्य के लिए संकट कि चेतावनी है बहुत पहले भारत के ओजस्वी मनीषि आदरणीय अटल बिहारी बाजपेयी जी ने कहा था बहुत असंभव नही है कि वर्तमान में तेल के लिए हो रहे युद्ध भविष्य में जल के लिए हो ।

मनुष्य इस सत्य को जनता है की जल ही जीवन एव वन ही जीवन प्राणि प्राण के दो मूल सिंद्धान्त है फिर भी इस सत्य को आंशिक भी नही स्वीकारता वर्त्तमान में बहुत से पश्चिमी देशों में सूखे कि स्थिति जंगलों में भयंकर आग प्रकृति के साथ मानव कि मनमानी का परिणाम है।

परमात्मा की ब्रह्मांडीय सत्ता के प्रमुख प्रकृति को दूसरे प्रमुख प्राणि विशेषकर मनुष्यों द्वारा ही असंतुलित करने का चौतरफा कार्य किया गया है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए शुभ नही है और वर्तमान पीढ़ी कि क्षमता योग्यता दक्षता पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है ।

मनुष्य जो अपनी प्रत्यक्ष दृष्टि से देखता है उस सत्य को भी नही स्वीकार करता समय काल चौबीस घण्टो का एक दिन होता है जब पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर लगाती है पृथ्वी कि इसी गति पर संध्या प्रभात एव निशा का निर्धारण होता है रात्रि में अधिकतर प्राणि निद्रा अवस्था मे होते है निद्रा जीवन की वह स्थाई अवस्था अभ्यास है जो एक दिन स्थाई होकर चिरनिद्रा में समाप्त होती है निद्रा अभ्यास है चिर निद्रा का निद्रा में किसी के साथ कोई घटना दुर्घटना घटती है उंसे पता नही रहता लेकिन निद्रा में आंतरिक चेतना सुसुप्ता अवस्था मे रहती है चिर निद्रा में आंतरिक चेतना भी नहीं रहती निद्रा का अंत एक नव प्रभात नव सूर्योदय कि रक्तलालीमा किरणों की तरह रक्त सांचार सा होता है जो नए उत्साह नव उपलब्धि नवकीर्ति का संदेश है सूर्यास्त समूर्ण दिवस के पुरुषार्थ के परिणाम के विश्लेषण कि बेला है।

अमूमन इसे गो धुली बेला कहते है यही कारण है जब किसी व्यक्ति के प्रति श्रद्धा श्राद्ध में परिवर्तित होती है तो जो श्राद्ध कर्म के अंत मे जो भोजन ब्राह्मणों को कराया जाता है उसका विधान गोधूलि बेला में होता है जब ना तो दिवस होता है ना ही निशा गोधूलि बेला जीवन मे बीते काल समय के परिणाम के विश्लेषण का काल माना जाता है ठीक इसी समय घरों में मंगल सूचक दीपक जलाएं जाते है जो अंधकार को दूर भगाते है।

मनुष्य जिस चिर निद्रा का अभ्यास चेतन निद्रा के माध्यम से जीवन के प्रति निशा करता है उंसे वह हर सूर्योदय में भूल जाता है यह कितना शुभ या अशुभ है
प्राणियों के जन्म जीवन मे यह उनके द्वारा सम्पादित कर्म आचरण द्वारा ही सत्यापित किया यूं है।

व्यक्ति अपने सगे संबंधियों यहां तक कि जन्म दाता माता पिता को शमशान या कब्रिस्तान जला या दफन कर लौटता है और उसे भलीभांति ज्ञात रहता है कि उसकी भी गति एक दिन यही होनी है फिर भी इस सत्य से बेपरवाह अपनी सुविधनुसार जीवन काल को व्यतीत करने का श्रम कर्म करता जाता है ।

जब कान्हा बचपन मे अठखेलियाँ करते करते माटी खाते एक दिन उनकी शरारत को माता यशोदा ने देख लिया और तब उन्होंने लल्ला के कान पकड़कर कहा मुहँ खोलो कान्हा ने मुंह खोला तो मईया यशोदा को सम्पूर्ण ब्रह्मांड ब्रह्म का सत्य स्वरूप अवतार एवं जन्म जीवन मृत्यु का रहस्य देखा मगर ज्यो कान्हा ने मुंह बंद किया माईय को कुछ भी स्मरण नही रहा ।

प्राणि को सत्य से परे रखने का गुण भी परमात्मा द्वारा ही प्रदान किया गया है मगर जो प्राणि परमात्मा के सत्य का दर्शन स्वयं कि आत्मा में करने की कोशिश करता है या कर लेता है वह आत्मा के परम पथ का पथिक हो जाता है और तब उसे सत्य और सत्त्यार्थ स्पष्ट परिलक्षित होने लगता है ।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश।।
सत्यार्थ - पमचं

ब्रह्म के ब्रह्माण्ड में प्रमुख दो अवयव आयाम प्रकृति और प्राणि है ।
प्राणि का जन्म प्रकृति के ही पांच प्रमुख तत्वों छिती,जल,पावक,गगन, शमीर द्वारा हुआ है ।विज्ञान ने अब तक पांच तत्वों के शोध शोधन से मेंडलीफ कि आवर्त श्रेणी में लगभग एक सौ अठ्ठारह तत्व खोज दिए है।

प्राणि प्रकृति कि ही प्रत्यक्ष प्रतिमूर्ति है सनातन का मानना है कि प्रलय के बाद चारो तरफ जल ही जल था तब भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण किया था स्प्ष्ट है जल से जीवन के प्रारम्भ को सनातन मान्यत देता है ।

विज्ञान का शोध कहता है कि जीवन कि उत्पत्ति जल से एक कोशिकीय अमीबा से शुरू हुई जो बहुकोशिकीय प्राणियों की उत्पत्ति का आधार बना।

रूपांतरण के सिद्धांत पर सृष्टि ब्रह्मांड निर्माण के बहुत से सिद्धांतो को शोध के आधार पर प्रतिपादित किया गया है जो एक अलग विषय है ।

मनुष्य ब्रह्मांड का सर्व श्रेष्ठ प्राणि है उसमें मन बुद्धि का समावेश इस प्रकार है कि वह ब्रह्मांड के रहस्यों को जान सकता है खोज सकता है और जिस किसी विषय वस्तु के लिए संकल्पित हो जाय प्राप्त कर सकता है ।

यह निर्धारित उसके स्वयं कि इच्छा शक्ति पर होता है करुणा ,क्षमा, सेवा, स्वार्थ, परमार्थ, द्वेष ,दम्भ ,घृणा, प्रेम, सभी मनाव के स्वभाव में निहित है जिसके उत्कर्ष का परिणाम समय काल देखता एव निर्धारित करता है।

स्वभाव स्प्ष्ट है स्व का भाव यानी व्यक्ति विशेष कि प्रधान भवनाये जिसके आधार पर उसकी प्रबृत्ति निर्धारित होती है का निर्माण मूलतः परिवेश ,परिस्थितियों, उसके समाज कि मूल संस्कृति पर विकसित होती है जो सकारात्मक भी हो सकती है और नकारात्म भी ।

उदाहरण के लिए एक बालक जन्म लेता है और उसे अनेको विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जब वह युवा एवं वयस्क होकर समाज राष्ट्र का हिस्सा बनाता है तो बचपन के संघर्षों का उसके मन व्यक्तित्व पर दो प्रकार से प्रभाव पड़ता है एवं परिलक्षित होता है ।

प्रथम जब वह बालक सक्षम होकर समाज राष्ट्र का जिम्मेदार नागरिक बनता है तो बचपन के अपने क्लेश संघर्षों का प्रतिकार करता है और उसका मन उन परिस्थितियों से प्रतिशोध के लिए प्रेरित होता है जिसके कारण उसे कष्टो का सामना करना पड़ा ऐसा व्यक्ति तानाशाह या क्रूर कहलाता है।

दूसरा वह व्यक्ति जिसने बाल्य काल की विपरीत परिस्थितियों के कारण जो कष्ट उठाये संघर्ष किया पीड़ा सही स्वयं कि अनुभूति को प्राणी मात्र में देखता है और उसके निवारण कि साध्य साधना को अपना उद्देश्य बना लेता है जिसे समय समाज महापुरूष और युग चेतना का विशेष व्यक्तित्व स्वीकार करता है।

दोनों ही कर्म बोध निर्धारण के परिणाम है जिसे देव,आसुरी या सकारात्मक ,नकारात्मक कहते है कर्म और भाग्य भी प्राणी कि प्रबृत्ति अनुसार परिणाम देते है।

बहुत से विद्वानों का मत है कि प्रारब्ध ही कर्म का निर्माण करता है या कर्म मार्ग निर्धारित करता है यह विषय गहन शोध का विषय है लेकिन स्प्ष्ट है कि कर्म से प्रारब्ध को परिवर्तित किया जा सकता है कर्म ही मनुष्य के बस में है।

भाग्य का निधार्रण तो पूर्वजन्माजित कर्मो के आधार पर जन्म के साथ भगवान द्वारा ही कर दिया जाता है जिसे बदल सकने की क्षमता भी मनुष्य में निहित है ।

ज्योतिष विज्ञान समय के सापेक्ष कर्म गति फल निर्धारण का विज्ञान है ।

जैसे कोई किसी भयंकर बीमारी से ग्रसित है तो ज्योतिष सिर्फ इतना ही बता सकता है कि बीमार की आयु शेष हैं या नहीं वह अभी मरेगा जीवित रहेगा इसका तात्पर्य यह कत्थई नही की उसे अपने बीमारी कि चिकित्सा ही नही करनी चाहिए चिकित्सा कराना उसका कर्म है और

ज्योतिष उसके समय का ज्ञान।
ज्योतिष विज्ञान में दशा महादशा अन्तर्दशाओ कि गणना कि जाती है बड़ी प्रचलित कहावत है दशा दस वर्ष चाल चालीस वर्ष और चरित्र यानी प्रबृत्ति जीवन भर साथ चलता है लेकिन एक सर्वमान्य सत्य यह है कि जो मनुष्य तीनो को परिवर्तित कर देता है वह युग पुरुष पराक्रम पुरुषार्थ को परिभाषित कर जीवन का सत्त्यार्थ परिभाषित प्रमाणित करता है।

विज्ञान एव धर्म दोनों मतानुसार जीवन जल से प्रारम्भ होता है जिसकी प्रबृत्ति निर्विकार निर्झर निर्मल नित्य निरंतर गतिमान रहना है जल स्वय को दूषित नही करता बल्कि अपने अंतर्मन में कोटि कोटि प्राणियों के अस्तिव को सुरक्षित रखता है मनुष्य का जीवन भी इसी प्रकार है अंतर सिर्फ इतना है कि मनुष्य स्वार्थ नकारात्मता के कारण स्वय को दुषित कर लेता है जीवन के मैलिकता के सत्यार्थ को नही देखना चाहता।।


नांदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश।।

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