गाँव की लड़की का अर्थशास्त्र
विजय कुमार तिवारी
गाँव में पहुँचे हुए कुछ घंटे ही बीते हैं,घर में सभी से मिलना-जुलना चल रहा है कि मुख्य दरवाजे से एक लड़की ने प्रवेश किया और चरण स्पर्श की। तुरन्त पहचान नहीं सका तो भाभी की ओर प्रश्न-सूचक निगाहों से देखा।
"लगता है, चाचा पहचान नहीं पाये,"थोड़ी मुस्कराहट के साथ उसने बीच में ही टोक दिया और बोली,"मैं श्यामा, आपके हीरा भैया की छोटी बेटी।"
"अरे, तू इतनी बड़ी हो गयी?"किंचित आश्चर्य और प्रसन्नता से उसका माथा सहलाया और आशीर्वाद दिया,"खूब खुश रहो। कैसी हो तुम और तुम्हारी दीदी लोग कैसी है?"
उसने मेरी बातों को शायद सुना नहीं,भाभी की ओर मुखातिब हुई,"चाय बना दूँ चाची?"और बिना कुछ सुने ओसारा के उस तरफ रसोई में चली गयी।
"बहुत अच्छी लड़की है,"भाभी ने कहा,"अक्सर आ जाती है और मेरा हाथ बँटाती रहती है।" भाभी ने पहले ही ठेकुआ, पानी रखा था और कुछ नमकीन भी।
हीरा भैया हमारी ही पट्टीदारी और कुल-खानदान के हैं जिनके हिस्से में गाँव में सबसे ज्यादा जमीन थी और खेती भी खूब होती थी। उनके दरवाजे पर बैलों की जोड़ी,गाय और भैंसें बँधी रहती थीं। बचपन में मैं अक्सर उनके घर जाया करता था, भौजी मुझे लैनू का गोला या मट्ठा दिया करती थीं और बार-बार बुलाती थीं। उनकी स्नेहमयी दृष्टि आज भी याद है मुझे और उनकी आँखों में चमक रहती थी। घर में काम इतना होता था कि उनको अपनी चिन्ता करने का समय ही नहीं मिलता और कपड़े साफ-सुथरे नहीं रहते। कोई न कोई बेटी हमेशा उनकी गोद में खेलती या रोती रहती थी। उनकी पाँच बेटियाँ हुईं।
जब मेरी स्नातक की शिक्षा समाप्त हुई,उसी साल गर्मी में श्यामा का जन्म हुआ। वह खूब गोरी है। हमेशा खिलखिलाकर हँसती और मेरे साथ खेलती रहती थी। अगली पढ़ाई के लिए मुझे बनारस जाना पड़ा और उसी साल भौजी स्वर्ग सिधार गयी। फिर मेरी नौकरी हो गयी और गाँव आना-जाना कम होता गया।
पिछली बार गाँव गया तो मालूम हुआ कि भैया ने अपनी चार लड़कियों की शादी कर दी है और श्यामा लगभग 10 साल की होगी। उनकी चारों लड़कियों में से कोई न कोई,हमेशा अपने मायके में रहकर,पिता के घर और श्यामा की देखभाल करती हैं। यह भी पता चला कि उन्होंने अपनी अधिकांश जमीनें बेंच दी हैं और अब गरीबी की बदहाल जिन्दगी जी रहे हैं। उनकी संगति भी बिगड़ गयी है और शराब पीने से सेहत भी खराब हो गयी है।
श्यामा को कभी-कभी बगल के गाँव के प्राईमरी स्कूल में आते-जाते देखा था परन्तु ठीक से पता नहीं कि उसकी पढ़ाई पूरी हुई या नहीं। पिछली बार उसने मुझे चाचा कहकर सम्बोधित किया और बतायी कि मैं उसे बचपन में गोद में लिए घुमता रहता था।
"तुम्हें कैसे पता?"मैंने पूछा था।
"दीदी बताती है." उसने थोड़ा शरमाकर कहा।
"तब तुम गोल-मटोल बहुत सुन्दर थी और रोती नहीं थी, इसलिए मुझे बहुत अच्छी लगती थी," मैंने उसके बचपन को याद करते हुए कहा।
"अब तो और भी नहीं रोती और उतना हँसती भी नहीं,"थोड़ी संजीदगी से उसने कहा।
वही श्यामा अब दुबली-पतली,लम्बी हो गयी है और मेरी भाभी के साथ अपना ज्यादा समय गुजारती है। उम्र उसकी पन्द्रह वर्ष से कम नहीं होगी और साल दो साल में शादी हो जायेगी,ससुराल चली जायेगी। कपड़े साफ-सुथरा रखती है,खाना बनाती है और पिता की खूब सेवा करती है।
चाय लेकर आयी तो मैंने पूछा,"तुम्हारा कप कहाँ है?"
खुश होते हुए वापस गयी। भाभी ने बताया कि वह कप में चाय नहीं पीती,स्टील वाले गिलास में पीती है।
"आप तो बाबूजी को जानते हैं,"उसने कहना शुरु किया,"दीदी बताती है कि माँ के मरने के बाद बाबूजी शराब पीने लगे तथा उनके साथ पीने वाले और दो-चार लोग आने लगे। रोज एक-दो कप या शीशे के गिलास टूटने लगे। बाबूजी बाजार जाते तो नये कप या शीशे के गिलास ले आते।15-20 दिन होते-होते सब टूट जाते। जो भी दीदी यहाँ रहती, परेशान रहती। कई बार दीदी लोगों को बाबूजी डाँट भी देते और वे कमरा बंद करके रोती-सुबकती रहतीं।
बड़ी दीदी आयी थी। मैंने कहा,"अब स्टील वाले गिलास में ही चाय या पानी दिया करो।"
बाबूजी बड़ी दीदी से कम उलझते थे और उसकी बात को मान जाते थे। तब से कप और शीशे के गिलास का झमेला ही बंद। उसने मुस्कराकर गिलास से चाय पीनी शुरु कर दी।
"चाय कैसी बनी है चाचा?" उसने पूछ लिया।
"बहुत अच्छी बनी है श्यामा! मुझे ऐसी ही चाय पसंद है,"मैंने कहा।
शायद उसे बहुत अच्छा लगा,उसने कहा,"चाय पर एक और बात बताती हूँ। चीनी के लिए बाजार जाना पड़ता है और बाबूजी को याद ही नहीं रहता कि कब चीनी,चाय लाये थे। दीदी लोग उनको अचानक बताती कि चीनी खत्म हो गयी है,तो वे खूब नाराज होते और दोस्तों के बीच भी बोलने में संकोच नहीं करते। इसका भी मैंने उपाय निकाल लिया। थोड़ी चीनी,चाय,एक-दो साबुन,थोड़ा तेल मैं छिपाकर रख लेती और आपात स्थिति में उससे काम चलाती। कभी-कभी बाबूजी को एक सप्ताह पहले ही आगाह कर देती। इसके लिए कभी भी उन्होंने मुझे नहीं डाँटा।" श्यामा किसी विजेता की तरह मुस्करा रही थी।
"तुम बहुत समझदार हो गयी हो श्यामा!" मैं भावुक हो उठा,"तुम्हें भगवान सुखी रखे।"
थोड़ी भावुकता उसके चेहरे पर भी उभर आई। उसने कहना शुरु किया,"चाचा! मैंने सुख देखा ही नहीं। माँ की कोई स्मृति मुझे नहीं है। घर में माँ की कोई तस्वीर भी नहीं है। शुरु में बाबूजी के साथ खेत-खलिहान में जाना याद आता है और बगीचे में खेलना। स्कूल जाना भी बंद हो गया। डाँट दीदी लोग खाती थीं और डरी-सहमी मैं रहती थी। मैंने कभी भी नये कपड़ों के लिए जिद्द नहीं की और कभी नहीं कहा कि मैं मेला या बाजार जाऊँगी। बाबूजी की तबीयत खराब रहने लगी तो लाचार,बेजार मैं रोती रहती हूँ। मैं जानती हूँ कि अब उनके पास कुछ भी नहीं है,इसलिए मैं कोई माँग नहीं करती। जितना ला देते हैं,उसी में घर चलाने की कोशिश करती हूँ।"
अचानक एक मायूस सी मुस्कान उसके चेहरे पर उभरी और उसने कहा,"चाचा! मैं दुखी भी नहीं हूँ। चाची के साथ लगी रहती हूँ और खुश रहती हूँ। जान गयी हूँ कि सबको खुश रहना चाहिये।"
मैं देख रहा हूँ,मेरे गाँव की लड़की ने अर्थशास्त्र के सारे सिद्धान्तों को जीवन में लागू कर लिया है और खुश है।