वैचारिक ऊर्जा नंदलाल मणि त्रिपाठी द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

वैचारिक ऊर्जा


वैचारिक ऊर्जा
जीवन दर्शन कि सकारात्मकता का बोध है जो व्यक्ति व्यक्तित्व एव जीवन जन्म की सार्थकता को विचारों के निर्माण से लेकर उसके परिणाम की ऊर्जा उत्साह ईश्वरीय चेतना का सत्त्यार्थ व्यखित करती है।
मृदुलदुकीर्ति जी ने वैचारिक ऊर्जा के स्रोत एव उसके स्रोत संवर्धन संरक्षण को सही अर्थों में व्यखित किया है
उन्होंने (युजुर्वेद )के #आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत:# को उद्घृत करते हुए स्पष्ठ किया है सभी दिशाओं एव दशाओं से शुभ विचारों का प्रस्फुटन होता है चाहे परिवेश परिस्थिति नकारात्मक हो फिर भी उससे कही न कही किसी न किसी स्वरूप में सकारात्मक एव नकारात्मक दोनों ही ऊर्जा का सांचार होता है
जब मनुष्य सदैव अच्छे भोजन अच्छे वस्त्र की आकांक्षा रखता है उंसे प्राप्त करने की कोशिश करता है एव प्राप्त करता है तो विचारों के सन्दर्भ में नकारात्मकता का बोध क्यों? सृष्टि समाज के परिपेक्ष्य में विल्कुल सत्य है कि अच्छे विचार का व्यक्ति अच्छे समाज का मूल अवयव होता है साथ ही साथ अच्छे युग के निर्माण का कर्णधार भी होता है।
विचार का मूल स्रोत--#मानोनेन मनुषयः #विचारों का स्रोत मनुषय है जो वह मनन चिंतन करता वही मनुष्य है ।मनुष्य के निमार्ण में मन इन्द्रिय एव सर्वोपरि आत्मा की अवस्थित है मनुष्य का मन से अनंत संबंध होता है विचार ब्रह्मांड के बृहद एव शुक्ष्मतम आत्म अंश है (कठोपनिषद) के अनुसार जो #अणु- आणियाम महतो महियाम है# मन से उठती तरंगे पिपासु जिज्ञासु होती है जिसके कारण उनमें अन्वेषी भाव को जन्म देती है जो प्रश्र्यायित होती है।#ॐ केनेषितन पतति प्रेषत: मन:#(केनोपनिषद) मन का नियंता संचालन कर्ता है कौन है? मन बुद्धि आत्मा मनुष्य की चेतन सत्ता के प्रमुख केंद्र या यूं कहें प्रयोगशाला है तो अतिशयोक्ति नही होगी मन और बुद्धि नश्वर है एव स्वर आत्मा की भौतिकता के सारथी है आत्मा ईश्वर परम सत्ता ब्रह्म का अंश है मन उसका सारथी है आत्मा महारथी है अतः परब्रह्म की शक्ति के अंश से मन मनन में सामर्थ्य है परब्रह्म अंश आत्मा का सारथी होने के बाद भी परब्रह्म की मीमांसा करने में मन बुद्धि समर्थ नही है।#तदैव ब्रह्म त्वं विद्घि नेद यदीदमुपासते#(केनोपनिषद) आत्मा ईश्वरीय अवधारणा की सत्ता प्रमुख है किंतु उसके किसी आकार में स्थापित होने से पूर्व आकार के अतीत की परिस्थिति परिवेश उसे प्रभवीत करती है एव जब वह पूर्ण चैतन्य स्वरुप को प्राप्त करता है तो उसमें विचारों का प्रस्फुटन भी उसी प्रभाव से होता है। उदाहरण के लिये कसाई जीव हत्या परिवारिक भरण पोषण के लिये करता है जो अपराध न होकर धर्म अधर्म में परिभाषित होता है तो प्रतिक्रिया प्रतिशोध निहित स्वार्थ अहंकार की संतुष्टि में कि गयी जीव हत्या राक्षसी सोच की प्रवृति अपराध एव अधर्म के दोनों ही रूप में परिभाषित होती है।
बहुत स्पष्ठ अदृश्य चैतन्य से प्रस्फुटित परिलक्षित विचारों में सम्पूर्ण जीवन दर्शन का सार तथ्य छुपा होता है जो समूर्ण ब्रह्मांड के चर जीवन मन संकल्पों एव विकल्पों का सत्य है।
दृश्यमान युग मे वैचारिक जगत की सत्ता कि प्रमुखता है सभी कुछ स्थाईत्व भाव मे रहते हुए भी मन बुद्धि की तरंगों यानी विचारों से प्रभावित रहता है सारी भौतिक वास्तविकता के अस्तित्व का सृजन मूल अदृश्य विचारों से शुरू एवं समाप्त होता है। स्थूल जगत की प्रासंगिकता सीमित है जिसका श्रोत वैचारिक होता है वैचारिक अतः भौतिक स्थूल से वैचारिक अधिक प्रासंगिक प्रभवशाली एव स्थूल की जननी है ।स्थूल शरीर के नेपथ्य में शुक्ष्म शरीर है शुक्ष्म शरीर के नेपथ्य में कारण शरीर एव कारण शरीर के नेपथ्य में वैचारिक शरीर यानी मन बुद्धि का अस्तित्व है कोई व्यक्ति दरिद्र होने पर भी उदारता उसका आचरण होती है तो कोई बहुत सम्पन्न होने पर भी कृपणता उसका आभूषण होती है कोई लोभी क्रोधी तो कोई दानवीर एव शौम्य शान्त जो व्यक्तित्व के चरित्र के विभिन्न आयाम है जिसे स्व भाव मतलब अपना भाव विचार यानी स्वभाव है।
स्व भाव जो विचारों के धरातल पर जन्म लेता है विचारों के धरातल का निर्माण व्यक्ति के अतीत एव परिवेश से होता है जो अहंता में घर बना कर बैठ जाती है तो विस्मृत नही होती है और स्वभाव प्रवृत्ति को जन्म देती है इसके लिये किसी प्रायास अभ्यास की आवश्यकता नही होती सिर्फ मन के मौन स्वीकृति का परिणाम है जिसका अस्तित्व ही विचारों होते है जो जीवन के आचरण संस्कार में दृष्टिगोचर होती है एव जीवन को संचालित करती है जन्म का निर्धारण आधार भी बनती है
#शरीरं वायुर्गधानिवाशयात# (गीता)
यही तत्व गहन अति शुक्ष्म कि, जय वायु गंध समावत है ,तस देहीन देह के भावन को नव देह में हु लई जावत है।।
देह एव वैचारिक शरीर एक दूसरे के पूरक है जिसके अंर्तमन में अथ सत्य का केंद्र मन अमोघ शक्ति केंद्र जिसकी सही दिशा एव प्रयोग ब्रह्म से साक्षात्कार करा देता है तथा ब्रह्म में ही कायांतरित कर देता है ।इंद्रियों एव कर्म का सारथी मन है जिसका रथ विचार है स्वप्न में भी इन्द्रिय आभास चेतन अवस्था मे विद्यमान रहता है ।
मन की चार अवस्थाओ मन, बुद्धि,चित्त,अहंकार।
सजग रहना महत्वपूर्ण है कि मन पर कुप्रभाव से कुत्सित विचारों को ना जन्म दे उर उंसे सदैव निर्मल निश्चल
रख दिव्य भाव से जीवन की वास्तविक का निर्वहन करो जिसके लिये आत्मा के ईश्वरीय चेतना का सदैव जागरूक रखना अति आवश्यक है चिन्तन से ही वैचारिक घर्षण होता है जिसके प्रतिकर्षण से सार्थकता निरर्थकता का आभास होता है जो विचारों को जन्म देता है जिससे भाव भाषा भावना में भाषित होते है भविष्य का निर्धारण करते है वर्त्तमान सुगम सौभाग्य बनाते जीवन परम्परा चक्र में निखार लाते है सोते जागते और सुषुप्त तीनो शिव संकल्पित चित्त मन आधीन है।
विचार सृजनात्मकता की श्रोत शक्ति जननी है चैतन्य ऊर्जा विचार है संकल्पित व्यक्ति जो चाहे कर सकता है संकल्प विचारों की अविनि की उपज होते है ।मन की गति एक लाख छियासी हज़ार मिल प्रति सेकेंड है विचारों की गति का आंकलन करना सम्भव नही है बिचारो के सैलाब ,भीड़,तूफान,ज्वार भाटा, ज्वाला में किसी एक को सत्यता तक ले जाने में समर्थ बनाना जीवन की मौलिक सफलता है।
जीवन्ता की ऊर्जा ही विचार की सकारात्मकता है जिसकी शक्तियों की कल्पना भी नही की जा सकती सही उद्देश्य एव दिशा चलने पर ब्रह्म स्वरूपमय हो जाती है यदि दूषित हो जाय तो राक्षसी बन विनाशक होती है शारीरिक मानसिक आत्मिक क्षमता सफलता हर्ष जिसे हम समाज मे संचारित करते है जो वैचारिक धरातल से उत्तपन्न होते सकारात्मक बोध के बौद्धिक होते है विचारों से ही चारित्रिक निर्माण दृढ़ता एव शक्ति आती है शुभ विचारों की एकल ऊर्जा धीरे धीरे एक विशाल क्रांति का रूप धारण कर लेती है जो वर्त्तमान का परिमार्जन करती है तो भविष्य के लिए तेजोमय मार्ग की प्रेरक होती है।
कर्म की बुनियाद ही विचार है प्रत्येक कर्म सर्वप्रथम सार्वजनिक होने से पूर्व विचारों में अनेको बार प्रगट होकर घटित हो चुका होता है उसका भौतिक स्वरूप तो अंतिम होता है।प्रत्येक महानतम के पीछे उसकी महान सोच की भूमिका महत्वपूर्ण होती है और कर्म में परिवर्तित होती है हर महान उपलब्धि सर्वप्रथम एक वैचारिक परिकल्पना सोच अन्वेषण एव कर्म का परिणाम होती है।
भाषा बिभिन्न हो सकती है मगर वैचारिक मानसिक छवि सर्वथा एक समान होती है ।विचार बदलते संक्रमित होते एव करते है विचारों द्वारा के प्रवर्तन द्वारा युग मानसिकता बदला गया राष्ट्रीय चेतना के वैचारिक धरातल की किंतनी ही क्रांतियां आज युग कि प्रेरणा है।
आत्मा दृष्टा बन स्वयं की चिंतन शैली को #सर्वे भवन्तु सुखिनः #रूपांतरित करने की युग आवश्यकता है इसके लिये स्वयं को जानना अति आवश्यक है ।परिमार्जन,शुद्धिकरण, सर्वजनहिताय में परिवर्तित होते ही भाषा भाव व्यवहार आचरण चरित्र अन्तस् वाह्य सबका रूपांतरण हो जाता है जी विचारों की सकारात्मक ऊर्जा के कारण सम्भव होता है।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश