छपास रोग  Dr. Pradeep Kumar Sharma द्वारा हास्य कथाएं में हिंदी पीडीएफ

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छपास रोग 

छपास रोग


‘‘हलो।’’ मोबाइल उठाते ही मैंने कहा।
‘‘नमस्कार डाॅक्टर साहब।’’ उधर से आवाज आई।
‘‘नमस्कार, माफ कीजिएगा आपका नम्बर मेरे मोबाइल में सेव नहीं होने से मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ आपको।’’ मैं असमंजस में था।
‘‘अजी पहचानेंगे भी कैसे ? पहली बार जो आपसे हमारी बात हो रही है। वैसे लोग इस नाचीज बंदे को अविराम संतोष के नाम से जानते हैं।’’ उधर से आवाज आई।
‘‘अविराम संतोष जी...... सर ये नाम तो जाना-पहचाना लग रहा है। कहीं आप अनंत अविराम प्रकाशन वाले प्रख्यात साहित्यकार अविराम संतोष जी तो नहीं हैं ?’’ मैंने कहा।
‘‘जी, जी, बिल्कुल सही पहचाना आपने। पर मैं उतना भी प्रख्यात साहित्यकार नहीं, जितना कि लोगों ने प्रचारित कर रखा है। खैर छोड़िए इन सब बातों को। हमने तो आपको पीएच.डी. की पूर्णता पर बधाई देने के लिए फोन किया था। सो हमारी ओर से बधाई स्वीकार कीजिएगा।’’ उन्होंने शहद-सी मीठी वाणी में कहा।
‘‘जी हार्दिक आभार आपका सर।’’ मैंने कहा।
‘‘डाॅक्टर साहब, हम अपने प्रकाशन की ओर से आपको एक विशेष ऑफर देना चाहते हैं।’’ उन्होंने कहा।
विशेष ऑफर सुनकर दिल तो बाग-बाग हो रहा था, परंतु येन-केन-प्रकारेण उसे नियंत्रित करते हुए हमने पूछा, ‘‘कैसा विशेष ऑफर ? कृपया खुलकर बताएँगे, तो बड़ी कृपा होगी।’’ मैंने पूछा।
‘‘अजी डाॅक्टर साहब, इसमें कृपा वाली कोई बात नहीं, ये तो हमारी ड़यूटी है। देखिए डाॅक्टर साहब, पीएच.डी. तो आपकी हो गई। अब आप अपनी थिसिस को देर-सबेर पुस्तकाकार में छपवाएँगे ही।’’ उनके मुँह से बारम्बार डाॅक्टर साहब शब्द सुनकर मेरा सीना छप्पन इंची होता जा रहा था।
‘‘जी, ऐसी योजना तो है ही हमारी।’’ मुँह से दिल की बात निकल ही गई।
‘‘बस, डाॅक्टर साहब, इसी के लिए हमारा विशेष ऑफर है। यदि आप हमारे प्रकाशन से अपनी थिसिस का प्रकाशन करवाएँगे, तो हम मिनिमम रेट पर पब्लिश कर उसका हम सोसल मीडिया के माध्यम से अपने लाखों फाॅलोवर्स और रीडर्स के बीच प्रचार-प्रसार भी करेंगे। हमारे पैनल के प्रख्यात समीक्षक, जिनमें से कुछ साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त भी हैं, आपके थिसिस की समीक्षा कर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाएँगे। हम कई राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए नाॅमिनेशन भी करेंगे। पैकेज के मुताबिक आपको दो से पाँच गारंटेड सम्मान भी दिलवाएँगे।’’ उन्होंने पूर्ण व्यवसायिक अंदाज में कहा।
दो से पाँच गारंटेड सम्मान की बात सुनकर किसी तरह अपनी हँसी को जज्ब करते हुए कहा, ‘वैसे क्या मैं जान सकता हूँ सर कि आपके यहाँ की स्टार्टिंग पैकेज कितने रूपए की है। वैसे मेरी थिसिस लगभग 250 पेज की है।’’
‘‘हाँ, हाँ डाॅक्टर साहब, क्यों नहीं, आपके लिए स्टार्टिंग पैकेज तीस हजार रुपए की होगी। यदि अपनी पुस्तक की भूमिका हमारे पैनल के वरिष्ठ साहित्यकारों, जिनमें साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त या कोई कुलपति होंगे, उनसे लिखवाना चाहेंगे तो पाँच हजार अतिरिक्त लगेंगे। इस पैकेज में छपी हुई 15 नग किताबें आपके घर तक पहुँचाई जाएगी या फिर विमोचन समारोह के अवसर पर आपके हाथों में सौपी जाएगी। पुस्तक का विमोचन हमारे वार्षिकोत्सव के अवसर पर होगा। इसी समय आपको दो सम्मान पत्र भी हमारे अतिथियों के हाथों प्रदाय किए जाएँगे। आपके थिसिस की दो समीक्षा भी पत्र-पत्रिकाओं में हम छपवाएँगे ही। इसके लिए आपको कोई अतिरिक्त राशि खर्च करने की जरूरत नहीं होगी। हाँ, विमोचन समारोह में आपको अपने स्वयं के व्यय पर हमारे शहर आना होगा।’’ उन्होंने उत्साहपूर्वक विस्तार से बताया।
‘‘15 नग पुस्तकों के लिए तीस हजार रुपए कुछ ज्यादा ही लग रहे हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘डाॅक्टर साहब, आप अन्य खर्चों को भी जोड़कर देखिए न। हम आपकी पुस्तक का मुफ्त में ही विमोचन करवा देंगे। यदि आप खुद करवाएँगे, तो इस पर ही 20-25 हजार का खर्चा बैठेगा। हम तो सम्मान-पत्र और समीक्षा अलग से करवाएँगे। पुस्तक का प्रचार-प्रसार तो लाइफटाईम करते ही रहेंगे।’’ उन्होंने कहा।
‘‘हूँ... सो तो है।’’ मैंने कहा।
‘‘डाॅक्टर साहब, वैसे एक और बात बता देना चाहूँगा, हमारे प्रकाशन के नियमानुसार जब आप अपनी थिसिस की साफ्टकाॅपी भेजेंगे, तो पचास प्रतिशत राशि आपको अग्रिम जमा करना होगा। पुस्तक की डिजाइन फाइनल होते ही शेष पचास प्रतिशत राशि भी जमा करना होगा। इसके अलावा यदि आप पीएच.डी. एवार्ड होने के एक सप्ताह के भीतर अग्रिम राशि जमा करते हैं, तो तीसरा सम्मान-पत्र मुफ्त में ही दिया जाएगा। यदि आप अपने किसी भी परिचित या मित्र की पुस्तक प्रकाशन के लिए हमारे पास भेजेंगे, तो आपको 5 प्रतिशत कमीशन भी मिलेगा।’’ उन्होंने कहा।
‘‘ठीक है लगभग सभी प्रकाशक ऐसा ही करते हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘देखिए डाॅक्टर साहब, सभी प्रकाशक और हममें जमीन-आसमान का फर्क है। जो क्वालिटी और सर्विस हम आपको प्रोवाइड कराएँगे, वह कहीं और आपको देखने को नहीं मिलेगी।’’ उन्होंने बताया।
‘‘हूँ....।’’ अब तक मुझे उनकी बातें सुन-सुनकर बोर लगने लगा था।
‘‘तो डाॅक्टर साहब, अब मैं आपकी ओर से हाँ समझूँ।’’ उन्होंने पूछा।
‘‘रुकिए, जनाब। मुझे जरा सोचने तो दीजिए।’’ मैंने कहा।
मैंने उनके जवाब की प्रतीक्षा किए बिना फोन काट दिया। बार-बार की बकवास से बचने के लिए मैंने पहले सोचा कि उन्हें ब्लाॅक कर दूँ, फिर याद आया, वे दूसरे नमबर से भी तो फोन कर सकते हैं। मैंने अपना सिम ही तोड़ कर फेंक दिया। न रहेगा सिम, न बजेगी रिंग।
- डाॅ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़