आस्था एव श्रद्धा नंदलाल मणि त्रिपाठी द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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आस्था एव श्रद्धा

आस्था एवं श्रद्धा -

आस्था अर्थात अनुभूति का याथार्त आस्था अस्तित्व का वह बोध जो स्वयं के होने के प्रमाण जैसा होता है ।

आस्था वह भाव है जो किसी भी अंतर को समाप्त कर एक नई अभिव्यक्ति को जन्म देता है ।

वास्तव में आस्था स्थाई भाव ही है जो बोध कि इतनी गहराई से प्रस्फुटित होता है की उसका खंडित होना संभव होता है।

आस्था संबंधों के अस्तित्व का अवनी आकाश है आस्था के ही धरातल पर प्रेम, घृणा ,द्वेष ,दम्भ,आदि भवों का सांचार होता है जिसके कारण समाज का निर्माण एव उद्भव होता है ।

आस्था ही है जो कण कण में उस अदृश्य शक्ति का एहसास कराती पत्थर में सर्वशक्तिमान ईश्वर का दर्शन कराती है।

मूर्तिकार जो आवश्यक नही कि जीवन दर्शन का ज्ञाता या बहुत ज्ञानी हो किंतु जिस मूर्ति का वह निर्माण करता है उसी मूर्ति कि प्राण प्रतिष्ठा कर बड़े से बड़ा ज्ञानी श्रद्धा से नतमस्तक हो शीश नवाता है।

श्रद्धा एव आस्था दोनों एक ही धरातलीय भाव नही है श्रद्धा सवर्था श्रेष्ठता के कोख से अंकुरित प्रस्फुटित होता है जबकि आस्था का संचार वर्ग विभेद से परे होता है जब श्रद्धा एव आस्था दोनों का समन्वयक सांचार हो जाता है तो मनुष्य में परम सत्ता का प्रदुर्भाव स्वमेव हो जाता है।

तब उसे ब्रह्म के सम्पूर्ण ब्रह्मांड में प्रकृति एव प्राणि में आत्मीय बोध का दर्शन होने लगता है जिसे परमात्मा का प्रतिनिधि कहते है ।

आस्था का प्रथम कल्पना परिकल्पना दूसरा चरण है अनुभूति या अनुभव जो भावों की प्रयोगशाला में परीक्षण करने के उपरान्त अंतर्मन कि तरंगों में स्थायी भाव मे सम्मिलित होता है अनुभव अनुभूति के बाद तीसरा चरण है विश्वास जिसकी उतपत्ति अनुभव अनुभूति के उपरांत होती है और अस्तित्व का आत्मिक बोध आस्था का तब अभ्युदय होता है जो अंतर्मन को दृढ़ समर्पित एव अडिग चट्टान कि तरह बनाता है ।

आस्था का जन्म शब्द तदुपरांत स्वर संबोधन तथा उसके बाद प्रत्यक्ष होता है बालक को जब तक उसे सांसारिकता का ज्ञान नही होता है माना जाता है वह स्वयं ईश्वर का प्रतिनिधि एव अबोध होता है जब अबोध मन मे आस्था का प्रदुर्भाव होता है तो सम्पूर्ण ब्रह्मांड को इसकी अनुभूति होती है जव अबोध बालक में श्रद्धा एव आस्था कि उत्पत्ति एक साथ हो जाये तो ब्रह्मांड में नव शौर्य सूर्य का उदय होता है जिसमे समय बहुत नही लगता ।

ध्रुव एव प्रह्लाद दोनों को लगभग एक समान परिस्थितियों के कारण उनके अबोध आत्मीय धरातल पर शब्द श्री हरि एव ॐ नमो भगवते वासुदेवाय शब्द जब आत्मीय स्वर बोध से आस्था एव श्रद्धा भाव से प्रस्फुटित हुये तब बहुत अल्प काल मे ही उनके आस्था का प्रत्यक्ष साक्षात्कार सम्पूर्ण ब्रह्मांड को हुआ कही लोहे के खम्भे में तो कही भयंकर बन में जीवन के याथार्त स्वरूप में एक को पिता के आतंक से मुक्ति चाहिए थी तो दूसरे को पिता के जैसी ऊंची राजगद्दी दोनों ने ही अपने अबोध मन मतिष्क के अबोध आत्मीय धरातल पर जन्मी आस्था एव श्रद्धा कि साधना से परमपिता को ही पिता स्वरूप प्राप्त कर लिया।

जबकि परिपक्व मनुष्य में आस्था एव श्रद्धा का सम्पूर्ण उदभव होने के बाद उसकी प्रमाणिकता के साक्षात्कार में वर्षों लग जाते है क्योंकि पूर्ण वयस्क एव परिपक्व मनुष्य निष्पाप नही हो सकता आस्था एव श्रद्धा के आत्मिक सृजन के बाद उंसे निष्पाप होने में ही वर्षों लग जाते है तब कही जाकर उसे उसकी आस्था श्रद्धा के मार्ग के दिशा दृष्टि का साक्षात्कार होता है ।

भरतीय सनातन कि ऋषि परम्परा परमात्मा के प्रति अंश आत्मा कि श्रद्धा आस्था के अस्तित्व के साक्षात्कार कि साध्य साधना ही है
आस्था कि उत्पत्ति व्यवस्थित शांत एव स्थिर एव अविचलित चित्त में होती है जिसमे असंतोष व्यग्रता अभिमान अहंकार घृणा आदि भवों का कोई स्थान ही नही रह जाता है क्योंकि ये वही भाव है जिनकी मन मे बोध एव उत्पत्ति से विकार जन्म लेता है जो श्रद्धा एव आस्था कि जन्म लेती या उठते भाव तरंगों समाप्त कर देती है ।

आस्था वह निर्मल निश्चल आत्मिक प्रवाह है जिसके प्रवाह कि उठती गिरती लहरों में आत्मिक ईश्वरीय बोध के सत्य के सत्कार के अवसर है जिसके धवल निरपेक्ष प्रवाह में श्रद्धा के आत्मीय आकाश एव नव ज्ञान, कर्म ,नैतिकता ,मर्यादा बोध के आदित्य का प्रत्यक्ष साक्षत्कार होता है जो जन्म जीवन के सत्त्यार्थ का बोथ कराता है एवं उद्देश्य के उद्गम मार्ग के प्रकाश का सांचार भयंकर अंधकार से निकाल कर करता है।

वर्ष में दो बार शारदीय एव वासंतिक नवरात्रि पूजन कि परम्परा सनातन में नारी शक्ति को देव शक्ति के रूप में आस्था एव श्रद्धा के साथ स्वीकार कर साधना आराधना प्रमुख है जो सनातन समाज कि संस्कृति का अभिमान है नौ दिन नारी के नौ रुपों कि आराधना जो कन्या स्वरूप है कि जाति है जिसका स्पष्ठ संदेश है कि समाज मे कन्याएं सुरक्षित संरक्षित संवर्धित रहे उनके अस्तित्व एव स्वतंत्रता पर कोई कुदृष्टि, कुठाराघात,या प्रहार ना हो तब सनातन कि उस उच्चकोटि परम्परा कि गरिमा महिमा है यदि ऐसा नही होता है तो बहुत स्प्ष्ट है कि शारदीय एव वासंतिक नवरात्रि में नारी शक्ति के कन्या नौ रुपों कि आराधना में ना तो सनातन श्रद्धा है ना ही आस्था मात्र औपचारिकता कि परम्परा का निर्वाह है।

नन्दलाल लाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश।