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हसरत भरी निगाहें

वाजिद हुसैन की कहानी

वतन परस्ती के जज़्बे के कारण उसके परिवार ने बहुत दंश झेले थे। स्वतंत्रा संग्राम में उसके पिता तथा भाई को जेल में रहना पड़ा था और वहां उन्हें मारा-पीटा भी गया था। रूबी ख़ां को ख़ुद़ जब वह काॅलेज में बी.ए. में पढ़ रही थी, सात दिन के लिए जेल की हवा खानी पड़ी थी। वह कभी किसी आंदोलनकारी से नहीं मिली थी, सिवाय उसके, जिसका नाम रवि शंकर था। परंतु क्या इसे मुलाक़ात कहा जा सकता है।

वह एक अद्भुत घटना थी। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का ज़माना था। कॉलेज के कुछ लड़के- लड़कियों ने मिलकर सड़कों पर जुलूस निकाला था, देश भक्ति के गाने गए थे और जब कभी कोई अंग्रेज दिखाई देता, 'भारत छोड़ो के नारे लगाते। पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। रवि और रूबी के अलावा सब लड़के-लड़कियों ने माफी मांग ली और उन्हें चेतावनी देकर छोड़ दिया था। लेकिन उन दोनों को हवालात में बंद कर दिया।

सत्रह बरस की रूबी का यौवन निखरा हुआ था। शारीरिक दृष्टि से उसके पास कोई कमी न थी। पांच फुट छै इंच लंबी थी वह और मक्खन पर पला उसका शरीर मक्खन-स- सफेद और उससे भी अधिक कोमल था। रूबी पर अफगान पठानों की छाप पड़ी हुई थी। लोग कहते थे, सदियों पहले बादशाहो और स्थानीय राजाओं की जंगो के कारण बादशाहों ने काबुल से लड़ाको को बुलाकर अपनी फौज में भर्ती किया था। कालांतर के बाद बादशाह, राजा और अधिकतर लड़ाके आपसी जंगो में मारे गए। बचने वालो में अधिक्तर रूबी के परिवार वाले थे। वे बे-हिसाब ज़मीनों के मालिक थे और शहर के रईसो में उनका शुमार था।

रवि ‌एम.ए अंग्रेजी का विद्यार्थी था। उसके पिता स्कूल अध्यापक थे। हालांकि उसके पिता ने बचपन से ही उसके हृदय में देशभक्ति की ज्वाला ज्वलंत क रखी थी, परंतु अभी तक वह ज्वाला मशाल नहीं बनी थी। वह जेल जाने से नहीं डरता था। उसे डर सता रहा था, 'जेल से लौट कर आने के बाद उसके कैरियर पर विराम लग जाएगा। यदि कॉलेज ने रेस्टिकेट नहीं भी किया, तो भी पढ़ाई पूरी करने के बाद सरकारी नौकरी मिलना असंभव है।' उसने अपनी चिंता से रूबी को अवगत कराया और हकलाते हुए कहा, 'क्यों न हम लोग भी माफी मांग ले।'‌

रूबी ने रवि को दुविधा में देख यह कहानी सुनाई।

उस समय मैं दस वर्ष की थी और मेरे भाई जान बारह वर्ष के थे। भाई जान बीमार हो गए थे, खाना खाते ही जी मतलाने लगता था। कमज़ोरी के कारण नींद में बहकी-बहकी बातें करते थे। शहर के डॉक्टर के इलाज से ठीक नहीं हुए, तो पापा ने दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में भर्ती कर दिया। कई दिन भरती रहने के बाद अस्पताल के बड़े डॉक्टर ने पापा से कहा, 'आपके बेटे के दिल पर किसी घटना से दहशत बैठ गई है‌। इसका ईलाज पागल खाने में ही संभव है।' यह सुनकर पापा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया पर संयम बरततते हुए उन्होंने डॉक्टर से पूछा, 'आपने कैसे पहचाना?' डॉक्टर ने कहा, 'मैंने उससे पूछा, अगर तुम जंगल से गुज़रो और शेर आ जाए तो क्या करोगे?' बच्चे ने जवाब दिया, 'मैं उसे फाड़ दूंगा। ऐसी बात कोई पागल ही कर सकता है।' पापा की काली-काली आंखें कुछ चमकी फिर उन्होंने कहा, ' डॉक्टर, मेरा बेटा जानता है, 'पीठ दिखाने वाले को उसका बाप गोली मार देता है।' यह सुनकर डॉक्टर भौचक्का रह गया, फिर उसने कहा, 'मैंने पेट के कीड़े मारने की दवाई दी है, सवेरे मल चेक करें...।' मल में कनखजुरा देखकर डॉक्टर भी सकते में आ गया। उसने कहा, 'कभी-कबार तैरते समय अथवा गंदा पानी पीने से कोई कीड़ा पेट में चला जाता है, जिसे पेट का तेज़ाब मार देता है, जो नहीं मरता, वह पेट में जड़ें जमा लेता है और जानलेवा हो जाता है। डॉक्टर ने भाईजान को प्रसन्नचित देख, मजाकिया लहजे में कहा, 'बेटा, शिकार मार दिया, तुम्हारी छुट्टी।'

रूबी की कहानी सुननेे के बाद, रवि सहज हो गया। उसने कांफिडेंस के लहजे में कहा, 'अंग्रेज़ वही कनखजूरा है, जिसने हमारे देश में जड़ें जमा ली हैं। उसे निकालने के लिए हल्के-फुल्के एजीटेशन से कुछ नहीं होगा, क़ुर्बानी देना होगी। फिर उसने शायराना लहजे में कहा, 'जनाब ख़ूबसूरत तो हैं ही, समझदार भी हैं।' गुलाबी मुस्कान के साथ रूबी ने कहा, 'इंसान के जज़्बात की क़दर करना कोई आप से सीखे।' और रवि उसके कंंधे पर झूलते बालों की गिरफ्त में आ गया।

उसके बाद काले दरोगा की ‌गोली मार देने की धमकी भी हवालात में गूंजती, भारत माता की जय, अंग्रेज़ो भारत छोड़ो की गूंज बंद नहीं कर सकी।

उन्हे रोबिन पीटर, आई.सी.एस., डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। रूबी को वह दृश्य अच्छी तरह याद रहा। बरसात के दिन थे, कचहरी के कमरे में सील और कागजात की मिली- जुली गंध बसी हुई थी। चारों तरफ अंधेरा था, लेकिन मजिस्ट्रेट और पेशकार की दो मेज़ो पर ऊपर लटके बल्बों से रोशनी के गोले दिखाई दे रहे थे। पेशकार अपने सामने बिखरी पीले रंग के कागज की फाईलों में उलझा हुआ था। मजिस्ट्रेट अधेड़ उम्र का था, फाईल पढ़ने में लीन था और पेश किए जा रहे लोगों की तरफ देखता भी नहीं था। पेशकार ने रूबी खां वलद जमील खां पुकारा। मजिस्ट्रेट ने सिर उठाए बिना ही कहा, 'आपने जुलूस में अंग्रेज़ों के ख़िलाफ नारे लगाए थे? क्या आपको कॉलेज में अंग्रेज़ों के खिलाफ नारे लगाना सिखाए जाते हैं?' हां...नहीं।' रूबी हकलाकर बोली, ' लेकिन इसका इस मुक़दमे से क्या संबंध है?'

सात दिन की सज़ा,... और अगर आपका व्यवहार यही रहा तो सात दिन और अदालत की अपमानता करने के लिए।'

रूबी के बाद रवि को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। वह मजिस्ट्रेट के कटघरे में खड़ा रूबी को जेल जाते देख रहा था। रूबी ने विदा होते समय ग़मग़ीन लहजे में हाथ हिलाया तो रवि की आंखों में आंसू छलक आए पर वह उन आंसुओं को पी गया, जिनसे मजिस्ट्रेट के कलेजे पर ठंडक पड़ती। रवि को तीन माह की जेल हुई थी।

जेल से लौट कर आया, पता चला रूबी को कॉलेज ने रेस्टिकेट कर दिया था। रवि ने क़ानूनी दांवपेंच से अपने को रेस्टिकेट होने से बचा लिया था। वह फिर से कॉलेज जाने लगा, किंतु रूबी के रेस्टिकेट होने की व्यथा बनी रही। पढ़ना- लिखना जो भी करता किसी तरह मन का भार दूर न हो पाता। शाम के समय कुछ शांत चित होकर सोचनेे लगा कि वह मेरी ज़िंदगी में पल भर के लिए आई ही क्यों थी, जब चला जाना था?' ...मन के भीतर से कोई बोला, 'जाने भी दो, वह मेरी है कौन?'

एम.ए.‌ पास करने के बाद उसी कॉलेज में प्रवक्ता हो गया था, जिसमें रूबी के साथ पढ़ा तब से किसी और काम में मन नहीं लग सका। क्लास में जब छात्र अपनी प्रेमिका को तकते रहते, ग्राउंड में सन्नाटा छाया रहता, तब भीतर कुछ होता। मन कुछ चाहता मगर उसका रूप साफ न होता। कॉलेज की छुट्टी होने पर अपने कमरे में मन न लगता, लेकिन कोई मिलने चला आता, तो नौकर से कहलवा देता, साहब सो रहे हैं, जो कहना है परचे पर लिखकर दे जाइऐ।

देश ने स्वतंत्रता के साथ बंटवारे का घाव भी दिया था। सांप्रदायिक दंगों के बारे में तो अखबार पटे हुए थे, पर यह कभी नहीं सोचा था, गंगा- जमुना तहज़ीबी वाले उसके शहर को भी यह आग अपनी चपेट में ले लेगी।

सवेरे से संप्रदायिक दंगे हो रहे थे। हर हर महादेव' और'अल्लाह हो अकबर' के नारो की रूककर आवाज़ भी आ रही थी। ज्यों- ज्यों रात होने लगी, नारों का वेग भी बढ़ने लगा। उस रात सोने का प्रयत्न करना व्यर्थ था। रूबी का घर जिस मोहल्ले में था, वहां से आगजनी का धुआं दिखाई दे रहा था। उसका घर रूबी के घर की अपेक्षा कहीं अधिक सुरक्षित था। कई बार मन में आया, उसके परिवार को अपने घर ले आऊ। किंतु लोक लाज के कारण ऐसा नहीं कर पाया। आधी रात को चीख़ों की आवाज सुनाई पड़ी और वह रूबी के घर की ओर चल पड़ा...।

आगजनी और नारो की गूंज से सहमा रूबी का परिवार ज़िन्दगी की दुआ कर रहा था। तभी रूबी को दरवाज़े पर 'वही आवाज़' सुनाई पड़ी‌। जिसे बरसों पहले उसने हवालात में सुना था, 'जनाब खूबसूरत तो हैं ही, समझदार भी हैं।' हड़बड़ाकर दरवाज़ा खोला, सामने रवि शंकर खड़ा था। उसने आनन- फानन में परिवार के सदस्यों को साथ लिया और भीड़ को चीरता हुआ, ललकारता हुआ उन्हें रूबी के चाचा के घर ले गया।

ख़ां साहब ने रवि शंकर को अपने भाई से मिलवाया, 'यह वह फरिश्ता है, जो हमें मौत के मुंह से निकाल कर लाया हैं। रूबी जेल गई थी, वहीं इनसे मुलाक़ात हुई थी।'

पाकिस्तान जाने वाली गाड़ी का समय हो गया था। रूबी के चाचा के परिवार को स्टेशन पहुंचाने के लिए तांगा आ गया था। चाचा ने भाई से कहा, 'जहां अपने ही बेगाने हो गए, आप कैसे रहेंगे, क्यों न आप भी हमारे साथ पाकिस्तान चलें?'

'ठीक ही कहते हो भईया' ख़ां साहब ने रूंधे गले से कहा। बेटे-बेटी को साथ लेकर तांगे में बैठ गए। ग़फूर चचा इस परिवार के एक पुशतैनी नौकर थे। ख़ां साहब ने उससे साथ चलने को कहा। उन्होंने कहा, 'यहां मेरे पुरखो की रूह बस्ती है, उन्हें छोड़कर कैसे जाऊं?'

अल्लाह हो अकबर का नारा लगाती भीड़ को चीरता हुआ तांगा स्टेशन की ओर बढ़ रहा था। रूबी सोच रही थी, 'इस उन्मादी भीड़ के रचे चक्रव्यूह को रवि कैसे भेद पाएगा?' पाकिस्तान पहुंचकर भी हरदम यही चिंता बनी रही। मन करता रवि के बारे में पूछूं, लेकिन कैसे पूछती, न उसका पता मालूम था न ठिकाना।

रवि इस बात से अनजान था, भीड़ ख़ून की प्यासी हो चुकी है। वह दरवाज़े पर खड़ा अपनी मुहब्बत को जुदा होते देख रहा था। तभी उसकी कलाई एक मज़बूत हाथ में थी, जिसने उसे खींचकर हवेली की एक कोठरी में बंद कर दिया था। वह कुछ समझ पाता, उसे ढूंढती भीड़ हवेली में आ चुकी थी, जो ग़फूर चचा को धमका रही थी, 'बता बुड्ढे कहां छुपाया है?' ग़फूर चचा अपनी जान बख़्शने के लिए मिन्नतें कर रहे थे और रट लगाए हुए थे, 'अल्लाह जाने कहां चला गया, अभी तो यहीं था।' भीड़ के चले जाने के बाद रवि शंकर ने ग़फूर चचा से पूछा, 'आपने एक अनजान आदमी को बचाने के लिए अपनी जान ख़तरे में क्यों डाली।' उन्होंने संक्षिप्त उत्तर दिया, 'मैंने वही किया जो आपसे सीखा था।' उसके बाद से दोनों में दोस्ती हो गई थी। हालात सामान्य होने के बाद जब रविशंकर का मन उदास होता, वह उनसे मिलने चला आता था।

पाकिस्तान में रूबी के हावभाव देख ख़ां साहब को लगता, न जाने कितना गम अपने सीने में छुपाए फिर रही है। क्या सुंदर लगती थी, ये लंबे बाल शरीर की भी अच्छी थी पर आज देखो लगता है इसके शरीर में ख़ून ही नहीं बचा। एक दिन उन्होंने रूबी से शर्मिंदगी के लहजे में कहा, 'पाकिस्तान आने की हड़बड़ी में मुझसे एक गुनाह हुआ है, 'जो इंसान हमें मौत के मूंह से निकाल कर लाया, उसे भेडियो के बीच छोड़कर चल दिया, पता नहीं उसका क्या हश्र हुआ होगा?' फिर आह भरकर कहा, 'शायद यही तुम्हारी चिंता का कारण है।'

'जी पापा।' रूबी ने धीरे से कहा। '

दोनों देशों के संबंध सामान्य होने लगे थे। फिर एक दिन रवि शंकर की खैरियत जानने के लिए बाप-बेटी अपने वतन आए। हवेली का दरवाज़ा खुला था, जहां रविशंकर और गफूर चचा बतिया रहे थे। रवि को जीवित देख रूबी इस तरह खिल उठी, जैसे गर्मियों की तप्ती धूप से मुरझाई हुई घास वर्षा की फुहार से सब्ज हो जाती है।

रवि ने ख़ां साहब को सब कुछ बताया जो उनके जाने के बाद हुआ था। ख़ां साहब ने ग़फूर की‌ पीठ थपथपाते हुए कहा, 'मेरे भाई, तुमने मुझे शर्मसारसार होने से बचा दिया।'

कई दिन तक रवि का उनके परिवार के साथ उठना-बैठना खाना पीना चलता रहा। फिर वह दिन भी आ गया जिसने दोनों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया था। पाकिस्तान जाने वाली गाड़ी का समय हो गया था। रवि ने रूबी से कहा, 'मेरा मन तुमसे विवाह के लिए मचल रहा है, फिर सोचता हूं, 'विवाह तुम्हें शर्मसार न कर दे।'

रूबी ने ग़मगीन लहजे में कहा, 'आप ठीक ही सोचते हैं, सरहद की दीवार ने दिलों के बीच दीवार खड़ी कर दी है। उसे ढहने में वक्त लगेगा। जुदाई का ग़म देकर तांगा चल पड़ा था और वे एक-दूसरे को हसरत भरी निगाहों से देखते रह गए।

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