मस्त में रहने का फिल्म रिव्यू Mahendra Sharma द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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मस्त में रहने का फिल्म रिव्यू

अकेलापन वर्तमान समय की एक बीमारी है जो हमारे जीवन में चाहे अनचाहे आने वाली है, कब और कैसे इसका अनुमान लगाना कठिन है पर जब यह अकेलापन आएगा तब हम कैसे इसके साथ जिएंगे इसका निर्णय हमें स्वयं करना होगा। मस्त में रहने का इसी अकेलेपन का उदाहरण है और कैसे इस फिल्म के पात्रों ने इसको स्वीकर किया और जिया इसपर फिल्म को रचनात्मक तरीके से दिखाया गया है। फिल्म एमेजॉन प्राईम पर है। एक बार देखने जैसी है।

फिल्म में 3 अलग अलग कहानियां है, उन कहानियों के पात्र हैं और उनके जीवन का अकेलापन है जिससे वे अपने तरीके से जिए जा रहें हैं। हमें लगता है की हम करोड़ों लोगों के बीच जी रहे हैं पर वर्तमान समय में मर्यादित व्यक्तियों को ही आपके प्रति सहानुभूति और प्रेम होता है। अन्य लोग केवल आपके आस पास हैं पर वे निर्जीव दीवालों और द्वारों के समान हैं जो हमें लगता है की सुरक्षा प्रदान करते हैं पर उनका आपके जीवन में कोई योगदान नहीं होता।

एक समस्या वर्तमान परिवारों में देखी गई है वो है की पारिवारिक सहजीवन पर परिवार के सदस्यों का विश्वास निम्न स्तर पर है। मां बाप जो परिवार को जोड़ते थे अब वह अपने बच्चों को या तो बढ़े शहर जाने का प्रोत्साहन देते हैं या फिर उन्हें विदेश जाकर अपना भविष्य सुरक्षित करने का आयोजन करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। अब जब तक मां बाप खुद सक्षम और स्वस्थ हैं तब तक उन्हें अपने बच्चों के आस पास नहीं होने का आभास नहीं होता पर जैसे उम्र बढ़ी और उसपर अगर शरीर अस्वस्थ रहा, बूढ़े पति पत्नी में से किसी एक साथी का जीवन समाप्त हुआ तब अकेलापन तो आना ही है। तब शायद मां बाप को ज्ञात होता है की बच्चे अगर साथ रहते तो अच्छा था।

मेरा सवाल उन बच्चों से है जिनके मां बाप उनसे दूर रहते हैं। क्या जीवन में थोड़ा कम कमा लिया या घर थोड़ा छोटा हुआ या फिर गाड़ी थोड़ी छोटी हुई तो क्या जीवन व्यर्थ हो जाता है? क्या को बच्चे अपने परिवार के साथ रहते हैं और अपने बूढ़े मां बाप को अपने साथ रखते हैं वे निष्फल और निर्थक जीवन जी रहे हैं? क्या जीवन में परिवार के साथ रहकर खुश रहना एक अच्छा विकल्प नहीं? या फिर मां बाप हमारे परिवार के सदस्य ही नहीं और वे केवल हमारी जिम्मेदारी ही बनके रह जाते हैं?

फिल्म में जैकी श्रॉफ एक निवृत और विधुर हैं। अकेले हैं और दुखी हैं इसका आभास नहीं होता पर सुखी भी नहीं हैं क्योंकि एक बहुत ही निशब्द जीवन जी रहे हैं। उनके आस पास जो हो रहा है केवल उसको वे निरीक्षक की तरह देख रहे हैं। अन्य पात्र हैं नीना गुप्ता। वे विधवा हैं, पंजाबी हैं और हाल ही में कैनेडा से लौटकर मुंबई में रह रहे हैं। एक अन्य पात्र है एक युवा टेलर, जिसका मूल काम कपड़ों की सिलाई का है पर परिस्थिति उसे चोरी चकारी करने पर विवश कर देती है।

अकेलेपन से बाहर कैसे निकला जाए? क्या किया जाए की जब तक जीवन है तक तक छोटी छोटी खुशियों को बटोरते हुए हर दिन को जीया जाए? कोई एक साथी दोस्त बनाया जाए जिससे छोटी छोटी बातों को शेयर किया जाए। जीवन जीने की वजह ढूंढी जाए। जो है उसे और अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया जाए।

कहानी में अनेक ट्विस्ट और टर्न हैं। फिल्म वयस्क पात्रों को प्रस्तुत करती है इसलिए फिल्म के प्रेक्षक मर्यादित रहेंगे पर जिन्हें एक अच्छी गुणवत्ता की अदाकारी और मर्यादित गति की फिल्में पसंद हैं उन्हें यह फिल्म अच्छी लगेगी। कोई शोर शराबा नहीं है, गाली गलौच का मार्यादिक प्रयोग है और कैसे अन्य व्यक्तियों के प्रति प्रेम और सहानुभूति से जिया जाए उसकी एक सीख दी गई है।

जैकी श्रॉफ की हीरो फिल्म देखी थी बचपन में, फिर उन्हें राम लखन और खलनायक में देखा, त्रिदेव और कर्मा में देखा और आज छोटे स्क्रीन पर देख रहे हैं। उमर और किरदार दोनो आगे बढ़ चुके हैं। नीना गुप्ता की किस्मत बधाई हो फिल्म की बाद चमक रही है। उनकी अदाकारी भी प्रेक्षकों को बहुत पसंद आ रही है। राखी सावंत फिल्म का सरप्राइज फेक्टर हैं। फिल्म के निर्देशक और लेखक विजय मौर्य हैं जिन्हें गल्ली बॉय फिल्म के लेखन पर बहुत प्रशंसा और प्यार मिला था।

फिल्म है एमेजॉन प्राईम पर, देख लीजिए और मस्त में रहिए।
आपको यह रिव्यू कैसा लगा, अवश्य कमेंट करिए।

– महेंद्र शर्मा