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बाली वध



मैं राम-दूत को प्रणाम करता हूँ जो रुद्र के अवतार में राम के सेवक थे, जो सदा राम की भक्ति में लीन रहते थे, जिनके हृदय में सदा राम का वास था, जिन्होंने लक्ष्मण को बचाया और उनकी शक्तियाँ उन्हें लौटाई तथा जो दुष्टों का अंत करने वाले हैं

हनुमान ने लक्ष्मण को धीरे से बताया कि सुग्रीव ने यह कथा सिर्फ़ इसलिए सुनाई क्योंकि उसे राम के सामर्थ्य पर संदेह है और उसे लगता है कि राम, बाली का वध नहीं कर सकेंगे। उसमें इतना साहस तो नहीं है कि वह राम को शक्तिप्रदर्शन के लिए कह सके, परंतु यदि राम अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सकें तो उसे ख़ुशी होगी। लक्ष्मण ने राम के सामने सुग्रीव के भय को प्रकट कर दिया। राम हँसते हुए दुंदुभि के विशालकाय कंकाल के पास गए और उसे अपने पैर के अँगूठे से उठाकर लगभग अस्सी मील दूर उछाल दिया ! सुग्रीव को इससे कुछ संतुष्टि हुई किंतु उसका संदेह अब भी बना हुआ था।

“जिस समय बाली ने इसे उठाकर यहाँ फेंका था, उस समय यह कंकाल रक्त और मज्जा से भरा हुआ था और अभी से दस गुना अधिक भारी था। अब तो यह मात्र कंकाल रह गया है। मैं सोच रहा हूँ कि क्या आप अपने बल का एक बार फिर प्रदर्शन कर सकते हैं जिससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हो जाऊँ । बाली का बाण बहुत सरलता से विशाल परिधि वाले साल वृक्ष को भेद देता था। यहाँ एक पंक्ति में साल के सात वृक्ष हैं। यदि आप अपने बाण से इनमें से किसी एक वृक्ष को दो हिस्सों में चीर दें, तो मेरा भय समाप्त हो जाएगा।”

राम मुस्कराए और बिना कुछ कहे उन्होंने अपने विशाल कोदंड धनुष पर एक बाण चढ़ा लिया। उस बाण पर स्वर्ण की पर्त थी और वह एक अंगुल मोटा था। उसका फल उसके शेष दंड से आधी लंबाई का था। उसके ऊपर उनका नाम ख़ुदा हुआ था। वह सबसे तेज़ उड़ने वाले पक्षियों के पंखों से सज्जित था और उसकी नोंक लोहे की थी। साल के वृक्ष के तने बुर्ज जितने मोटे थे। राम का चलाया हुआ बाण धनुष से छूटा और एक नहीं बल्कि सातों वृक्षों को चीरता हुआ पृथ्वी के भीतर भूमि में प्रवेश कर गया और फिर वापस तरकश में लौट आया!

सुग्रीव को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। वह राम के बल की इस तरह परीक्षा लेने पर अत्यंत लज्जित महसूस कर रहा था। उसने राम के चरणों में गिरकर उनपर संदेह करने के लिए क्षमा माँगी।

राम के समक्ष हाथ जोड़कर खड़े सुग्रीव ने कहा, “मैं अब पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि यदि आप चाहें तो देवराज इंद्र को भी मार सकते हैं, तो फिर उनके पुत्र बाली को क्यों नहीं ! अब हम सीधे किष्किंधा चलते हैं ताकि आप बाली से मिल सकें।”

वे चंदन के वनों और पर्वतों को पार करते हुए अत्यंत सुंदर उपवन में पहुँचे, जहाँ अग्नि से आहुति की सुगंध आ रही थी। राम ने सुग्रीव से पूछा कि वह उपवन किसका है।

सुग्रीव ने कहा, “यह आश्रम सप्तजन नामक सात ऋषियों का है। उन्होंने यहाँ पर वर्षों तपस्या की है। वे पानी पर सोते थे और केवल वायु पर जीवित रहते थे। वे कभी इस उपवन से बाहर नहीं गए। जब इस संसार से उनके जाने का समय आया तो उन्हें भौतिक शरीर से मुक्ति मिल गई। परंतु यह उपवन अब भी पवित्र है। यहाँ कोई प्रवेश करने का साहस नहीं करता। यहाँ भीतर से संगीत एवं अन्य अलौकिक ध्वनियाँ सुनाई पड़ती हैं। जैसा कि आप देख सकते हैं, यज्ञ में प्रयुक्त पवित्र काष्ठ से उठती सुगंध यहाँ की वायु में छाई रहती है। हमें उन महान ऋषियों को यहीं से वंदन करना चाहिए और आगे बढ़ने से पूर्व उनका आशीर्वाद लेना चाहिए।”

सभी ने उस पावन स्थल के सामने सिर झुकाकर प्रणाम किया और फिर आगे बढ़ गए। जब वे किष्किंधा की सीमा तक आ गए तो राम एवं अन्य लोग किष्किंधा के आस-पास फैले सघन वन के वृक्षों के पीछे छिप गए।

राम ने सुग्रीव से कहा कि वह आगे जाकर बाली को युद्ध के लिए ललकारे। राम बोले, “मैं यहाँ छिपकर उचित समय पर बाली पर बाण चला दूँगा ।”

सुग्रीव ने राम को यह बात बता दी थी कि बाली अपने प्रतिद्वंद्वी की आधी शक्ति छीन लेता है, इसलिए राम ने छिपकर उसे मारने का निर्णय किया। इस विचित्र कार्य के पीछे एक और कारण था कि राम को इस बात की शंका थी कि यदि उन्होंने बाली को चुनौती दी, तो बाली उनसे लड़ने से मना न कर दे, क्योंकि बाली की उनसे कोई शत्रुता नहीं थी। यदि ऐसा हुआ तो वह अपने मित्र सुग्रीव को दिया वचन पूरा नहीं कर सकेंगे। इस कारण राम ने सुग्रीव को कहा कि वह स्वयं जाए और बाली को चुनौती दे। इस बीच वे, लक्ष्मण के साथ उसके पीछे चल पड़े। सुग्रीव ने ख़ुद को मानसिक रूप से तैयार किया और हिम्मत करके किष्किंधा के द्वार पर जा पहुँचा। वहाँ से उसने ज़ोर से चिल्लाकर बाली को युद्ध के लिए ललकारा। अपने भाई की गर्जना सुनकर बाली को बहुत गुस्सा आया और वह इतनी ज़ोर से उठा कि उसकी गुफा का धरातल बैठ गया और उसकी आँखों से मानो अग्नि दहकने लगी। गुस्से से दाँत किटकिटाते हुए, उसने अपनी जंघा पर हाथ मारा और इतनी ज़ोर से ताली बजाई कि उसकी आवाज़ पूरी घाटी में गूँज गई। वह इतने वेग से बाहर भागा कि उसकी गर्दन के आभूषण चटक गए और उनके मोती सर्वत्र बिखरते गए। बाली अपनी गुफा से बाहर निकला तो ऐसा लगा मानो क्षितिज में सूर्योदय हुआ हो। उसने बाहर निकलकर सुग्रीव को पकड़ लिया। सुग्रीव का बाली से कोई मुक़ाबला ही नहीं था। उसने पीटपीटकर सुग्रीव का कचूमर निकाल दिया। बड़ी मुश्किल से सुग्रीव ने ख़ुद को बाली की फ़ौलादी जकड़ से छुड़ाया और वहाँ से भागा। इससे पहले कि बाली उसे पकड़ के मार डाले, सुग्रीव भागकर फिर से ऋष्यमूक पर्वत पर जा चढ़ा।

इस बीच, राम बहुत ध्यान से उनकी लड़ाई को देख रहे थे । आश्चर्य हुआ क्योंकि दोनों भाई दिखने में इतने समान थे कि राम उनके बीच अंतर ही नहीं कर पाए। इस डर से कि कहीं उनका बाण सुग्रीव को न लग जाए, उन्होंने तीर नहीं चलाया। वे भी सुग्रीव के पीछे पर्वत पर चले गए, जहाँ वह बेचारा बुरी हालत में बैठा था।

सुग्रीव से बोला नहीं जा रहा था, फिर भी उसने धीरे से कहा, “यदि आप मेरे भाई को मारना नहीं चाहते थे तो आपने मुझे इतनी बुरी तरह पिटने क्यों दिया और मुझे यह बात पहले क्यों नहीं बताई? आपकी बात पर पूर्ण विश्वास करके ही मैंने उसे चुनौती दी थी और अब देखिए, क्या हो गया !”

राम ने सुग्रीव को शांत करने का प्रयास किया। “प्रिय मित्र,” वे बोले, “तुम ऐसा कैसे सोच सकते हो कि मैं तुम्हारे साथ विश्वासघात करूँगा? तुम और तुम्हारे भाई की आकृति, वस्त्र और आभूषण बिलकुल एक समान हैं। यहाँ तक कि तुम दोनों की गर्जना भी एक जैसी है। तुम दोनों एक-दूसरे को बाँहों में जकड़े हुए मारने का प्रयास कर रहे थे। मुझे डर था कि कहीं भूल से मेरा बाण, उसकी जगह तुम्हें न लग जाए! तुम कृपया फिर से किष्किंधा जाओ और बाली को फिर ललकारो, लेकिन इस बार तुम एक माला पहनकर जाओ ताकि मैं तुम्हें पहचान सकूँ।”

राम ने लक्ष्मण को पर्वत से एक फूलों की माला लाने के लिए कहा। उन्होंने वह माला सुग्रीव को पहना दी। बाली के हाथों बुरी तरह पिटने और लहुलुहान होने के बाद भी सुग्रीव ने अपमान का घूँट पी लिया और फिर किष्किंधा की ओर चल पड़ा। राम, लक्ष्मण, हनुमान और उसके कुछ मित्र भी उसके पीछे चल दिए।

राम ने सुग्रीव को निर्भय होकर बाली को चुनौती देने को कहा क्योंकि उन्हें विश्वास था कि इस बार उनका बाण निशाने पर लगेगा।

सुग्रीव, फिर से किष्किंधा के द्वार के सामने खड़े होकर चिल्लाया। बाली अपने कक्ष में अपनी पत्नियों के साथ आनंद मना रहा था। तभी उसने सुग्रीव की आवाज़ सुनी। उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसका कामुक मन अचानक हिंसक हो उठा। सुग्रीव, जिसे उसने अभी कुछ ही घंटे पहले बुरी तरह पीटा था, फिर से वहाँ आकर उसे चुनौती देने का साहस कैसे कर सकता है! वह क्रोध से उन्मत्त हो गया। उसने अपने भाई को हमेशा के लिए समाप्त करने का प्रण किया। बहुत लंबे समय से सुग्रीव उसके मार्ग का काँटा बना हुआ था और उसके मरने के बाद, बाली सुग्रीव की पत्नी रूमी के साथ ग्लानिरहित भाव के आनंदपूर्वक रह सकता था। वह अपने छोटे भाई के जीवित होने के बावजूद, उसकी पत्नी के साथ रहने के अपराध से भली-भाँति अवगत था। यद्यपि बाली की अपनी पत्नी तारा बहुत सुंदर और समझदार थी, फिर भी वह रूमी के प्रति अधिक आकृष्ट था। इसके लिए उसने अपनी अंतरात्मा का भी दमन कर दिया था। सुग्रीव के मार्ग से हटने के बाद, वह बिना किसी लज्जा अथवा पीड़ा के, रूमी को प्राप्त कर सकता था क्योंकि उन दिनों नियमानुसार, कोई व्यक्ति अपने भाई की मृत्यु के पश्चात, उसकी पत्नी की रक्षा हेतु उससे विवाह कर सकता था! यह सोचकर, बाली ने घृणा और क्रोध से भरकर भीषण गर्जना की और बाहर की ओर दौड़ा।

उसकी सुंदर पत्नी तारा ने उसे रोकना चाहा और बाहर जाते समय उसे एक सुझाव भी दिया।

“स्वामी!” वह बोली, “आपका यह भाई कुछ ही देर पहले आपके हाथों बुरी तरह मार खाकर गया था। वह बिना किसी शक्तिशाली सहयोगी द्वारा सहायता के आश्वासन के बिना लौटकर इस तरह चिल्लाने का साहस कैसे कर सकता है? आपके पुत्र और राजकुमार अंगद ने मुझे यह सूचना दी है। उसने बताया कि दो युवा एवं कुशल योद्धा तथा राजा दशरथ के पुत्र, राम और लक्ष्मण ने इस वन में प्रवेश किया है और सुग्रीव के साथ मैत्री स्थापित कर ली है। मुझे विश्वास है कि सुग्रीव उन्हीं की सहायता से इतना साहसी हो गया है कि वह आपको इस तरह चुनौती दे रहा है। आप अभी मत जाइए। आप उसको कहिए कि वह कल सुबह आए और तब यदि आप चाहें तो उससे युद्ध कर लें। वैसे, इससे भी बेहतर यह होगा कि आप सुग्रीव से मित्रता कर लीजिए तथा उसे राज्य में लौटने की अनुमति दे दीजिए। उसके साथ दयापूर्ण व्यवहार कीजिए। उसकी पत्नी उसे लौटा दीजिए। रूमी स्वयं भी यहाँ प्रसन्न नहीं है। पता नहीं क्यों मेरा हृदय बैठा जा रहा है और मुझे केवल अपशकुन दिखाई दे रहे हैं। मैं आपसे विनती करती हूँ कि अभी मत जाइए !”

बाली का अंत समय आ पहुँचा था, इसलिए उसने कुछ नहीं सुना। इसके अतिरिक्त, वह रूमी को पाने के लिए बहुत उत्सुक था। उसने तारा का हाथ हटाकर उसे अन्य स्त्रियों के पास लौट जाने का आदेश दिया। तारा ने बाली के गले में इंद्र की दी हुई स्वर्णिम माला डाल दी और उसने दुखी हृदय से बाली का आलिंगन कर लिया। उसे यह पूर्वाभास हो गया था कि वह बाली को फिर कभी नहीं देख पाएगी!

बाली ने तारा को एक और झटक दिया और बाहर चला गया। उसने गुस्से से सुग्रीव को देखा और फिर उसकी ओर क्रुद्ध साँड़ की तरह दौड़ा। वे दोनों एक दूसरे को मार डालने का प्रयास कर रहे थे। सुग्रीव की शक्ति क्षीण पड़ रही थी और उसकी हताश दृष्टि राम को खोज रही थी। वह सोच रहा था कि राम अब तक उसकी सहायता के लिए क्यों नहीं आए। बाली ने सुग्रीव को उठा लिया। वह उसे चट्टान पर पटककर मार देना चाहता था! बाली के गले में स्वर्णिम माला चमक रही थी। उसे पहचानने में राम को कोई परेशानी नहीं हुई। उन्होंने सुग्रीव का भयभीत चेहरा देखा। राम ने अपने शक्तिशाली धनुष पर एक बाण चढ़ाया और उसे पूरी शक्ति के साथ छोड़ दिया। वह बाण, सीधा बाली की छाती में लगा और उसके प्रहार से बाली उसी तरह गिर पड़ा जैसे वे साल के वृक्ष गिर गए थे। पूर्णिमा के चंद्रमा का प्रकाश बाली के विशालकाय शरीर पर पड़ रहा था। बाली का तन रक्तरंजित एवं कमज़ोर होता जा रहा था। बाली ने एक पल के लिए भी यह नहीं सोचा था कि स्वर्ग या पृथ्वी पर कोई ऐसा अस्त्र या शक्ति है जो उसे युद्ध में पराजित कर सके। देवताओं के वरदान के बाद वह अभेद्य था और उसके बावजूद, वह अपनी ही भूमि पर मात्र एक बाण के प्रहार से धरती पर गिरा पड़ा था। वह सचमुच यह जानने के लिए उत्सुक था कि ऐसा कौन असाधारण योद्धा है, जिसने एक ही बाण से उसे मार गिराया था। उसका नाम बाण पर अवश्य होगा। उसने अपनी बची हुई शक्ति से अपनी छाती से बाण को खींचकर निकाल लिया। उसके हृदय से रक्त की धारा फूट पड़ी। उसके मरणशील नेत्रों के सामने, सब कुछ धुँधला पड़ता जा रहा था। वह बाण को अपनी आँखों के बहुत पास ले आया और तब वह उसके ऊपर लिखा नाम “राम” पढ़ सका। एक पल के लिए उसका हृदय कृतज्ञता से भर उठा। सब प्राणियों को एक दिन मरना होता है और किसी राक्षस या असुर अथवा वन्य जीव द्वारा मारे जाने से, भगवान विष्णु के अवतार राम के हाथों मरना कहीं अधिक श्रेष्ठ है। परंतु वध करने के ढंग के बारे में सोचकर, उसके मन में शीघ्र ही क्रोध का भाव जागृत हो गया। उसने बड़ी मुश्किल से ऊपर देखा। राम और लक्ष्मण उसकी ओर आ रहे थे। अपनी दुर्बल पड़ रही शक्ति का आह्वान करते हुए उसने राम के इस कृत्य के लिए उनकी निंदा की।

“आपको इक्ष्वाकु कुल का वंशज माना जाता है तथा आप धर्मनिष्ठ समझे जाते हैं। आप इस तरह पेड़ के पीछे छिपकर मुझे कैसे मार सकते हैं, जबकि मैं अपने भाई के साथ युद्ध कर रहा था ? जब सुग्रीव ने मुझे दूसरी बार ललकारा तो मेरी पत्नी तारा ने मुझे चेताया था कि मैं लड़ने न जाऊँ क्योंकि उसे डर था कि आप सुग्रीव की सहायता कर रहे हैं, किंतु मैंने कहा कि मुझे आपसे कोई डर नहीं है क्योंकि मैं जानता था कि आप निम्न स्तर का अधार्मिक कृत्य नहीं करेंगे। मैंने ऐसा क्या किया था जो आपने मुझे पीछे से छिपकर मारा? मैंने सुना कि आप अपनी पत्नी को खोज रहे हैं। मैं अकेले उस दुष्ट रावण को मारकर आपकी पत्नी को छुड़ा लाता। मैं पहले भी एक बार रावण को पराजित करके, बाद में जीवनदान दे चुका हूँ किंतु मैं इस बार उसे नहीं छोड़ता। आपको इस अयोग्य सुग्रीव से मित्रता करने की क्या आवश्यकता थी?”

बाली इतना बोलकर थक चुका था। वह गिर पड़ा और उसकी साँसें रुकने लगीं। राम ने धैर्य से बाली को अपनी बात समाप्त करने का अवसर दिया क्योंकि वे जानते थे कि बाली को उन्हें फटकारने का पूरा अधिकार था। अंत में जब बाली ने बोलना बंद कर दिया तो राम करुणामयी दृष्टि से उसे देखकर बोले, “बाली! तुम किस मुँह से मेरे साथ धर्म-अधर्म की बात करते हो, जबकि तुम्हारा अपना जीवन पाप में लिप्त है? तुम्हें अपने छोटे भाई सुग्रीव के साथ, जो सद्गुणों से भरपूर है और तुमसे बहुत प्रेम करता है, अपने पुत्र की तरह व्यवहार करना चाहिए था। उसकी बात को ठीक से सुने बिना तुमने उसे मारकर ऋष्यमूक पर्वत पर भगा दिया ताकि तुम उसकी पत्नी के संग रह सको। इस राज्य के कानून के अनुसार, जो व्यक्ति अपने भाई के जीवित रहते हुए उसकी पत्नी के साथ व्यभिचार करने का दोषी होता है, उसे मृत्युदंड दिया जाता है! तुमने सिर्फ़ अपनी कामवासना की पूर्ति हेतु अपने भाई के साथ शत्रुता जारी रखी। सुग्रीव, मुझे अपने भाई लक्ष्मण के समान प्रिय है। मैंने इसे मित्रता का वचन दिया है और तुम्हें मारकर, इसका राज्य व पत्नी लौटाने का सार्वजनिक रूप से वचन दिया है। यदि मैं अपना वचन पूरा नहीं करता, तो मुझे किस तरह का मित्र कहा जाता?”

बाली ने राम के शब्दों पर विचार किया तो उसे लगा कि वे सत्य कह रहे थे। उसे अपने छोटे भाई के साथ, जो उसके पुत्र के समान था, दुर्व्यवहार पर बहुत अफ़सोस हो रहा था। वह यह भी जानता था कि सुग्रीव की पत्नी को चुराने का कार्य अत्यंत घृणित था।

“राम!” वह बोला, “तुमने सत्य कहा है। मुझे अपनी चिंता नहीं है। मृत्यु तो अवश्यंभावी है किंतु मुझे अपने पुत्र अंगद की चिंता हो रही है। आप कृपया उसे अपने पुत्र के समान समझें तथा उसकी देखभाल की उचित व्यवस्था कर दें। आप कृपया यह भी सुनिश्चित करें कि सुग्रीव के हाथों मेरी पत्नी तारा का अपमान न होने पाए। तारा बहुत अच्छी और समझदार स्त्री है। मुझे एहसास हो रहा है कि मेरी मृत्यु आपके हाथों लिखी थी, इसलिए मैंने उसकी बात नहीं मानी जब उसने मुझे लड़ने जाने से रोका था।”

अपनी अंतिम श्वास के साथ बाली ने गले से अद्भुत शक्तियों से युक्त अपनी स्वर्णिम माला उतारी और सुग्रीव के गले में डाल दी। उसने अपने कर्मों के लिए सुग्रीव से क्षमा माँगी तथा उसे, तारा एवं अंगद की, उसके अपने पुत्र की भाँति देखभाल करने की प्रार्थना की। सुग्रीव को अपने किए पर इतना पछतावा हो रहा था कि वह एक भी शब्द नहीं बोल सका।

राम ने बाली को वचन दिया कि सुग्रीव की ओर से अंगद और तारा को सर्वश्रेष्ठ व्यवहार प्राप्त होगा। अपने पति की मृत्यु का समाचार मिलते ही, तारा अपने पुत्र अंगद के साथ दौड़ती हुई वहाँ पहुँची । वह बाली के शरीर के ऊपर गिरकर अपनी नियति पर विलाप करने लगी। राम ने तारा को उठाकर उसे बाली की अंत्येष्टि का प्रबंध करने के लिए कहा किंतु वह अपने स्थान से नहीं हटी। उसने राम के बाण को, जिससे उसके पति का वध हुआ था, अपने हाथ में लेकर धमकी दी कि वह उस बाण को अपने हृदय में भोंक लेगी, किंतु अनुचरों ने उसे ऐसा करने से रोक लिया।

तारा का विलाप तथा अपने भाई के विनम्र शब्दों को सुनकर सुग्रीव का शेष साहस भी समाप्त हो गया और उसने राम से कहा कि वह भाई की चिता के साथ ही आत्म-दाह कर लेगा और अब अंगद ही सीता को खोजने में राम की सहायता करेगा। इसके बाद न तो राम और न कोई अन्य, सुग्रीव को सांत्वना दे पाया।

अंत में हनुमान ने तारा को विनम्र ढंग से समझाया, “आत्मा सदा अपने पूर्व कर्मों के अच्छे और बुरे फल भोगती है। यह शरीर पानी पर तैरते बुलबुले के समान है। यह कभी भी नष्ट हो सकता है और इसलिए यह शोक करने योग्य नहीं है। अब आपका कर्त्तव्य अपने पुत्र अंगद की देखभाल करना है जो पूरी तरह आपके ऊपर निर्भर है। यह देखना आपका दायित्त्व है कि आपके पति की अंत्येष्टि उचित तरीक़े से संपन्न हो जाए। अब आप उनके लिए सिर्फ़ यही कर सकती हैं।”

राम ने सुग्रीव से कठोरतापूर्वक कहा कि उन्होंने यह सब कुछ उसके लिए किया था और अब पूरे मामले से हाथ झाड़कर इस तरह अलग होना, उसे शोभा नहीं देता। उसे अपने भाई की चिता में न जलकर, उसका अंतिम संस्कार संपन्न करवाना चाहिए। राम ने सुग्रीव को एक पालकी मँगवाकर अपने भाई के शव को नदी-तट पर ले जाने का आदेश दिया। सुग्रीव ने वैसा ही किया जैसा उसे कहा गया था। वानर एक राजसी अर्थी ले आए जो बिना पहियों के रथ जैसी लग रही थी। उन्होंने अपने मृत राजा के शव को आभूषणों और वस्त्रों से सजाया और फिर उसे फूलों से सजे ताबूत में रखकर तैयार की गई चिता पर लिटा दिया। अंगद ने चिता को अग्नि दी और सबने जल देकर वे सामान्य संस्कार पूरे किए जो कि मृतात्मा के लिए किए जाते हैं।

जंगल के नियमानुसार, बाली की मृत्यु के बाद, उसे मारने वाला किष्किंधा का राजा बनने का अधिकारी था तथा उसके पास बाली की संतानों को मारकर उसकी पत्नियों को अपने साथ रख लेने का अधिकार भी था।

परंतु राम चाहते थे कि वानर अपने पुराने नियमों को त्यागकर धर्म का मार्ग अपनाएँ। इसलिए उन्होंने सुग्रीव से कहा कि वह स्वयं वानरों से पूछे कि क्या वे उसे अपना राजा स्वीकार करते हैं। जब वानरों ने उसकी बात मान ली, तो सुग्रीव ने तारा से पूछा कि क्या वह उसकी रानी बनकर रहना चाहेगी। तारा ने अपनी स्वीकृति दे दी, तो सुग्रीव ने अंगद को गोद लेकर उसे राजसिंहासन का उत्तराधिकारी बना दिया। इस तरह राम ने वानरों को उनके तरीक़े बदलकर उन्हें धर्म का मार्ग अपनाने के लिए प्रेरित किया।

हनुमान अपनी पशु - प्रवृत्ति पर विजय पाने के लिए प्रतिबद्ध थे और उन्होंने ब्रह्मचर्य एवं सेवा का व्रत लिया था। ब्रह्मचर्य व्रत द्वारा उन्होंने अपनी कामवासना का दमन कर लिया था और सेवा द्वारा अपने अहं को बढ़ने से रोक लिया था।

इसके बाद, हनुमान राम के पास आए और हाथ जोड़कर उनसे बोले, “हे प्रभु, आपकी कृपा से यह राज्य सुग्रीव को मिल गया है। मैं प्रार्थना करता हूँ कि आप कृपया महल के भीतर प्रवेश करें और सुग्रीव का राज्याभिषेक करें।”

राम ने नगर में प्रवेश करने से मना कर दिया क्योंकि उन्होंने अपने पिता को वचन दिया था कि चौदह वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले वे किसी नगर के भीतर नहीं जाएँगे। उन्होंने निर्देश दिए कि किस प्रकार सुग्रीव का राज्याभिषेक होना चाहिए और किस तरह अंगद को उस राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त किया जाना चाहिए। उन्होंने सुग्रीव को राजा के कर्त्तव्यों के विषय में बताया। “आप जो भी कार्य करें, वह सत्कर्म के स्वीकृत नियमों पर आधारित होना चाहिए। अपने शब्दों से किसी को आहत न करें, फिर चाहे वह आपका शत्रु ही क्यों न हो।”

सुग्रीव ने कहा, “मैं आपकी सेवा करना चाहता हूँ । कृपया मुझे आदेश दें।” राम ने कहा, “वर्षा ऋतु आरंभ होने वाली है। वर्षा समाप्त होने के बाद, आप अपनी सेना लेकर आइए और सीता को खोजने में मेरी सहायता कीजिए।”

हनुमान ने प्रार्थना की कि वे वर्षा ऋतु के चार महीने राम के साथ रहकर उनकी सेवा करना चाहते हैं। राम को फिर से उनकी विनती अस्वीकार करनी पड़ी।

“आपकी उपस्थिति सुग्रीव के लिए बहुत आवश्यक है। उन्हें आपके सहयोग और विवेक की जरूरत पड़ेगी। आप मेरे पास चार महीने के बाद आना और तब मैं आपको बताऊँगा कि आप मेरे लिए क्या कर सकते हैं।” राम और लक्ष्मण ने वर्षा ऋतु के आगामी चार महीने निकट की एक गुफा में व्यतीत करने का निर्णय किया। सुग्रीव ने चार महीने बाद समस्त वानरों के साथ आकर सीता की खोज पर निकलने का वचन दिया।

सुग्रीव ने नगर में प्रवेश किया। वह किष्किंधा का राजा बन गया तथा अंगद को राज्य का उत्तराधिकारी बना दिया गया। तारा को भी इस बात का थोड़ा संतोष था कि कम से कम उसके पुत्र की देखभाल ठीक से हो रही थी।

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