संन्त कबीर सत्य के प्रतीक----
कबीर ऐसे व्यक्तित्व जिनके विषय में स्पष्ट कहा जा सकता है कि संत सत्य निरपेक्षता के जाग्रत परिभाषक़ एवं जन्म जीवन की सार्थकता के क्रम भाष्य थे कबीर को संत सामाजिक जागृति के शिखर या आत्मीय बोध के ईश्वरीय सत्य स्वीकार करने में कोई संकोच नही होना चाहिये कबीर स्वयं के जन्म दाता एव जाती की तलाश करते रहे जो उन्हें स्प्ष्ट रूप से जीवन पर्यंत प्राप्त नही हुआ कबीर दास जी ने स्वयं लिखा है --
#काशी का बासी ब्राह्मिन मैं नाम मेरा परवीना एक बार हरि नाम न लीन्हा
पकरि जुलाहा कीन्हा#
कबीर दास जी के अंतर्मन की यह आवाज उनके जन्म एव जीवन के परिवश पर संसय को उजागर करती है जो उन्हें सामाजिक चाहे किसी धर्म या जाति का हो कि समामाजिक कुरीतियों पर प्रहार करने को बाध्य करती है।
कबीर दास जी को किस लोक लाज के भय से उनके जन्मदाता ने उनको जन्म के बाद लहरतारा तालाब पर छोड़ दिया जिसकी पीढ़ा संत कबीर के अंतर्मन की आवाज़ के रूप में दोहों के रूप में सामाज को सुधारात्मक चुनौती के रूप में दृष्टिगत होती है कबीर दास जी का स्वय का विश्वास कि उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था जो सनातनी था और परिवारिस स्लाम के जुलाहा परिवार में हुआ था जिसके कारण सनातन धर्म एव स्लाम दोनों की कुरीतियों पर उन्होंने प्रहार किया और जीवन दर्शन का एक नया सिंद्धान्त दिया।
#काकर पाथर जोड़ के मस्जिद लिया चुनाय ता चढ़ मुल्ला बाग दे बहीरा हुआ खुदाय#
इस्लाम मे निराकार ब्रह्म्म की उपासना होती है कबीर निराकार शून्य से शिखर की ब्रह्म सत्ता के कायनात को स्वीकार नही करते थे जबकि कबीर नास्तिक थे ऐसा नही है।
वहीँ उनका मत सनातनः के हिन्दू के प्रति कुछ अलग ही मत प्रस्तुत करते है--
#हिन्दू अपनी करे बड़ाई गागर छुअन न देई वेश्या के पावन तर सोए ये देखो
हिन्दुआई#
सनातन के हिन्दू विश्वास की कुरीतियों पर संन्त कबीर का प्रहार काबीले गौर है जो हिन्दू समाज को बहुत सार्थक सकारात्मक परिवर्तन के लिये जाग्रत करने की चुनौती प्रस्तुत करता है।
कबीर दास जी के विषय मे कहा जा सकता है कि उनको किसी धर्म जाती मजहब में कोई कमी या बुराई नज़र नही आई बल्कि उन्होंने सभी महजबो मे मानवीय सुख सुविधाओं को ध्यान में रखते हुये बनाये गए सिद्धांतो आचरण संस्कृतियों का विरोध कर वास्तविक जीवन मूल्य एव दर्शन पर बल दिया है जैसे कि --इस्लाम मे चिल्लाते हुए आराधना के लिये कही नही कहा गया है ब्रह्म निराकार है और कण कण में व्याप्त है तो उसे सम्पूर्ण ब्रह्मांड की आवाज सुनाई देती है एव दिखाई देती है कबीर सत्य एव ब्रह्म को साथ परिभषित करते है ना कि पाखंड एव ब्रह्म को।
इसी प्रकार सनातन धर्म छुआ छूत जैसी कुप्रथा पर प्रहार करते है संन्त कबीर का विल्कुल स्पष्ट है कि एक ब्रह्मांड एक सृष्टि में एक ब्रह्म है जिसके द्वारा जगत का संचालन किया जाता है और वह सब जगह सबमे विराजमान है तो प्राणि प्राणि मानव मानव में भेद कैसा जो सम्भव ही नही है वासना एव आवश्यकता के अनुरूप भेद भाव का अंतर समाप्त कैसे हो सकता है विल्कुल स्पष्ट है कि मनुष्य धर्म संस्कृति का उपयोग अपनी सुविधाओं के अनुरूप करता है जो एक कुरीति के रूप में जन्म लेती है और सामाज को पथभ्रष्ट बनाते हुए धर्म को विकृत करती है।
ऐसा नही है कि संन्त कबीर दास जी स्वय के जन्म दाता कि कायरता से सत्तप्त होकर सनातन धर्म या हिन्दू की कुरीतियों पर प्रहार करते है तो मुस्लिम जुलाहा परिवार में परवरिस एव जीवन के दौरान महसूस की गई कुरीतियों पर प्रहार करते है संन्त कबीर वास्तव में समूर्ण ब्रह्मांड में प्राणि कल्याणार्थ एक नए दर्शन सिंद्धान्त प्रतिपादित करते है कही कबीर संन्त नज़र आते है तो कही समाज सुधारक तो कही ब्रह्म ब्रह्मांड की वास्तविक स्वरूप में प्राणि प्रकृति के परम संरक्षक ।
कबीर दास जी केअनुसार ब्रह्म आत्मा एक दूसरे के पूरक है और एक दूसरे के अनुगामी अतः आत्मा भी ब्रह्म का जाग्रत स्वरूप है जिसे महसूस किया जा सकता है और कर्मानुसार उंसे परिवर्तित किया जा सकता है तो क्या
संन्त कबीर भगवान श्री कृष्ण के गीता उपदेश के कलयुगी संस्करण थे यही कहना बहुत समचीन होना चाहिए क्योंकि कबीर ने कहा है--
#पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पुजू पहाड़ ताते तो चाकी भली जाके पिसा खाय#
पुराणों में वर्णित है कि जब इंद्र के प्रकोप से वर्षा बृष्टि होने के कारण ब्रजवासी परेशान थे तब भगवान श्री कृष्ण ने गोवर्धन पहाड़ अपनी उंगलियों पर उठा कर ब्रजवासियों की रक्षा की और इंद्र जो देवेंद्र है देवताओं के राजा को क्षमा याचना पर विवश कर दिया यह घटना भगवान श्री कृष्ण के मानवीय अवतार की है जो कर्म को श्रेष्ठ सिद्ध करती है और रक्षा के लिये गोवर्धन को धारण करती है यही संन्त कबीर भी कहते है कि जिसकी उपयोगिता है सृष्टि समाज युग मे उसी का संरक्षण संवर्धन एव सदुपयोग कर सृष्टि समाज को उन्नति शील प्रगतिशील और ज्यादा संवेदनशील बनाया जा सकता है कर्म मीमांशा और व्यख्या में संन्त का कोई जबाब जोड़ नही है उन्होंने अपने पुत्र के विषय मे लिखा है--
#विगड़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल हरि भजन छोड़के घर ले आवे
माल#
संन्त कबीर की कर्म परिभाषा विल्कुल स्पष्ठ थी उनके अनुसार सात्विक मन वचन व्यवहार ही हरि सुमिरन है और हरि प्राप्ति का मार्ग है
संन्त कबीर दास जी धर्म कर्म ईश्वर सृष्टि प्राणि को अपने दोहों के माध्यम से निरूपित किया है जो साहित्य विशेष कर हिंदी साहित्य के लिये अमूल्य निधि एव धरोहर है हिंदी साहित्य के उद्भव भक्ति काल के श्रेष्ठ संन्त कबीर का बहुआयामी व्यक्तित्व इतना विशाल और निर्मल था कि उनको साहित्य समाज ब्रह्म ब्रह्मांड एव कुरुरीतियो पर प्रहार हर जगह एक सजग दृष्टि दिशा के रूप में जाना पहचाना जा सकता है।
संन्त कबीर जी वाराणसी में पैदा हुए थे जिसके विषय मे कहा जाता है कि काशी में मरने वाले को मोक्ष प्राप्त होता है इस विश्वास आस्था की चुनौती पर संन्त कबीर ने स्वय को प्रयोग के तौर पर खड़ा कर दिया कहा जाता है कि मगहर में मरने वालों को मुक्ति नही मिलती है संन्त स्वयं मृत्यु से पूर्व मगहर पहुंच गए और यही उन्होनें शरीर का त्याग किया जीवन पर्यन्त कुरुरीतियो एव अंधविश्वास पर प्रहार करते रहे और जीवन का अंत भी अंधविश्वास पर प्रहार को परिभषित कर गया।।
संन्त कबीर युग चेतना जागृति के सजग प्रहरी एव ब्रह्म ब्रह्मांड कर्म धर्म सत्य व्यख्याता थे औए साहित्य के शिरोमणि ।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश