धैर्य कि दृष्टि धनपत राय की लेखनी -
मुंशी प्रेम चन्द्र जी का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गाँव मे एक सम्पन्न कायस्थ परिवार में हुआ था ।प्रेम चन्द्र जी उपन्यासकार कहानीकार विचारक एव पत्रकार थे डेढ़ दर्जन उपन्यास सेवा सदन,प्रेमाश्रम,रंग भूमि ,निर्मला ,गबन,गोदान,कर्मभूमि एव कफ़न ,पूस कि रात दो बैलों कि जोड़ी नमक का दरोगा ,नशा सहित लग्भग 300 कहानियां लिखी ।प्रेम चन्द्र जी की मृत्यु 8 अट्यूबर 1936 को वाराणसी में लगभग 56 -57 वर्ष में हो गया था।मेरा स्प्ष्ट मत है जो जीवन दर्शन में प्रासंगिक एव सत्य है कि किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व एव कृतित्व पर उसके जीवन कि परिस्थितियों परिवेश के गहरा पर प्रभाव पड़ता है मुंशी प्रेम चंद जी भी इस सच्चाई से अछूते नही है संन्त एव साहित्य कि दो महान बिभूतिया जिसने जन्म लिया बाबा विश्वनाथ काशी कि पावन भूमि में और बाबा गोरक्ष नाथ जी की पावन भूमि गोरखपुर में उनके जीवन एव कर्म के छाप गहरे है एक तो संन्त कबीर जिन्होंने आत्मिक ईश्वरीय भाव के जीवन समाज की कल्पना में साकार एव निराकार ब्रह्म को नकारते हुये आत्मा एव कर्म के सिंद्धान्त में ईश्वरीय अवधारणा को प्रतिपादित किया कबीर दास जी का उदय मुगलों के शासन काल मे हुआ था कबीर दास जी स्वय अपने जन्म एव जीवन के प्रति संसय में थे और इस्लाम एव सनातन दोनों के मध्य उनके जन्म जीवन की सच्चाई एव प्रतिपादित सिंद्धान्त आज भी ब्रह्म निरपेक्ष ब्रह्मांड एव आत्म बोध के कर्म सिंद्धान्त के जन्म जीवन की प्रेरणा की सुगंध बिखेरते हुये वर्तमान समाज का मार्गदर्शन करते है तत्कालीन परिस्थितियों एव जीवन परिवेश ने उनके मन मतिष्क एव विचारों पर जो प्रभाव डाला वही प्रेरक परिणाम समाज एव समय के लिये आदर्श है कबीर दास जी पैदा वाराणसी में हुये थे एव अंत काल इस मिथक पर नए मुल्यों को स्थापित करने स्वय मगहर चले आये कहा जाता है कि काशी में शरीर त्यागने वाले को स्वर्ग एव मगहर में शरीर त्यागने वाले को दोजख नर्क की प्राप्ति होती है संन्त कबीर ने स्वय जीवन को ही प्रयोशाला बना दिया और कर्म एव आत्मा बोध के सत्य सिंद्धान्त जो गीता में भगवान श्री कृष्ण द्वारा उपदेशित है कि सत्यता को सत्यार्थ की कसौटी पर परखा।
मुंशी प्रेम चन्द्र जी कि शिक्षा जन्म वाराणसी में एव वाराणसी के आस पास जनपदों में हुआ था उनके जीवन पर दो महत्वपूर्ण घटनाओं का बहुत गहरा प्रभाव था एक तो प्रेम चंद्र जी के पिता ने दूसरा विवाह किया था सौतेली माँ को प्रेम चंद्र जी फूटी आंख नही सुहाते जिसके कारण अपनो कि उपेक्षा की वेदना वल्यकाल के धनपत राय ने अपने अंतर्मन में दबा रखी और पिता परिवार के अनुशासन कि मर्यादा का निर्वहन आज्ञाकारी कि तरह करते हुए अंतर्मन की वेदना को फूटने का अवसर तलाश उनके जीवन के मूल उद्देश्यों में सम्मिलित हो गयी यह उनके जीवन की सामानिक पारिवारिक परिस्थिति एव परिवश थी जिसका उनके जीवन पर गहरा प्रभाव था दूसरा प्रमुख कारण था उनके जन्म जीवन एव मृत्यु के मध्य राष्ट्रीय परिस्थिति एव परिवेश जो सामाजिक एव व्यक्तिगत जीवन पर गहरा प्रभाव डाल गई ।बालक धनपत राय का जन्म सन 1880 में तब हुआ था जब 1857 कि प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन या यूं कहें क्राति असफल हो चुकी थी एव ब्रिटिश हुकूमत ऐन केन प्रकारेण अपनी प्रशासनिक वैधता एव दृढ़ता के लिये हर सम्भव असंभव तौर तरीकों को अपना रही थी जिससे भारतीय समाज के अंतर्मन में दबी चिंगारी अपनी स्वतंत्रता के लिये दबाए भावो से छटपटाहट रही थी और अपने युवाओं की तरफ विश्वास के साथ निहार रही थी तब 11 सितंम्बर 1893 को स्वामी राम कृष्ण परमहंसः के शिष्य स्वामी विवेकानंद जी द्वारा शिकाको कि धर्म सभा मे भारत भारतीयता का जयघोष कर भारत की आवाज सुनने एव भारत की पहचान जानने को सम्पूर्ण विश्व समुदाय को जागृत कर दिया। धनपत राय जी उसी काल के युवा थे अतः उन्होंने प्रत्येक भारतीय के अंतर्मन में स्वतंत्रता कि
जलती चिंगारी कि गर्मी एव ब्रिटिश हुकूमत के शासन के दमन के मध्य युवा चेतना को जाना समझा और जीवन में प्रत्यक्ष एव परोक्ष धनपत राय जी ने व्यक्त किया धनपत राय बाद में मुंशी प्रेम चंद्र जी कि कर्मभूमि बहुत दिनों तक बाबा गोरखनाथ कि पावन भूमि गोरखपुर रही जहाँ मुन्शी जी शिक्षक थे यहां उनके द्वारा अपनी धारदार लेखनी से समाज शासन समय राष्ट्र को
सकारात्मक सार्थक सुधारात्मक सिंद्धान्त जीवन दर्शन अपनी लेखनी के द्वारा उपन्यास कहानियों के द्वारा प्रस्तुत किया गया जो तत्कालीन परिस्थितियों की सत्यता है तो कही ना कही आज भी आजादी के इतने वर्षों बाद प्रासंगिक एव प्रामाणिक है ।संत कबीर ने जहां कुरीतियों पर प्रहार किया तो प्रेम चंद जी ने व्यवस्था एव सामाजिक अंतर एव उसके परिणाम के भयावह दृष्टि दिशा के परिणाम को सार्वजनिक किया यदि यह माना जाय जो सत्य है कि स्वामीविवेका नंद जी ने भारतीयों की पहचान एव आवाज़ विश्व जन समुदाय तक पहुंचाई एव उंसे जानने सुनने के लिये विचारार्थ आवाहन किया जो परिणाम तक पहुंचा ,कबीर दास जी ने सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार किया तो प्रेम चन्द्र जी ने अपनी लेखनी से भारत वासियों में स्वय के सामाजिक चिंतन के बोध का जागृति जगरण किया साथ ही साथ उनके अस्तित्व को जागृत करने के लिये झकझोर दिया। स्वतंत्रता आंदोलन में युवा धनपत रॉय एव परिपक्व मुंशी प्रेम चन्द्र की यात्रा भारत एव भारतीयों में आत्म विश्वास के जागरण का महा यज्ञ अनुष्ठान था जो तब भी प्रसंगिग था आज भी मार्गदर्शक प्रेरक मुंशी प्रेम चंद समाज मे जब भी आते है समाज राष्ट्र में परिवर्तन कि क्रांति का आधार बनते है और एव स्वर्णिम भविष्य के सत्कार का शंखनाद करते है।।
18 अट्यूबर 1936 में मुशी जी ने भौतिक जीवन से विदा मात्र 56 वर्ष कि आयु में ले लिया मुंशी भारत की स्वतंत्रता से 11 वर्ष पूर्व ही स्थूल शरीर छोड़ चुके थे मगर अपने प्रत्येक उपन्यास के पात्रों,कहानियों के किरदारों के रूप में भारत के भविष्य एव वर्तमान में प्रत्येक भारतीय में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना गए। कुछ लोंगो का मत है कि मुशी जी कही ना कही बाम विचारों से प्रभावित दिखते हैं जो विल्कुल सत्य नही है धनपत राय बालक युवा से परिपक्व मुंशी प्रेम चंद्र कि वास्तविक यात्रा का सत्त्यार्थ है प्रेम चन्द्र साहित्य जो सदैव प्रेरक प्रसंगिग है एव रहेगा।।
कव्य भाव में प्रेम चंद साहित्य -
प्रेम चंद्र साहित्य--
प्रेम चन्द्र का साहित्य
भारत की भूमि का सत्य
भाव।।
गांव गरीब गरीबी
किसान नारी वेदना
संवेदना याथार्त।।
रूढ़िवादी परम्परा
परमात्मा की परिभाषा
का सत्यार्थ प्रवाह।।
लमही वाराणसी में जन्म
गोरखपुर कर्म भूमि
रचना का संसार।।
गोदान,गमन ,कफ़न
निर्मला उपन्यास
मौलिक चिंतन का
साहित्य सामाजिक
दर्पण संवाद।।
नमक दरोगा ,नशा
ईदगाह कथा राष्ट्र
चेतना जागृति का
सार सारांश।।
प्रेम चंद्र की लेखनी
कहती नही साम्यवाद
समय काल की सामाजिकता
दस्तावेज गवाह।।
प्रेम चंद्र जन्म जीवन नही
स्थूल शरीर नही
प्रेम चंद्र साहित्य समाज
जागृति का युग चिंतन
सदाबाहर।।
गुलामी की जंजीरों में
जकड़े राष्ट्र में विभरी
मानवता की लेखनी
प्रेम चंद्र कि शैली का
शाश्वत अतीत भविष्य
वर्तमान।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश