भग्यवान कृष्ण महारथी कर्ण एव सूफी संत कबीर नंदलाल मणि त्रिपाठी द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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भग्यवान कृष्ण महारथी कर्ण एव सूफी संत कबीर

भगवान कृष्ण महारथी कर्ण एवं सूफी संत कबीर -

सूफी संत कबीर संत परम्परा के ऐसी कड़ी जो निराकार ब्रह्म को ब्रह्मांडीय कल्पना का सत्त्यार्थ बताते है जबकी उनकी मान्यताओं का आधार भगवत गीता का कर्म सिंद्धान्त है।

गीता उपदेश कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को माया से मुक्त करने के लिए दिया गया था औऱ श्री कृष्ण को भगवान उनके काल मे ही स्वीकार किया गया है जो स्वयं साकार थे मानव शरीर से उनकी लीलाएं अनेक धार्मिक एवं आधुनिक वैज्ञानिक ग्रंथो में वर्णित है।

कबीर आत्मीय बोध का ईश्वर घट घट वासी ब्रह्मांड का चैतन्य सत्य स्वीकार करते है किंतु ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण नही करते है जबकि सुर दास निराकार ब्रह्म के सम्बंध में बहुत स्प्ष्ट कहते है ( मेरो मन अनात कहाँ सुख पायो जैसे उड़ी जहाज को पंक्षी पुनि जहाज को आवत) सुर दास जी के अनुसार अजन्मा अंतन्त अविनासी ब्रह्म के सत्यार्थ कि खोज में ठीक उसी पक्षी की तरह थक जाना है जो समुद्र के बीच नाव के ऊपर लगे ध्वज से उड़कर पुनः वही लौट आता है उंसे ऊपर अनंत आकाश एव नीचे महाप्रलय के जल से अधिक कुछ नही दिखता ।

भगवान श्री कृष्ण ने कुरूक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय निष्काम कर्म को जीवन कि नैतिकता का सर्वश्रेष्ठ सिंद्धान्त बताया जिसके अंतर्गत मोह माया सम्बन्धो से परे जन कल्याण हेतु निष्काम कर्म प्राणि लिए परमात्मा प्राप्ति का उत्कृष्ट मार्ग है।

महात्मा कबीर ने जहां धर्म को धारण करने के लिए उसके आवरण मंदिर मस्जिद एव आचरण पूजा पाठ को तकिया नुकुसी ही बताया है उन्होंने हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मो के समाज को मंदिर मस्जिद के दायरे से निकल कर एव मूर्ति आवरण के मान्यताओं को छोड़ कर निष्काम कर्म को ही ईश्वर उपासना का मार्ग बताया है ।

कबीर दास जी ने हिंदुओ के लिए कहा है
#पाहन पूजे हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़ ताते ये चाकी भली जाके पिसे खाय#
भगवान श्री कृष्ण जो स्वंय समूर्ण ब्रह्म थे ने गोवर्धन पूजन कि परम्परा शुरू करवाई थी जब इंद्र के कोप से ब्रजवासी अती जल बृष्टी से अफरा तफरी में थे तब उन्होंने गोवर्धन उठाकर उसके नीचे ब्रज बसा दिया क्योकि स्वंय ब्रह्म के रूप में भगवान श्री कृष्ण को ब्रह्मांड में प्रकृति एव प्राणि के समन्वय से ब्रम्ह कि वास्तविकता का युग संदेश देना था वही कबीर दास जी जन्म जीवन काल समय कि निरंतरता को निराकार ब्रह्म का सत्यार्थ स्वीकार करते थे

मंदिर से अधिक सार्थक उन्हें चाकी लगती है जिसके पिसे आटे की रोटी खाने से जीवन का अस्तित्व संरक्षित होता है।

इस्लाम के बारे में उनका सीधा प्रहार था उन्होंने कहा है
#काकड़ पाथर जोड़ के मस्ज़िद लिया चुनाय ता चढ़ मुल्ला बाग दे बहिरा हुआ ख़ुदाय#

चिल्लाते हुए अल्लाह को पुकारने का मुखर विरोध हिन्दू के पत्थर के मूर्ति पूजन पद्वति परंपरा का मुखर विरोध अर्थात हिन्दू मुस्लिम दोनों धर्मो कि बुराईयों पर नही बल्कि मूल सिंद्धान्तों को ही खोखला बताते हुये संत कबीर दास जी ने करारा प्रहार किया है जबकि कबीर दास के अनुयायियों में हिन्दू मुस्लिम दोनों संप्रदायों के लोग थे।

कबीर दास जी के जन्म के साथ यह सत्य जुड़ा हुआ है कि वह ऐसी कोख से पैदा हुए जिसे उन्हें पुत्रवत अपनाने में सामाजिक तिरस्कार का भय था अतः नवजात कबीर को वाराणसी के लहरतारा तालाब पर लावारिस छोड़ दिया यही सत्य भगवान श्री कृष्ण के काल महाभारत में कर्ण के साथ जुड़ा था कर्ण एव संत कबीर में एक फर्क था कर्ण के जन्म कि सत्यता तत्कालीन बहुत से लोग जानते थे लेकिन किसी ने कर्ण को नही बताया यदि बताया होता तो कर्ण गुरु परशुराम के श्राप का कोपभाजन नही हुआ होता बताया भी तो तब जब युग विनाश के उत्कर्ष पर था।

संत कबीर के जन्म कि सच्चाई उनको जन्म देने वाले के अलावा कोई नही जानता था जो कबीर दास जी को बता सके कबीर दास जी का पालन पोषण जुलाहा परिवार में हुआ था जो कट्टर इस्लामिक था अतः कबीर दास जी ने स्वंय इस्लाम का हिस्सा होने के नाते जो बुराईयां या कमियाँ देखी उसके विरुद्ध बहुत दृढ़ता के साथ अपनी अभव्यक्ति दी आवाज बुलंद किया जो आज भी वायुमंडल में गूंज रही हैं।

प्रश्न यह उठता है कि क्या भगवान श्री कृष्ण संत कबीर एव कर्ण में कोई समानता है यदि इस प्रसंगिक एव गम्भीर प्रश्न पर गौर से विचार करे एव धर्म ग्रंथो के आधार पर सत्यार्थ का अन्वेषण करे तो स्प्ष्ट है कि निश्चित तीनो में कही न कही समानता है।

भगवान श्री कृष्ण ने जहां युद्ध भूमि कुरुक्षेत्र में जन्म जीवन कि नैतिकता मर्यादा सिंद्धान्त के रूप में निष्काम कर्म वाद का उपदेश दिया मोह माया से इतर दायित्व एव कर्तव्य बोध के प्रति जिम्मेदार बनाता है तो गोवर्धन पूजन का संदेश देकर प्रकृति प्राणि के ब्रह्मांड में ब्रह्म के अतित्व कि स्वीकारता का सत्यार्थ निराकार साकार के समन्वयक सृष्टि दृष्टि को युग जीवन काल समय के लिए उपदेशित किया साकार निराकार का समन्वय इसलिये क्योकि भगवान श्री कृष्ण को उनके काल मे सशरीर ईश्वर कि युग स्वीकारोक्ति थी साथ ही साथ उनके साथ भी एक सत्य जुड़ा है जन्म देने वाली मां को उनका त्याग करना पड़ा भय के कारण जो लोक लाज पर आधारित नहीं था बल्कि क्रूरता के दानाविय भय भाई के कारण।

संत कबीर ने ब्रह्म के निराकार स्वरूप में कण कण में व्याप्त प्राणि प्रकृति के समन्वय के सिंद्धान्त को निरूपत किया है।

जो पत्थर कि मूर्ति पूजने से बेहतर चाकी को पूजना बताया है चाकी कर्म बोध के ब्रह्म सिंद्धान्त का प्रत्यक्ष है जो प्राणि के देवांश प्राण को स्पदन कि ऊर्जा आटा से रोटी के रूप में प्रदान करता है।

वही श्रम पसीने के पैसे से मस्जिद बनवा कर उसमें चिल्लाने से बेहतर मूक आत्मीय बोध के ब्रह्म के अन्वेषण चिंतन को सर्वश्रेष्ठ बताया है अर्थात कबीर दास एव भगवान श्रीकृष्ण दोनों ही दायित्व बोध कर्तव्य एव प्रकृति प्राणि के समन्वय ब्रह्मांड के ब्रह्म को स्वीकार करते है ।

कर्ण एव कबीर के जन्म कि एक ही परिस्थियां थी दोनों के जन्म दाता द्वारा जन्म देने के साथ ही तिरस्कार कर दिया गया था लेकिन दोनों में एक विशेष बात थी दोनों को अपने जन्म दाता से कभी कोई शिकायत नही कि दोनों ने अपने काल समय के समाज के शुद्धिकरण के लिए महत्वपूर्ण अनुष्ठान किया जो आज भी महत्वपूर्ण एव प्रसंगिक है ।

हा कर्ण से अवश्य महत्वपूर्ण जीवन नैतिक मूल्यों के प्रति असंवेदनशील त्रुटिपूर्ण आचरण रिश्ते नाते के माया मोह ने करवा दिया जिसका मलाल कर्ण को अंतिम सांस तक था जैसे कौरव सभा मे द्रोपदी के अपमान होते समय विरोध करना तो दूर की बात सहभागी होना कही न कही जन्म के तिरस्कार के दुखी मन के अंतर्मन से नारी अवहेलना कि मूक आवाज थी जो कर्ण ने दुर्योधन के साथ प्रदर्शित किया।

संत कबीर कर्ण से बहुत आगे निकलते कम से कम इस सम्वन्ध में प्रतीत होते है कबीर ने अपने जन्मदाता के लिये जीवन भर कभी कुछ नही कहा एव उन्होंने नारी के सम्मान के इतर कभी कुछ नही कहा संत कबीर सामाजिक धार्मिक कुरीतियों के विरोधी थे धर्म के विरुद्ध नही और ब्रह्म कि घट घट में उनकी स्वीकारोक्ति ब्रह्मांड में ईश्वरीय सत्ता को तो स्वीकार करती है मगर स्वरूप दायरे में नही बांधती संत कबीर निश्चित रूप से युग चेतना प्राणि प्राण प्रकृति ब्रह्म चेतना जगृति के युग सचेतक थे जो सदैव प्रासंगिक रहेगा।।


नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उतर प्रदेश।।