लेखक -डॉ.सुनील जाधव
मो.९४०५३८४६७२
उस दिन जगजीत अपने कमरे से बाहर निकला था | उसके चेहरे पर गुस्सा था | बाएं हाथ की मुट्ठी भिंची हुई थी | और दायें हाथ में चमकता हुआ चाकू था | चाक़ू की धार को देखकर साफ अंदाजा लगाया जा सकता था कि उसने अभी-अभी चाक़ू को धार लगाई हैं | वह कमरे से बाहर होते हुए आँगन में पहुंच गया था | जगजीत आगे क्या करने वाला था इसकी जिज्ञासा मुझे भी थी | आखिर वह गुस्से में चाक़ू लेकर कहाँ जा रहा था | एकाएक वह आँगन के एक कोने में बैठ गया | आस-पास कोई नहीं था | मेरे मन में अनगिनत विचार आने लगे थे | क्या वह इस चाक़ू से आत्महत्या करने वाला हैं ? पता नहीं | दिल की धड़कने तेज होने लगी थी | उसने दायें हाथ में पकड़ा हुआ चाक़ू उठाया और ... वह कुछ कर पाता मैंने अपनी आँखें बंद कर ली थी | जब आँखें खोली तो देखा कि जगजीत जिस जगह बैठा था, उसी जगह पर जमीन में एक गड्ढा बना रहा था | अब तक मैं जो सोच रहा था | उस पर मुझे हंसी आ गयी थी | उस वक्त मैं अपने आप से ही शर्मिंदा था|
देखते ही देखते जगजीत ने एक हाथ गहरा गड्ढा बना दिया था | एक जिज्ञासा से अभी पर्दा उठा नहीं था कि अब मन में दूसरी जिज्ञासा के मासूम शिशु ने जन्म ले लिया था | पर वही हुआ..| कभी-कभी हम जो सोचते हैं, वह होता नहीं | और जो होता हैं उसे सोचते नहीं | यह बात यहाँ लागू जरूर हो रही थी | गड्ढा बनाने के बाद उसने अपने दायें हाथ में रखा चाक़ू बाएं हाथ में पकड़ा और दायें हाथ से अपने दायें जेब में से दो हजार की नोट निकाली | उसने दो हजार की नोट की और देखा और मन ही मन मुसकुराया | मुस्कान उसके चेहरे पर अब खिलने लगी थी | उसने दो हजार के नोट को प्रणाम किया | मैं समझ नहीं पाया कि वह ऐसा क्यों कर रहा हैं | आखिर क्या कारण हो सकता हैं | फिर अपने ही आप अनुमान लगा लिया | जैसे बहुत सारे लोग बहुत सारे अनुमान लगा लेते हैं | और अपने मन में उसे पक्का कर लेते हैं कि यही अनुमान सही हैं | तब वह उस अनुमान की प्रतिक्रिया के रूप में दुखी या सुखी हो जाता हैं | मैंने उस हरकत पर अनुमान लगाया और सुखी हो गया | अनुमान था कि दो हजार की नोट में गाँधी बाबा बैठे हुए हैं | वे साक्षात् ईश्वर के बराबर हैं क्योंकि आज की दुनिया में पैसा ही ईश्वर और उस पैसे में गाँधी जी हैं | जगजीत ने शायद उन्हें ही प्रणाम किया था | लग रहा था कि जगजीत को दो हजार की नोट में बैठे गाँधी बाबा ने आशीर्वाद भी दे दिया था कि उसकी सारी मनोकामना पूरी हो जायेंगे |
उसने दो हजार की नोट को प्रणाम किया और धीरे से उसने उस नोट को उस एक हाथ गहरे गड्ढे में बड़े प्यार से स्थानापन्न कर दिया था | नोट गड्ढे में विराज मान हो चुकी थी | जगजीत ने उसमें काली मिट्टी को सरका दिया था | उस पर बगल में ही रखे हुये गोबर के खाद को पसार दिया | फिर सरकारी खाद दाल दिया | जगजीत कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था | इसीलिए उसने गोबर खाद के बाद सरकारी खाद को गड्ढे में डालना पसंद किया था | और फिर उस पर काली मिट्टी को सरका दिया था | फिर जगजीत अपने कमरे में गया और एक लोटे में पानी भरकर ले आया |और उस स्थान को पानी से सींच ने लगा था | जगजीत ने अब अपना काम पूरा कर लिया था | उसने दो हजार के नोट का बीजा रोपण कर दिया था | रह रह कर मेरे मन में एक मासूम-सा सवाल किलकारी मार रहा था | आखिर उसने जमीन में दो हजार के नोट का ही बीजा रोपण क्यों किया ? वह चाहता तो सौ, दो सौ, पांच सौ या एक रुपये, दो रुपये या पांच या दस का सिक्के का भी तो बीजा रोपण कर सकता था | शायद जगजीत चाहता था कि वह पैसों का पेड़ लगायें और उसमें झट से अधिक से अधिक पैसे उग आये |
जगजीत की इस हरकत को उसके माता-पिता ने छुपकर देख लिया था | उन्होंने जगजीत की इस हरकत को देखकर पूछा, “अरे पागल, यह तू क्या कर रहे हैं | गड्ढा खोद कर पैसे गाढ़ रहा हैं | या पैसे छिपा रहा हैं?” बेटे जगजीत ने उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा, “नहीं बाबू जी, मैं पागल नहीं हूँ | मैं जो कर रहा हूँ उस पर तुम आज हंस रहे हो, पर तुम कल इसी बात पर मुसकुराओगे | और अपने बेटे को समझदार कहोगे |”
बाबूजी - “बेटा, हम कुछ समझे नहीं तू क्या बोल रहा हैं | लगता हैं तुझे किसी अच्छे डॉक्टर के पास ले जाना पड़ेगा | तेरा मानसिक संतुलन बिगड़ गया हैं |” बाबु जी ने कहा |
जगजीत-“बाबु जी मेरा मानसिक संतुलन ठीक हैं | उलटे अब मैं पहले से जादा स्वस्थ और सुदृढ़ हूँ | हाँ.. मैं कह रह था कि अब आपकी गरीबी दूर हो जायेगी | आप ने अपनी बेटी और बेटों के लिया कर्जा हट जायेगा | हम अमीर बन जायेंगे | मैं आपकी सारी इच्छाओं को पूरा करने वाला हूँ | अब से तुम साला भर एक ही धोती को बार-बार सिलाई करके नहीं पहनना पड़ेगा | आपको अब फटी बनियान पहनने की जरूरत नहीं | माँ को ठीक से दिखता नहीं उसका ऑपरेशन होगा और उन्हें दिखने लगेगा | वह सारी दुनिया को अपनी आँखों से देख पायेगी|”
बाबूजी - “ अरे बुद्धू पर यह सब कैसे होगा ?”
जगजीत - “ बाबु जी आप से ही मैं बचपन से सुनते आ रहा था | पैसों का पेड़ नहीं लगा हैं, जिससे तोड़ कर मैं तुम्हें पैसे लाकर दे दूँ | तुम्हारे शोक पूरे करूं | कई बार तुमने सब्जी बालों को अधिक पैसे माँगने पर डांट भी दिया था | मेरे घर में पैसों का पेड़ नहीं लगा हैं |”
बाबूजी - “तो .. तूने पैसों बिज बोया हैं ?”
जगजीत ने मुसकुराते हुए कहा हाँ बाबू जी मैंने अपने घर में पैसों का पेड़ लगा दिया हैं |
बात कुछ ही महीने पुरानी थी | एक दिन अखबार में शहर के एक बड़े कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर की रिक्तियों का विज्ञापन निकला था | जगजीत ने अपने जीवन में जो कुछ भी कमाया था अर्थात योग्यता हासिल की थी उस आधार पर उसने बड़े कॉलेज में आवेदन कर दिया था | आवेदन के बाद सभी आवेदन कर्ताओं को बुलावा पत्र के जरिये साक्षात्कार के लिए बुलाया गया था | सभी आवेदकों को कतार में अनुक्रम के अनुसार बिठाया गया | और एक -एक से भीतर के कमरे में छोड़ा गया | जाते समय जिज्ञासा युक्त आवेदक लौटते समय उनका चेहरा या तो खुश होता या निराश होता था | उनके चेहरे की ख़ुशी से अंदाजा लगाया जा सकता था कि फलाने आवेदक का साक्षात्कार अच्छा हुआ और निराश चेहरे से असफलता छलक रही थी | जगजीत उन सबके चेहरे को देख रहा था | उसमें भी जिज्ञासा थी | अपनी बारी का इंतजार था | जल्द ही जगजीत की बारी आयी | उसे भीतर कमरे में बुलाया गया | जहाँ संस्था के अध्यक्ष, विवश प्राचार्य एवं कठपुतली की भूमिका में बैठे विषय विशेषज्ञ थे | जगजीत को पहले अपना परिचय पूछा गया | और एक के बाद एक सवाल | जगजीत ने विषय विशेषज्ञों के सारे सवालों के जवाब दे दिए थे |
जगजीत के लगभग सौ आलेख प्रकाशित थे | तो बीस पुस्तकें और कई पुरस्कार से वह सम्मानित था | कई देश-विदेश के.. कई सम्मेलनों में उसने सक्रीय भूमिका निभायी थी | उसने अपनी योग्यताओं का दस्तावेज समाने रखा था | सभी को वह पसंद आया | सभी ने तारीफें की थी | किन्तु एक शख्स खामोश बैठा देख रहा था | वह था संस्था अध्यक्ष | उसने पहला सवाल पूछा, “ जगजीत जी, आप ने बताया कि आप पिछले २२ वर्षों से शहर के फेमस कॉलेज में अध्यापन का कार्य करते हो, इस बार वहाँ भी रिक्तियां निकली हैं | क्या वहाँ आप प्रयास नहीं कर रहे हो ?”
जगजीत ने सवाल का जवाब देते हुए कहा, “ साहब, मैं प्रयास तो कर रहा हूँ किन्तु समस्या हैं, मेरे केटेगरी की | मेरे केटेगरी की जगह ना के बराबर ही निकलती हैं | मैं तो व्यंग्य स्वरूप अक्सर कहता हूँ, ‘हमारी जगह दो सौ सालों में एक बार निकलती हैं |” यह सुनना ही था कि साक्षात्कार का कमरा हँसी के ठहाके से गूंज उठा | और अध्यक्ष जी के मन में आया कि इसे ही पर्मनंट बनाया जाये | उन्होंने कहा, “ यह बात आप फेमस कॉलेज के संस्था चालक की नजरों में लाकर दीजिये | और रही बात आपके दस्तावेजों के वह सब ठीक हैं किन्तु मुझे जो दस्तावेज चाहिए वह इसमें नहीं हैं |”
जगजीत कुछ सोच में पढ़ गये कि मैंने तो सारे दस्तावेज जोड़े थे | किन्तु वे किस दस्तावेज की बात कर रहे हैं | जगजीत ने सवाल पूछा, “साहब मैं कुछ समझा नहीं ? कृपया मुझे स्पष्ट रूप से बता सकते हैं ?”
अध्यक्ष – “ इसमें गाँधी जी के चित्र वाले लाल-हरे दस्तावेज नहीं दिखाई दे रहे हैं |”
जगजीत को समझने में देरी न लगी कि अध्यक्ष किस ओर संकेत कर रहे हैं | उसने पूछा, “साहब, कितने गाँधी जी चाहिए आपको ?”
अध्यक्ष – ७०
जगजीत – ७० वह तो मैं अभी दे सकता हूँ | मेरे जेब में हैं |
अध्यक्ष – नहीं .. आप नहीं समझे |
जगजीत – ७० हजार ?
अध्यक्ष – नहीं .. आप अभी भी नहीं समझे |
जगजीत – साहब, आप सही कह रहे हैं | आप की बात मुझे ठीक से समझ नहीं रही हैं | क्या आप मुझे सही ढंग से समझा सकते हैं कि आपको आखिर कितने गांधीजी चाहिए |
अध्यक्ष – ७० लाख रुपये |
जगजीत को अध्यक्ष का उत्तर सुनना ही था कि जोर का झटका उसे जोर से ही लगा था | उसने स्पष्ट रूप से कहा, “ साहब, इतने गांधीजी मेरे पास तो नहीं हैं | हम पांच भाई हैं | मेरे पिता एक किसान हैं | उन्होंने अपने जीवन की पूंजी हमें पढ़ाने -लिखाने में लगा दी थी | मैं यदि हमारे घर के सामने की सड़क भी यदि बेच दूँ, तब भी इतने गांधीजी मैं आपको नहीं दे सकता | साहब, मैं आपकी मजबूरी को समझ सकता हूँ | आपको भी अपने परिवार का पालन पोषण करना हैं | शायद इसीलिए आपको इतने नोट पर छपे हुए गांधीजी की आवश्यकता हैं | ” जगजीत अपने जीवन भर भी इतने पैसे कमा नहीं सकता था | वह कैसे इतने गांधीजी अध्यक्ष को दे सकता था | जगजीत निराश होकर बाहर निकला था | जगजीत को अब कमरे से बाहर निकलने वाले आवेदकों के ख़ुशी और निराशा से भरे चेहरे का रहस्य प्रकट हो चूका था |
सरकारी व्यवस्था ने शिक्षा व्यवस्था के हाथों में अब लुट का शक्तिशाली ब्रह्मास्त्र दे दिया था | इस अस्त्र के सामने अच्छे – अच्छे योग्य, गुणवान आवेदक पराजित हो चुके थे | बेरोजगारों के शोषण का महायुद्ध लगातार चल रहा था | जिसमें केवल व्यवस्था जित रही थी | जिसने व्यवस्था के शरण में जाना स्वीकार कर लिया वह भी व्यवस्था का हिस्सा बन रहा था | जिसने सत्तर लाख गाँधीजी दिए वह विजेता घोषित हो रहा था | जिसने नहीं दिए वह पराजित, बेदखल और कुछ एखाद पराजय के दुःख को न सह पाने के कारण आत्महत्या कर रहे थे | व्यवस्था खुश थी कि उन्होंने करोड़ों रुपये बेरोजगारों के शवों को कुचल कर प्राप्त किया था |
पर जगजीत ने हार नहीं मानी थी | उसके नाम में ही लिखा था कि वह जग का जेता हैं | इसीलिए उसने अपने आँगन में पैसों का पेड़ लगाया था |
पैसों का पेड़ अब धीरे -धीरे बड़ा होने लगा था | पहले उस पर एक रुपये के सिक्के लगे | इसे देखकर जगजीत ख़ुशी से झूम उठा था | बाद में दो रुपये का सिक्का लगा | फिर पाँच -दस का सिक्का | और जैसे -जिसे पेड़ बड़ा हो रहा था | पैसों की रकम भी बढ़ते जा रही थी | पचास का नोट, सौ, पाँच सौ और आखिर में दो हजार के नोट .. से लदा हुआ विशाल वृक्ष में उस पेड़ का परिवर्तन हो चूका था | अब उस पेड़ पर मात्र दो हजार के ही नोट लगते थे | जगजीत ने सही कहा था कि अब वह अपने माता-पिता के सपने पूरे करेगा | अब इसके पास ७० लाख से भी ज्यादा गांधीजी थे | अब वह सोच रहा था कि किसी भी संस्था के चालक ने उससे गांधीजी माँगे तो वह उससे दुगने देगा | उसने ऐसा ही किया | पेड़ से लगे सारे दो हजार के नोट एक थैले में भर लिया और एक कॉलेज को दे दिए तो उन्होंने जगजीत को परमनेट असिस्टेंट प्रोफेसर बना दिया था|
यह खबर आग से भी ज्यादा तेज चहूँ ओर फैल चुकी थी | देश और विदेश के सारे बेरोजगार जगजीत के पास आने लगे थे | जगजीत ने सभी को अपना रहस्य बता दिया था | इसका नतीजा यह हुआ कि प्रत्येक बेरोजगार ने अपने-अपने घर के सामने जमीन में दो हजार का नोट गाड़ दिया था |और देखते ही देखते प्रत्येक बेरोजगार के घर के आँगन में दो हजार के वृक्ष लहलहा उठे थे | अब विश्व के सारे बेरोजगारों की समस्याओं का समाधान हो चूका था | वे अपने सपने पूरे कर सकते थे | अब वे विवाह कर सकते थे | जो शादी शुदा हैं, वे बचे पैदा कर सकते थे | और जिन्होंने बच्चे पैदा किए हैं उनकी अच्छी परवरिश और अच्छे स्कूल में पढ़ा सकते थे | बूढ़े-माता पिताओं की समस्याओं का समाधान निकल चूका था | अब कोई बेरोजगार फटी हुई बनियान -चड्ढी, सोक्स,चप्पल पहने नजर नहीं आने वाला था | अब सारे बेरोजगारों ने मर्सडीज खरीद ली थी | अब वे कहीं पर भी जाते हैं तो मात्र अपनी मर्सडीज में ही | वे भोजन करते तो मात्र फाइव स्टार होटल में ही | एक बार पहना हुआ कपड़ा अब वे दुबारा नहीं पहनने वाले थे | सबकुछ बदल चूका था |
संस्था चालक अब ईमानदार बनते जा रहे थे | वे बेरोजगारों को ढूंढ रहे थे | पर उन्हें अब कोई बेरोजगार ढूंढने से भी नहीं मिलने वाला था | कई चालकों ने बेरोजगारों को अपवाद वश ढूंढ लिया था किन्तु वे अब प्रोफेसर नहीं बनाना चाहते थे | इसका नतीजा यह हुआ कि अब चालक निराश हो गये थे | एक चालक ने तो आत्महत्या इस लिए कर ली कि वह गांधीजी नहीं लेंगे | उन्हें किसी पूर्व बेरोजगार ने जबरन एक करोड़ गांधीजी देने का प्रयास किया था | और यह कहा था, “बोल, कितने गाँधीजी चाहिए ?