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नि:शब्द के शब्द - 20

नि:शब्द के शब्द / धारावाहिक

बीसवां भाग

***

सीवन नदी का मरघट

समय का पहिया और आगे बढ़ गया.

मोहिनी के निवास से, पैदल कदमों की दूरी पर, पत्थरों से अपना सिर टकरा-टकराकर बहने वाली सीवन नदी इस प्रकार से बह रही थी कि, मानों तीन ताकतवर युवक, शक्कर को पीट-पीटकर, किसी हलवाई की मक्खियों से भरी दूकान में बूरा बना रहे हों और साथ ही उन युवकों के मुखों से निकलनेवाली आवाजें ऐसी प्रतीत होतीं थीं, कि जैसे कोई दलदल से भरे हुए कीचड़ में से निकलने की बार-बार कोशिश कर रहा हो. मुख्य शहर से काफी बाहर, सीवन नदी का यह किनारा प्राकृतिक दृष्टिकोण से जितना अधिक सुंदर माना जाता था, उतना ही अधिक मनुष्य की मानसिक भावना से भला नहीं लगता था. कारण था कि, इस नदी के तीर पर बना हुआ श्मशान घाट. प्राय: ही यहाँ पर दुनियां से अंतिम नमस्कार करके जानेवालों के शरीर, यहाँ पर धूं-धूं करके राख में बदलते रहते थे और सड़क पर आने-जाने वाले लोग जैसे अपने अंतिम दिनों की आख़िरी तस्वीर देखकर सिर झुकाए चुपचाप निकल जाते थे.

मोहिनी, कभी-कभी यहाँ पर पैदल ही घूमने चली आया करती थी. आज भी जब वह आई थी तो किसी एक जल कर ठंडी होती हुई चिता के पास किसी अजनबी युवक को बैठे देख कर वह आश्चर्यचकित तो नहीं, बल्कि, रोमांचित अवश्य ही हो गई थी. मोहिनी उस चिता के करीब तो नहीं गई मगर उस मार्ग के किनारे पर जाकर बैठ गई जहां से निकलकर वह मार्ग मुख्य सड़क पर जाकर मिलता था और सोचने लगी कि, देखें वह युवक अब क्या करता है? कहाँ जाता है? वह कौन हो सकता है?

फिर वह अपरिचित युवक जब वहां से हटकर मोहिनी के सामने से निकला तो उसने एक उठती-सी नज़र मोहिनी पर डाली और फिर आगे बढ़कर जाने लगा. तभी मोहिनी ने उसे रोका,

'ज़रा, सुनिए !'

'?'- उस युवक के पाँव अपनी ही जगह पर ठिठक गये. उसने घूमकर मोहिनी को देखा तो मोहिनी उसका मुख देखकर जैसे अपनी ही जगह पर आश्चर्य से उछल-सी पड़ी. वह शीघ्र ही उठकर उस युवक के सामने आई और जैसे प्रसन्नता से बोली कि,

'मोहित तुम . . .और यहाँ ?'

'?'- उस युवक ने फिर एक बार आश्चर्य से मोहिनी को देखा. बड़े ही गौर से, फिर उसे न पहचानते हुए बोला कि,

'मॉफ कीजिये. मैंने, आपको पहचाना नहीं?'

'तुम. . . मोहित ही हो न ?' मोहिनी उसकी आँखों में देखती हुई बोली.

'जी नहीं.?

'लेकिन, तुम्हारी शक्ल तो बिलकुल वही है. मेरे मोहित की.'

'जी नहीं, कौन मोहित?'

'मेरा मोहित. वही, जिससे मेरी सगाई हुई थी?'

'आपको, जरुर कोई गलतफहमी हुई है. मैं आपका मोहित नहीं बल्कि, मेरा नाम मोहन है और मैं यहीं इसी शहर का रहनेवाला भी नहीं हूँ.'

'नहीं. . .नहीं, तुम फिर से झूठ बोल रहे हो. मुझे तुम भले ही अब पसंद न करो, कोई बात नहीं, लेकिन एक बार कह तो दो कि, तुम वही हो.' मोहिनी बोली तो वह युवक थोड़ा गम्भीर हुआ. उसने फिर से मोहिनी को गम्भीरता से देखा और बोला,

'मिस ! आप ठीक तो हो?'

'हां, मैं बिलकुल ठीक और स्वस्थ हूँ और मेरा नाम मोहिनी है. मैं जानती हूँ कि, तुम ही से मेरी मंगनी हुई थी.'

'?'- देखिये मोहिनी जी, आप जरुर किसी भ्रम में हैं. हो सकता है कि, आपके मोहित की शक्ल मुझसे बहुत मिलती हो. मेरी आपसे कोई भी मंगनी आदि नहीं है. मैं अपनी मंगेतर को अभी-अभी अग्नि देकर आ रहा हूँ. आपसे भी मैं आज पहली ही बार मिल रहा हूँ.'

'?'- हे ऊपरवाले, ये सब क्या हो रहा है?' कहते हुए मोहिनी अपना सिर पकड़कर बैठ गई तो वह युवक जिसने अपना नाम मोहन बताया था, उसको ध्यान से देखने लगा. तब मोहिनी ने उसे गौर से देखा. उसकी आँखों में झांका, तब आगे बोली,

'क्या नाम है, आपकी अपनी मंगेतर का?'

'मोहिनी.'

'लेकिन, मैं तो यहाँ हूँ?'

'तभी तो कहता हूँ कि, यह सब एक संयोग है. आपका नाम मोहिनी है और मेरी मंगेतर का भी नाम मोहिनी ही था. मैं, मोहन हूँ और मेरा चेहरा आपके मंगेतर से मिलता होगा.'

'?'- मोहिनी एक अजीब से सशोपंज में उलझ गई. कुछेक क्षणों तक वह सोचती रही. फिर बाद में जैसे निराश होकर बोली कि,

'तो मुझे क्षमा कर दीजिये. आगे अगर आप कभी मिलते हैं तो पहले ही से बता दीजियेगा कि आप मोहन हैं, ताकि मैं फिर कोई भूल न कर सकूं.'

'ठीक है. वैसे आपके मोहित रहते कहाँ है?'

'बहुत लम्बी और 'कन्फुजेबिल' कहानी है, मेरी. कभी फिर मुलाक़ात हुई तो जरुर बताऊंगी.' मोहिनी बोली तो मोहन ने उससे कहा कि,

'अब जाऊं मैं?'

'जरुर.'

'?'- तब मोहन उसको पीछे से मुड़-मुड़ कर देखता हुआ, एक संशय से आगे चल दिया. लेकिन वह थोड़ा ही आगे चला होगा कि, फिर से लौटकर उसके पास आया और बोला कि,

'वैसे, आप रहती कहाँ हैं?'

'यही, नजदीक ही. पास में जो 'कॉटेज' बना है, उसी में.'

'?'- तब मोहन चुप हो गया.

'और आप?'

'रहने वाला तो मैं काफी दूर दूसरे शहर का हूँ. लेकिन, मेरी मंगेतर इसी शहर की थी. मुझे खबर मिली थी कि वह बीमार है. उसे देखने आया था, पर वह यह दुनियां ही छोड़ गई.'

'यही मानव जीवन है. मैं भी यह संसार छोड़ कर चली गई थी, जब दोबारा वापस आई तो सबने मुझे पहचानने से ही इनकार कर दिया.' मोहिनी ने कहा तो मोहन ने आश्चर्य से उससे कहा कि,

'मैं कुछ समझा नहीं. आप यहाँ श्मशान में बैठी हैं, कहीं आप किसी की भटकी हुई आत्मा आदि . .?'

'सभी के अंदर एक आत्मा निवास करती है. मैं भी एक आत्मा हूँ. आपके अंदर भी एक आत्मा है. मुझमें और आपमें केवल एक ही अंतर है कि, आपकी आत्मा के पास अपना शरीर है और मेरे पास उधार का बदन है. इसीलिये कोई भी मुझे पहचान नहीं पाता है, क्योंकि, मेरा अपना शरीर नष्ट कर दिया गया है.'

'आप बिलकुल ठीक कहती हैं. मेरा शक सही निकला. अब मैं चलता हूँ.'

'मैं, समझी नहीं?'

'मेरा मतलब कि, यह श्मशान है और यहाँ यूँ, अकेले एक जवान, सुंदर लड़की अगर आकर बैठती है तो उसे मैं क्या समझूंगा?'

'तो, आपने भी मुझे कोई प्रेतात्मा या बला समझ लिया है?' मोहिनी ने पूछा तो वह युवक अपना हाथ हिलाकर बोला,

'बाय, अपना ख्याल रखियेगा?' फिर एक भेदभरी मुस्कान बिखेरता हुआ चला गया.

'?'- मोहिनी की आँखें काफी दूर तक मोहन के पीछे ताकती रहीं.

मोहन अपनी बात कहकर चला गया और मोहिनी के लिए एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह भी छोड़ गया- वह सोचने लगी कि, कभी सुना था कि, एक ही शक्ल के सात चेहरे होते हैं. अगर यह कटु सच है तो फिर उसकी शक्ल की अन्य छह मोहिनियाँ कहाँ पर हैं? वे तो उसे कभी-भी मिली नहीं?

मानव ज़िन्दगी के रास्ते, अपने बनाये हुए कदमों के निशानों के आधार पर, अपने ठिकानों का चुनाव करते हैं. चलते हुए, अपने जीवन सफर पर कभी मनुष्य भटकता है, कभी राहें भूल जाता है, कभी लुट जाता है, कभी उसे इस सफर में कारवाँ मिल जाता है तो उसका यह सफर आसानी से गुज़र जाता है और कभी वह नितांत अकेला और तन्हा ही अपना यह मार्ग पूरा करता है. अपनी राहे-ए-ज़िन्दगी की इन राहों में परेशानियां तो हर किसी के सामने आती हैं, मगर इन परेशानियों का कष्ट उस वक्त जरुर प्राणलेवा हो जाता है जब वह यह मार्ग अकेला काटने पर मजबूर हो जाता है. पंछी बसेरे से उड़ जाता है. साथी अकेला छोड़ जाता है. ख्वावों/कल्पनाओं की दुनियां में सपनों के महल बनाने से जीवन नहीं कटता है. यथार्थ बेहद क्रूर होता है. वास्तविकता को कलेजे में ना चाहते हुए भी उतारना ही पड़ता है. यहाँ पापी दुनिया के बिगड़े लोग रहा करते हैं. सत्य और कर्तव्य के मार्ग पर स्वाह होने वाले सत्यार्थियों के ज़माने लद चुके हैं. वह युग बीत चुका है जबकि, द्रोपदी के चीरहरण पर महाभारत हो गया था, आज स्त्रियों के कपड़े पहनने पर दंगे हो जाया करते हैं.

मोहिनी ने वास्तविकता को अपनाने में ही समझदारी की. यथार्थ के क्रूर थपेड़ों से उसने हताश होना और घबराना बंद कर दिया. किस्मत ने उसको पिछले जीवन में जो दिया था, उसको अपनी बिगड़ी हुई किस्मत का एक कड़वा विषय जानकर बंद कर दिया और अब जो विधाता ने उसे इस नये जीवन में दिया था, उसे भी अपने ही बदन का हिस्सा जानकर अपने दिल से लगा लिया. उसने अपने पिछली और नई कहानी बताना लोगों को बंद कर दिया. मोहित को वह अपने प्यार का वास्तविक फरेब समझकर भूलने लगी. अपने मां-बाप, भाई-बहन और तमाम रिश्ते-नातेदारों को मतलबपरस्त लोग मानते हुए, अपनी ज़िन्दगी की कहानी से अलग कर दिया. वह लोगों से सिर्फ मोहिनी बनकर मिलती. अपने अतीत का किसी भी तरह का कोई भी कड़वापन अब कभी भी, किसी से बांटा नहीं करती. उसने अपनी नौकरी और अपने काम में मन लगाया. तरक्की ली और एक दिन रोनित ने उसे, उसका काम देखकर उसे कम्पनी का जनरल मेनेजर बना दिया. उसे अच्छा घर दिया. आने-जाने को 'इनोवा' गाडी दी, ड्राईवर भी दिया; और फिर एक दिन वह मोहिनी से 'मेनेजर साहिबा' बन गई.

उसके दिन, इसी तरह से व्यतीत हो रहे थे.

वह समय मिलते ही, हर जगह घूमती-फिरती. आधुनिकता से भरे वस्त्र पहनती. होटलों में खाना खाती. फिर इस तरह से करते हुए, एक दिन ऐसा आया कि, वह अपने इस बदले हुए जीवन के साथ, जीने के लिए अभियस्त हो गई. अकेलेपन को ही वह अपना साथी बनाकर अब बहुत खुश थी.

एक दिन वह जब रविवार की शाम का खाना खाने के लिए, शहर के सबसे महंगे रेस्तरां में बैठी हुई थी. उसने खाने का ऑर्डर लेकर बैरा जा चुका था. रेस्तरां में इस शाम अत्यंत भीड़ थी. तभी एक युवक अचानक से उसकी मेज के सामने आकर बैठ गया तो मोहिनी के मुख से उसे देखते ही निकल गया,

'अरे ! मोहित तुम. . .फिर से?'

'मोहित नहीं, मोहन.'

'सॉरी...मैं भूल गई थी.'

'?'- मोहन उसे संशय से देखने लगा.

'घबराइये नहीं. यह रेस्तरां है, कोई श्मशान नहीं. और आज मैं केवल, मोहिनी ही हूँ. किसी भी तरह की बला आदि नहीं.' मोहिनी ने कहा तो, मोहन बोला,

'सिर्फ आज ही या फिर. . .?'

'मैं तो हमेशा से मोहिनी ही रही हूँ, पर आपने तो कभी माना ही नहीं?' मोहिनी की बात में शिकायत थी.

'?'- अब मैं क्या कह सकता हूँ? आप जो कहती हैं, वह तो मानना ही पडेगा.'

'यहाँ क्या करते हैं?'

'एक नौकरी के लिए अर्जी दी थी, मैंने. पिछले सप्ताह ही ज्वाइन की है.'

'खाना, खाने आये है?'

'हां, ऐसा ही समझ लीजिये.'

'अकेले ही हैं, अभी भी? मेरा मतलब आपकी 'राधा' आदि ?'

'जो थी, वह तो छोड़कर चली गई और दूसरी के लिए कुछ पता नहीं.'

'मतलब?'

'अभी तक, पहली के सदमे से खुदको उबार नहीं पाया हूँ.'

'ओह...?'

इसी बीच, बैरे ने मोहिनी के लिए उसका भोजन लाकर सजा दिया तो, मोहिनी खाने को देखकर बोली,

'आप चाहें तो मेरे साथ 'शेअर' कर सकते हैं. इतना सब मैं तो नहीं खा पाऊँगी.' मोहिनी बोली.

'एक कहानी सुनी थी- 'भूतों का खाना.' रात में खाया तो वह खाना था, मगर जब सुबह देखा तो उसी खाने में कीड़े बिलबिला रहे थे.'

'खाइए और बचाकर ले जाइए. सुबह आपको विश्वास हो जाएगा कि, आपने किसी बला के साथ भोजन किया था अथवा सचमुच एक सुंदर मोहिनी के साथ.'

'नहीं, मैं अब आपको और कष्ट नहीं दे सकूंगा.'

यह कहकर, मोहन ने प्लेट अपने सामने खिसका ली. बाद में दोनों ही खाने लगे. खाना खाते हुए ही, मध्य में मोहिनी ने मोहन से कहा कि,

'जहां आपको नौकरी मिली है, वहां पर आपको काम क्या करना होगा?'

'ऑफिस असिस्टेंट हूँ.'

'?'- मोहिनी कुछ देर को सोचने लगी. बाद में बोली कि,

'मैं जहां काम करती हूँ, उस फर्म में मैं, 'जनरल मेनेजर' हूँ. ऐसी नौकरी तो मैं भी दे सकती हूँ, आपको. एक महीने के हमारे यहाँ पैंतीस हजार सेलरी मिलती है.'

'मेरे ऊपर इतनी मेहरबानी क्यों?' मोहन ने पूछा तो मोहिनी बेधड़क बोली,

'आपकी शक्ल मेरे मोहित से मिलती है. ज़ाहिर है कि, मैं आपको पसंद करूंगी.'

'सिर्फ, पसंद ही करेगी और उससे आगे. . .?'

'उससे आगे आप पर निर्भर करेगा. मैं जबरन थाली घसीटकर मुंह मारने वालों में से नहीं हूँ.'

'और आपके मोहित का?'

'वह अब क्या आयेगा?' मोहिनी ने एक गहरी सांस ली और फिर आगे बोली,

'जिसने सब कुछ जानबूझकर भी मुझे ठुकरा दिया, मझे जेल में डलवा दिया था; उससे अब क्या उम्मीद की जा सकती है? भूल चुकी हूँ मैं उसको.'

फिर जब दोनों ने भोजन कर लिया तो मोहन ने कॉफ़ी का ऑर्डर दिया. दोनों ने और भी बातें की. मोहिनी ने उसे परिचय के लिए अपनी फर्म का कार्ड भी दिया. कॉफ़ी पीकर समाप्त कि और जब चलने लगे तो मोहिनी ने जाते समय जब अपनी कार खोली तो मोहन से कहा कि,

'एक अन्य 'इम्पोर्टेन्ट' बात है.'

'?'- एक संशय से मोहन उसका मुख देखने लगा.

'अगर, आपकी गर्दन पर किसी काले बड़े तिल का निशान है तो फिर 'प्लीज' मुझसे दोबारा मत मिलिएगा.'

इतना कहकर मोहिनी चली गई. तो मोहन अपने मन में ही कह गया कि,

'बड़ी अजीब हैं, आप?'

सोचता हुआ मोहन अपने निवास पर पहुंचा और उसने आइने में अपनी गर्दन के पीछे की तरफ देखा तो सचमुच वहां पर एक बड़ा-सा काला तिल था. यह वह निशान था कि, जिसके बारे में मोहिनी ने उसकी शिनाख्त की थी. वह सोचने लगा कि, उसकी यह चाल भी काम नहीं आ सकी. मोहिनी के दूर हो जाने और चली जाने के बाद भी मोहित को अभी तक यह विश्वास करना कठिन हो गया था कि, एक अनजान लड़की मोहिनी बनकर उसके बारे में हरेक बात कैसे जानती है. यूँ, मरकर अपना शरीर बदलकर, फिर से दोबारा जीवित होकर कौन आता है? मरने के बाद तो पुन: जीवित होने की बात तो केवल उसी के लिए किताबों और ग्रंथों में लिखी है, जो सूली चढ़ा था, मगर उसने तो कभी अपनी शक्ल और चेहरा नहीं बदला था? इसीलिये वह मोहन बनकर उसके बारे में वास्तविकता का पता लगाने के कारण, सीवन नदी के किनारे मरघट में किसी चिता के पास बैठ गया था. वह जानता था कि, मोहिनी अक्सर ही यहाँ घूमने आया करती है. मगर, मोहिनी उसे बखूबी पहचान गई थी. वह समझ चुका था कि, चाहे इस संसार के सारे लोग धोखा खा जाएँ लेकिन सच्चे हृदय के स्पंदनों से निकलने वाली प्यार की रश्मियाँ कभी भी धोखा नहीं खाया करती हैं. वह अपने प्यार को आँखें बंद होने पर भी पहचान लिया करती हैं. सोचते हुए मोहन बनाम मोहित का सिर मारे लज्जा के, अपनी की हुई चाल के कारण नीचे झुक गया।

- क्रमश:

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