भगवान् का ऐश्वर्य
परम पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण प्रत्येक जीव को अपने अचिन्तनीय सौन्दर्य और माधुर्य से आकर्षित करते हैं। वे आत्मा के अनुभव को प्राप्त किये हुए विभिन्न प्रकार के उत्तम श्रेणी के भक्तों द्वारा पूजित होते हैं। ये भक्त भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा के स्तर, उनके प्रति अन्तरङ्गता (अर्थात् विश्रम्भ भाव) और उनकी भगवत्ता के ज्ञान के तारतम्य से विभिन्न प्रकार के होते हैं।
पारमार्थिक उन्नति की प्रथम अवस्था का भक्त वह है, जिसके लिए श्रीभगवान् के ऐश्वर्य का ज्ञान सर्वदा प्रधान या मुख्य रहता है। श्रीभगवान् का ऐसा भक्त परम सत्य के दिव्य ज्ञान को सम्पूर्ण रूप से जानता है—कृष्ण कौन हैं, आत्मा का स्वरूप क्या है, माया क्या है, दिव्य प्रेम क्या है, भगवान् कृष्ण के प्रति भक्ति के विभिन्न स्तर क्या हैं तथा श्री कृष्ण एवं भक्तों के प्रेमपूर्ण आदान-प्रदान में कैसा अमृत और आनन्द प्राप्त होता है?
ऐश्वर्यभाव से परम पुरुषोत्तम श्रीभगवान् की उपासना करने वाले भक्तों की श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं– भक्तराज प्रह्लाद। भक्तराज अर्थात् कृष्ण के प्रति प्रेम से सम्पन्न महान भक्तों के भी राजा। भक्तराज प्रह्लाद किस प्रकार भगवान् के अद्भुत और अतुलनीय भक्त हैं, इसे हम उनके हृदय में विद्यमान भगवान् के प्रति निस्वार्थ एवं अहैतुकी भक्ति की चर्चा करके समझने का प्रयास करेंगे। यदि हमें भगवान् का भक्त बनना है, तो हमें भक्त प्रह्लाद के दैन्य, निष्कपटता और सहिष्णुता के आदर्श को अपने जीवन में लाना होगा। इसके लिए सर्वप्रथम इन्द्रिय तृप्ति की लालसा को परित्याग कर ऐकान्तिक भक्ति की इच्छा को वर्द्धित करना होगा।
हमारी भक्ति शुष्क ज्ञान, इन्द्रिय-तृप्ति, हठयोग आदि तपस्याओं तथा त्याग, जागतिक पुण्य एवं सङ्कल्प आदि अन्यान्य अनावश्यक बाह्य प्रयासों (क्रियाओं) से आच्छादित नहीं होनी चाहिये। हमारी भक्ति निरन्तर तन, मन और वचन से स्वतः ही कृष्ण सेवा की वृत्ति से ओत-प्रोत होनी चाहिये। यदि हम अपनी समस्त इन्द्रियों और हृदय के भावों को कृष्ण सेवा में नियुक्त करेंगे, तभी हमारी चेष्टाएँ भक्ति कहलायेंगी।
प्रह्लाद के आसुरिक पिता
भक्तराज प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यपु वेदों के परम विद्वान थे, उन्हें समस्त वेद कण्ठस्थ थे। परन्तु भगवान् श्रीकृष्ण से विमुख होने के कारण उनका स्वभाव आसुरिक था। इस जगत् में जो भी व्यक्ति भगवान् के प्रति शत्रुता का भाव रखता है तथा जो सोचता है कि धन-ऐश्वर्य से ही जीवन में सुखी हुआ जा सकता है, वह निश्चित ही आसुरिक प्रवृत्ति का है। प्राचीन काल में पृथ्वी पर रावण और हिरण्यकश्यपु जैसे दो-तीन ही असुर थे, परन्तु आजकल प्रत्येक देश में— सर्वत्र ही रावण जैसे असुर हैं। बिना किसी कारण के वे इस जगत्का विनाश करना चाहते हैं।
यदि कोई स्त्री शुद्ध भक्ति करना चाहती है तथा मछली, अण्डे, मीट इत्यादि का परित्याग करती है, तो उसका पति उसके विरुद्ध हो जाता है और उसकी भक्ति में बाधाएँ उत्पन्न करता है। यदि पति भक्त बन जाता है, तो पत्नी विरुद्ध हो जाती है। यदि दोनों ही भक्ति करते हैं, तो उनके पुत्र विरोधी बन जाते हैं और यदि कोई पुत्र भक्ति का पालन करता है, तो माता-पिता विरोधी बन जाते हैं। इस प्रकार वर्त्तमान काल में हम प्रतिदिन ही ऐसा देखते हैं। कि यह सम्पूर्ण जगत् ही रावण और हिरण्यकश्यपु जैसे असुर स्वभाव वाले लोगों से परिपूर्ण है।
हमें रावण और हिरण्यकश्यपु जैसे लोगों से सावधान रहना चाहिये। भगवान् श्रीकृष्ण के किसी शुद्ध भक्त के आनुगत्य में भगवान् के पवित्र नाम का कीर्त्तन करके असुर लोगों के प्रभाव से हम अपनी रक्षा कर सकते हैं।
ब्रह्माजी द्वारा हिरण्यकश्यपु को वर प्रदान
जब हिरण्यकश्यपु की तपस्या से प्रसन्न होकर इस जगत् के सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने उसे वरदान माँगने के लिए कहा था, तब हिरण्यकश्यपु ने चतुरता पूर्वक उनसे निवेदन किया था– “मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरी मृत्यु न तो आकाश में हो, न धरती पर, न नरक में, न स्वर्ग में। मैं किसी अस्त्र अथवा शस्त्र से ना मारा जा सकुँ, आपके द्वारा सृष्ट किसी भी प्राणी से मेरी मृत्यु न हो। आप मुझे यह भी वरदान दीजिये कि मेरी मृत्यु न तो दिन में, न रात में, न वर्ष के किसी महीने में, न भीतर और न बाहर हो।” इस प्रकार ब्रह्माजी से उसे ऐसा वरदान प्राप्त हुआ, जिससे प्रतीत होता था कि वह अमर हो गया है।
हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद में आकाश और पाताल का भेद
यद्यपि हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद में पिता और पुत्र का सम्बन्ध था, तथापि उन दोनों के विचारो में बहुत अन्तर था। हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र पर क्रोधित होता था, परन्तु भक्त प्रह्लाद सदैव दैन्ययुक्त और सहिष्णु रहते थे। हिरण्यकश्यपु असुर था, परन्तु उसका पुत्र प्रह्लाद एक भक्त होने के कारण देव-स्वभाव से युक्त थे। यद्यपि एक असुर के पुत्र के लिए उच्च श्रेणी का भगवद्भक्त होना अति अस्वाभाविक बात है, तथापि भगवान् ने किसी विशेष कार्य-सिद्धि के उद्देश्य से अपने भक्त प्रह्लाद को हिरण्यकश्यपु के पुत्र के रूप में आविर्भूत कराया। यद्यपि हिरण्यकश्यपु के चार विलक्षण तथा अत्यधिक प्रभावशाली पुत्रों में से भक्त प्रह्लाद सबसे छोटे थे, परन्तु गुणों में वे सबसे बड़े थे।
मेरे पुत्र को मेरे जैसा बनने की शिक्षा दो
दैत्यों ने शुक्राचार्य को अपने पुरोहित के रूप में वरण किया था। उस समय षण्ड और अमर्क नामक शुक्राचार्य के दो पुत्र दैत्यराज हिरण्यकशिपु के राजमहल के निकट वास करते थे। अपने सबसे छोटे पुत्र प्रह्लाद को अपने अन्यान्य पुत्रों से अधिक स्नेह करने वाले हिरण्यकश्यपु ने उन्हें षण्ड और अमर्क की पाठशालामें भेजा। षण्ड का अर्थ है 'बैल' और अमर्क का अर्थ है ‘आलोकरहित’ अर्थात् ‘अन्धकारमय’। बैल की भाँति सदैव हृष्ट-पुष्ट होने के लिए आहार हेतु इधर-उधर भ्रमण करने वाले, जागतिक विषय-सम्पत्ति के कारण अहङ्कार करने वाले, दूसरों को भय प्रदान करने वाले, कामुक तथा आत्मविद्या के ज्ञान से रहित एवं परम पुरुषोत्तम भगवान् के सम्बन्धमें मूल तत्त्वों को नहीं जानने वाले व्यक्ति षण्ड और अमर्क जैसे हैं।
हिरण्यकश्यपु ने षण्ड और अमर्क को आज्ञा दी– "मेरे पुत्र को सांसारिक धर्म के कर्त्तव्य, भौतिक एवं आर्थिक समृद्धि इन्द्रियतृप्ति एवं मुक्ति के विषय में शिक्षा प्रदान करो। शत्रुओं को किस प्रकार से पराजित किया जा सकता है, राज्यों को कैसे जीता जा सकता है और सत्य को व्यवहार कुशलता और कूटनीति के द्वारा कैसे छिपाया जा सकता है। इन सब विषयों में इसे निपुण कर दो।” इस प्रकार शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड और अमर्क ने नन्हें युवराज प्रह्लाद को पढ़ाना आरम्भ किया।
एक बार भक्त प्रह्लाद पाठशाला से घर पर लौटे, तब उनकी माता कयाधु ने उन्हें सुन्दर वस्त्र-अलङ्कारों से विभूषित किया और उन्हें उनके पिता हिरण्यकश्यपु के पास लेकर आयी। जब हिरण्यकश्यपु ने अपने सुन्दर, सुशील पुत्र को देखा तो उसने प्रसन्न होकर बालक को चुम्बन किया और उसे अपनी गोदमें बिठाकर पूछा– “मेरे प्रिय पुत्र! तुम बहुत बुद्धिमान हो, मैं तुमसे अति प्रसन्न हूँ। तुमने पाठशालामें क्या शिक्षा ग्रहण की है? तुम जिसे सबसे श्रेष्ठ मानते हो, उसे मुझे बतलाओ।”
प्रह्लाद महाराज ने अति विनम्रता से उत्तर दिया,
तत् साधु मन्येऽसुरवयं देहिनां
सदा समुद्विग्नधियामसद्ग्रहात।
हित्वात्मपातं गृहमन्धकूपं वनं गतो यद्धरिमाश्रयेत॥
(श्रीमद्भा. ७/५/५)
“हे असुरवर्य (असुरोंमें श्रेष्ठ) संसार के प्राणी ‘मैं और मेरे’ के झूठे अभिमान में पड़कर सर्वदा ही अत्यन्त उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिए मैं यही ठीक समझता हूँ कि वे अधःपतन के मूल कारण घास से ढके हुए अन्धकूप के समान इस घर को त्यागकर वन में चले जायें तथा भगवान् श्रीहरि की शरण ग्रहण करें।” अर्थात् श्रीकृष्ण की कथा के श्रवण, कीर्त्तन और स्मरण के माध्यम से श्रीहरि के चरणों का आश्रय ग्रहण नहीं करने से वन में गमन करने पर भी वह व्यक्ति अन्धकूप सदृश गृह का आश्रित ही है– ऐसा समझना चाहिये।
प्राचीन, टूटे-फूटे, जलरहित, घास-फूस से ढके हुए कुँए को अन्धकूप कहते हैं ऐसे कुँए में जहरीले सर्प आदि रहते हैं। वास्तव में देहात्म बुद्धि पर आधारित जीवन ही ‘गृह अन्धकूपम्’ है। अर्थात् यहाँ पर कृष्ण भक्ति से रहित सांसारिक जीवन की तुलना अन्धकारमय कुए (अन्धकूप) से की गयी है। यदि कोई व्यक्ति किसी जङ्गल से जा रहा हो और मार्ग में पुराना सूखा कुँआ हो, जो कि घास-फूस से ढका होने के कारण न दिखायी दे रहा हो, तो वह व्यक्ति उस कुँएमें गिर सकता है। ऐसे कुए में गिर जानेपर बाहर निकल पाना सहज नहीं होता और उसमें रहने वाले सर्प आदि प्राणी उसे काटते रहते हैं, जिससे तड़पते तड़पते वह मर जाता है। अपने बचाव के लिए चिल्लाने पर भी कोई उसकी आवाज को सुनता नहीं है। उसी प्रकार कृष्ण भक्ति रहित सांसारिक जीवन—जिसमें व्यक्ति अपनी पत्नी, बच्चे, परिवार आदि में ही अत्यधिक रमा रहता है—एक गहरे अन्धकारमय कुँए के समान है। इस कुँए में गिरने पर बहुत कष्ट उठाने पड़ते हैं और बाहर निकल पाना अत्यधिक कठिन हो जाता है। यह बहुत भयानक परिस्थिति होती है। ‘गृह’ का अर्थ ‘देह’ और ‘देहात्म-बुद्धि’ भी है। जो व्यक्ति स्वयं (आत्मा) को देह मानता है, तो यह जानना चाहिये कि वह एक गहरे अन्धकारमय कुँए में पतित हुआ है जहाँ कोई भी सुख नहीं है, अपितु केवल दुख ही दुख हैं। अतएव भक्त प्रह्लाद कह रहे हैं— “आत्मा की उन्नति के मार्गमें अर्थात् जीवात्मा किस प्रकार वास्तविक कल्याण या मङ्गल की ओर अग्रसर होगी?—इस विषय में देह और देहात्मबुद्धि बाधक बनकर वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त करने से रोकते हैं। अतः आत्म-साक्षात्कारमें बाधक इस देहात्म बुद्धि का परित्याग कर देना चाहिये तथा तत्क्षणात् वन की ओर गमन करना चाहिये। किस वन की ओर? श्रीहरि के चरणों का आश्रय प्राप्त करने के उद्देश्य से वृन्दावन की ओर गमन करना चाहिये तथा वहाँ जाकर सांसारिक सङ्ग परित्याग करके साधु-वैष्णवों का सङ्ग करना चाहिये।”
हिरण्यकश्यपु की निराशा
हिरण्यकशिपु ने भगवान् श्रीहरि के प्रति अपने पुत्र की भक्ति और भावना को देखकर हँसते हुए कहा— “बालकों की ऐसी बुद्धि अन्यों के द्वारा ही भ्रष्ट होती है। बालकों को जो कुछ सिखाया जाता है, वे उसी को ग्रहण करते हैं, इसमें उनका क्या दोष?”
तब हिरण्यकश्यपु ने दोनों शिक्षकों को आज्ञा दी— “प्रह्लाद को पुनः पाठशाला ले जाओ और इसे राजनीति और कूटनीति की शिक्षा दो कि किस प्रकार प्रजा को अपने नियन्त्रण में रखा जाये, दूसरों को कैसे अधीन बनाया जाये और मेरे जैसा शक्तिशाली कैसे बना जाये। इसके अतिरिक्त सतर्कता पूर्वक बालक प्रह्लाद की रक्षा करो। देखना कहीं कोई विष्णु का भक्त पाठशाला में प्रवेश कर इसकी बुद्धि भ्रष्ट न करे।”
इस बार पाठशाला में जाने पर प्रह्लाद के अध्यापक बहुत सावधान थे। उन्होंने प्रह्लाद को बुलाकर प्रेमपूर्ण कोमल वचनों से उनकी प्रशंसा करते हुए विनम्रतापूर्वक उनसे पूछा— “हे वत्स प्रह्लाद, सच-सच बतलाओ, जो बातें तुमने अपने पिता के सामने बोलीं, तुम्हें वे सब बातें किसने सिखलायी हैं?”
भक्त प्रह्लाद ने उत्तर दिया— “जिनकी प्राप्ति के मार्गस्वरूप भक्तियोग के विषय में वेदों के तात्पर्य को जानने वाले विचक्षण व्यक्ति भी मोहित हो जाते हैं, उन्हीं सेवनीय भगवान्ने मुझे ऐसी बुद्धि प्रदान की है। हे ब्रह्मन ! लोहे के निकट आने पर जिस प्रकार चुम्बक अपनी शक्ति से उसे आकर्षित करके अपने से संयुक्त कर लेता है, उसी प्रकार चक्रपाणि भगवान् विष्णु कृपावशतः अपने भक्त के चित्त को अपनी ओर आकर्षित करते हैं—इस विषयमें मेरी अपनी कोई स्वतन्त्रता नहीं है।”
प्रह्लाद की बातें सुनकर षण्ड और अमर्क बहुत क्रोधित हुए तथा वे दुःखी मन से प्रह्लाद को डाँटने लगे। दैत्यकुल का यह कुलाङ्गार दुर्बुद्धि प्रह्लाद हमारे अपयश का कारण है, इसकी तो छड़ी के द्वारा पिटायी करनी चाहिये। इस प्रह्लाद ने दैत्यवंश रूपी चन्दन के वन में काँटे के वृक्ष के रूपमें जन्म ग्रहण किया है।
इस प्रकार षण्ड और अमर्क ने प्रह्लाद को डॉट लगाकर उसे भय दिखलाया तथा पुनः उसे धर्म, अर्थ और काम की शिक्षा देने लगे। कुछ मास के पश्चात् षण्ड और अमर्क प्रह्लाद को अपने साथ लेकर पुनः हिरण्यकश्यपु के निकट पहुँचे। प्रह्लाद ने अपने पिता को उनके पैरों में झुककर प्रणाम किया। हिरण्यकश्यपु अपने पैरों में झुके पुत्र को देखकर अति प्रसन्न हो गया और उसने प्रह्लाद को आलिङ्गन करके परमानन्द का अनुभव किया तथा उसे अपनी गोदमें लेकर उसके सिर को चूमकर पुनः प्रश्न किया, “हे प्रह्लाद, हे आयुष्मान् ! तुमने अपनी पाठशाला में जो शिक्षा ग्रहण की है, उसमें से कुछ मुझे बतलाओ ?”
बालक प्रह्लाद की प्रखर भक्ति
बालक प्रह्लाद ने उत्तर दिया–
श्रवणं कीर्त्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
इति पुंसार्पिता विष्णौ भक्तिश्चेत्रवलक्षणा।
क्रियेत भगवत्यद्धा तन्मन्ये ऽधीतमुत्तमम् ।।
(श्रीमद्भा ७/५/१३-१४)
“भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला, परिकर और धामादि के सम्बन्धमें श्रवण, कीर्त्तन तथा स्मरण करना, उनके चरणकमलों की सेवा करना अनेक श्रेष्ठ द्रव्यों से उनका पूजन करना, उनकी स्तुति करना, उनका दास बनना, उन्हें अपना सर्वश्रेष्ठ मित्र समझना और उनके प्रति पूर्ण समर्पण— ये नौ भक्ति के अङ्ग हैं जो प्रथमतः स्वयं को विष्णु के प्रति समर्पण करने के उपरान्त इस नवविधा भक्ति का साक्षात् अनुष्ठान करता है, मेरे मतानुसार उसने ही उत्तम अध्ययन अथवा शिक्षा प्राप्त की है।”
भक्त प्रह्लाद द्वारा वर्णित नवधा भक्ति का भलीभाँति पालन करने के लिए हमें सर्वप्रथम स्वयं को एवं अपनी इन्द्रियों को श्रीगुरुदेव के चरणोंमें अर्पित करना होगा। श्री गुरुदेव भी भगवान् हैं। कैसे? वे आश्रय-भगवान् हैं और श्रीकृष्ण विषय-भगवान् हैं, गुरुदेव सेवक भगवान् हैं और श्रीकृष्ण सेव्य भगवान् हैं।
अतः सर्वप्रथम हमें श्रीगुरुदेव के चरणकमलों में पूर्ण रूप से आत्म समर्पण करना होगा, अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित करना होगा, तत्पश्चात् जब हम उनसे श्रवण करेंगे, उनकी सुनी हुई वाणी का कीर्त्तन करेंगे, तभी हमें भक्ति प्राप्त होगी। श्रीगुरु का पदाश्रय ग्रहण किये बिना एवं उनके चरणों में आत्म-समर्पण किये बिना यदि श्रवण, कीर्त्तन, स्मरण अथवा अन्य कुछ सेवा कार्य इत्यादि किये भी जायें, यहाँ तक कि तीन लाख नाम जप भी किया जाये, तो भी उसका कोई मूल्य नहीं होगा। ऐसी क्रिया से केवल सांसारिक सुख ही प्राप्त होंगे अथवा स्वर्ग की प्राप्ति मात्र ही होगी।
किन्तु यदि हम अपना सर्वस्व श्रीगुरुदेव के चरणकमलोंमें समर्पण करके निष्किञ्चन हो जायेंगे, अर्थात् जब हमारा यह विचार होगा कि मेरा कुछ भी नहीं है, सभी कुछ मेरे गुरुदेव और उनके आराध्य श्रीकृष्ण का है तभी उस व्यक्ति के द्वारा किया जाने वाला श्रवण कीर्त्तन इत्यादि भक्ति कहलायेगा।
बालक प्रह्लाद के मुख से ‘श्रवणं कीर्त्तनं’ इत्यादि वचन सुनकर हिरण्यकशिपु के होंठ क्रोध से काँपने लगे तथा हिरण्यकशिपु शुक्राचार्य के पुत्र षण्ड को कहने लगा– “अरे ब्राह्मणाधम! दुर्मति! मेरी अवज्ञा करके मेरे शत्रुओं का पक्ष लेकर तूने बालक प्रह्लाद को असार विष्णु भक्ति की शिक्षा क्यों दी?”
गुरुपुत्र ने कहा–
न मत्प्रणीतं न पर प्रणीतं
सुतो वदत्येण तवेन्द्रशत्रो।
नैसर्गिकीय मतिरस्य राजन्
नियच्छ मन्यु कददाः स्म मा नः॥
(श्रीमद्भा ७/५/२८)
“हे इन्द्र के शत्रु आपके पुत्र प्रह्लाद ने जो कुछ कहा है, उसकी उसने न तो मुझसे, न ही अन्य किसी व्यक्ति से शिक्षा प्राप्त की है। आप जो प्रह्लादमें विष्णु भक्ति देख रहे हैं, यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति है, अतएव मेरे प्रति क्रोध और दोषारोपण मत कीजिये।”
गुरुपुत्र षण्ड के ऐसे वचन सुनकर हिरण्यकशिपु ने पुनः प्रहाद से पूछा– “अरे अभद्र अरे कुलनाशक यदि गुरु ने तुझे यह उपदेश नहीं दिया तो फिर तुझमें ऐसी दुर्बुद्धि कहाँ से आयी?”
बालक प्रह्लाद ने उत्तर दिया–
मतिर्न कृष्णे परतः स्वतो वा
मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम् ।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं
पुनः पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥
(श्रीमद्भा- ७/५/३०)
अर्थात्– “संसार के लोग चबाये हुए को ही चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियाँ वशमें न होने के कारण वे भोगे हुए विषयों को ही पुनः पुनः भोग करने के लिए संसार रूप घोर नरक की ओर गमन कर रहे हैं। उनकी बुद्धि कभी भी अन्यों अर्थात् नामधारी गुरु के उपदेश से अथवा अपनी चेष्टा से अथवा दोनों के संयोग से किसी भी प्रकारसे कृष्ण की ओर धावित नहीं हो सकती।”
बालक प्रह्लाद के कहने का तात्पर्य यह है कि जिन व्यक्तियों की बुद्धि कृष्ण में स्थित न होकर इस भौतिक जगत् को भोगने में प्रवृत्त होती है, वे लोग जीवन के वास्तविक उद्देश्य को एवं अपने वास्तविक स्वार्थ को नहीं समझ सकते। यह मनुष्य जीवन भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना के लिए मिला है, परन्तु भौतिकवादी लोग इस तथ्य को नहीं समझ पाते हैं, क्योंकि उनकी इन्द्रियाँ नियन्त्रित नहीं हैं। वे प्रतिक्षण पूर्ण रूप से इन्द्रिय तृप्ति में ही निमग्न रहते हैं और अपने जीवन के मुख्य उद्देश्य से हटकर निरन्तर चबाये हुए को ही पुनः पुनः चबाते रहते हैं। इस भौतिक जीवनशैली में चबाये हुए को पुनः चबाकर ही सुख प्राप्त करने की चेष्टा रहती है, किन्तु इससे यथार्थ सुख प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार के जीवन का कोई भी लाभ नहीं है, किन्तु अनियन्त्रित इन्द्रियों वाले लोग इस प्रकार के जीवन से मोहित हो जाते हैं। इसलिए वे अज्ञानता के घनघोर राज्य में प्रवेश करते हैं और असीम दुःख और विपत्तियों से परिपूर्ण नरकमय स्थिति की और अग्रसर होते हैं।
न ते विदुः स्वार्थगतिं हि विष्णुं
दुराशया ये बहिर्थमानिनः।
अन्धा यथान्धैरूपनीयमानास्तेऽपीशतन्त्रयामुरूदाम्नि बद्धाः॥ (श्रीमद्भा. ७/५/३१)
अर्थात् “जो मनुष्य भौतिक जीवन का आनन्द प्राप्त करने के लिए चेष्टा कर रहे हैं या जो पूर्ण रूपसे पारिवारिक जीवन की गतिविधियोंमें निमग्न हैं, वे इस बात से अनजान रहते हैं कि जीवन का मुख्य उद्देश्य भगवान् विष्णु की आराधना करके एवं उनके दिव्य धाममें जाना है। इसके स्थान पर ऐसे लोग अपना ध्यान अपने शरीर, बच्चों, पत्नी, घर, सम्बन्धी, नौकरी इत्यादि से सुख प्राप्त करने की आशा पर केन्द्रित करते हैं। इसका कारण है कि उनकी यह निश्चित धारणा होती है कि ये सब वस्तुएँ उन्हें सुख प्रदान करेंगी। परन्तु वास्तविकता यह है कि पारिवारिक और भौतिक समृद्धि का जीवन के मुख्य उद्देश्य से कोई सम्बन्ध नहीं है। जीवन के वास्वविक उद्देश्य के प्रति अन्धे होने के कारण वे किसी अन्य अन्धे व्यक्ति को अपने गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, जो कि स्वयं इन्द्रिय तृप्ति में आसक्त होता है।
जिस प्रकार एक अन्धा व्यक्ति दूसरे अन्धे व्यक्ति का अनुगमन करते हुए पथभ्रष्ट होकर गढ्ढे में गिर पड़ता है, उसी प्रकार संसार में आसक्त व्यक्ति जगत् में आसक्त अन्य व्यक्तियों के द्वारा परिचालित होकर कर्मफल की दृढ़ बेड़ियो में बन्धकर पुनः पुनः भौतिक जीवन के त्रिताप को भोगते रहते हैं।
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङिघ्र
स्पृशत्यन्र्थापगमो यदर्थः। महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किञ्चनानां न वृणीन् यावत्॥ (श्रीमद्भा. ७/५/३२)
“जब तक भौतिक जीवन के प्रति अत्यधिक आसक्त व्यक्ति भौतिक कल्मष से पूर्ण रूप से मुक्त वैष्णवों की चरणधूलि से अपने शरीर-मन-चित्त को स्नान नहीं कराते, तब तक उनकी मति भगवान् उरुक्रम के (वे भगवान् जिनका असाधारण कार्यों के लिए गुणगान किया जाता है) चरणकमलों के प्रति अनुरक्त नहीं हो सकती। केवलमात्र निष्किञ्चन वैष्णवों के चरणकमलों के आश्रय में कृष्णभक्ति के अनुशीलन से ही कोई व्यक्ति भौतिक कल्मष से मुक्त हो सकता है।”
निष्किञ्चन वैष्णव कौन हैं? समस्त शास्त्रों के तात्पर्यो में पारङ्गत (निपुण), भगवान् के अनुभव को प्राप्त एवं कृष्णभक्ति रस का आस्वादन करने के कारण संसार से पूर्णतः अनासक्त व्यक्ति ही निष्किञ्चन वैष्णव हैं। वे इस जगत् में रहकर भी जागतिक कामनाओं से शून्य विशेषतः कनक, कामिनी और प्रतिष्ठा की कामनाओं से सम्पूर्ण रूप से रहित होते हैं। अपने परम कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अवश्य ही ऐसे वैष्णवों के चरणों की धूलि से अपने मनको स्नान कराकर पवित्र करना होगा, अर्थात् ऐसे वैष्णवों के उपदेशों का श्रवण और पालन करना होगा। इसके फलस्वरूप उसकी बुद्धि भगवान् के चरणकमलों में स्थित हो जायेगी और उसके हृदय की समस्त अवाञ्छित कामनाएँ दूर हो जायेंगी। अतःहृदय की समस्त अवाञ्छित कामनाएँ दूर हो जायेंगी। अतः व्यक्ति को एक ऐसे शुद्ध प्रामाणिक गुरु की शरण लेनी होगी, जिनका एकमात्र परम धन श्रीकृष्ण की एकान्तिक भक्ति ही है। तभी भौतिक चेतना के दूषित प्रभाव से मुक्त हुआ जा सकता है।
हिरण्यकशिपु का क्रोध
बालक प्रह्लाद के यह वचन सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध से आग बबूला हो गया। उसने बालक प्रह्लाद को अपनी गोद से भूमि पर फेंक दिया और चिल्लाकर बोला– “क्या तू यह कहना चाहता है कि मैं अन्धा और मूर्ख हूँ और मेरे गुरु शुक्राचार्य और उनके पुत्र षण्ड और अमर्क पाखण्डी हैं? क्या तू यह कहना चाहता है कि उनमें बुद्धि नहीं है और तू उनसे अधिक जानता है? क्या तू जानता है कि मेरे गुरु कितने महान हैं? वे इतने विद्वान और शक्तिशाली हैं कि मृत शरीर पर केवल कुछ बूंद जल डालने से ही वे उसे पुनः जीवित कर सकते हैं। क्या तू सोचता है कि मैं, मेरे गुरु तथा षण्ड और अमर्क इतने दिशाहीन हैं कि तू हमें आध्यात्मिक शिक्षा का पाठ पढ़ायेगा? मैं तेरा और तेरी भगवान् से सम्बन्धित मूर्खता पूर्ण बातों का अन्त कर दूंगा।”
प्रह्लाद का वध करने के विफल प्रयास
हिरण्यकशिपु ने अपने सेनापति को आज्ञा दी– “इस बालक को शीघ्र यहाँ से हटाओ और तत्काल इसका वध कर दो।” हिरण्यकशिपु ने अपनी सारी सेना को ही राजकुमार प्रह्लाद का वध करने के लिए नियुक्त कर दिया। परन्तु अतिशय तीक्ष्ण और भयङ्कर दाँत एवं मुख वाले तथा ताँबे के रङ्ग जैसी दाड़ी और केशों से युक्त भीषण आकृति वाले वे सभी राक्षस प्रह्लाद के समक्ष शक्तिहीन और निस्तेज हो गये।
हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को मारने के लिए पुनः पुनः प्रयास करते हुए सैनिकों को एक के बाद एक अनेक प्रकार की आज्ञाएँ दी– “पागल हाथियों को लाओ और इस पर आक्रमण करवाओ”, “इसे विषधर सापों के बिल में डाल दो, जो इसे डंसकर मार देंगे”, “इसे बलपूर्वक कालकूट विष पान करवाओ”, “इसे खूँखार एवं भूखे शेरों के पिञ्जरे में फेंक दो”, “इसे चट्टान से बांधकर पहाड़ की चोटी से समुद्र में फेंक दो”, “इसे खौलते हुए तेल की कढ़ाईमें डाल दो”, “इसके ऊपर चट्टानें फेंककर इसे पीस दो।” परन्तु प्रह्लाद के वध की प्रत्येक चेष्टा को विफल करके भगवान्ने प्रह्लाद की रक्षा की। सैनिकों की तलवारें उन्हें काट न सकी। प्रह्लाद के शरीर का स्पर्श करते ही हाथियों में विद्युत सञ्चारित हो गयी और वे भय से भागने लगे तथा उस समय मार्ग में आने वाले सैनिकों और असुरों को कुचल डाला। शेर प्रह्लाद के प्रति मित्रता पूर्ण व्यवहार कर उन्हें चाटने लगे और जब प्रह्लाद पहाड़ की चोटी से समुद्र में गिर रहे थे, तब भगवान् विष्णु ने स्वयं आकर उन्हें पकड़ लिया और सुरक्षित रूप से तट पर बिठा दिया।
अपने समस्त प्रयासों को विफल होते देखकर हिरण्यकशिपु ने एक और प्रयास किया। होलिका नामक उसकी एक सुन्दर और शक्तिशाली बहन थी। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि प्रचण्ड आग में प्रवेश करने पर भी वह कभी नहीं जलेगी।
हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका को तुरन्त बुलवाया और उससे निवेदन किया, “हे मेरी प्रिय बहन, मैं तुम्हारी मदद चाहता हूँ। मैंने प्रह्लाद का वध करने के अनेक प्रयास किये हैं, किन्तु उसका वध असम्भव दीखता है। अब मैं इस कार्य के लिए तुमपर निर्भर हूँ। मैं जानता हूँ कि यह कार्य तुम्हारे लिए अति सहज होगा। तुम प्रह्लाद को अपनी गोदमें लेकर आगमें प्रवेश करना। इससे प्रह्लाद का अवश्य ही नाश हो जायेगा और तुम्हें भी कोई हानि नहीं होगी। इसके लिए मैं तुम्हें प्रचुर धन सम्पत्ति प्रदान करूँगा।” प्रह्लाद की बुआ धन-सम्पति के लोभ और प्रह्लाद के प्रति वास्तविक स्नेह के अभाववशतः इस कार्य को करने के लिए सहमत हो गयी।
एक प्रचण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित की गयी, जिसकी शिखाएँ मानो आकाश को स्पर्श कर रही थीं। होलिका ने अपने को सुसज्जित किया और प्रसन्नतापूर्वक युवराज प्रह्लाद को अपने हाथ में उठाकर आग में प्रवेश किया परन्तु एक बहुत ही आश्चर्यजनक घटना घटी। भक्त प्रह्लाद को अग्नि स्पर्श भी नहीं कर पायी, जब कि हिरण्यकशिपु की बहन तुरन्त जलकर राख हो गयी। प्रह्लाद के लिए अग्नि मानो बर्फ के समान शीतल बन गयी और वे भगवान् के नामों का कीर्त्तन करते हुए अग्नि से सुरक्षित निकल आये। हिरण्यकशिपु और उसकी सारी सेना प्रह्लाद का बाल भी बाँका न कर पायी, क्योंकि श्रीकृष्ण सदैव प्रह्लाद की रक्षा कर थे।
श्रीकृष्ण ने यह प्रतिज्ञा की है, “जो मेरी शरणमें आते हैं, मैं उनकी सदा ही रक्षा करता हूँ। भले ही सम्पूर्ण जगत् भी मेरे शरणागत भक्त के विरुद्ध क्यों न हो जाये, किन्तु कोई उसका बाल भी बाँका नहीं कर सकता।” यदि कोई पुरुषोत्तम भगवान् की या उनके किसी प्रामाणिक प्रतिनिधिस्वरूप शुद्ध गुरु जैसे श्रीनारद, श्रीव्यास, श्रीशुकदेव गोस्वामी, श्रीरूप गोस्वामी या श्रीसनातन गोस्वामी आदि की शरण लेता है, तो यदि जगत् के समस्त लोग ही उसके विरुद्ध क्यों न हो जायें, उसका कोई कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। श्रीकृष्ण अपने शरणागत भक्तों की रक्षा करने के लिए बाध्य हैं। इसलिए यद्यपि हिरण्यकशिपु अचिन्त्य शक्तिशाली था और अपने पुत्र को मारनेका प्रयास कर रहा था, परन्तु उसके समस्त प्रयास विफल हो गये।
महान असुर हिरण्यकशिपु की चिन्ता
भक्त प्रह्लाद को मारनेमें अपने समस्त प्रयासों को विफल हुआ देखकर हिरण्यकशिपु चिन्तित हो उठा– “मैंने इसे मारने के सभी प्रयास किये, परन्तु मेरे समस्त प्रयास विफल हो गये। कदाचित् इस बालक के पास कुछ रहस्यमयी शक्तियाँ हैं, जिससे यह मुझे ही मार देगा।” प्राचीन कालमें ब्रह्मा से वरदान प्राप्त करने के उपरान्त हिरण्यकशिपु यह सोचने लगा था कि वह अमर हो गया है, परन्तु अब वह भयभीत हो गया। वह असुर जिसने बहुत बड़ी शक्ति एकत्रित करके त्रिलोक पर नियन्त्रण प्राप्त कर लिया था, अब दुविधा में पड़ गया और अपने को असहाय अनुभव करते हुए सोचने लगा– “ब्रह्मादि देवता या अन्य कोई भी मुझे मार नहीं सकते, परन्तु मैं इस बालकमें साक्षात् अपनी मृत्यु देखता हूँ।” ऐसे समयमें षण्ड और अमर्क ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, “हे राजन्! आप चिन्ता न करें। आप त्रिलोकपति हैं और प्रह्लाद तो मात्र एक बालक है। आप उससे इतने विचलित और अशान्त क्यों हैं? आप तो उसे एक मच्छर के समान अपनी अँगुलियों से मसलकर मार सकते हैं।"
प्रह्लाद का पुनः पाठशाला जाना
षण्ड और अमर्क ने आगे कहा – “हमारे पिता शुक्राचार्य समस्त विद्याओं के स्वामी हैं। उनके आने तक प्रतीक्षा करें और तब तक हम आपके पुत्र की शिक्षा जारी रखते हैं। हमारे पितामें ऐसी शक्ति है कि वे अपने दृष्टिपात मात्र से एक मृत शरीर को जीवित कर सकते हैं और यदि वे कभी किसी पर क्रोधित हों और उनके नेत्र लाल हो जायें तो अपनी भ्रूओं को ऊपर उठानेमात्र से ही वह उस व्यक्ति को जलाकर राख भी कर सकते हैं। जब हमारे पिता लौट आयेंगे तो वह अपने युक्तिपूर्ण वचनों से इस समस्या का समाधान कर देंगे और प्रह्लाद को ऐसा समझा-बुझा देंगे कि तब वह आपकी आज्ञानुसार ही चलेगा तब तक इसे हमारे साथ जाने दीजिये।”
इस प्रकार भक्त प्रह्लाद अपने शिक्षकों के साथ पुनः पाठशाला पहुँच गये। षण्ड और अमर्क ने प्रह्लाद की आध्यात्मिक प्रवृत्ति को बदलने का पुनः प्रयास आरम्भ कर दिया। उन्होंने प्रह्लाद के मन में उनके पिता जैसी भौतिक लोलुपता को जगाने का प्रयास किया किन्तु प्रह्लाद तो अपने विश्वास में निडरता से स्थिर थे, अतः वे इन सबसे प्रभावित नहीं हुए। अपितु वह शान्त बने रहते एवं मन-ही-मन कृष्ण के नामों का उच्चारण करते और उनकी लीलाओं और गुणों का स्मरण करते।
एक दिन शिक्षकों को किसी कार्यवश पाठशाला से अपने घर जाना पड़ा। उन्होंने बालक प्रह्लाद को कक्षा की देखभाल करने के लिए नियुक्त किया और उसे आदेश दिया, “प्रह्लाद! हम कुछ काल के लिए जा रहे हैं। अन्य छात्रों का ध्यान रखना। ये परस्पर झगड़ें नहीं तुम्हारे निरीक्षण में ये सभी शान्त रहें। हम शीघ्र ही लौट आयेंगे।”
जैसे ही शिक्षकों ने प्रस्थान किया, असुरॉ की सन्तान उन छात्रों ने खेलना आरम्भ कर दिया और उन्होंने प्रह्लाद को भी खेलने के लिए बुलाया भक्त प्रह्लाद ने उनसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना की, “अरे, मेरे मित्रो, असुर-पुत्रो, मेरी बात सुनो। मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूँ, जिससे तुम्हारा सारा जीवन सुख और आनन्द से परिपूर्ण हो जायेगा। तत्पश्चात् तुम जाकर खेल सकते हो।” चूँकि उन असुर पुत्रों की प्रह्लाद के प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी, अतः वे सब पाँच-छह वर्ष के बालक प्रह्लाद के समक्ष एकत्रित हुए तथा उन्हें चारों ओर से घेरकर बैठ गये। तब प्रह्लाद ने अपने सहपाठियाँ को उपदेश देना आरम्भ किया।
प्रह्लाद महाराज का उपदेश—
‘भगवान् की आराधना अभी से आरम्भ करों’
कौमारं आचरेत् प्राज्ञो धर्मान् भागवतानिह।
दुर्लभं मानुषं जन्म तदप्यध्रुवमर्थदम् ॥ (श्रीमद्भा- ७/६/੧)
“अरे मेरे भाइयो, सुनो! इस बाल्यकाल से ही हमें परम पुरुषोत्तम भगवान् का स्मरण करना चाहिये। इस जगत्में किसी भी वस्तु का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है। कुछ लोगों का विचार है कि सब कुछ प्रकृति से उत्पन्न हुआ है। परन्तु 'प्रकृति' का अर्थ क्या है? यह किसकी प्रकृति है? इसे समझना होगा। प्रकृति श्रीकृष्ण की शक्ति है। भगवान् श्रीकृष्ण करोड़ों ब्रह्माण्डों की सृष्टि और उनका नियन्त्रण कर सकते हैं और एक क्षणमें उनका विनाश कर सकते हैं तथा फिर दूसरे ही क्षण उनकी पुनः सृष्टि भी कर सकते हैं। वे अत्यन्त शक्तिशाली हैं। इसके अतिरिक्त वे हमारे और सभी जीवों के भीतर बाहर का सभी कुछ जानते हैं, परन्तु हम उन्हें नहीं जानते निरन्तर उनके नामों के उच्चारण और स्मरण से मैं उनके विषय में थोड़ा बहुत जान पाया हूँ।
“हमें बचपन से ही बल्कि इसी क्षण से आध्यात्मिक जीवन का आरम्भ कर देना चाहिये। ऐसा नहीं सोचना चाहिये– ‘मैं कल से करूँगा’, क्योंकि ऐसा भी हो सकता है कि तुम्हारे लिए कल कभी आये ही नहीं। अपने बहुमूल्य समय को इस क्षणभङ्गुर सांसारिक जीवन का आनन्द लेने में व्यर्थ नहीं करना चाहिये। अतः इसी क्षण से तुम सब लोग मेरे साथ भगवान् के नामका कीर्त्तन करो, क्योंकि वृद्धावस्था और व्याधियों का आना अनिवार्य है और व्यक्ति इस जीवनमें जो कुछ एकत्रित करता है– धन, पद, यश इत्यादि वह सब कुछ उसे यहीं छोड़कर जाना पड़ता है। वह इस जगत् की एक कौड़ी भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। क्या तुम सब इससे सहमत हो ?”
“हाँ, हम पूर्ण रूप से इससे सहमत हैं,” असुर बालकों ने उत्तर दिया। “आप निश्चय ही सत्य कह रहे हैं।”
यह सुनकर भक्त प्रह्लाद प्रसन्नतापूर्वक बोले– “मेरे प्रिय मित्रो! हे असुरपुत्रो! यह मनुष्य जीवन अनित्य है। परन्तु देही आत्मा नित्य है। इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य अपने नित्य स्वरूप को जानना है, आत्म-अनुसन्धान करके अपने नित्य निवास स्थान भगवान् के धामको लौटना है। इसलिए प्रत्येक प्राणी विशेषकर मनुष्य योनि को प्राप्त प्राणी को अवश्य ही भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति करनी चाहिये। वास्तवमें भक्ति जीव की स्वाभाविक क्रिया है, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण आत्मा के रचयिता और स्वामी हैं, वे सभी जीवों के कल्याण की कामना करने वाले तथा आत्माके प्रियतम हैं। प्रत्येक जीव का कर्त्तव्य भगवान् की शरण लेना और पूर्ण समर्पित हृदय से उनकी सेवा करना है। ऐसा करनेसे जीव भौतिक इच्छाओं से क्रमशः मुक्त हो जाता है और भगवान् की प्रेममयी सेवा से प्राप्त होने वाले चिन्मय आनन्द का आस्वादन करने लगता है। इस प्रकार जब इस भौतिक जीवन से पूर्णतः मुक्ति प्राप्त होती है और भगवान्की प्रेममयी सेवा प्राप्त होती है, तभी वास्तविक आनन्दका अनुभव होता है। “अतः, मेरे भाइयो, तत्क्षणात् परम आकर्षक भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना और उनका चिन्तन आरम्भ कर दो। इसी क्षण से भगवान् के नामों का जप करना आरम्भ करो। एक दिन हम सभी वृद्ध होंगे और हमें मरना होगा, इसलिए समय रहते अभी से भक्ति करो। अपने समय को राजनीति, छल, कपटतामें व्यर्थ मत करो। श्रीकृष्ण ही परम पुरुषोत्तम भगवान् हैं। वे सर्वशक्तिमान हैं, अत्यन्त कृपालु हैं, उन्होंने अपनी समस्त शक्तियाँ, सौन्दर्य, माधुर्य और अहेतु की कृपा को अपने नामोंमें भर दिया है। अतः उनके नाम का उच्चारण, स्मरण और उनका चिन्तन करनेसे हम सबका परम मङ्गल होगा।”
बालक प्रह्लाद के मुखसे यह सब सुनकर असुर बालकों में से किसी एक ने कहा, “हमें कृष्ण के नामोंका उच्चारण और स्मरण क्यों करना चाहिये? बाल्यावस्था में तो हमें खेलना चाहिये और तत्पश्चात् हमें धन को अर्जन करने में निपुण होना चाहिये, जिससे कि हम भौतिक सुखों की वस्तुओं का संग्रह कर सके। इन सबसे ही तो हमें सुख की प्राप्ति होगी।”
भौतिक जीवन की नश्वरता
बालक प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “ये सब कार्य तुम्हें सुख नहीं देंगे। कौन जानता है कि तुम वृद्धावस्था तक भी पहुँचोगे कि नहीं। वृद्धावस्था तक पहुँचने पर भी अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाओगे और अन्तमें मरना तो पड़ेगा ही। आज, नहीं तो कल या फिर सौ वर्ष बाद मृत्यु तो निशचित है। किसी भी क्षण अकस्मात् वज्रपात होने पर तुम तुरन्त मर सकते हो।”
यदि आप हवाई यात्रा कर रहे हों, तो अचानक मशीनमें खराबी हो सकती है और उसमें बैठे सभी लोग मर सकते हैं। उस समय शरीर और हड्डियाँ कहाँ जायेंगी, किसीको पता भी नहीं चलेगा और यदि आप अकस्मात् मृत्यु को प्राप्त नहीं भी होते और वृद्धावस्था को प्राप्त होते हो तो आप लोग अस्सी वर्ष की आयु के उपरान्त हरिनामका जप करनेके लिए सीधे बैठ भी नहीं सकेंगे। उस समय अनेक प्रकारके रोगों से ग्रस्त हो जायेंगे आपकी बहु बहुत-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न करेगी-झाडु से पीटेगी एवं गालियाँ देगी। उस समय आप नाम जप और भगवान् का स्मरण नहीं कर पाओगे ऐसा भी हो सकता है कि आप बोलनेमें असमर्थ हो जाओ, पागल हो जाओ या सठिया जाओ। इस प्रकार अनेक कठिनाइयाँ आकर हमें नाम कीर्त्तन और स्मरण से विचलित कर देंगी।
इसलिए यह समझना अति आवश्यक है कि यह मनुष्य जीवन केवल कृष्ण से अपने विस्मृत सम्बन्ध को पुनः जाग्रत करने के लिए प्राप्त हुआ है। मनुष्य जीवनमें हमें जन्म-मृत्यु के बन्धनकी अन्तहीन बेड़ियों से बाहर आने का एक सुयोग मिला है। इस प्रकार हमें अपने नित्य स्वरूप को प्राप्तकर भगवान् की आनन्दमयी सेवामें पुनः नियुक्त होकर शाश्वत जीवन यापन करने के लिए प्रयत्न करना चाहिये। आध्यात्मिक जीवनमें ही वास्तविक आनन्द है। भौतिक आसक्तियाँ विशेषतः गृहस्थ जीवन के सुख का भ्रम व्यक्तिको भक्तिके मार्ग का पालन करनेमें बाधा देता है। यदि आप विवाह करते हैं, तो आप अपनी नवविवाहिता पत्नी को और बिलखते हुए छोटे-छोटे बच्चों को जो प्यारसे आपको 'पापा' बुलायेंगे, कैसे छोड़ पाओगे? यदि आपके माता-पिता वृद्ध हों, तो उन्हें कैसे छोड़ पाओगे? सुन्दर उद्यान, बाग, बगीचे, बैंगले इन सबको छोड़ना कैसे सम्भव होगा? परन्तु एक बार भगवत्-चेतना के जाग्रत होने पर, जीव कृष्ण का नित्य दास है-इस शुद्ध ज्ञान के प्राप्त होनेपर और हमारा यथार्थ सुख केवल भगवान् की सेवा करनेमें है- ऐसा अनुभव होनेपर, जगत् के समस्त सम्बन्ध तुच्छ प्रतीत होंगे।
इसलिए प्रह्लाद महाराज बाल्यकाल से ही भजन करने का उपदेश दे रहे हैं। अतः हमारे लिए यही उचित है कि हम बाल्यावस्था से ही भौतिक सुख और उन्नति की योजनाओं और महत्वाकांक्षाओंका त्यागकर श्रीकृष्ण के नामोंका कीर्त्तन और स्मरण करें। यह मनुष्य जीवन दुर्लभ और अनित्य है, तथापि यह जीवन भगवत्-भक्ति का सुयोग प्रदान करता है।
अल्प परिमाणमें भी की गयी निष्कपट भक्ति हमें पूर्ण सिद्धि प्रदान कर सकती है। यदि हम सदा सुखी रहना चाहते हैं, तो इसके लिए हमें भक्तियोग का अनुशीलन करना होगा। अतः हमें बिना विलम्ब किये भगवान् कृष्ण का भजन करना प्रारम्भ कर देना चाहिये।
कृष्णभक्ति वास्तविक आनन्द को देनेवाली
बचपन से अर्थात् जीवन के प्रारम्भ से ही कृष्ण के प्रति समर्पित हो जाओ। जिस समय भी आप इस सन्देश को सुनो, चाहे उस समय आप पचास साल के भी क्यों न हो, कुछ आपत्ति नहीं, आप तभी से भक्ति का अनुशीलन करना प्रारम्भ कर सकते हैं। पूर्व-पूर्व जन्मोंमें एकत्रित सुकृत्तियों के फल से एक समय आप लोगों को एक साधु-वैष्णव का साक्षात्कार हुआ था और उसके फलस्वरूप ही आज आप लोग साधुसङ्गमें इस प्रह्लाद महाराज के उपाख्यान रूप दिव्यज्ञान को श्रवण कर रहे हैं।
हमें अपने समय को इन्द्रिय तृप्ति और व्यर्थ के कार्योंमें नष्ट नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिस किसी भी योनिमें हम जन्म ग्रहण करेंगे, हमें इन्द्रिय-तृप्ति के साधन प्राप्त होंगे। पशु योनिमें यदि हम कुत्ते या सुअर बनते हैं, तो वहाँ भी अनेक पत्नियाँ प्राप्त हो सकती हैं, उनके पालन के लिए धन की भी आवश्यकता नहीं और किसी विवाह-विच्छेद (divorce) की भी आवश्यकता नहीं है। पशु योनियोमें हम निसङ्कोच कई नई पत्नियों का भोग कर सकते हैं। मनुष्य जन्ममें एक वर्षमें एक पुत्र या पुत्री ही होगी, कदाचित् ही किसी परिस्थितिमें किसी की जुड़वाँ सन्तानें होती हैं। परन्तु सुअर, कुत्तों के आठ, दस, बारह या सोलह बच्चे भी एक समयमें हो जाते हैं। इसलिए इस विषयमें पशु हमसे श्रेष्ठ हैं। किसी भी समय, किसी भी योनिमें हम पशुओं की भाँति इन्द्रिय तृप्ति कर सकते हैं। इन्द्रियोंका भोग करनेमें पशु हमसे अधिक निपुण हैं। इसलिए हमें अपनी इन्द्रियों को केवलमात्र भोग करनेमें नहीं लगाना चाहिये। जीवन के प्रारम्भसे ही श्रीकृष्ण के नामोंका कीर्त्तन और स्मरण करना चाहिये।
इसके अतिरिक्त जैसा कि हम सभी जानते हैं कि दुःख बिना किसी निमन्त्रण के आता है। सभी प्रकार की समस्याएँ— मृत्यु, बुढ़ापा, पड़ोसियों के साथ झगड़ा और सरकार के द्वारा दिये जाने वाले कई कष्ट भी हमें झेलने पड़ते हैं। ये सभी क्लेश बिना किसी निमन्त्रण और सूचना के आते हैं। सुख के लिए भी हमें ऐसे ही समझना होगा। पूर्व जन्मोंके पुण्य कार्यों के प्रभावसे हम कुछ सुःख प्राप्त करने के अधिकारी होते हैं। वे सुख स्वयं ही आते हैं, उन्हें पानेके लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं होती है।
यदि हम भगवान्में विश्वास रखें तो हमें हर प्रकार का सुख बिना किसी चेष्टा के प्राप्त होगा। भौतिक सुख के लिए हमें कदापि चिन्तित नहीं होना चाहिये। इस जन्ममें जागतिक सुख के लिए प्रयत्न मत करो और अपने दुःखों को दूर करने के लिए भी चिन्तित मत होओ, ऐसा करना हमारे जीवन का उद्देश्य नहीं है। हमारी इच्छा या अनिच्छा के बिना भी कष्ट बलपूर्वक आयेंगे और हमें उन्हें सहना ही होगा। हमें पूर्वमें किये गये अपने कर्मोंका फल भोगना ही पड़ेगा। अतः हम सुःख और दुःख के विषयमें चिन्तित होकर अपना समय क्यों व्यर्थ कर रहे हैं? अपितु हमें भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य नामोंका कीर्त्तन करना चाहिये।
हमें अपनी उर्जा को कृष्ण के स्मरण और उनके दिव्यनामोंके उच्चारणमें लगाना चाहिये, जिसके फलस्वरूप हम सदा के लिए प्रसन्न और सुखी हो जायेंगे। हमें यह नहीं सोचना चाहिये कि उनके दिव्य नामोंका कीर्त्तन जड़-जगत् की एक ध्वनिमात्र है। ‘हरे कृष्ण’ मन्त्र का उच्चारण सब दुःखों की रामबाण औषधि है। यह महामन्त्र इतना शक्तिशाली है कि जन्म और मृत्युकी बेड़ी को तोड़ देता है। आप लोगों को इसी मार्गको अपनाना होगा।
मनुष्य जीवन बहुमूल्य
सत्ययुगमें जहाँ सर्वत्र सत्यता और सत्वगुण व्याप्त था, मनुष्य एक लाख वर्ष से अधिक जीवित रहते थे। कुछ तो प्रायः अनश्वर हो जाते थे और मरते नहीं थे। त्रेतायुगमें मनुष्य दस हजार वर्ष तक और द्वापर युगमें एक हजार वर्ष तक जीवित रहते थे। इस कलियुग (छल-कपट के युग) में मनुष्य की जीवन अवधि अधिक से अधिक सौ वर्ष तक है। कलियुगमें मनुष्य अनियन्त्रित जीवन जीता है और खान-पानमें शराब, तम्बाकु, अण्डे, माँसादि का सेवन करता है। ये सब वस्तुएँ हमारी आयु का ह्रास कर देती हैं। इन वस्तुओं के सेवन से मनुष्य कैन्सर और अनेक नई-नई व्याधियों से कष्ट पाता रहता है। इन व्याधियों की रोकथाम न तो अस्पतालोंमें है और न ही वैज्ञानिकों के पास है। अनेक प्रकारके नए रोग जैसे एड्स इत्यादि उत्पन्न हो रहे हैं। हम नहीं जानते कि ये रोग कैसे उत्पन्न होते हैं परन्तु निश्चित रूपमें यह अनियन्त्रित और अत्यधिक इन्द्रिय-तृप्ति का परिणाम है।
प्रह्लाद महाराज अपने सहपाठियों को यह शिक्षा दे रहे हैं— “यदि आप एक सौ वर्ष तक जीवित रहते हैं तो आधा जीवन अर्थात् पचास वर्ष निद्रामें निकल जाते हैं और आपके पास केवल पचास वर्ष ही बचते हैं। यदि आप अनुशासित नहीं हो, तो आपकी जीवन अवधि और भी कम हो जायेगी। बचपन से बीस वर्ष तक का समय खेलनेमें पढ़नेमें, या अपनी जीवन यात्रा चलाने के लिए किसी कलामें निपुण होनेमें बीत जाता है। अधिकांश लोगों के लिए अस्सी से सौ वर्ष तक की आयु का समय बेकार होता है, उस समय उनका शरीर किसी कामका नहीं रहता। अनेक प्रकार की बिमारियाँ उन्हें ग्रास कर लेती है। और जो बीच की कुछ आयु बचती है, वह वैवाहिक जीवनमें चली जाती है।”
आजकल लोग एक से अधिक विवाह करते हैं, फिर विवाह-विच्छेद (divorce) और फिर पुनः विवाह करते है। इस प्रकार कितनी ही बार वे विवाहित होते हैं। ऐसा करनेमें वस्तुतः उन्हें कुछ भी लाभ नहीं होता है। विवाह के फलस्वरूप सन्तान उत्पन्न होती है। आपको उनकी शिक्षा और पालन-पोषण की आवश्यकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं। समाज के साथ अपना स्तर बनाकर रखने के लिए आपको कार, टी.वी., कंप्यूटर इत्यादि की आवश्यकता होती है, घरों को सुसज्जित रखने के लिए नए-नए प्रसाधन लेने पड़ते हैं। इन सबकी व्यवस्था करते-करते सारा समय निकल जाता है तथा श्रीकृष्ण का स्मरण और अराधना के लिए समय ही नहीं बचता।
प्रह्लाद महाराज द्वारा असुर-पुत्रों को सहमत करना
प्रह्लाद के वचनों को सुनकर असुर बालकों ने कहा— “आपने जो कुछ कहा, वह बहुत उत्तम है। हमें बतलाइये कि हम पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा कैसे कर सकते हैं, उसकी विधि क्या है?” भक्त प्रह्लाद ने प्रत्युत्तर दिया— “आपको एक सद्गुरु का आश्रय लेकर परम आत्मीय की भाँति उनकी सेवा करनी होगी। उन्हें अपने अत्यन्त घनिष्ट सम्बन्धी की भाँति अपने पिता-माता से बढ़कर मानना होगा। उनसे दिव्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए उनकी सेवा करनी होगी। गुरु सेवा करने से ही कृष्ण सेवा करने की बुद्धि और सामर्थ्य प्राप्त होगा।”
बालक प्रह्लाद के उपदेश सुनने के पश्चात् सभी असुर-बालक चकित हो गये और उन्होंने प्रह्लाद से कहा हम आपके विचारों को समझ गये हैं, परन्तु कृपापूर्वक हमें यह भी बतलाइये कि आपने यह ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया है?
तब भक्त प्रह्लाद ने बतलाया— “जब मेरे पिता तपस्या के द्वारा शक्ति प्राप्त करने के लिए चले गये थे, तो उस समय मेरी माता कयाधु गर्भवती थी। किसी विशेष परिस्थितिवशतः उस समय वह परम भागवत नारदमुनि के सम्पर्कमें आयीं तथा उन्हीं के आश्रममें रहने लगी। नारदजी ने उन्हें कृष्ण सेवा की नित्य-विधि के सम्बन्धमें शिक्षा दी। माताके गर्भमें रहने के कारण मैंने भी नारदमुनि से वेदों, पुराणों, उपनिषदों और श्रीमद्भागवत की शिक्षाओं को सुना और जब मेरा जन्म हुआ, तो मैं नारदमुनि की कृपा एवं उनकी शिक्षाओं के प्रभाव से स्वाभाविक रूप से ही आत्मज्ञान के अनुभव से सम्पन्न था।”
तत्पश्चात् बालक प्रह्लाद ने अपने सहपाठियों से कहा, “यदि तुम सब मेरे विचारों से सहमत हो, तो मेरे साथ आओ और हम सब आनन्दपूर्वक भगवान् के नामोंका कीर्त्तन करेंगे।” तब सब सहपाठियों ने एक साथ मिलकर भगवान् के नामोंका कीर्त्तन आरम्भ कर दिया।
हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद की भक्ति की परीक्षा
जब षण्ड और अमर्क ने देखा कि प्रह्लाद के सङ्ग के प्रभाव से असुर- बालकों की बुद्धि भी भगवान्में लग गयी है, तब उन्होंने भयभीत होकर शीघ्र ही दैत्यराज हिरण्यकशिपु के निकट आकर समस्त वृतान्त कह सुनाया। षण्ड और अमर्क के मुख से इस बात को सुनकर हिरण्यकशिपु ने दुःखी होकर सोचा, “मेरे पुत्र ने जान बुझकर मेरी उपेक्षा की है और उसने दूसरे बालकों को भी अपनी ही भाँति मेरा विद्रोही बनाना प्रारम्भ कर दिया है। ये सब बालक अब दुष्ट और हानिकारक हो गये हैं।”
हिरण्यकशिप ने प्रह्लाद को बुलवाया तथा रोषपूर्वक टेढ़ी दृष्टि से देखते हुए प्रह्लाद को धमकाते हुए कहा— “अरे दुर्विनीत, अरे मन्दबुद्धि वाले, अरे अधम, मेरे शासन का उल्लंघन करने वाले प्रह्लाद ! मैं तुझे यमालय भेज दूँगा। अरे मूढ़ ! मेरे क्रोधित होने पर लोकपालों सहित त्रिभुवन काँप उठता है, किन्तु तू किसके बल से भय रहित होकर मेरे शासन का उल्लघंन कर रहा है? क्या तू अपनी मृत्यु से भयभीत नहीं है ? तुझमें शक्ति कहाँ से आती है ? कौन तेरी सदैव रक्षा करता है ?”
प्रह्लाद ने अत्यन्त दीनतापूर्वक उत्तर दिया— “हे असुरोंमें श्रेष्ठ! जो आपकी रक्षा करते हैं और सभी की रक्षा करते हैं, वे मेरी भी रक्षा करते हैं। वे सर्वत्र विद्यमान हैं और सब कुछ उनमें ही है। वे भगवान् आपकी, मेरी और समस्त प्राणियों की शक्ति के स्त्रोत हैं।”
यह सुनकर हिरण्यकशिपु क्रोध से काँपते हुए बोला— “अरे हतभागे ! तेरे अनुसार मेरे अलावा अन्य कोई भी इस जगत् का ईश्वर है, तो फिर तुम्हारा वह हरि कहाँ है ?”
“मेरे हरि सभी स्थानोंपर हैं।”
“तो फिर मैं उसे इस स्तम्भमें क्यों नहीं देख पा रहा हूँ? क्या वह इस स्तम्भमें भी है ?”
“हाँ, ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ वे नहीं हैं। वे प्रत्येक अणुमें हैं, जीवमात्र के हृदयमें हैं। वे इस स्तम्भमें एवं यहाँ-वहाँ सर्वत्र हैं।”
“मुझे तो वह दीखता नहीं है।”
“परन्तु मुझे उनके दर्शन हो रहे हैं– मेरे हरि तो स्तम्भमें भी हैं।”
“अच्छा ! मैं परीक्षा लूँगा कि तेरा हरि इस स्तम्भमें है या नहीं। मैं अब तेरा वध करूँगा और देखूँगा कि वह तेरी रक्षा के लिए आता है या नहीं।”
नृसिंहदेव का आश्चर्यचकित कर देने वाला प्राकट्य
महाबलवान हिरण्यकशिपु ने क्रोधपूर्वक प्रह्लाद को ललकारते हुए अपनी तलवार को उठाया और अपने सिंहासन से नीचे उतरकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक अपनी मुठ्ठी से स्तम्भपर प्रहार किया, जिससे भयङ्कर गर्जन हुआ और स्तम्भ खण्ड विखण्ड हो गया। हिरण्यकशिपु इधर-उधर देखने लगा कि गर्जन की ध्वनि कहाँ से आयी है; तभी उसने भग्न स्तम्भ से अर्द्ध-सिंह और अर्द्ध मनुष्य देह वाले एक विचित्र और आश्चर्यजनक प्राणी को प्रकट होते देखा। उस प्राणी का सिंह जैसा अति भयानक और खूँखार सिर था तथा मनुष्य के समान अति बलवान और सुन्दर देह थी। अपने भक्त प्रह्लाद के वचनों की रक्षा करते हुए भगवान् उस स्तम्भमें से श्रीनृसिंह देव के रूपमें प्रकट हुए।
भगवान् नृसिंहदेव अत्यन्त क्रोधित और भयानक प्रतीत हो रहे थे। पहले तो हिरण्यकशिपु यही विचार करने लगा कि “यह मनुष्य है या सिंह है?” किन्तु किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने के कारण उसने उस विचित्र प्राणी पर अपनी गदा से प्रहार किया और तब दोनों में घनघोर युद्ध आरम्भ हो गया।
भगवान् नृसिंहदेव ने हिरण्यकशिपु को अच्छी प्रकार से अपने पजों में जकड़ लिया, किन्तु जब वह अपने को छुड़ाने की चेष्टा कर रहा था, तब नृसिंहदेव ने उसे थोड़ा ढीला छोड़ दिया और अन्ततः उसे अपनी पकड़ से जाने दिया। इस भयङ्कर युद्ध को देखकर तथा यह देखकर कि हिरण्यकशिपु भगवान् की पकड़ से बच निकला है, देवता घबरा गये और चिन्ता करने लगे कि अब तो हिरण्यकशिपु नहीं मरेगा तथा वह हमें और बह्याण्ड के समस्त प्राणियों को सताता ही रहेगा। देवता ऐसा सोचकर अत्यन्त व्याकुल हो उठे।
परन्तु इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं थी। भगवान् नृसिंहदेव हिरण्यकशिपु के साथ उसी प्रकार खेल रहे थे, जिस प्रकार गरुड़ साँप के साथ खेलता है। कुछ पल शान्त रहकर हिरण्यकशिपु ने अपनी तलवार और ढाल उठायी और अति बलपूर्वक पुनः भगवान् नृसिंहदेव पर प्रहार किया। भगवान् नृसिंहदेव ने सहज ही उसे कसकर पकड़ लिया और अपनी गोद में ले लिया। नृसिंहदेव ने सिंह से भी भयङ्कर गर्जन करते हुए अपने बड़े-बड़े नखों से हिरण्यकशिपु के पेटको चीर डाला। उन्होंने उस असुर की सारी आँतों को निकाल लिया और अपनी गर्दन के आगे पीछे माला की भाँति पहन लिया। उस असुर का रक्त सर्वत्र इधर उधर फैल गया। इस प्रकार वह असुर एक ही क्षणमें मारा गया। भगवान् क्रोधमें गर्जन कर रहे थे, जिस कारण सभी भयभीत थे।
श्री भगवान् जगत् के सृष्टिकर्ता ब्रह्माके वचनों की भी रक्षा करने के लिए इस रूपमें आये। अर्द्ध-मनुष्य एवं अर्द्ध-सिंह
भगवान् नृसिंहदेव ने सन्ध्या के समय, जब सूर्य अस्त हो रहा था, उस असुर को मारा। उस समय न दिन था, न रात थी, वह एक सामान्य वर्ष नहीं, अपितु अधिक मासयुक्त वर्ष था, भगवान्ने उसे बाहर और भीतर नहीं, अपितु दहलीज पर, पृथ्वी पर या आकाशमें नहीं, अपितु अपनी गोदमें और किसी अस्त्र और शस्त्र से नहीं अपने सुन्दर और तीखे नखों के द्वारा मारा।
भगवान्का प्रह्लाद के प्रति वात्सल्य
उस समय भगवान् नृसिंह देव इतने क्रोधित थे कि कोई उनके निकट नहीं जा पा रहा था। महादेव शिव और ब्रह्मा आदि कई देवता वहाँ उपस्थित थे, किन्तु वे सभी भगवान् से कुछ दूरी पर ही स्थित थे। लक्ष्मीदेवी भी वहाँ आयीं, वे ब्रह्माजी और शिवजी के साथ नृसिंहदेव को शान्त करना चाहती थीं, परन्तु उनमें भी भगवान् के समीप जाने का साहस नहीं हुआ। तब उन सभी ने भक्त प्रह्लाद को कहा– “प्रिय पुत्र! तुम्हें ही जाकर भगवान् नृसिंहदेव को शान्त करना होगा।” निर्भीक बालक प्रह्लाद हर्षपूर्वक दौड़कर भगवान नसिंहदेव के निकट पहुँचे और अपने हाथों को जोड़कर भूमि पर गिरकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करने लगे। उन्हें ऐसा करते देख भगवान् नृसिंहदेव ने अपने अभय प्रदान करने वाले हस्तकमल को प्रह्लाद के सिरपर रख दिया। प्रह्लाद ने परमानन्द पूर्वक भगवान् नृसिंह देव के चरणकमलों को अपने हृदय पर धारण किया तथा एकाग्रचित्त से नृसिंहदेव का स्तव करने लगे। स्तव सुनकर भगवान् नृसिंहदेव शान्त हो गये तथा अपने क्रोध को सम्वरण करके वात्सल्य स्नेहपूर्वक प्रह्लाद को अपनी गोदमें बिठा लिया। द्रवित हृदय से भगवान् नृसिंहदेव ने भक्त प्रह्लाद को प्यार से सहलाना आरम्भ किया और अश्रुपूर्ण नेत्रों से कहा, “हे प्रह्लाद, मेरे प्रिय पुत्र! तुम्हारे पिताजी ने तुम्हें इतने कष्ट दिये, जिसके कारण तुम्हें बहुत क्लेश सहना पड़ा है। मुझे आनेमें बहुत देरी हो गयी। मैं तो शीघ्र ही आना चाहता था, परन्तु आ नहीं पाया, क्योंकि ब्रह्मा ने तुम्हारे पिता को वरदान दिया था कि वे किसी सामान्य वर्ष या मासमें नहीं मरेंगे, इसलिए मुझे उपयुक्त समय की प्रतीक्षा करनी पड़ी। मैं यह भी चाहता था कि विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त व्यक्ति तुम्हारे उत्तम स्वभाव और तुम्हारी भक्ति की शक्ति के साक्षी बनें। अब मैं तुम्हें वरदान देना चाहता हूँ।”
जब भगवान् श्रीनृसिंह देव ने प्रह्लाद से बार-बार वरदान माँगने के लिए कहा तब प्रह्लाद मुसकराते हुए बोले— “हे प्रभु! मैं आपसे कुछ नहीं माँगना चाहता। जो व्यक्ति आपसे विषय आदि भोगों के लिए प्रार्थना करता है, वह आपका दास नहीं, बल्कि व्यापारी है। मैं कोई व्यापारी नहीं हूँ, जो सेवा के बदले कोई इच्छा रखूँ। मैंने आपकी सेवा किसी वरदान को प्राप्त करने के लिए नहीं की है। मैंने केवल आपको सन्तुष्ट करने के लिए ही आपकी सेवा की है। मैं केवल इतना चाहता हूँ कि आप मुझपर प्रसन्न रहें।”
भगवान् नृसिंहदेव ने पुनः कहा— “प्रह्लाद, मेरा दर्शन अमोघ है। तुम वरदान माँगो, जिससे मेरा यह आविर्भाव व्यर्थ न जाये। मुझे प्रसन्न करने के लिए ही कुछ माँगो, अन्यथा मैं सन्तुष्ट नहीं होऊँगा। अतः कोई भी वर माँगो।”
तब प्रह्लाद ने कहा— “यदि आप मुझे कोई वर देना ही चाहते हैं, तो मैं आपसे यह प्रार्थना करता हूँ कि मेरे हृदयमें कभी भी कोई सांसारिक कामना उदित ही न हो।”
भगवान् नृसिंह देव ने कहा– “प्रह्लाद! तुममें कोई भी सांसारिक कामना नहीं है और हो भी नहीं सकती। अतः कुछ अन्य वर माँगो।”
तब प्रह्लाद ने कहा– “यदि आप मुझे कुछ देना चाहते हैं, तब एक वस्तु है, जो आप मुझे दे सकते हैं। मेरे पिताजी ने अनेक घृणित कार्य किये हैं। उन्होंने साधुजनों के प्रति अगणित पापपूर्ण आचरण किये हैं तथा आपकी बहुत निन्दा की है। तथापि मैं प्रार्थना करता हूँ कि वे इन समस्त पापों के फल से मुक्त हो जायें।”
भगवान्ने प्रत्युत्तर दिया— “प्रह्लाद, तुम्हारे पिता इक्कीस पीढ़ियों सहित पहले से ही पवित्र हो चुके हैं, क्योंकि उनके वंशमें कुल को पवित्र करने वाले तुमने जन्म ग्रहण किया है। जो कृष्ण के नामोंका कीर्त्तन और स्मरण करते हैं, ऐसे उत्तम श्रेणी के शुद्ध भक्तों के कुल की इक्कीस पीढ़िया मुक्त हो जाती हैं। मध्यम अधिकारी भक्तों की चौदह पीढ़ियाँ मुक्त हो जाती हैं और कनिष्ठ भक्त की सात पीढ़ियाँ तर जाती हैं। अतएव निश्चय ही तुम्हारे पिताजी पहले से ही मुक्त हो चुके हैं, अतः कुछ और माँगो।”
प्रह्लाद की दैन्यमयी प्रार्थना “सभी को मुक्त करो”
भक्त प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “मैं जानता हूँ कि आप मुझे बहुत प्रिय मानते हैं। यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं तो मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूँ कि आप इस ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों को मुक्त कर दीजिये। इस जगत्में सभी जीव कष्ट पा रहे हैं। मैं उन जीवों के समस्त पाप और कर्मफल लेता हूँ। मैं उनके लिए कष्ट उठाने को, यहाँ तक कि उन जीवों के लिए नरक जाने को भी प्रस्तुत हूँ। मुझ पर कृपा करें और मुझे यही वरदान दें।
“हे मेरे प्रभु! हे अच्युत! मैं हजारो-लाखों बार जन्म लेने के लिए तैयार हूँ। किन्तु मेरी केवल यही प्रार्थना है कि आप मुझे जहाँ भी रखें, मैं सर्वदा ही आपके उत्तम भक्तों के सङ्गमें आपकी एकान्तिक भक्तिमें रत रहूँ।”
भगवान् नृसिंहदेव ने उत्तर दिया, “हे प्रह्लाद, निश्चय ही तुमने मुझे खरीद लिया है। मैं तुम्हारा हो गया हूँ। मैं तुम्हें सांसारिक वर देकर ठग नहीं सकता और न ही मुझे यह स्वीकार है कि तुम कष्ट भोगो। परन्तु मैं तुम्हारी प्रार्थना को स्वीकार करता हूँ— अतः मैं वर देता हूँ कि जो कोई भी मेरे इस आविर्भाव से सम्बन्धित तुम्हारे लीला-चरित्र का श्रवण करेंगे या इस कथा को दूसरों से कहेंगे, उन्हें मेरी शुद्ध भक्ति प्राप्त होगी।”
भगवान् का यह वरदान किस क्रममें फलीभूत होगा? पहले व्यक्ति को एक सद्गुरु की शरण लेनी होगी। अर्थात् दीक्षा लेकर गुरु के निर्देशानुसार जीवन व्यतीत करना होगा। इस प्रकार जीवों का क्रमशः उद्धार होगा।
भगवान् की शुद्धभक्ति में निमग्न भक्त प्रह्लाद को अपने कल्याण की चिन्ता नहीं थी, क्योंकि वे जानते थे कि भगवान् सदैव उनका पालन-पोषण कर रहे हैं। भक्त प्रह्लाद कष्टों के आने पर भी कभी विचलित नहीं हुए। वे सांसारिक इच्छाओं से पूर्णतः मुक्त थे तथा उन्होंने मुक्ति अर्थात् भगवान्में ही मिलकर एक होना कदापि स्वीकार नहीं किया।
दृढ़ श्रद्धा-प्रह्लाद की शक्ति का स्रोत
भक्त प्रह्लाद के जीवन में बहुत से कष्ट आये और उन्होंने उन सभी कष्टों को सहन किया, परन्तु कभी भी प्रतिवाद नहीं किया। उन्होंने अपने पिता को शाप देने के लिए कभी सोचा तक नहीं और न ही कभी उन्हें कटुवचनोंमें प्रत्युत्तर ही दिया, अपितु वे सर्वदा उनके प्रति विनम्र और आदरयुक्त बने रहे। यदि हम अपनेमें इन दिव्य गुणों को लाना चाहते हैं, तो प्रह्लाद महाराज की भाँति हमें भी भक्तियोग का अनुशीलन करना होगा। प्रह्लाद महाराज सदैव भगवान् की आराधना, उनका ध्यान और उनकी स्तुति करते थे, क्योंकि उन्हें यह दिव्यज्ञान था कि श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम भगवान् हैं।
इस प्रकार प्रह्लाद महाराज सदैव भगवान् की भव्यता और ऐश्वर्य का ध्यान करते थे। वे जानते थे कि भगवान् सर्वत्र हैं। वे कहीं पर भी किसी भी क्षण प्रकट हो सकते हैं। भक्त प्रह्लाद को भगवान् की शक्तियों का पूर्णतम ज्ञान था, वे सदैव भगवान् को अपने निकट ही दर्शन करते थे। उन्हें दृढ़ विश्वास था कि भगवान् सर्वदा उनकी रक्षा कर रहे हैं। इसलिए वे कभी तनिक भी चिन्तित नहीं हुए। वे भगवान् को प्रत्येक अणुमें और सबके हृदयमें सर्वत्र देखते थे तथा विपत्तियोंमें भी सदा प्रसन्न रहते थे। प्रह्लाद महाराज की श्रद्धा इतनी दृढ़ थी कि श्रीकृष्ण ने सर्वदा उनकी विपत्तियों से रक्षा की मृत्यु उनके निकट भी नहीं आ पायी।
यदि आपका मृत्य-काल आ गया है, तो निश्चित ही मरना होगा और यदि आपकी मृत्यु का समय नहीं आया है, तो कोई भी आपको मार नहीं सकता। प्रह्लाद की श्रद्धा ने ही उन्हें निर्भीक बनाया। आप लोगों को भी उनके समान निर्भीक होना होगा। मैं यह बात सबके कल्याण के लिए कह रहा हूँ। यदि मृत्यु आ रही है और बहुत सी विपत्तियाँ भी आ रही हैं, तो हमें उनसे ऊपर उठने की चेष्टा करनी होगी। विचलित न होकर भगवान् के नामोंके जप-कीर्त्तनमें मनको स्थिर करके उनका स्मरण करना होगा। निरन्तर भगवान् श्रीकृष्ण की आराधना करनी होगी। यही प्रह्लाद महाराज की शिक्षा है। यदि आप भगवान् श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य और विभूतियों से अवगत हैं कि वे परम शक्तिमान हैं, समस्त ब्रह्माण्डों के रचयिता हैं और समस्त कारणोंके मूल कारण हैं, तो आप शान्त स्थिर चित्त से रह सकेंगे। भगवान् श्रीकृष्ण का दिव्य रूप है और उनके अनन्त दिव्य गुण हैं। वे दिव्य सूर्य के समान हैं और जीव, जो उनके दास हैं, सूर्य की किरण-कण के समान हैं। सभी जीव श्रीकृष्ण की शक्ति के कण हैं, जीवका स्वरूप तत्वतः भगवान् की भाँति सत्-चित्-आनन्द है, किन्तु भगवान् विभु मात्रामें सत्-चित्-आनन्द हैं और जीव अणु मात्रामें। जीव की सत्ता का उद्देश्य भगवान से प्रेमपूर्ण आदान-प्रदान करना है। हमें इसका अनुभव हो या न हो भगवान् सर्वदा ही हमपर अपनी कृपा और प्रेम वर्षण कर रहे हैं। प्रह्लाद महाराज सर्वत्र ही भगवान् के दर्शन करते थे, अतः उनका जीवन चरित्र और शिक्षाएँ हमारे पारमार्थिक जीवन को उन्नत करने के लिए अति उपयोगी एवं मार्गदर्शक हैं।
हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात् भक्तराज प्रह्लाद राजा बने और उन्होंने अपने राज्यमें सर्वत्र भक्ति का प्रचार किया। उन्होंने सभी को श्रीकृष्ण का कीर्त्तन, स्मरण एवं हरिकथा श्रवण के लिए प्रोत्साहित किया। इस प्रकार समस्त परिपूर्णताओं के कारण उनका राज्य वैकुण्ठ की भाँति प्रतीत होता था, जहाँ किसी भी प्रकारके दुःख का प्रवेश तक नहीं था। 🙏🏻🙏🏻
तव करकमलवरे नखमद्भुतशृङ्गं
दलितहिरण्यकशिपुतनुभृङ्गम्।
केशव धृतनरहरिरूप जय जगदीश हरे ॥
हे केशव ! हे नृसिंहरूप धारण करने वाले जगदीश ! हे भक्तों का कष्ट हरने वाले हरे! तुम्हारी जय हो, क्योंकि तुम्हारे श्रेष्ठ करकमलमें अद्भुत अग्रभाग वाला एक नख है, जिसने हिरण्यकशिपु के शरीररूप भ्रमर को विदीर्ण कर दिया। इसमें आश्चर्य की बात यह है कि साधारणतः कमल के अग्रभाग को भ्रमर ही विदीर्ण करता है, किन्तु यहाँ तो कमल के अग्रभाग ने ही भ्रमर को विदीर्ण कर डाला है।