काबुल के बादशाह शाहशुजा को उसके भाई शाह महमूद ने हराकर देश से बाहर निकाल दिया। वह भागकर पनाह की खोज में पंजाब आया। महाराजा रणजीत सिंह उस समय खुशाव के पास थे। उन्होंने शाह शुजा को बुलाया और उसका आदर किया और उसके निर्वाह के लिए पर्याप्त रकम दी तथा आगे के लिए भी पेंशन लगा दी और कहा कि जहा जी करे रिहायश कर लो। उसने रावलपिंडी में रहना पसन्द किया। कुछ समय के पश्चात् अपना परिवार रावलपिंडी छोड़कर वह काबुल चला गया और शाह महमूद को हराकर बादशाह बन गया परन्तु चार मास के पश्चात् उसको फिर सिंहासन से उतार दिया गया और कैद करके कश्मीर भेज दिया गया। महाराजा साहिब ने उसके भाई (शाहज़मान) तथा परिवार को लाहौर बुला लिया जहाँ उन्हें रहने के लिए मकान और गुजारे के लिए काफी रकम दी और पेंशन बाँध दी।
काबुल के वजीर फतेह खां ने कश्मीर पर चढ़ाई कर दी और शाहशुजा को पकड़ना चाहा। उसने अपना दीवान गोदड़मल, को महाराजा साहिब की सेवा में भेजा और सहायता मांगी। महाराजा साहिब सहायता करने के लिए मान गए। शाह शुजा कश्मीर में कैद था। उसके परिवार को बहुत फिक्र हुई। उनको निश्चय था कि वजीर फतेह खां शाह शुजा को मार देगा। शाह शुजा की घरवाली वफा बेगम ने फकीर अजीजुद्दीन तथा दीवान मुहकमचंद को कहा कि यदि महाराजा साहिब मेरे पति को कश्मीर से छुड़ा लाए तो मैं उनको कोहिनूर हीरा (जो नादिरशाह लूट कर ले गया था) धन्यवाद स्वरूप पेश करुंगी। महाराजा साहिब मान गए।
दीवान मुहकमचंद की कमान में खालसा फौज कश्मीर की ओर भेजी गई साथ में फतेह खां की फौज भी आ मिली। डटकर लड़ाई हुई। कश्मीर का हाकिम अता मुहम्मद हार गया। दीवान मुहकमचंद ने शाह शुजा को कैद में से निकाला और फतेह खां के विरोध तथा ईर्ष्या की परवाह न करते हुए उसको लाहौर ले आया। जब शाह शुजा को लाहौर अपने परिवार में रहते हुए कुछ मास व्यतीत हो गए तो दीवान मुहकमचंद तथा फकीर अजीजुद्दीन ने उसको काबुल की बेगम का इकरार याद करवाया पर वफा बेगम अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज्यादा जोर दिया गया तो उन्होंने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों के परीक्षण की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहां खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 की पहली जून थी। महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और कोहिनूर के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह महाराजा को इसका पता चल गया अत: उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के लिए “गुरुग्रंथ साहब” पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे “पगड़ी-बदल भाई” बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया। पर्दे की ओट में बैठी वफा बेगम महाराजा की चतुराई समझ गईं। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच गया था।
उनकी इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मानों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। काशी के विश्वनाथ मंदिर में भी उन्होंने अकूत सोना अर्पित किया था। परंतु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की कुनीति के कारण पूरी न हो सकी।