उपन्यास / तीसरा भाग / शरोवन
माँझी का संसार उजड़ गया...
दिल की सारी हसरतों पर बिजली आग के समान चीख मारकर गिर पड़ी । उसके प्यार का हश्र इतना बुरा भी हो सकता है । ऐसा तो उसने कभी सोचा भी नहीं था । एक-न-एक दिन यह सब तो होना ही था, वह इतना तो समझता था-परन्तु यह सबकुछ इस तरह से होगा, ऐसा उसने कभी भी नहीं चाहा था । सुधा उसको इतनी कठोरता से लताड़ भी देगी, सबकुछ जानते, समझते हुए भी अनजान बनकर उसको अपने विषभरे शब्द भेंट में दे देगी । उसको सम्मान देने के साथ-साथ अपमानित करके तिरस्कृत भी कर सकती है । बस यही सोचकर उसका दिल फटा जाता था । वह अपने मन-मस्तिष्क को समझाना चाहता था । बार-बार समझाने का एक असफल प्रयास भी करता था, परन्तु उसको सन्तुष्टि नहीं मिल पा रही थी । बार-बार उसको सुधा का गम्भीर, परेशान और प्यार-भरा, क्रोध लिए चेहरा याद आ जाता था । बार-बार वह मक्रील नदी के किनारे उसको ख़यालों में ही खड़ी हुई देखता था । कितना दुख हुआ होगा सुधा को ? किस कदर उसने उसके मन को खटूटा कर दिया होगा ? वही सुधा जो माँझी को देखते ही फूलों के समान खिल. पड़ती थी । उसका सम्मान करती थी-उसको कितने अपनत्व से, जीवन की हर अच्छी-बुरी बातों का पाठ पढाया करती थी-एकदम से उसको अपना गुस्सेल और कठोर चेहरा भी दिखा सकती है ? कितना परेशान और अपमानित-सा किया है उसने सुधा को ? कैसे भूलेगी वह यह सब?
माँझी ने सुधा को प्यार किया था । प्यार में वशीभूत होकर उसने उसकी प्यारी और अनूठी मूर्ति भी बनाई थी । यह बात तो वह अच्छी तरह जानता और समझता था, परन्तु उसने अपने इस एकतरफा प्यार की चर्चा तो किसी से भी नहीं की थी । यह बात सत्य थी कि वह सुधा को मन-ही-मन प्यार करता आ रहा था- एक लम्बे समय से... और सुधा भी सागर से जुड़ चुकी थी-बहुत पहले से ही, इतना पहले कि वह अपने एकतरफा प्यार का इज़हार भी नहीं कर सका था । सुधा को सागर से विवाह करना ही था । यह भी वह जानता था, इसलिए वह सदैव खामोश ही रहा था, परन्तु उसे सुधा एक दिन अचानक से मिल भी जाएगी । उससे उसकी एक अविस्मरणीय मुलाकात भी हो जाएगी और फिर बात धीरे-धीरे इस कदर लम्बी हो जाएगी कि उसके और सुधा के सम्बन्धों की डोर बढ़ते-बढ़ते इतनी खिंच जाएगी कि एक झटका लगते ही दोनों अचानक से डोर के टूटते ही, छिटककर दो विपरीत दिशाओं में गिर पड़ेंगे । क्या यही सबकुछ होना था ? क्या हर प्यार करनेवाले का हश्र यही और ऐसा ही सबकुछ होता है ? यदि यह सच है तो फिर सुधा और सागर के साथ यह सबकुछ क्यों नहीं हुआ ? उनका प्यार तो सफल हो गया । क्यों उसके साथ ही यह सबकुछ हो गया ?
कौन जानता था कि उसके प्यार का हश्रं कितना अनहोना-सा हुआ है ? जीवन में उसने पहली बार पहली लड़की को अपने दिल का टुकड़ा समझकर पूजा था । उसका स्वरूप बनाया था । प्रतिदिन उसके स्वरूप पर अपने पवित्र और अथाह प्यार के पुष्प अर्पित किए थे । उसकी हर पल आरती उतारी थी । मन-ही-मन उसको दुआएँ देता रहा था । उसकी यादों को अपने दिल में बसाए फिरता था और एक दिन उसका यही प्यार, प्यार की यही यादें उसके दिल के टुकडे-टुकडे करके, उसके अतीत की दुखभरी प्यार की कतरनों के समान उसके लहू में बहने लगेंगी । बस यही सोचकर माँझी अपने-आपको समझा नहीं पा रहा था।
संसार में यदि हर प्यार करनेवाले का प्यार सफल हो जाता, तो प्यार के दर्द की दुखभरी कहानियों को लिखने के लिए शायद कोई लेखक पैदा ही नहीं होता। दुनियावालों की सलाह होती है कि हर प्यार करनवाले को प्यार करने वाले से कम-से-कम एक बार कह तो देना चाहिए। परन्तु माँझी के लिए तो वह अवसर ही नहीं आया था । वह अवसर तो उसका शायद प्यार करने से पहले ही खो चुका था । फिर ऐसी स्थिति में वह क्या करता और क्या नहीं ? सिवा इसके कि चुप रहता और अपने मन की इस आरजू को मन में ही सुरक्षित रखता । यही सबकुछ वह कर भी रहा था । ऐसा ही उसने करना भी चाहा था, परन्तु फिर भी 'वह' सबकुछ क्योंकर हो गया ? जो कि वह कदापि नहीं चाहता था ? उससे ग़लती कहाँ हो गई ? सुधा को कैसे आभास हो गया कि वह उसका चाहनेवाला है ? क्या प्यार करनेवाले अपनी हरकतों पर संयम नहीं रख पाते हैँ ? शायद यही सच है । ऐसी ही ग़लती वह कर बैठा है, अन्यथा यह स्थिति कभी भी नहीं आती । प्यार में वह भटक तो रहा था । भटककर गुम होने के लिए, परन्तु ठोकर भी लग जाएगी । वह भी दूसरे की ओर से । बस यही दर्द उसको बार-बार साल रहा था । उसके मन-मस्तिष्क को झंझोड़ रहा था । उसके दिल से अनेक प्रश्न पूछ रहा था और वह किसी एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं खोज पा रहा था ।
माँझी के कई सप्ताह इसी ऊहापोह में व्यतीत हो गए । गम्भीर तो वह पहले ही से था । अब घर में भी कटा-कटा-सा रहने लगा । बिलकुल अलग-थलग-सा। न किसी से अधिक बात करना और न ही परिवार की किसी भी बात और समस्या पर अपने विचार देना अथवा कोई सुझाव । दुनिया में जैसे उसको सभी बेगाने नज़र आने लगे थे । अपनों में भी वह परायापन महसूस करने लगा । घर से कहीं बाहर निकल जाता तो वापस आने का कोई समय ही नहीं होता । कहीँ भी बैठ जाता, तो उठने का होश नहीं रहता । जहाँ भी चाहता, बिना किसी भी विचार के चल देता । खामोशियों और सुनसान स्थानों से वह प्यार करने लगा । आकाश की शून्यता में अपने प्यार की खोई हुई हसरतों को समेटने की कोशिश करता रहता । चेहरे की सारी खामोशी गम्भीरता और मलिनता का सहारा लेकर उदास कामनाओं की अर्थी बन गई । चेहरे पर जंगली घास के समान दाढ़ी बढ़ने लगी । शरीर की काया ही पलट गई । यह जहाँ भी जाता तो उसके जीवन की मनहूसियत पहले ही से उसका दामन थामकर उसके साथ चल देती । प्यार में वह लुटा नहीं था । बर्बाद भी नहीं हुआ था- किसी ने उसको छला भी नहीं था । मगर फिर भी दुनियावालों की दृष्टि में एक तमाशा अवश्य ही बना जा रहा था । अपने दिल के छुपे हुए प्यार की कहानी का वह फ़साना जैसे ज़रूर बन जाना चाहता था । साथ ही अपनी मां, बहन और पिता की दृष्टि में उनकी चिन्ताओं का विषय भी ।
घर में जब सबने उसका यह बदलता हुआ हाल देखा तो समझ ज़रूर गए पर समझने-भर से होता भी क्या था ? उनको तो मालूम ही था कि यह सब तो होना ही था । सब सोचते थे कि काश: यह सबकुछ बहुत पहले ही हो जाता । हो जाता तो बात यहाँ तक नहीं पहुँचती । सुधा यदि बहुत पहले ही माँझी को स्पष्ट कर देती, तो उनके पुत्र या भाई का यह हाल तो नहीं होता, हालाँकी उन लोगों ने माँझी से कुछ भी नहीं कहा था । ये जानते हुए भी कि सारा दोष माँझी का ही था । वह सबकुछ जानते हुए भी किसी दूसरे के घर की बगिया में अपने दिल के फूल खिलाना चाहता था । पराए घर में उसको यह अनुमति किस प्रकार मिल सकती थी ? शायद कभी भी नहीं ? मगर फिर भी वे सब खामोश और मौन थे और कहने से अब होता भी क्या था? उनके माँझी के संसार में एक खलबली तो मच ही गई थी । उसके खामोश जीवन में किसी ने हलचल तो मचा ही दी थी, पर यह हलचल आगे चलकर एक सैलाब का रूप भी ले लेगी, ऐसा उन सबने कभी भी नहीं सोचा था । और इस आए हुए सैलाब में कौन-कौन डूबेगा और कौन-कौन बचेगा अथवा सबकुछ सामान्यतौर पर आकर शान्त भी हो जाएगा ? कोई नहीं जानता था ।
घर में सबसे अधिक चिन्ता माँझी की माँ को थी । फिर उसकी बहन को । पिता फिर भी संयम बरते हुए थे । फिर एक दिन जब माँझी की माँ से नहीं रहा गया, तो उन्होंने उसके पिता से कहा,
"यूँ हाथ पर हाथ धरे रहने से काम नहीं चलेगा । कुछ करो-धरो । एक ही लड़का है, अगर हाथ से निकल गया तो फिर क्या करोगे ? देखो, कितना सूखता जा रहा हैं? उसे समझाओ-बुझाओ । उससे बात करो, इत्यादि.. ।"
तब माँझी के पिता ने उससे एक दिन बात की । उसकी समस्याओँ पर विचार किया । उसे समझाया और जीवन में हर मोड़ पर, हरेक परिस्थिति से संघर्ष और समझौता करने की सलाह भी दी । फिर एक दिन उससे यह भी कहा,
" अगर घर में मन नहीं लगता है तो कहीं भी कुछ दिनों के लिए घूम-फिर आओ । वातावरण और स्थान का परिवर्तन शायद तुम्हारे दिल की दशा का भी परिवर्तन कर दे । "
साथ ही उन्होंने उसको कौसानी जाकर घूम-फिर आने का सुझाव भी दिया, क्योंकि कौसानी में उनके कोई इंजीनियर मित्र थे, वे उसके रहने और ठहरने का प्रबन्ध करा सकते थे. तब अपने पिता का सुझाव माँझी की समझ मेँ आया, और साथ ही उसकी माँ और बहन ने भी प्रयास किया तो वह एक दिन कौसानी चला आया ।
कौसानी आकर माँझी का मन एक बार को उदास ही रहा, परन्तु फिर धीरे-धीरे वहां के वातावरण में उसको एक आकर्षण नज़र आने लगा- वहाँ के खामोश, चट्टानी पहाड़ों ने उसे अपनत्व से देखा, तो वह उनसे मन-ही-मन वार्ता करने लगा । वहाँ कल-कल करते हुए, झरनों ने उसके दिल के दर्द की आवाज़ को सुना, तो उसमें अपने जल का संगीत भरने का प्रयास किया । वहां चारों तरफ पहाड़ थे । पत्थरों के पहाड़ । ख़ामोश । चुप । बेजान, मगर दूसरे के दर्द और दुखों से परिचित । वहाँ के वातावरण में जैसे उसकी ही कहानी थी । चीड़ की नुकीली पत्तियाँ हर रोज़ उसके दुखों का बयान लिखा करती। वहां की ठण्डी, शीतल वायु प्रतिदिन उसके कानों में फुस-फुसाकर, उसे कोई कहानी सुनाती और फिर धीरे-से चुपके से उसके गालों को प्यार करके सरक जाती थी । दिन होता तो पहाड़ों की वनस्पति उसका स्वागत करती रहती । चट्टानी पहाड़ उसके रक्षक बनकर, साये के समान उसके साथ-साथ चलते रहते और जब रात होती, तो चन्द्रमा अपनी तारिकाओं की बारात सजाकर पहाड़ की चोटियों पर आँख-मिचौली खेलने लगता । जब भी चन्द्रमा को बदली की लुका-छिपी से अवसर मिलता, तो मौका पाते ही अपनी चाँदनी का दूध पहाड़ों पर लुढ़का देता । इससे सारा इलाका ही दूधिया चाँदनी में जैसे नहा-सा जाता था ।
माँझी अक्सर ही चाँदनी रात में डाक बँगले से बाहर आ जाता था । बाहर आकर वह घण्टों बैठा-बैठा तारिकाआँ को ही निहारता रहता । फिर तुलना करता मैदानी क्षेत्र और पर्वतीय क्षेत्रों के शहरी जीवन में । मैदानी क्षेत्रों में कितना शोर था । और यहाँ कितनी शान्ति । वहाँ हर मनुष्य व्यस्त और भागा-भागा प्रतीत होता था और यहाँ हर किसी को जैसे हर दिल के दुख-दर्द का ख़याल रहता था । वहाँ अधिकांशत: प्यार करनेवालों के दिलों पर बेवफा, और बे-मुरब्बत इज़हारों की दास्तान थी और यहाँ प्यार की बलिवेदी पर एक-दूसरे की खातिर स्वाहा होने की करुण गाथा।
फिर एक रात...
माँझी हर रोज़ के समान डाक बँगले के बाहर बैठा हुआ था । चुपचाप । बहुत खामोश । उदास । अपनी टूटी हुईं हसरतों की बिखरी हुई कड़ियों को जैसे एक-एक करके समेटने की चेष्टा कर रहा था । आकाश में भरपूर चाँद था । पर्वत जैसे सफेद चाँदनी के दूध में नहाए हुए खामोश आकाश की छोटी-छोटी मद्धिम तारिकाओँ से मौन वार्ता कर रहे थे । चीड़ चुपचाप दिन-भर के थके-थकाए अपनी थकान उतार रहे थे । वायु बिलकुल शान्त थी । रात्रि के आठ बज रहे होंगे, चारों ओर खामोशी थी । साथ ही रात्रि की भरपूर निस्तब्धता । ऐसी रात की मौन, चुप्पी का सहारा लेकर माँझी बाहर बैठा हुआ कभी अपने अतीत की दर्दभरी स्मृतियों के बारे में सोचता था, तो कभी पर्वतों की चाँदनी-भरी, शान्ति और चैन से युक्त प्राकृतिक सुन्दरता को देखते-देखते अपने में ही खो जाता था ।
सहसा ही एक पतली, मोहक और मधुर आवाज़ ने उसका ध्यान भंग कर दिया । साथ ही घूँघरुओँ की खनक ने वातावरण में एक झंकार पैदा की तो माँझी स्वत: ही अपने स्थान पर खड़ा हो गया । खड़े होकर वह उस ओर चाँदनी की हल्की रोशनी में देखने की कोशिश करने लगा, जहाँ से किसी युवती के मधुर गीत और नृत्य की झनकारों ने उसकी चेतना के तारों को भी छेड़ दिया था ।
माँझी ने कुछेक क्षण खड़े-खड़े सोचा, विचारा । फिर उके समझते देर नहीं लगी कि किसी युवती ने अपने मधुर और सुरीले गीत के सुरों के द्वारा सारे वातावरण की खामोशी को तोड़ दिया था. हालाँकी वह युवती को तो नहीं देख सका, परन्तु स्वत: ही उसके कदम उस पहाड़ की चोटी की और बढ़ने लगे, जिस और से मधुर गीत के बोल सुनते और आते प्रतीत हो रहे थे। माँझी की उत्सुकता बढ़ने लगी तो वह थोड़ा और आगे बढ़ गया और खड़े होकर उस युवती के गीत को सुनने लगा । वह युवती अपनी प्यारी, मधुर और अपनत्व-भरी आवाज़ में जैसे किसी को पुकार रही थी । गीत के बोलों के अनुसार उसे किसी की प्रतीक्षा थी । साथ ही एक प्यार-भरी शिकायत भी । माँझी चुपचाप सारी आस-पास की खामोशी और रात की किसी भी भयंकरता से बेसुध होकर उस युवती का गीत सुनने लगा । वह युवती गा रही थी । साथ ही नृत्य भी कर रही थी। पैरों में बँधे हुए घुंघरुओँ की झनकार के साथ, गीत के बोल थे,
'बादल आते, छाँव फैलाते
झरने गाते, कल-कल करते,
पर्वत पूछें, नदिया कहती
मैं ही आती 'वह' न आते,
चिनार निहारते, शीश झुकाते
सबको सुनते, सबको गाते,
पंछी उड़ते, पंख फैलाते
एक तुम ही जो, कभी न आते.
रोज़ निहारू, रोज़ बुलाऊँ
अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ,
आँखें टक-टक तुम्हें निहारें
जब सावन में गिरें फुहारें,
तुम क्या जानो दिल की बातें,
मन ही जाने मन की चाहतें
अँखियों में तुम सदा ही बसते
पर सूने पथ पर कमी न होते,
बादल आते, छाँव फैलाते...
गीत के बोल एवं आवाज़ में इस कदर खिचाव और आकर्षण था कि माँझी दिल थाम के सुनता ही रह गया- इतनी अधिक दिलभरी और मीठी आवाज़ उसने आज से पहले कभी भी नहीं सुनी थी । वह इतना अधिक बेसुध हो चुका था कि गानेवाली ने कभी का गीत गाना समाप्त भी कर दिया था कि उसे पता भी नहीं चल सका था और अब मात्र वह नृत्य ही कर रही थी । इस बात की गवाही उसके घुंघरुओँ की झनकारें दे रही थीं, जो अभी तक पहाड़ी की इस शान्तिभरी रात्रि के अन्धकार का सीना चीरती हुई जैसे माँझी के दिलो-दिमाग में भी समाती जा रही थीं । माँझी से जब नहीं रहा गया तो वह सीधा उस और ही बढ़ने लगा, जहां से घुंघरुओं की खनक गूँजती हुई सारे वातावरण को झंकृत कर रही थी । वह बढ़ता गया । चलता गया । बिना किसी की परवा किए हुए । केवल मस्तिष्क में एक ही बात लिए हुए । कानों में एक ही आवाज के सुर का आकर्षण लिए । पहाड़ों की इस चाँदनी-भरी रात्रि में भी, जैसे वह शीघ्र ही उस पहाड़ की चोटी तक पहुँच जाना चाहता था ।
मार्ग कोई अधिक लम्बा नही था, परन्तु टेढ़ा-मेढा, पथरीला और चढाईं-भरा अवश्य था । ऊपर से रात्रि का मटमैला अन्धकार भी । माँझी को कठिनाई तो आ रही थी, परन्तु दिल की लगन पर उसे नियंत्रण नहीं था । वह शीघ्र ही वहाँ पहुँच जाना चाहता था, परन्तु तभी उसके अरमानों पर जैसे किसी ने जलती हुई लकड़ी रख दी । उसकी इच्छाओं और आकर्षण पर अचानक ही रोक लग गई । वह अभी कोई अधिक दूर नहीं पहुँच पाया था कि नृत्य करनेवाली ने अचानक से नृत्य करना बन्द कर दिया था । माँझी के बढ़ते हुए पैर जहाँ-तहाँ थम गए । वह अब आगे जा भी कैसे सकता था । उसका मार्गदर्शन तो समाप्त हो चुका था । वह थोड़ी देर तक वहीं खड़ा रहा । इस आस में कि शायद वह लइकी पुन: गीत गाना आरम्भ कर दे । शायद उसके घूँघरू बँधे पैर फिर से मचल उठें ।
पर खड़े-खड़े जब उसे अधिक देर हो गई, तो वह वहीं एक पत्थर पर बैठ गया । बेमन-सें । एक उम्मीद पर कि वह लड़की जब फिर से अभ्यास या गीत गाना आरम्भ करेगी, तो वह भी चल देगा, लेकिन इस प्रकार से क्या हो सकता था ? वह जिस प्रकार प्रतीक्षा कर रहा था, उस तरह कोई अन्य तो नहीं कर रहा था । उसने आशा लगा रखी थी, परन्तु नृत्य करनेवाली को थोड़े ही किसी की प्रतीक्षा थी, और न ही किसी की फ़रमाइश के लिए कोई आरजू ।
बैठे…बैठे जब काफी देर हो गई, और जब माँझी की यह महसूस हो गया कि गानेवाली शायद वहाँ से जा चुकी है, तो वह भी बे-मन से उठ गया । फिर थके-थके पाँवों से वापस डाक बँगले के अपने सूने कमरे में आ गया, और निराश मन से अँगीठी मेँ आग तापने लगा ।
बैठे-बैठे भी अभी तक उसके मस्तिष्क में एक ही आवाज़ गूँज रही थी । वही प्यारी, मधुर, सुरीली, अपनत्व-भरी आवाज़ । वही घुंघरुओँ की झनकार और एक ही प्रश्न- कौन थी ? कौन हो सकती है वह ? इतना अच्छा गाती है ? गाती है और नृत्य भी करती है । जब आवाज़ इतनी अधिक मधुर है, तो चेहरा कितना सुन्दर होगा ? इसका तो अनुमान लगाने की आवश्यकता ही नहीं थी । फिर उस अनजान, मधुर और प्यारी आवाज़ की स्मृति में उसे कब नींद आ गई, उसकी कुछ पता ही नहीं चला ।
सुबह जब उठा तो अच्छी-खासी धूप निकल आई थी । आज आकाश और दिनों की अपेक्षा फिर भी स्वच्छ था । सूर्यं की रश्मियों के प्रभाव के कारण वातावरण की ठण्डक और रात-भर का जमा हुआ कोहरा धीरे-धीरे साफ़ होता जा रहा था । उसके उठने पर, स्नान आदि से निवृत्त होकर वह अपने कपड़े पहन ही रहा था कि तभी डाक बँगले के चौकीदार ने चाय और नाश्ता लाकर रख दिया था । फिर वह जब खाने बैठा तो उसने चौकीदार को भी बुलाया और चाय पीने को दी । ऐसा वह रोज़ ही करता था । चौकीदार उसके लिए खाने आदि का प्रबन्ध करता था और माँझी उसे अपने साथ बिठाकर खिलाता था ।
“एक बात पूछूँ शाब ?” चाय पीते में चौकीदार ने कहा ।
“पूछो । ”
“ और कितने दिन यहाँ ठहरने का इरादा है आपका ?"
“कोई पता नहीं । ” माँझी ने गम्भीर होकर कहा ।
" मतलब ? "
"यही कि शीघ्र ही वापस भी जा सकता हूँ और हमेशा के लिए रुक भी सकता हू ? "
“ आप तो कहीं जाते भी नहीं हैं । लोग तो यहॉ घूमने आया करते हैं । " चौकीदार ने विस्मय से कहा ।
"हाँ, मुझे मालूम है, लेकिन मैं यहाँ घूमने नहीं आया हूँ । "
"घूमने नहीँ आए हैं तो फिर... ? " चौकीदार ने आश्चर्य किया ।
" अपने-आपको समझाने आया हूँ ।"
"... ? "
उसके इस उत्तर पर चौकीदार खामोश हो गया । उसने एक पल माँझी को निहारा । गम्भीरता से देखा, फिर जैसे कुछ न समझते हुए बोला,
" आप बहुत गम्भीर व्यक्ति हैं शाब । मैं कभी भूल से कुछ गलत-शलत कह दूँ तो माफ कर देना । "
“नहीँ-नहीँ ऐसी कोई बात नहीं है । " माँझी ने कहा ।
फिर नाश्ता करने के पश्चात् जब माँझी बाहर आया तो खिली हुई धूप देखकर उसका मन प्रसन्न हो गया । बाहर अभी भी हरी-हरी घास पर रात की ओस की बूँदें धूप के प्रकाश में छोटे-छोटे मोतियों समान चमक रही थीं । सहसा ही माँझी की दृष्टि उस पहाड़ की ओर गई जिस और उसने कल रात जाने की चेष्टा की थी । तब उसने डाक बँगले के चौकीदार से पूछा,
" इस पर्वत की तरफ क्या है ?” माँझी ने हाथ के इशारे से पूछा ।
“कुछ खाश नहीं, थोड़े-से घर हैं । एक 'छोटी-सी बस्ती है- कुलगुड़ी । " चौकीदार ने कहा । तब माँझी चुप हो गया।
उसे गम्भीर देखकर चौकीदार ने संशय से पूछा,
"क्यों, क्या कोई विशेष काम है उधर क्या ?”
"नहीं, काम तो नहीं । पर हाँ, कल रात उधर से कुछ नृत्य, संगीत की आवाजें आ रही थीं । "
“अरे शाब ! वह कुलगुड़ी की लड़कियाँ होंगी । प्राय: ही अपना अभ्यास करती रहती हैं । यहाँ थिएटर में काम करती हैं । " चौकीदार ने सहजता से कहा ।
"थियेटर ?" माँझी आश्चर्य से बोला ।
“हाँ शाब ! आप तो कहीं जाते नहीं हैं । यहाँ एक थिएटर भी है 'नृत्य-संगीत निकेतन' । जहाँ पर हर रोज़ कोई-न-कोईं कार्यक्रम होता ही रहता है । ”
"अच्छा ! कितनी दूर है यहाँ सें ?”
“ अधिक दूर नहीं, आप पैदल भी जा सकते हैं । ”
" अच्छा, ठीक है । मैँ हो सका तो जाकर देखूँगा । " यह कहकर माँझी पैदल ही आगे बढ़ गया और चौकीदार अपने अन्य कार्यों में लग गया ।
उसके पश्चात् माँझी किसी प्रकार सबसे पूछता हुआ उस थिएटर के सामने पहुँच गया । थिएटर इस समय बन्द था । यह एक छोटी-सी इमारत थी और बाहर से उस पर पर्वती नृत्य कला की तस्वीरें आदि लगी हुई थीं । एक ओर उसके अन्दर होनेवाले कार्यक्रमों का समय तथा शुल्क इत्यादि लिखा हुआ था । माँझी बहुत देर तक वहीं खड़ा रहा । फिर कुछ देर के पश्चात् थिएटर से थोड़ी ही दूर सड़क के एक ओर पड़े पत्थर पर बेमन से बैठ गया और सड़क पर आने-जाने वाले लोगों को निहारने लगा । सड़क पर आवागमन करते हुए लोगों में सभी प्रकार के लोग थे । स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियाँ एवं छोटे बच्चे भी जैसे स्कूल पहुँचने की शीघ्रता में चले जा रहे थे। हरेक व्यक्ति व्यस्त था । अपने में ही लीन एवं अपने-अपने कार्यों को जैसे शीघ्र ही पूर्ण करने के लिए उत्सुक भी ।
माँझी अभी तक वहीं अपने पूर्व स्थान पर बैठा हुआ था । बहुत चुपचाप । मौन और गम्भीर-सा । वह अभी अपने विचारों में लीन ही था कि तभी अचानक से एक साथ मिली-जुली खिल-खिलाहटों एवं हँसने का स्वर उसके कानों से जा टकराया । इस प्रकार कि वह सहसा ही चौंक गया । उसने आश्चर्य से इधर-उधर देखा । फिर पीछे की और निहारा तो देखकर एक संशय से ठिठक अवश्य ही गया, परन्तु कह कुछ नहीं सका । उसके पीछे की ओर से चार-पाँच लड़कियों का आता हुआ समूह जैसे उसे देखकर हँस पड़ा था । माँझी उन लडकियों की इस अप्रत्याशित कार्यविधि को देखकर कुछ समझा और नहीं भी । फिर जैसे ही उसकी दृष्टि उन लडकियों से मिली । वे सब-की-सब एक बार गुमसुम-सी तो हो गईं । साथ ही मौन भी, पर तभी वे सब एक साथ फिर हँस पड़ी । इस प्रकार कि माँझी को समझते देर नहीं लगी कि वे सब उसी को देखकर हँस रही थीं, पर क्यों ? वह यह नहीं जान सका । फिर वह उनसे कुछ कहता या पूछता तब तक वे सब उसके सामने से ही अपनी दबी-दबी हँसी के साथ आगे निकल गई और अन्दर थिएटर में दूसरे दरवाजे में घुस गई । इसके पश्चात दूसरा समूह आया तो वह भी उसे देखकर हँस पड़ा पर, धीरे-धीरे । इस प्रकार से कि वह नहीं समझ पाए, बाद में जो भी और लडकियाँ आईं वे भी सब उसे देखकर एक दबी-दबी हँसी के साथ, उसके सामने से निकलकर थिएटर में घुस गई थीं ।
अब तक माँझी यह तो समझ चुका था कि जितनी भी लड़कियाँ उसे देखकर हँस रही थीं, वे सब थिएटर में जानेवाली ही थीं । सड़क पर आता-जाता अन्य कोई और उस पर नहीं हँस रहा था । तब उसने सोचा कि या तो उसके हुलिए में कोई विशेष बात है अथवा अन्य कोई और कारण । इससे तो अच्छा है कि वह यहाँ से उठ ही जाए ।
माँझी अभी अपने मन में यह विचार बना ही रहा था कि तभी अचानक ही एक पतली, मधुर और कोमल आवाज़ ने उसे सम्बोधित किया,
"ऐ बाबू ! "
“... ? ” माँझी ने आश्चर्य से उस ओर देखा । एक बेहद प्यारी और सुन्दर लइकी ने उसे पुकारा था ।
" एक बात कहूँ ?" उस लड़की ने जैसे आज्ञा चाही ।
" ?" तब माँझी ने आश्चर्य से पुन: उसकी ओर देखा ।
" क्या आप भी सोलह दूनी आठ बनना चाहते थे ?” उस पर्वतीय-रूप सुन्दरी ने आश्चर्य से पूछा।
“जी.॰. ! मैं समझा नहीं । ” माँझी विस्मय से बोला ।
“ इसलिए तो आपको बताना चाह रहीँ हूँ । " उस लड़की ने कहा ।
“क्या ?"
"इस स्थान का नाम सोलह दूनी आठ है । जो भी यहॉ सुबह-सुबह आकर बैठ जाता है, वह सारे दिन के लिए इस थिएटर में काम करनेवाली लड़कियों के लिए हँसी और मजाक का कारण बन जाता है । "
" ओह ! " माँझी के मुख से स्वत: ही निकल पड़ा । फिर कुछ देर बाद वह आगे थोड़ा सोचकर उस लडकी से बोला,
"लेकिन आप... आप क्यों नहीं हँसी मुझ पर ? क्या आप भी इसी थिएटर में... ?"
"हाँ ! मैं भी इसी थिएटर में काम करती हूँ । लेकिन पता नहीं क्यों आपको देखकर मुझे हँसी नहीं आईं । ”
"चलिए, आपको कम-से-कम मेरी दयनीय स्थिति पर दया तो आई । ” माँझी बोला ।
"वैसे आप यहाँ कौसानी मेँ करते क्या हैं ?"
"कुछ भी नहीं । "
“कहाँ के रहनेवाले हैं । "
"शायद अब तो कहीं का भी नहीं हूँ । "
" ? अत्यधिक गम्भीर पुरुष लगते हैँ आप । "
"शायद ! "
" ?” इस पर वह लड़की चुप हो गईं । आश्चर्य से माँझी की ओर देखने लगी; तभी माँझी ने उससे पूछा,
"आपका नाम क्या है ?"
"माँ ने तो कुछ और ही नाम रखा था, पर इस थियेटर में सभी मुझको नैया कहकर बुलाते हैं । यूँ समझ लीजिए कि अब इस थिएटर की 'नैया' हूँ मैं ।”
" ? बहुत अच्छा नाम है आपका । "
"सब ऐसा ही बोलते हैं ।"
"मैँने तो कोई झूठ नहीं बोला है ।”
"मैं जानती हूँ... और आपका... क्या नाम है ? "
“ माँझी।''
".. ?" माँझी ने अपना नाम बताया तो नैया आश्चर्य से उसका मुख ताकने लगी । फिर गम्भीर होकर भेदभरी दृष्टि से देखते हुए उसे जैसे टोकते हुए बोली,
“ऐ बाबू.. ! “
".. ?" माँझी ने आश्चर्य से उसे देखा ।
“यह पर्वतों की सीधी-सच्ची दुनिया है । यहाँ इस तरह का मजाक नहीं करते हैं । कोई देख-सुन लेगा तो... ? "
“जी !” माँझी ने पुन: विस्मय से उसे देखा ।
“ जी हाँ ! अपनी सीमा में रहने की कोशिश कीजिए । " यह कहकर नैया गम्भीर होकर थिएटर में घुस गई और माँझी उसे आश्चर्य से निहारता रह गया- एक विस्मय के साथ । साथ ही सोचने भी लगा, 'कितनी अत्यधिक पुष्पों जैसी कोमल, सुंदर लड़की है और किस कदर गम्भीर वाकपटु भी ? शायद उसने मुझे गलत समझा है । '
माँझी यह सोचता ही रह गया कि क्या इस शहर में सारे-के-सारे लोग अजीब और ग़रीब ही हैं ? कल से जैसे सबकुछ अनहोना-सा ही हो रहा है । कल रात कोई मधुर आवाज़, नृत्य करती, गाती हुई अनजानी बाला विलीन हो गई और आज सुबह-सुबह सब मजाक और व्यंग्य का कारण भी वह बना । और अब ये पर्वतों की भोली भाली, अनोखी-अनुपम-सी सुन्दर युवती उसे सन्देहभरी नजरों से देखकर, जैसे उससे नाराज़ और खिन्न होकर चली गई थी । उसे क्या पता किं यह मात्र संयोग ही था कि उसका नाम नैया है और माँझी का माँझी । पर उसे कैसे समझाया जाए ? किस प्रकार विश्वास दिलाया जाए कि वह ऐसा नहीं है, जैसाकि वह सोचकर चली गई है । वह तो यहाँ अपने मन को समझाने आया है और आज बगैर किसी बात के यूँही उसका मन ख़राब हो गया था । इसलिए वह चुपचाप, अपने डाक बँगले के कमरे में फिर आ गया ।
कमरे में आया तो चौकीदार तो था नहीं, परन्तु आज का दैनिक समाचारपत्र अवश्य उसके पलंग पर रख गया था । माँझी चुपचाप वह समाचारपत्र बैठकर पढ़ने लगा । फिर जैसे ही उसने प्रथम पृष्ठ पर कौसानी के 'नृत्य-संगीत निकेतन' के विज्ञापन पर उसकी दृष्टि अटक गई । अभी-अभी जिस थिएटर की ओर से वह वापस आया है, उसी थिएटर मेँ नए कलाकारों के साथ-साथ एक कला संयोजक की भी आवश्यकता का विज्ञापन दिया गया था । यह उसकी पसन्द के कार्य का विज्ञापन था, जिसमें उसकी कला के साथ-साथ, उसकी आजीविका का भी प्रबन्ध था । आखिरकार उसे संसार में रहने के लिए कहीं तो मन लगाना ही था । फिर क्यों न यहीं कौसानी में इस 'नृत्य संगीत निकेतन' में इस पद के लिए वह भी अपना प्रार्थनापत्र लगा दे ? ऐसा सोचते हुए वह समाचारपत्र हाथ में मोड़कर, पकड़कर सीधा पुन: थिएटर की और वापस हो लिया।
वहाँ पहुँचकर उसने अपना प्रार्थनापत्र भरा और फिर तुरन्त ही प्रस्तुत भी कर दिया । वहाँ कार्यालय में बैठे हुए व्यक्ति ने उसके प्रार्थनापत्र पर कुछ निर्देश-से लिखे और फिर उसने उसे दो सप्ताह पश्चात् साक्षात्कार के लिए आने को कहा और साथ ही लिखित में भी एक पेपर दे दिया। तब माँझी आवश्यक निर्देश लेकर वहाँ से वापस आ गया ।
माँझी का एक सप्ताह और इसी प्रकार व्यतीत हो गया । कभी वह पहाड़ों पर बैठा रहता । बैठा-बैठा पर्वतीय वनस्पति और झूमते हुए चिनारों से बातें करता रहता । कभी भी कहीँ भी चल देता। बिना किसी उद्देश्य के, तो कभी कुंलगुड़ी के पहाड़ पर नृत्य करनेवाली उस अज्ञात स्वरों की मलिका के लिए सोचने लगता, जिसने एक ही बार में उसका मन आकर्षित कर लिया था । कभी वह थिएटर में काम करनेवाली नैया के विषय मेँ सोचता था, जो बिना किसी भी वज़ह के उसे ग़लत समझकर मुँह फेर बैठी थी । इसी प्रकार की मन में बसी दिनचर्या के साथ उसका दिन कट जाता था ।
रात आती थी तो पर्वतों की शान्ति-भरी रात्रि से वह जैसे उसके दिल की कहानियाँ सुनने लगता था, परन्तु इतना होने पर भी प्राय: सुधा की याद और उसका रूप उसके ज़हन के पर्दों पर अचानक से दस्तक दे देता, तो स्वत: ही उसका दिल एक अनकही पीड़ा के मर्म से दुखित हो जाता था । आँखे स्वत: ही नम हो जाती थीं । चेहरा एक विषाद का बादल ओढ़कर उदास पड़ जाता । फिर धीरे-धीरे सोचते हुए सुधा के चेहरे का प्रतिबिम्ब धूमिल पड़ने लगता और बाद में कभी वह नैया के बेमिसाल सौन्दर्य में परिवर्तित हो जाता तो कभी उस अज्ञात लइकी के बारे में जिसने कभी एक बार उसको अपने नृत्य-संगीत की झनकारों का जैसे कोई जाम पिला दिया था।
फिर धीरे-धीरे उसके साक्षात्कार का दिन भी आ गया । निश्चित समय पर वह 'नृत्य-संगीत निकेतन' में पहुँच भी गया । वहाँ उसका साक्षात्कार हुआ । निकेतन की निदेशक कोई महिला थीं । वे माँझी की उपाधियों से काफी प्रभावित भी हुईं । इस कारण उन्होंने माँझी को अपने थिएटर में रख भी लिया और उसको थिएटर के स्टेज की पृष्ठभूमि बनाने और सँवारने का कार्य सौंप दिया । यह कोई आसान कार्य नहीं था, परन्तु माँझी के लिए उसके जीवन का एक नया पथ अवश्य ही था । यहाँ से एक प्रकार से उसे अपनी नईं जिन्दगी का पहला पग रखना था । पिछली कहानी जो पूरी नहीं हो सकी थी, उसको पूरा करने के लिए या अधूरी कहानी का जो दर्द उसके जीवन में घुल गया था, उसको जीवन में किसी नईं आहट के द्वारा कम करना था । यह वह नहीं जानता था । फिर जीवन का सफ़र काटने के लिए जैसे जीवन का सुरक्षित रहना बहुत आवश्यक होता है, उसी प्रकार मंजिल पाने के लिए किसी मार्ग का होना भी अत्यन्त आवश्यक है । यह और बात है कि मंजिल मिले और नहीं भी, पर मार्ग पर चलना तो चाहिए ही ।
माँझी को एक प्रकार से नौकरी मिल गई, तो उसके दिल में जैसे एक नईं उमंग ने भी जन्म ले लिया । यहाँ उसके लिए वैसे भी सबकुछ नया था । नईं जगह । नया शहर । नए लोग । इन सभी से उसे मेल-जोल और परिचय करना था । अपने सम्बन्ध बनाने थे । एक नईं दिशा में आगे बढ़ने के लिए सचेत रहना था । फिर इस प्रकार उसको शीघ्र ही निकेतन के नए नाटक 'पथिक, जो कहीं का भी नहीं' का कार्यभार सौंप दिया गया ।
फिर धीरे-धीरे माँझी ने अपने इस नए कार्यं में मन लगाना आरम्भ कर दिया । अपने थिएटर के इस नए नाटक के लिए मन से कार्य किया । एक से बढ़कर एक सुंन्दर और आकर्षक सेट तैयार किए । दिन-रात काम किया । इस प्रकार कि निकेतन की निदेशक भी उसके कार्यो और उसकी सूझ-बूझ की प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सकीं । वह शीघ्र ही निकेतन के अन्य कर्मचारियों और कार्यकर्ताओं के मध्य चर्चित हो गया, परन्तु फिर भी अभी तक निदेशक ने उसका परिचय किसी कलाकार से नहीं करवाया था । शायद यह इतना अधिक आवश्यक भी नहीं था । ऐसा उन्होंने सोचा होगा, क्योंकि माँझी उनके लिए स्टेज के पीछे कार्य करनेवालों की सूची में था ।
फिर एक दिन वह भी आ गया जबकि थिएटर का नया नाटक आरम्भ होना था । थिएटर में इस नाटक का पहला दिन था । सभी टिकटें पहले ही दिन बिक चुकी थीं । माँझी भी आज अपने कार्य पर समय से पहले ही आ चुका था और वह कार्यालय में अपना कुछ पेपर सम्बन्धी कार्य देख रहा था कि तभी अचानक ही उसका सामना नैया से हो गया । वह भी माँझी को यूँ अचानक से पाकर आश्चर्य कर बैठी । तुरन्त ही उसके मुख से निकल पड़ा,
" आप और यहाँ ?"
“हाँ !”
" यहाँ क्या कर रहे हैं ?“ वह आश्चर्य से पूछ बैठी ।
" अपना काम । ” माँझी ने इतना ही कहा ।
"कैसा काम ?"
" 'पथिक जो कहीं का भी नही' का कार्य ।"
"... ?" खामोशी ।
इस पर नैया जैसे उसे आश्चर्य से घूरने लगी । फिर वह माँझी के चेहरे को गम्भीरता से पढ़ते हुए बोली,
" एक बात कहूँ ?”
" अवश्य । "
" आपने क्या झूठ बोलने की कसम खा रखी है ?"
" ?"- इस पर माँझी भी नैया को गम्भीरता से देखते हुए बोला,
" यदि आप आज्ञा दूँ , तो एक बात मैं भी कहूँ ?"
"हाँ ! "
" क्या आपने भी संयोग को सन्देह की दृष्टि से देखने और मुझ पर विश्वास न करने की जिद ले रखी है ?"
"कैसा संयोग ?" नैया आश्चर्य से बोली ।
इस पर माँझी ने उसे समझाना चाहा । वह बोला,
" अब यह एक संयोग ही तो है कि आपका नाम नैया है, और मेरा... "
माँझी की बात पूरी होती, इससे पूर्व हो थिएटर की निदेशक अचानक से उसके सामने आती दिखाई दीं, वे माँझी को देखते हुए बोलीं,
" अरे मिस्टर माँझी. आप यहाँ ? मैं जाने कहाँ-कहाँ ढूँढती फिर रही हूँ आपको ?"
"जी कहिए ।“ माँझी बोला ।
“ पहले यहॉ का कार्य समाप्त कर लो फिर मेरे कार्यालय में आना । " यह कहकर उन्होंने नैया को देखा । फिर उसको ओर देखते हूए माँझी से बोली,
"यह बहुत ही प्यारी और सीधी-सादी कलाकार है मेरी । देखना किसी दिन स्टेज की रानी कहलाएगी । "
इस पर माँझी उनसे बोला, " ये सीधी और प्यारी हैं, पर मुझसे तो बेहद ही नाराज़ रहती हैँ । "
"नाराज़ ! क्यों नैया, ऐसी क्या बात है ?” उन्होने आश्चर्य से नैया से पूछा ।
"जी कोई नहीं । ” यह कहकर नैया चुपचाप वहाँ से चली आई ।
तब निदेशक ने माँझी से कहा,
"बहुत ही अच्छी लइकी है, पर स्वभाव से जितनी जल्दी नाराज़ होती है, उतना ही शीघ्र दूसरे मेँ घूल-मिल भी जाती है । लेकिन आपसे नाराज़गी की वज़ह... ? ”
तब माँझी ने उन्हें विस्तार से सारी बात बता दी । इस पर क्षणभर को वे भी हँस पड़ी । फिर माँझी को समझाते हुए बोली,
"आप चिन्ता न करें, मैं समझा दूँगी उसे । "
उसके पश्चात् शाम को उस नाटक का पहला शो हुआ । दर्शकों की तालियों की गड़-गड़ाहट से थिएटर का हाँल कई मिनर्टों तक गूँजता रहा । दर्शकों को जहाँ नाटक की कथा, संवाद, ध्वनि आदि ने प्रभावित किया था, वहीं उनको उसके नए और आकर्षक सेट भी अत्यधिक पसन्द आए थे । माँझी ने अपनी सूझ-बूझ से स्टेज की पृष्ठभूमि' को सजाने में एक विशेष आकर्षण दे दिया था । इस प्रकार कि वह पहले दिन के पहले शो से ही दर्शकों के लिए अपरिचित नहीं रह सका था और नैया ? उसको तो जैसे काटो तो रक्त ही नहीं था । आश्चर्य के कारण उसका ठिकाना ही नहीं था, क्योंकि माँझी के प्रति उसने जो कुछ भी सोचा था । जैसी भी धारणाएँ वह अपने मन में बनाए हुए थी, वे सब-की-सब ग़लत साबित हो चुकी थीं । कहाँ, उसने माँझी को मैदानी क्षेत्र का एक लापरवाह, गैर-जिम्मेदार, अविश्वासी युवक समझ रखा था । युवक भी ऐसा जो कि उसकी दृष्टि में किसी भी तरह से महत्वपूर्ण नहीं बन सका था, परन्तु अब ? अब वह हकीकत का पर्दा हटते ही उसके सारे शरीर में जैसे हलचल मचा गया था । कहाँ उसकी दशा, उसकी खामोशी देखकर, कुछ दिनों पूर्व वह उस पर दया खा रही थी और अब जैसे वह स्वयं में ही इतनी छोटी हो गई थी कि माँझी उसके लिए उसकी आँखों के समक्ष ही इतनी सीढ़िया चढ़ गया था कि वह उससे बिलकुल नीचे रह गई थी ।
फिर उसके पश्चात् यही सिलसिला चलता रहा । माँझी अपने कार्य में रुचि लेता रहा । वह समय से आता और समय से ही वापस भी चला जाता था । इतने दिनों के मध्य वह सारे नृत्य-संगीत निकेतन के लोगों के लिए अपरिचित तो नहीं रह सका था, परन्तु किसी से अभी तक अधिक घुल-मिल भी नहीं सका था । वह बस चुपचाप अपना काम करता । अपने से ही मतलब रखता और स्वयं में ही जैसे खोया-खोया रहता था । इतने दिनों में नैया उससे प्रभावित तो हो चुकी थी । वह उसके नज़दीक भी आना चाहती थी, परन्तु माँझी की आवश्यकता से अधिक गम्भीरता और चेहरे की खामोशी को देखकर जैसे आगे बढ़ने से पहले ही पीछे हट भी जाती थी। माँझी ने उसके दिल में कोई सम्मानित स्थान तो बना लिया था परन्तु वह स्वयं माँझी के हदय में अभी तक ऐसी कोई भी बात उत्पन नहीं कर सकी थी कि जिसके कारण वह माँझी की रुचि का कारण भी बनती । जहाँ वह माँझी के व्यक्तित्व और उसकी विशेषताओं से प्रभावित हुईं थी, वहीं वह उसके चेहरे पर छाई हुई बेहद खामोशी के पीछे छिपी आवाज़ को भी सुन लेना चाहती थी । यूँ भी उसने माँझी को न जाने क्यों अपने में ही गुमसुम रहना- सदैव अकेले एकान्त में घण्टों बैठे रहना और आकाश की शून्यताओँ से जैसे बातें करते ही पाया था । कभी भी वह माँझी को हँसते, मुस्कराते और चहकते नहीं देख सकी थी । वह अब तक यह तो समझ चुकी थी कि माँझी के मन में अवश्य ही ऐसी कोई बात है, जिसकी वज़ह से वह भीड़ में भी अपने आपको सदैव अकेला ही महसूस करता है । अवश्य ही यह खामोशी और एकान्त प्रिय युवक जीवन में कोई ऐसी चोट खा बैठा है कि जिसका बयान जैसे वह अब नहीं करना चाहता है और ना ही उसकी किसी पुनरावृति ही को जन्म देने के पक्ष में है । उसने अब तक जब भी माँझी को फुर्सत में देखा था, तो सदैव अकेले एकान्त में, चुपचाप गम्भीर और सोचों में डूबा हुआ ही । वह घण्टों एक ही स्थान पर अकेला बैठा न जाने क्या सोचता रहता था ? यह वह अब तक नहीं समझ सकी थी ।
फिर एक दिन...
आधी छुट्टी के समय प्रतिदिन के समान माँझी निकेतन के लॉन में आकर बैठ गया था । रोज़ के समान वह बैठा हुआ जैसे अभी अपने चारों तरफ़ की छाई खामोशी को एक साथ समेटना ही चाहता था कि तभी नैया ने उसे देखा, तो देखकर माँझी की दशा पर तरस आया और साथ ही बुरा भी लगा । तरस इसलिए आया कि उसके जीवन में इस क़दर अकेलापन होगा, वह सोचती भी नहीं थी और बुरा इसलिए लगा कि चाहते हुए भी वह उसके लिए अभी तक कुछ कर नहीं पा रही थी । तब नैया से जब नहीं रहा गया तो वह अपना दोपहर का भोजन लेकर माँझी के आस-पास आ गई और माँझी को और देखते हुए उससे शान्त स्वर में बोली,
" आपको यदि आपत्ति न हो, तो मैं भी यहीं बैठकर खाना खा लूँ ? "
"... ? " तब माँझी ने नैया को निहारा । गम्भीरता से । फिर उसकी और देखते हुए बोला,
"सारा कौसानी ही आपका है । आप चाहें तो कहीं भी बैठ सकती हैं । "
"कौसानी में तो आप भी रहते हैं । " नैया ने भेद-भरे स्वर में कहा ।
“ आप कहेंगी तो यहाँ से चला भी जाऊँगा । "
"अच्छा ! मेरे कहने पर क्या आप सचमुच ही चले जाएँगे ?"
" आप कहकर तो देखिए । "
“मेरे कहने से क्या होता हैं ? और फिर आप जाएँगे भी कहाँ ? आप तो कहीँ के भी नहीं हैं । सिवा यहाँ के । "
नैया ने फिर भेदभरे ढंग से कहा तो माँझी ने उत्तर दिया,
"कौसानी मेरे जीवन की मंजिल तो नहीं है ।”
"ठिकाना तो आपका वहाँ भी नहीं था, जहाँ से आप आए हैं ।” नैया बोली ।
"आपको कैसे ज्ञात हुआ ?" माँझी आश्चर्य से बोला ।
"लो, यह भी कोई पूछनेवाली बात है ? आपकी गतिविधियों से । आपके गम्भीर स्वभाव के पीछे छिपी हुई आवाज़ के दर्द से । आप क्या समझते हैं कि अपने मन की बात को अपने तक सीमित रख लेंगे तो क्या अपने हाव-भाव भी छिपा लेंगे?"
" ?" नैया की इस बात पर माँझी खामोश हो गया । तब नैया ने ही बात आगे बढाई । वह बोली,
"आपका नाम माँझी है न ?"
" पर आपने तो मेरा नाम सोलह दूनी आठ रखा था ?"
“मैं मजाक नहीं कर रही हूँ ।”
“मजाक़ तो मैंने भी नहीं किया था । केवल सच बोला था । "
“ उसी सच की सजा अब तक भुगत रही हूँ । क्या और भी सजा देना बाकी है ?" नैया जैसे बिफरकर बोली । .
"नहीं, ऐसी कोई भी बात नहीं है । आप मेरे लिए पहले भी निर्दोष थीं । अभी भी हैं और रहोगी भी । जो कुछ भी हुआ था, वह सब संयोग था ।"
"सच । " नैया जैसे प्रसन्नता से उछल पड़ी ।
"बिलकुल सच ।" माँझी बोला ।
" इसका अर्थ है कि आप मेरे मित्र और मैं आपकी मित्र । अब तो हम दोनों मित्र हो गए न ? " नैया प्रसन्न होकर बोली ।
"हाँ, मित्रता केवल एक-दूसरे की सहायता करने तक ही सीमित रहेगी । " माँझी बोला । '
"तो चलिए, आज़ इसी बात पर हम दोनों एक साथ बैठकर खाना खाते हैं ।" नैया ने आग्रह किया ।
" पर मेरे पास तो खाना नहीं है । " माँझी ने कहा ।
“मेरे पास है । आपको क्या मालूम कि मैं रोजाना कम-से-कम दो जनों का खाना बनाकर लाती थी और आप थे कि कभी चक्कर में ही नहीं आते थे ।"
"चक्कर .. "
"मेरा मतलब, आपने कभी साथ बैठकर खाने का अवसर ही नहीं दिया । "
तब नैया, माँझी के पास आकर बैठ गई । अपने साथ लाए हुए खाने को उसने दो भागों में बाँटा और माँझी को देने के पश्चात् स्वयं भी खाने बैठ गई । वह अपने लिए भिण्डी की सब्जी, पराँठे और हरी मिर्च का अचार साथ लेकर आई थी । फिर दोनों साथ बैठकर खाने लगे । खाते-खाते तभी नैया ने कहा,
"खाना ठण्डा है इसलिए उतना अच्छा तो नहीं' लगेगा जितना कि गर्म लगता । "
"कोई बात नहीं' । ठण्डा तो रोज ही खाता हूँ । " माँझी बोला ।
"ठण्डा खाना ? क्यों आपकी 'नैया' का क्या हुआ ? वह डूब गई या फिर… ?" नैया ने आश्चर्य से पूछा ।
"कोई दूसरा ले गया । " माँझी गम्भीर होकर बोला ।
" और आपने कोई आपत्ति नहीं उठाई ?”
" आपत्ति से क्या होता है ? रोका तो उसे जाता है जो नहीं जाना चाहे, और जो खुद ही चला जाए, उसके लिए क्या किया जा सकता है ?" माँझी पुन: गम्भीर हो गया तो नैया ने आहिस्ता से पूछा,
"कौन है वह ?"
" थी कोई । "
"ठीक है, नहीं बताना चाहते हैं, तो कोई बात नहीं । फिर कभी बता दीजिए, लेकिन अधिक सोचा-विचारा मत करिए । इससे स्वास्थ्य ख़राब होता है । अच्छा ! अब चलते हैं । लंच का समय भी समाप्त हो गया है । ”
यह कहकर नैया उठकर खड़ी हो गई । साथ ही माँझी भी उठ गया । फिर दोनों ही साथ-साथ आगे बढ़ने लगे । चलते-चलते नैया ने पूछा,
" आप रहते कहाँ हैं ?”
"डाक बँगले में ।"
"वहाँ तो पैसा बहुत लगता होगा ? "
"हाँ, लगता तो है, लेकिन क्या किया जाए ? यहाँ अजनबी हूँ । कोई रहने को जगह भी नहीं देता है । " माँझी ने अपनी परेशानी बताईं ।
" अगर आप कहें तो मैं कोशिश करूँ । कोई स्थान देखूँगी मैं, अपने यहाँ कुंलगुड़ी में । "
"' देख लीजिए, यदि आपकी यही इच्छा है । "
"तो ठीक है । मैँ प्रबन्ध कर दूँगी, आप निश्चिन्त रहें । " तब तक वे लोग निकेतन के द्वार तक आ गए थे, इसलिए वार्तालाप स्वत: ही बन्द हो गया और फिर वे वहाँ से अपने-अपने स्थान पर चले गए । उई
और फिर जब संध्या समय निकेतन की पूरी छुट्टी का समय हुआ तो नैया पुन: माँझी के पास आ गई । लेकिन माँझी अभी भी अपना कार्यं कर रहा था । वह नैया की उपस्थिति से अब तक पूर्ण अनभिज्ञ ही था । उसने नज़र उठाकर देखा भी नहीं था । परन्तु नैया ने उसके कार्य में विघ्न डालना उचित नहीं समझा, सो वह चुपचाप वहीं एक कुर्सी पर बैठ गई । बहुत खामोशी के साथ और शान्ति से अपने कार्यं में लीन माँझी की गतिविधियों को निहारने लगी ।
तभी माँझी सहसा ही, किसी कार्य के लिए उठा तो उसकी दृष्टि चुपचाप बैठी नैया को देखकर ठिठक गई । वह आश्चर्य से उसे बैठा देख विस्मय के साथ बोला,
" अरे आप । आप कितनी देर से आई हैं यहाँ ? "
"मुझे तो काफी देर हो गई है । ” नैया बोली ।
"तो आपने बताया क्यों नहीं ? ” माँझी ने कहा ।
"आपके कार्य में विघ्न नहीं डालना चाहती थी, इसलिए । "
"यह कोई इतना महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं है । खैर ! कहो कैसे आना हुआ ?” माँझी ने पूछा ।
“ आपको याद दिलाने आईं थी कि छुट्टी का समय हो चुका है । क्या रात में भी काम करने का इरादा है ? ”
"नहीं, ऐसा कोई ख़याल नहीं है । यह तो काम है, जो कभी समाप्त नहीं होता है । हाँ, इन्सान जनरूर ख़त्म हो जाता है । "
"... ? " इस पर नैया जैसे गम्भीर हो गई । वह माँझी के गम्भीर चेहरे को देखते हुए बोली,
" आप कभी-कभी इतनी गम्भीर बातें क्यों करने लगते हैं? "
“ इसलिए, क्योंकि मेरे लिए जीवन में मनोरंजन नाम की किसी भी वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं रहा है ।”
“ अवश्य आपने जिन्दगी में कोई बहुत बड़ी चोट खाई है, इसलिए ऐसी उखड़ी-उखड़ी, टूटी बातें करते हैं आप, वरना जीवन तो जीवन होता है । इसको गुजारना चाहिए । जबरन जिन्दा रहकर उम्र पूरी करने की मूर्खता नहीं की जाती है । ”
" अब गम्भीर बातें तो आप भी करती हैं । " माँझी आश्चर्य से बोला ।
“मैं गम्भीर नहीं, समझदारी की बात कह रही हूँ । ”
"... ? " इस पर माँझी खामोश हो गया । वह कुछ बोला नहीं, केवल नैया को चुपचाप निहारने लगा । फिर कुछेक क्षणों के पश्चात् उसने कहा,
"अच्छा छोड़िये भी अब इसको । यह बताइए कि कैसे आना हुआ था ?"
“ आपसे एक बात कहनी थी । ‘“
“कहिए । “
“ पहले वादा कीजिए कि इसे अन्यथा नहीं लेंगे । " नैया बोली ।
“वादा कैसा ? आप कहिए तो । मैं कभी भी किसी की बात का बुरा नहीं माना करता । "
तब नैया ने जैसे थोड़ा सकुचाते हुए कहा,
" आप तो डाक बँगले में रहते हैं अभी ?”
"हां ! "
“मैं भी उसी तरफ़ जाती हूँ ।"
"हां, मुझे मालूम है । आप डाक बँगले के पास ही कुलगुड़ी में रहती हैं । "
"मेरी एक परेशानी है । आप चाहें तो हल कर सकते हैं । ”
“कहिए क्या कर सकता हूँ मैं ?"
"जब मैं अपने घर की और जाती हूँ तो मार्ग में प्रतिदिन आते-जाते एक लड़का है, जो मुझे छेड़ा करता है ।"
" आप इतनी अधिक सुन्दर हैं, कोई भला अपने पर संयम रख भी कैसे सकता हैं ?"
माँझी बोला ।
"यह व्यंग्यवाली बात नहीं है । " नैया ने जैसे उसे टोका ।
"तो फिर वह आपको बेहद प्यार करता होगा ? "
"प्यार करनेवाले कभी भी अपने प्यार का मजाक़ नहीं उड़ाया करते हैं । उसकी पूजा करते हैं । खामोश रहते हैं, और मन-ही-मन जैसे उसकी आराधना करते हैं । "
“बहुत बड़ा अनुभव है आपको ?" माँझी ने कहा ।
"ऐसा कोई भी अनुभव नहीं है । केवल जीवन की सच्चाई बता रही हूँ । " नैया जैसे गम्भीर हो गई ।
"तो फिर मैं क्या कर सकता हूँ इसमें । " माँझी ने पूछा ।
"मैं चाहती हूँ कि जब तक वह चुपचाप मेरे रास्ते से हट नहीं जाता है, तब तक आप मुझको मेरे घर तक छोड़ आया करें । वह आपको मेरे साथ देखेगा तो कुछ नहीं बोलेगा । " नैया बोली ।
"ठीक है, लेकिन इस तरह से लोग हम दोनों को साथ-साथ देखेंगे तो क्या कहेंगे ?" माँझी ने पूछा ।
“मुझे उनकी परवाह नहीं है । " नैया ने दृढ़ता से कहा ।
"परन्तु मुझे तो हो सकती हैँ । मेरे कारण लोग आप पर अँगुली उठाएँ- रुसवाइयाँ करें और अफ़साने बनाएँ ? मैं यह सब कैसे बर्दास्त कर सकूँगा ?" माँझी ने कहा ।
"... ?" खामोशी । माँझी के इस कथन पर नैया क्षणभर को खामोश हो गई । साथ ही गम्भीर भी । वह मायूसी से माँझी को देखते हुए बोली,
"लगता है आपको मुझसे अधिक अपनी ज्यादा चिन्ता है ?"
"नहीं, ऐसा कभी मत समझिएगा । मैं क्या चिन्ता करूँगा अपनी ? मैं तो जीते जी जलती हुईं चिता में सौंप दिया गया था । पता नहीं किसकी खुशबू की वज़ह से यहाँ तक चला आया हूँ ?"
" आप फिर गम्भीर हो गए । मैं तो आपको परिस्थितियों से संघर्ष करना सिखाना चाहती हूँ । "
"संघर्ष ? कैसे करूँ ? किसके लिए करूँ ? मेरी तो सारी किश्तियाँ ही जल चुकी हैं । " माँझी का स्वर जैसे उदास हो गया ।
"मैं आपका दर्द जानती तो नहीं हूँ लेकिन महसूस अवश्य कर रही हूँ । क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मित्रता के नाते मैं आपके दुख…दर्द की भागीदार बन जाऊँ ? “ नैया उसके पास आकर बोली।
“उससे आपको क्या मिलेगा ? नाहक परेशान और होंगी । "
" क्या जीवन में सारे कार्य लाभ और हानि के स्वार्थवश ही किए जाते हैं ? मन की शान्ति और आत्म-सन्तुष्टि जैसी क्या कोई बात नहीं होती हैं ?"
" ... ? " - खामोशी । माँझी ने उसे खामोशी से देखा तो नैया ने आगे कहा,
" देखिए, हम दोनों मित्र हैं । एक ही स्थान पर कार्य भी करते हैं और एक-दूसरे को थोड़ा बहुत जानते भी हैँ । फिर ऐसी स्थिति में भी यदि मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकी तो मुझे काफी दुख होगा । "
“दुख, ?”
“ जी हाँ ! मैं जानती हूँ कि आप एक बेहद बुझे हुए इन्सान हैं । यदि मेरे सहयोग या दख़ल से आपके जीवन में कोई चिंगारी हवा पकड़ती है तो इसमें बुराई ही क्या है ? "
" लेकिन... "
" क्या... ?”
"मुझे जीना मत सिखाइए । मैं जीना नहीं चाहता हूँ । ”
" आदमी जब अपने लिए मर चुका होता है, तो उसे कभी-कभी दूसरों के लिए भी जिन्दा रहना पड़ता है । " नैया ने कहा ।
"दूसरे के लिए, किसके लिए ?" माँझी ने आश्चर्य से कहा ।
" आँखें खोलकर देखेंगे और दिल से महसूस करेंगे तो आपको ऐसे बहुतेरे लोग मिल जाएँगे जो केवल आपकी जिन्दगी और खुशियों के मोहताज हैं । " नैया ने आत्मविश्वास से कहा ।
“... ?" इस पर माँझी निरुत्तर हो गया ।
फिर थोड़ी देर तक दोनों में से कोई भी कुछ नहीं बोला । दोनों ही मूक बने रहे । साथ ही गम्भीर और शान्त भी । तब काफी देर पश्चात् नैया ने ही आपस के मध्य छाई खामोशी को तोड़ा । वह बात आरम्भ करते हुए बोली,
" फिर क्या सोचा है आपने मेरे लिए । मुझे छोड़ने जाया करेंगे अथवा नहीं ?”
"ठीक है, जैसी आपकी इच्छा है । " माँझी ने अपनी स्वीकृति दे दी तो नैया जैसे तुरन्त ही खिल गई । उसके चेहरे पर तुरन्त ही एक विजयभरी मुस्कान थिरक गई । वह प्रसन्न होकर बोली,
"मुझे भी आपसे ऐसी ही आशा थी । "
उसके पश्चात नैया ने माँझी के कार्य में सहायता की । ज़ल्दी-जल्दी उसका काम समाप्त करवाया और फिर वे दोनों निकेतन से छुट्टी करके बाहर आ गए ।
इस प्रकार माँझी प्रतिदिन ही नैया को उसके घर तक छोड़ने जाने लगा । पहाड़ी मार्ग पर नैया प्राय: रोज़ ही उसके साथ होती । दोनों साथ-साथ जाते । धीरे-धीरे बातें करते और जैसे एक-दूसरे का सहारा बनकर अपने-आपको सुरक्षित और प्रसन्न महसूस करते थे । नैया अब हर दिन ही माँझी के लिए दोपहर का भोजन अपने साथ लाने लगी थी । फिर जब भी दोपहर की छुट्टी का समय होता तो दोनों एक साथ मिलकर कहीं भी एकान्त में बैठकर खाते । बातें करते और समीप आने की कोशिश भी करते ।
हालाँकि माँझी के अपने दिल में ऐसा कुछ भी नहीं था । वह बिलकुल सामान्य था, परन्तु इधर कुछ दिनों से जैसे वह भी महसूस करने लगा था कि नैया जैसे उसको अपने दिल में एक विशेष स्थान देने लगी है । वह नैया के लिए एक विशेष महत्त्वपूर्ण पुरुष बनता जा रहा है, क्योंकि कभी-कभी उसने यह महसूस किया था कि राह चलते अक्सर ही नैया अब उसका हाथ थाम लेती थी । मीठी-मीठी, प्यारभरी बातें करती थी और प्राय: यह कोशिश करती थी कि वह माँझी के सामीप्य में अधिक-से-अधिक देर तक बनी रहे । वह माँझी की जैसे हर बात, हरेक इच्छा का ख़याल भी रखने लगी थी । यहाँ तक कि दोपहर के भोजन में भी वह अब माँझी की पसन्द का ही भोजन बनाकर लाने लगी थी । उसके वस्त्रों पर ध्यान देने लगी थी । माँझी कभी-कभार जब भी अपनी दाढ़ी नहीं बना पाता था, तो उसे टोक भी देती थी ।
फिर धीरे-धीरे वह दिन भी आ गया, जबकि नैया अब पहाड़ों पर इठलाती चाँदनी का सहारा लेकर उसके डाक बँगले पर आ जाती और माँझी के न चाहते हुए भी उस जबरन डाक बँगले से बाहर ले आती और फिर कहीं भी एकान्त का सहारा पाकर वह उसके साथ चाँदनी रात में बाहर बैठी रहती । उसको समय-समय पर समझाया भी करती । जीवन में सदैव प्रसन्न रहने के उपदेश दिया करती और अक्सर उसके साथ बैठकर कभी पहाड़ों पर लापरवाही से टहलते हुए बादलों को देखा करती, तो कभी चुपचाप टिमटिमाती हुईं तारिकाओं को जैसे अपने दिल की कहानी सुनाने लगती थी ।
फिर एक दिन जब माँझी हर दिन के समान नैया को उसके घर तक छोड़ने जा रहा था कि तभी उसने उससे पूछा,
" इस कुंलगुड़ी में आते-जाते मुझे न जाने कितने दिन हो गए हैं लेकिन अभी तक एक बात समझ में नहीं आईं है ?"
“कैसी बात ? " नैया चलते-चलते अचानक ही ठिठक गई ।
“बात तो कोई अधिक पुरानी नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक अवश्य ही है । " माँझी ने कहा ।
"बात तो बताओ पहले ?" नैया और भी अधिक उत्सुक हो गई ।
तब माँझी ने उससे कहा,
"यह तब की बात है जबकि मेरा आपसे कोई भी सम्पर्क नहीं हुआ था । एक दिन मैँ शाम को डाक बँगले के बाहर बैठा हुआ था कि तभी एक मधुर, बहुत-ही प्यारी आवाज ने मेरा ध्यान आकर्षित किया था । आपके इस कुलगुड़ी के पहाड़ पर ही कोई लड़की नृत्य कर रही थी और बहुत ही प्यारी आवाज़ में एक गीत भी गा रही थी ।"
'" अच्छा ! गीत के बोल याद है' आपको ? " नैया जैसे हल्के-से मुस्कराकर बोली ।
"हाँ !
'बादल आते, छाँव फैलाते
झरने गाते, कल-कल करते,
और तुम हो जो कभी न आते...
…शायद ऐसे ही किसी गीत के बोल थे ?"
"… ?"
माँझी ने बताया तो नैया के चेहरे पर एक भेदभरी मुस्कान क्षणभर को आई और तुरन्त चली गई । तब वह भेदभरे ढंग से बोली,
" फिर क्या चाहते है आप । उस लड़की से मिलना चाहते हैं' ?"
" चाहता तो खैर क्या हूँ ? पर हाँ, देखना जरूर चाहता हूँ । कितना मधुर और प्यारा गीत गाती है वह ? शायद मेरी ही तरह उसका भी कोई दुख है ?" माँझी ने कहा ।
"मैं उस लड़की को जानती हूँ । पर आपकी तरह उसके जीवन से कोई भी दुखभरी कहानी नहीं जुडी है, बल्कि बचपन से वह एक सपना अवश्य ही देख रही है । "
नैया ने कहा तो माँझी जैसे उत्सुक होकर बोला,
"आप जानती हैं उसे ?"
" क्यों नहीं ? यहाँ कुलगुड़ी में, मैं किसको नहीं जानती हूँ ?”
" अच्छा, फिर कैसा सपना देखती आ रही है वह ?"
" एक सीधा-सा सपना है कि मैदानी क्षेत्र से कोई सजीला, छैल-छबीला, बाबू-सा युवक आएगा और उसका हाथ पकड़ कर, अपनी दुल्हन बनाकर उसे अपने साथ ले जाएगा । इसी आशा पर वह प्रतिदिन बाट जोहती है, लेकिन उसका बाबू अभी तक नहीं आया है । यदि आप उस लडकी से मिलना चाहते हैँ तो मैं मिलवा सकती हूँ । उसी गीत और नृत्य के साथ । " नैया ने कहा तो माँझी तुरन्त बोला,
"मैं अवश्य ही मिलना चाहूँगा उससे । "
"तो ठीक है । अब की शरद ऋतु की चाँदनी का जब पूरा चाँद होगा तो वह यहाँ नृत्य करने आएगी । तब आप तैयार रहिए । उसको भी देख लेना और उसके नृत्य एवं गीत को भी । ” नैया हल्के-से मुस्कराकर बोली ।
“ठीक है । ” माँझी ने अपनी स्वीकृति दे दी ।
इस पर नैया पुन: जैसे चेहरे पर आई पूर्व विजय की मुस्कान के साथ हल्के से मुस्करा दी ।
तब माँझी ने बात बदलते हुए उसके आगे कहा,
" और उस लड़के का क्या हुआ, जो आपको छेड़ता था, मुझे तो आज तक मिला ही नहीं । ” ?
"हाँ यह तो मैं भी सोचती हूँ कि अब वह क्यों नहीं मिलता है ? पहले तो रोज ही मिलता था, जब आप साथ नहीं होते थे । ” यह कहकर नैया फिर मुस्करा पड़ी तो माँझी ने उसे निहारा, गौर से देखा, फिर जैसे उसके चेहरे को पढते हुए गम्भीर होकर बोला,
" क्या बात हैं ? ऐसे क्यों हँसती हो ? "
"हाँ मै' जानती हूँ कि तुम नहीं समझ सकोगे कि वह पहले क्यों रोज मिलता और अब क्यों नहीं मिलता है ? " कहकर नैया फिर से हँसने लगी, तो माँझी आश्चर्य से बोला,
"क्यों ? मै' क्यों नहीं' समझ सकूँगा ? "
“ इसलिए कि तुम बुद्धू हो " यह कहकर नैया फिर हँसने लगी तो माँझी उसे आश्चर्य से निहारता ही रह गया । वह कुछ समझा और नहीं भी । नैया उससे एकदम से इस क़दर घुल-मिल जाएगी? उसको बिलकुल अपना-सा समझने लगेगी । उसने तो ऐसा सपने में भी नहीं सोचा था।
वह उसको इतना अधिक मन-ही -मन चाहने लगेगी ? इतना शीघ्र ही वह 'आप' की दीवार तोड़कर 'तुम' पर आ जाएगी ? केवल सोचता ही रह गया । एक समय था कि जब उसने 'आप' का बड़ा-सा पर्दा हटाकर 'तुम' की हलकी झालर के माध्यम से सुधा को अपने करीब लाना चाहा था तो सुधा जैसे उस पर बुरी तरह से बिफर पडी थी । किस कदर वह क्रोधित हो गई थी ? उस पर एक प्रकार से दोषारोपण कर दिया था, परन्तु आज ? आज नैया ने भी तो वही सबकुछ किया था । कितनी सरलता से उसने अपने और माँझी के मध्य का 'आप' का फासला तय कर लिया और बड़े ही अपनत्व से वह 'तुम' पर आ गई थी । और माँझी उससे कुछ कह भी नहीं सका था ।
फिर इस प्रकार धीरे-धीरे एक दिन वह आया कि नैया, माँझी के और भी क़रीब आती गई । वह बातों-बातों में अपने दिल में छिपा हुआ आकर्षण उस पर जाहिर भी करने लगी । वह उससे प्यारभरी बातें करती, तो माँझी सदैव उसे हल्के से टालने की चेष्टा करने लगता । हालाँकि, माँझी अब तक यह तो समझ चुका था कि नैया उसको मन-ही-मन प्यार कर उठी है । उसको अपने दिल का देवता मान उसकी पूजा करती है; परन्तु वह स्वयं अभी तक अपने-आपको इस नए पथ पर चलने के लिए तैयार नहीं कर पाया था । अपने-आपको समझा नहीं सका था । न समझा पाने का सबसे बड़ा कारण तो यही था कि उसने अपने जीवन के पहले-पहले प्यार में जो ठोकर खाईं थी, उसका एहसास उसे अभी तक था । एक लड़की के प्यार में पड़कर उसने अपने दिल पर जो तमाचा खाया था, वही सबकुछ वह दूसरी .लड़की .. . के प्यार में खोकर अब दोहराना नहीं चाहता था । सुधा ने उसके प्यार की जो बेकद्री की थी, उसकी स्मृतिमात्र से ही वह परेशान हो जाता था ।
परन्तु सुधा के आगे जो कठिनाई थी उसको भी वह महसूस करता था, परन्तु ऐसी कोई भी रुकावट नैया के साथ नहीं थी । जिस तरह उसने सुधा से पूछे बगैर उससे दिल लगाया था, उसी प्रकार नैया कर रही है तो कोई ग़लत तो नहीं कर रही है । यह और बात है कि प्रथम प्यार के खाए हुए गम-ए-आशिकी के सदमों से उसका टूटा-फूटा, छिन्न-भिन्न-सा हदय किस प्रकार एक अछूती भोली-भाली लड़की के प्यार की दिलभरी हसरतों की तस्वीर बना पाएगा । किस प्रकार उसको अपने दुखीं दिल के टूटे हुए शीशे के घर में स्थान दे पाएगा ? कैसे वह उन नज़रों से नैया के प्यार को स्वीकृत कर पाएगा जैसा कि नैया कर रही है ? यह एक ऐसा विराम था कि जहाँ से एक पग भी आगे बढ़ाने से पहले उसे अपने जीवन के प्रति एक ठोस निर्णय कर लेना था ।
यह दूसरी बात है कि सुधा के कारण उसके प्यार की जो कहानी अधूरी रह गई थीं, उसको नैया अपने प्यारभरे गीतों से पूरा कर दे । उसके दिल के घावों पर अपने प्यार और चाहतों का मरहम लगा दे । उसे इतना प्यार करने लगे कि एक दिन वह यह भी भूल जाए कि कभी उसने किसी से प्यार भी किया था । परन्तु ऐसा दिन और समय अभी नहीं आया था और यूँ भी इन्सान अगर एक बार प्यार में टूट जाए तो बडी कठिनाई से वह दोबारा प्यार की पगडण्डियों पर कदम रख पाता है, क्योंकि पहले प्यार की रुसवाई का दर्द और एहसास ही इतना अधिक होता है कि मनुष्य के लिए फिर कोई भी प्यार का संगीत और सन्देश सहज ही आकर्षित नहीं कर पाता है ।
माँझी ने सुधा के एक तरफा प्यार में मन-ही-मन जो कुछ पाने के सपने सजाए थे, जो कुछ भी चाहा था, वह उसको मिला तो नहीं था, परन्तु जो कुछ भी पाने की हसरत में खो दिया था, वही वह दोबारा किस उम्मीद और आस पर माँगने की आशा करता या फिर कैसे पुन: स्वयं को एक बार फिर लुट जाने के लिए तैयार कर सकता था- फिर वह क्या करेगा नैया से प्यार के पश्चात् उसे पुन: वही सबकुछ मिला जो एक बार सुधा से पा चुका है ? तब क्या वह जीते ही नहीं मर चुका होगा ? तो भी नैया ऐसी नहीं थी । वह एक बेहद भोली-भाली, समझदार, शान्तिप्रिय, पहाड़ों की हसीन मलिका थी । कुदरत ने उसे सबकुछ दिया था । रूप-सौन्दर्य से लेकर नृत्य और संगीत की कला भी और साथ ही कलाकारों जैसा बेहद कोमल हदय भी । इतना कोमल कि वह किसी का भी दर्द बर्दाश्त न कर सके । जिधर भी जिसको भी अपनी गहरी भूरी आँखों से देखती, तो स्वत: ही नम्रता और अपनत्व का एक सन्देश छोड़ जाती ।
माँझी उसके लिए जीवन का प्रथम प्यार था और प्यार भी ऐसा जो एक तरह से दूजा था और जो बिलकुल भी अछूता नहीं था । शायद पहले से प्यार के बाजार में बिका हुआ था ? चाहे अपनी ही तरक से क्यों न हो, परन्तु प्यार के दस्तरखान पर उसकी बोली तो लग ही चुकी थी। नैया माँझी की इस कमजोरी को इतना तो समझ चुकी थी । वह यह तो महसूस कर चुकी थी कि माँझी के साथ ऐसा अवश्य ही कुछ घटित हुआ है जिसके कारण उसके ओठों की मुस्कराहट छिनकर खामोशी के तालों में बन्द हो चुकी है । दिल पर ज़रूर कोई ऐसी चोट लगी है जिसके कारण उसके प्यार की सभी हसरतें चुपचाप एक कोने में डर के कारण छिप चुकी हैं । उसके कानों ने कोई ऐसा कटु सन्देश अवश्य सुन लिया है कि जिसकी वज़ह से अब वह कोई भी प्यार की वेदना और सन्देशा सुन नहीं पाता है ।
फिर भी नैया ने स्वयं से हार नहीं मानी थी और न ही वह हारना चाहती थी । यह उसने एक प्रकार से संकल्प कर लिया था कि जिन प्यार-भरे रास्तों पर उसने अपने कदम रख दिए हैं, उन पर अब वह पीछे नहीं हटेगी, क्योंकि माँझी में उसने अपना प्यार पाया था । अपने भविष्य के सपनों का संसार सजाया था । क्या हुआ जो माँझी का दिल टूटा हुआ है ? वह उसको फिर से ठीक कर लेगी । उसे इतना प्यार देगी कि माँझी के दिल में प्यार की जो ठोकर का दर्द भर गया था, वह उसके असीम प्यार के अमृत के कारण समाप्त भी हो जाएगा । हो सकता है कि इसमें समय लगे । माँझी को अपना बनाने और उसका दिल जीतने के लिए उसे काफी समय का इन्तजार भी करना पड़े । उसे एक प्रकार से टूटे और दुखे हुए प्यार के हदय को जोड़ने में काफी संघर्ष भी करना पड़े । आज वह माँझी को अपना कहती है, परन्तु माँझी के द्वारा उसको अपना कहलवाने के लिए एक लम्बे समय की प्रतीक्षा भी करनी पड़े । लेकिन उसे इतना विश्वास तो था ही कि एक दिन ऐसा अवश्य ही आएगा जबकि वह उसका दिल जीत लेगी । उसके दिल से बेवफा सुधा के प्यार की तस्वीर हटाकर वह अपना स्वरूप उसमें देखेगी । वह माँझी के दिल की धड़कनों की रानी कहलाएगी । माँझी उसे प्यार करेगा । चाहेगा । इस कदर उसे अपना-सा बना लेगा कि शायद वह अब तक किसी अन्य को भी नहीं बना सका होगा । और यदि ऐसा हो गया, माँझी उसका अपना बन गया तो फिर उसे और क्या चाहिए होगा ? दिल की छिपी और सहमी हसरतों की ठोस तस्वीर ज़माने के किसी भी आँधी और तूफान से संघर्ष करने के लिए तैयार हो जाए । प्यार की आरजुओं के दीप सफ़ल होकर जगमगाने लगे । मानव जिसको चाहता रहा है, वह उसको मिल जाए, तो शायद जीवन की सबसे बडी सफ़लता और जिन्दगी की हर खुशी का राज़ भी यही कहलाता है । जिन प्यार के मार्गों पर मनुष्य अनजाने में अपने कदम रख देता है, उनकी मंजिल मिल जाना ही जीवन की शायद सबसे बड़ी सफलता होती होगी; वरना असफल और दुखान्त प्यार के दर्द में डूबी कहानियों के इतिहास से किसी भी देश का शायद कोई भी कोना अछूता नहीं होगा?
शरत् ऋतु को भरपूर चाँदनी...
भरा-पूरा, बड़े थाल-सा चाँद । पहाड़ों पर जैसे बादल भी रूठकर कहीं चले गए थे । इस समय रात्रि के आठ और नौ के बीच का समय होगा । कौसानी का सारा इलाका ही जैसे भरपूर चाँदनी की झाग में डूब गया था । चारों ओर एक खामोशी छाई हुई थी । वातावरण में हलकी-हल्की ठण्डक थी । चीड़ की पत्तियों ने भी बड़ी कोमलता से अपनी आँखें बन्द कर ली थीं । पर्वत मौन थे, मगर फिर भी जैसे महसूस होता था कि कुमाऊँ-मण्डल की इस पर्वतीय मूक रात्रि की निस्तब्धता में भी जैसे कहीं कोई आवाज़ थी । सारी वनस्पति में छिपी-छिपी कोई हरकत थी । आकाश में भी मद्धिम तारिकाओँ की जैसे बारात सजी हुई थी । वे भी टुकुर-टुकुर जैसे छिपकर कुछ देख लेना चाहती थीं । इस प्रकार कि जैसे एक सुन्दरी दूसरी सुन्दरी के आँख का काजल चुपचाप चुरा लेना चाहती हो । बहुत ही आहिस्ते-से, छिप-छिपकर ।
पहाडों की इन्हीं ख़ामोशी से भरी, चुप्पी जैसी चाँदनी रात में माँझी भी एक बोल्डर के पीछे छिपकर बैठा हुआ था । नैया के निर्देशानुसार उसे आज की रात यहीं बैठकर प्रतीक्षा करनी थी; ताकि वह उस रूप-सुन्दरी, मधुर कोमल आवाज़वाली लड़की को आज़ जी-भर के देख सके । उसका नृत्य और गीत भी सुन सके । उस सौन्दर्य की मलिका के एक बार दर्शन कर सके जो ऐसी ही चाँदनी रात में कभी अपने गीत-संगीत, नृत्य और घुंघरुओं की झनकार के साथ अचानक से प्रस्फुटित हुई थी और माँझी के दर्द-भरे दिल में जैसे अज्ञात मिलन की आस का सन्देश देकर छिप भी गई थी ।
वह कौन है ? क्या है ? कहाँ रहती है ? किसक़दर सुन्दर होगी ? ऐसे ही तमाम प्रश्नों के उत्तरों की प्रतीक्षा में माँझी अभी तक बैठा हुआ था । चुपचाप । बहुत ख़ामोश और दिल में एक अजीब ही जिज्ञासा, आशा और एक अनजाने उत्साह के साथ ।
तभी अचानक ही एक अज्ञात आवाज़ ने उसका ध्यान आकर्षित कर दिया । आवाज़ कुलगुड़ी गॉव की ओर से आती हुई, पतली-सी पगडण्डी की ओर से आ रही थी । घुंघरुओँ की आवाजें... अपनी मचलती झनकारों के साथ... धीरे-धीरे, जो उसी की ओर बढ़ती हुई प्रतीत होती थीं । ऐसा लग रहा था कि जैसे कोई आसमान की अफसरा पैरों में घुंघरू पहनकर, चाँदनी रात से बातें करता हुआ चला आ रहा है... छम.॰.छम.॰. छम... छम...
आवाजें धीरे-धीरे आती गई । बढ़ती गई । और साथ ही माँझी के दिल की धड़कनें भी बढ़ती गई। वह और भी सँभलकर बैठ गया । इतनी-सी देर में वह रूप-सुन्दरी, पर्वतों की रानी जैसी, चाँदनी रात में, उस एकान्त पहाड़ की थोड़ी-सी समतल भूमि पर आकर खडी हो गई थी । उसने भी चाँदनी के सफेद झाग के समान सफेद ही वस्त्र पहन रखे थे । अपने बालों को खुला छोड़ रखा था, जो कभी-कभी उसके झुकने पर भूमि का दामन चूमने की चेष्टा करते थे । कुल मिलाकर उसे देखकर ऐसा लगता था कि जैसे सचमुच ही आकाश की अप्सरा ने चाँद-तारों की हसीन दुनिया छोड़कर धरती के आँचल में अपनी पनाह ले ली हो ।
माँझी ने उसे देखा तो देखकर ही आश्चर्य से दंग रह गया । उसने सोचा कि दूर से देखने पर इतनी सुन्दर और आकर्षित दिखती है वह, तो पास से कितनी प्यारी होगी. ? किस कदर रूप की रानी होगी ? वह अभी ऐसा सोच ही रहा था कि तभी उस अज्ञात लड़की ने एक बार चारो और दृष्टि फेंकी । पहाड़ों को देखा । आकाश की और नज़र उठाई और फिर यकायक ही उसके पैरों में बँधे घुंघरू जैसे मचल उठे । वातावरण में एक झनकार-सी हुई । पर्वतों में जैसे एक हरकत-सी हो गई । गहरी नींद में सोई हुई पर्वतीय वनस्पति भी जैसे रात की खामोशी में अपनी कच्ची नींद से अचानक ही जाग गई । उस लड़की ने नृत्य और गीत एक साथ ही आरम्भ कर दिया था । इस प्रकार कि उसके गले की सुरीली आवाज़ पहाड़ों की इस चाँदनी में, पलभर के अन्दर ही गूँज गई और साथ ही घुँघरुओँ की मधुर झनकारें भी । वह अनजान लड़की अपने प्यार की आस में, दिल की आरजुओँ के साथ, अपने प्रीतम को पुकारने लगी । कुछ इस प्रकार,
"रोज़ निहारूँ, रोज़ बुलाऊँ
अपनी व्यथा किसे सुनाऊँ,
आँखें टक-टक तुम्हें निहारें
जब सावन में गिरें फुहारें,
तुम क्या जानो दिल की बातें
मन ही जाने मन की चाहतें,
अँखियों में तुम सदा ही बसते
पर सूने पथ पर कभी न होते,
बादल आते छाँव फैलाते
सब ही आते, सब ही गाते,
एक तुम हो जो कभी न आते..."
सहसा ही लड़की अचानक ही थम गई । इस प्रकार कि जैसे वह कुछ देखकर ठिठक गई थी । उसका गीत और नृत्य एक साथ ही बन्द हो गया । फिर वह लड़की जैसे एक अज्ञात संशय की भावना से इधर-उधर देखने लगी । उसने बोल्डर के पीछे छिपे बैठे माँझी को जैसे देख लिया था। तब वह धीरे-धीरे बोल्डर की ओर ही बढ़ने लगी । एक संदिग्ध भावना से ।
माँझी ने उसे यकायक ही अपनी ओर आते देखा तो मन-ही-मन जैसे भयभीत-सा हो गया । उसने सोचा कि यदि उस लड़की ने उसे यहाँ बैठे पकड़ लिया तो फिर ? फिर क्या होगा ? क्या-से-क्या नहीं हो जाएगा ? वैसे भी यह पर्वतीय क्षेत्र । यहाँ के सीधे-सादे लोग । रात का समय । एक अनजान खूबसूरत युवती और वह अकेला । लोग उसके बारे में क्या कुछ नहीं कहेंगे ? जरा-सी देर में उसकी प्रतिष्ठा धूल में नहीं मिल जाएगी तब ?
ऐसा सोचते हुए माँझी ने उस लड़की के आने से पूर्व ही चुपचाप वहाँ से खिसक जाना ही उचित समझा, इसलिए वह लड़की आती उससे पूर्व ही वह धीरे-से उठकर, एक अनजान-सा बनकर, वहाँ से हटकर चुपचाप जाने को हुआ ही था कि तब तक वह लडकी आ भी चुकी थी, परन्तु माँझी अभी भी उसकी तरक से अनभिज्ञ बना हुआ था और खिसक जाना ही चाहता था कि उस लड़की ने एक संशय की भावना से उसे टोक दिया । वह बोली,
"ऐ बाबू ? "
..." ?"- माँझी के पाँव जहाँ-के-तहाँ ही ठिठक गए ।
"यहाँ छिपकर बैठे-बैठे क्या कर रहे थे ? " उस लड़की ने पूछा ।
"बैठा हुआ था बस । "
"चाँदनी रात में । अकेले । एकान्त में ? "
"जी हाँ !”
"क्यों ?”
"बहुत पहले एक बार दूर से आपका यह गीत सुना था, इसलिए जानना चाहता था कि यह प्यारी-सी आवाज़ किसकी है ? "
" फिर क्या सोचा आपने ?"
" आप तो बहुत... बहुत ही अच्छा गाती हैं... और.. "
"और... क्या .?"
"नृत्य भी बहुत अच्छा करती हैं । " माँझी ने उसका बगैर चेहरा देखे लड़की से कहा ।
" लेकिन फिर भी, इस तरह, रात्रि में-एक युवती को छिप-छिपकर देखना... ? आप क्या समझते हैं कि यह कोई अच्छी बात है ?” उस लइकी ने थोड़ा गम्भीर होकर पूछा ।
"जानता हूँ... और सोचता हूँ कि मुझे यहाँ इस प्रकार से नहीं आना चाहिए था; परन्तु क्षमा चाहता हूँ कि मैं अपने-आपको रोक नहीं सका था । ” यह कहकर माँझी जाने को हुआ तो उस लडकी ने उसे फिर रोका । बोली,
“ सुनिए । "
“जी ?”
"वैसे आपको मुझसे क्षमा नहीं मांगनी चाहिए, बल्कि मुझे आपका कृतज्ञ होना चाहिए ।"
"जी.. !" माँझी आश्चर्य से बोला ।
"जो हां ! मैं यहाँ किसी भी अभ्यास आदि के लिए नहीं आई हूँ बल्कि यह मेरे जीवन का एक अधूरा सपना है जो मैं बचपन से देख रही हूँ और आज मैं बहुत ही खुश हूँ कि आपने मेरा सपना पूर्ण किया है । "
“जी..॰ कैसा सपना ?" माँझी पुन: विस्मय से बोला ।
"यही कि कोई शहरी बाबू आएगा और मेरी विरह वेदना का गीत सुनेगा, फिर बहुत प्रेम से मुझे अपना बनाकर ले जाएगा । "
"लेकिन मैं आपके सपने का बाबू तो नहीँ हूँ । "
"'यह आप कैसे कहते हैँ ?"
"इसलिए कि मैं पहले ही से बिका हुआ आदमी हूँ और पुन: अपनी बोली लगवाना नही चाहता हूँ।"
“मतलब ?"
"मैं इस लायक़ नहीं हूँ कि आपके पवित्र प्रेम की बलिवेदी पर खरा उतर सकूं । मैं तो पहले ही किसी अन्य को प्यार कर बैठा हूँ । "
"क्या मैं जान सकती हूँ कि कौन है वह ?"
" आपको इसकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । और फिर... "
"फिर… फिर क्या... ?"
" आपसे पहले, आपके ही गाँव की एक अन्य लड़की भी मुझे 'अपना' कहती है । मैं उसकी भावनाओँ को कैसे छलनी कर सकता हूँ ?” माँझी ने निराश मन से कहा ।
"कौन है वह ?”
"जी ! ...नैया नाम है उसका ।"
" अच्छा, वह नैया, जो कला निकेतन में नृत्य करती है ।"
"जी हॉ !"
" आपको मालूम है कि वह कैसी लड़की है ?"
"जी हाँ !
"कैसी ?”
"बहुत अच्छी । प्यारी... सुन्दर ..भोली... मेरा बहुत ही ख़याल रखती है ।“
" क्या वह आपको बहुत प्यार करती है ?"
"जी... पता नहीं ?"
“ आप भी उसको प्यार करते हैँ ?" ?
"मैं उसके प्यार की कद्र करता हूँ और उसको कोई भी दुख देना नहीं चाहता हूँ । “
"लेकिन मेरा अब क्या होगा ?"
"बेहतर है कि आप अपने सपने को एक सपना समझकर भूलने का प्रयास करें और मुझसे कोई भी आशा न रखें । भविष्य में यदि मैँने अपने-आपको किसी के उपयुक्त समझा तो फिर वह केवल मेरी अपनी नैया होगी, और कोई भी नहीं ।'
"और उस 'नैया' का क्या होगा जिसने आपको थोड़ी देर के लिए भी शरण नहीं दी । "
"वह अपने 'सागर' की बाँहों में मस्त है । प्रसन्न है । मैं तो उसके मार्ग में बहुत देर से आने वालों की पंक्ति में था । "
"और मेरे लिए आपने क्या सोचा है ?”
"कुछ भी नहीं ।"
"मैं यदि आपको इसी प्रकार गीतों से ब्रुलाऊँ तो आएँगे ?""
"जी, नहीं !”
"मेरी तरफ़ एक नज़र देखेंगे भी नहीं ? "
"इसकी आवश्यकता नहीं समझता हूँ । "
“बड़े निर्दयी हैँ आप ?"
"यह आपका ख़याल हैं, जबकि मैं ऐसा हूँ नहीं । “
" थोडी देर रुकेंगे, जब तक चन्द्रमा नीचे नहीं सरक जाता । "
"जी नहीं ! "
" आपको रुकना पडेगा, जब तक चन्द्रमा पूर्णत: डूब नहीं जाता, वरना मैं शोर मचा दूँगी । ”
"पागल मत बनिए । "
“पागल तो आज़ तुमने मुझे बनाया है । आज तो मैँ खूब नाचूँगी, गाऊंगी और तुम भी मेरा साथ दोगे । ” यह कहकर उस लड़की ने अपना मुख खोला, और तीव्रता से माँझी के सामने आ गईं ।
“नैया... ! तुम… ? ” माँझी के मुख से आश्चर्य से बेसाख्ता ही निकल गया । वह विस्मय से उसे निहारने लगा।, तब तक नैया को अवसर मिला तो वह चुपचाप माँझी के सीने से जा लगी । बहुत प्यार से । अपनत्व के साथ । अपना जानकर । उसके दिल की धड़कनों से जा चिपकी ।
"नैया ! तुम्हें... यह सब करने की क्या आवश्यकता थी ? " माँझी ने आश्चर्य से कहा । .
" आज मेरा सपना पूरा हो गया है । मेरा माँझी मुझे मिल गया है ।" नैया उसके दिल की धड़कनों से चिपके हुए ही बुदबुदाई । बहुत प्यार के साथ । वह जैसे उसके टूटे हुए दिल की हसरतों को अपने असीम प्यार की आवाजों के द्वारा फिर से जोड़ देना चाहती थी ।
"मैं तो एक प्रकार से डर ही गया था कि न जाने कौन युवती है ? और फिर तुम्हें यह सब करने की क्यों ज़रूरत पड़ गई ? मैं तो तुम्हें प्रतिदिन ही थिएटर में मिलता था । " माँझी ने नैया के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा । “
" यदि यह नहीं करती तो तुम्हें किस प्रकार जताती कि मैं तुम्हें किस क़दर चाहने लगी हूँ ?"
"यह समझते हुए भी कि मैं वह अभागा इंसान हूँ जो पहले ही से अपने ह्रदय को किसी अन्य युवती के प्यार के तीरों से छलनी किए हुए है। ”
“ उससे क्या होता है '? तुम्हारा दिल अगर किसी ने तोड़ा है तो तुम मेरा मन कभी नहीं दुखाना। मैं तुम्हें जीना सिखाऊँगी । प्यार की राहों पर चलने का सही मार्ग दिखाऊँगी । सच मानो पता नहीं क्यों जब से मैँने तुम्हें देखा था, तब से तुम्हारे व्यक्तित्व की छाया में अपने-आपको सुरक्षित-सा महसूस करने लगी थी । ”
" फिर भी तुम्हें इतना आगे बढ़ने से पूर्व मेरे बारे में बहुत कुछ मालूम कर लेना चाहिए । मेरे पास तो अब कुछ भी नहीं है, सिवाय मेरी कला के । मुझसे प्यार करके तुम्हें क्या मिलेगा ?” माँझी जैसे बहुत मायूस और निराश होकर बोला ।
"... ? ” इस पर नैया ने उसे निहारा, गौर से । गम्भीरता से वह उसके बुझे-बुझे चेहरे को देखती रही । फिर कुछेक क्षणों के पश्चात् बोली,
"मुझे तुम मिल जाओगे तो मेरे लिए संसार की यही सबसे बड़ी दौलत होगी । मैं तुम्हें बहुत मज़बूत और खुश देखना चाहती हूँ और यूँ भी प्रकृति का यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि वास्तविकता है कि तुम 'माँझी' हो और मैं 'तुम्हारी 'नैया' । हम दोनों एक-दूसरे के बगैर कभी भी पूर्ण नहीं कहला सकते हैं । "
" और मेरे अतीत के गुज़रे हुए दिनों की वास्तविकता... ? ”
"मैं समझ लूँगी कि मेरा माँझी भटक गया था, किसी दूसरी नैया के साथ में । ”
"... ? ” इस पर माँझी निरुत्तर हो गया । साथ ही गम्भीर भी । वह कुछ और कह नहीं सका । नैया भी चुप बनी रही और उसके दिल की धड़कनों से अपने कानों को एक असीम सुख की अनुभूति देती रही । आज जैसे उसने माँझी को प्राप्त कर लिया था । उसका दिल जीत लिया था । उसे अपना बना लिया था । माँझी के दिल में उसने अपने लिए एक छोटा-सा स्थान सुरक्षित कर लिया था ।
काफी देर तक वे दोनों एक-दूसरे के समीप बने रहे । आपस में एक दूसरे के दिलों की धड़कनें सुनते रहे । कभी अपना-अपना दुख-सुख भी कह देते थे वरना अधिकांशतया दोनों मूक ही बने रहे और वैसे भी सत्य और पवित्र प्रेम की कोई भाषा नहीं होती है । कोई भी आवाज़ नहीं होती है । बस दोनों के मध्य खामोशी ही एक तीसरे माध्यम के रूप में वार्तालाप को सहयोग देती है। दो दिलों की धड़कनों का संगीत ही एक-दूसरे के माध्यम से सारी प्रकृति को भी जैसे अपनी लयों और सुरों से प्रभावित कर देता है । नैया जो अभी तक अपने-आपमें किसी भी प्रकार से, कहीं भी अधूरी नहीं थी और जिसके अछूते प्यार के दिल की धड्रकनों पर किसी भी व्यक्ति का स्वरूप दस्तक नहीं दे सका था । कोई भी उसे प्रभावित नहीं कर पाया था, एक दिन एक टूटे हुए दिल, प्यार में भटके हुए पथिक, और जीवन में एक प्यार के मारे हुए इन्सान को अपना दिल दे बैठेगी । उस पर अपनी चाहतों का भण्डार लगा देगी । उसके दूटे-फूटे घर में अपने जीवनभर की शरण का स्वप्न सजा लेगी । ऐसी वास्तविकता पर कौन विश्वास करता ?
शायद इसीलिए कहा जाता है कि प्यार की कोई दृष्टि नहीं होती है । यह तो एक ऐसी खुशबू होती है कि जिसे केवल प्यार करनेवाला ही महसूस कर पाता है । ऐसा आकर्षण होता है कि जो एक दूसरे को पास और करीब आने के लिए विवश करता है । एक ऐसी सन्तुष्टि होती है कि जो दुनिया में किसी भी दौलत से ख़रीदी नहीं जाती हैं । वह दान होता है जिसे प्यार में अन्धा व्यक्ति बिना कुछ भी सोचे बगैर, बिना आगा-पीछा देखे हुए भेंट में दे देता है । ऐसी चाहत होती है कि जिसे पाने के लिए मनुष्य अपना सबकुछ लुटा देता है और ईंरवर की ओर से जीवन की वह नियामत और बरकत होती है कि जिसे भी प्राप्त होती है, वह अपने-आपको धन्य समझ लेता है, जैसे कि दिल की सहमी-सहमी हसरतों को प्यार की तनिक खुशबू-भर ही एक नई जिन्दगी दे देती।
समय का पंछी उड़ता रहा...
काफी दिन व्यतीत हो गए । लगभग चार वर्ष होने को आए । नैया और माँझी का प्यार दिन दूना, रात चौगुना बढ़ता रहा । दोनों एक-दूसरे पर जान देने लगे और अपने विवाह का कार्यक्रम बनाने लगे । माँझी को थिएटर में ही और भी अच्छा पद मिल गया । नैया कलाकारों की मुख्य संचालिका बन गई और साथ ही नैया और माँझी के प्यार की चर्चा कौसानी में किसी से भी छिपी नहीं रह सकी । यहाँ तक कि कुलगुड़ी गाँव में भी सभी को ज्ञात था कि ये दोनों विवाह करनेवाले हैँ । दोनों एक-दूसरे को असीम प्यार करते हैं ।
इन चार वर्षों में कौसानी में बहुत कूछ बदल गया । बहुत कुछ नया भी बन गया । काफी हद तक नई प्रगति भी हो गई । आबादी बढ़ी तो नए-नए आवास भी बन गए । इसके साथ ही लोगों की भीड़ और आकर्षण भी बढ़ा तो और भी आवश्यकता के नए आयाम एवं सरकारी कार्यालय खुल गए, परन्तु फिर भी लोगों के लिए जो सबसे बडा आकर्षण था, वह था कौसानी का एक नवनिर्मित अस्पताल 'सागर मेडिकल सेन्टर' । इस अस्पताल के बन जाने से लोगों को जैसे दिली राहत-सी मिली थी । एक नए जीवन का संचार हुआ था । अब लोगों को किसी भी आपात्कालीन स्थिति में कौसानी के बाहर नहीं जाना पड़ता था । इस अस्पताल की संचालिका और मुख्य डॉक्टर एक बार के लिए कौसानी के हरेक व्यक्ति के लिए नई हो सकती थी, परन्तु माँझी के लिए कदापि नहीं- सुधा ? जो अब डॉक्टर 'सुधा सागर' के नाम से इस अस्पताल को चला रही थी, परन्तु फिर भी अभी तक माँझी को इस बात का कोई भी ज्ञान नहीं था । वह नहीं जानता था कि इस अस्पताल की मुख्य संचालिका और कोई नहीँ, बल्कि वही सुधा है कि जिसके एकतरफा प्यार के अन्धकार में वह अपने युवा जीवन के न जाने कितने वर्ष यूँ ही दरिया के किनारे खड़े-खड़े व्यर्थ कर चुका है । भारत की मुख्य-मुख्य पत्रिकाओं के मुख्य पृष्ठ की वह 'कवर गर्ल' सुधा है, जिसके पास एक दिन उसने अपने प्यार की भिक्षा माँग लेनी चाही थी और उत्तर में उसे जीवनभर का अनकहा दर्द मिल गया था ।
माँझी का डॉक्टर सुधा और अस्पताल के प्रति अनभिज्ञ होने का मुख्य कारण तो यही था कि उसे अभी तक ऐसी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी थी कि वह डॉक्टर के पास जाता और नैया... वह तो वैसे भी इस बात से पूर्णत: अपरिचित ही थी और कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थी कि जिस लड़की के प्रथम प्यार के बे-मुरब्बत और तिरस्कृत व्यवहार के फलस्वरूप उसके अपने माँझी ने पहाड़ जैसे दुख-दर्द झेले थे, वह एक प्रकार से उसके पड़ोस में ही अपना अस्तित्व बनाए हुए है । नैया को यूँ भी इन तमाम बातों की अब कोई परवाह नहीं थी । कोई ख़याल भी नहीं रहता था और न ही वह इन सारी बातों को इतनी गम्भीरता से विचारा ही करती थी । उसे अगर विचार होता था, तो माँझी का । ख़याल आता था तो माँझी का । सोचती थी तो माँझी के लिए और जीती थी तो माँझी के लिए और एक प्रकार से यह सही भी था, क्योंकि जिस उज़ड़े और टूटे-फूटे माँझी को उसने अपने प्यार के लेप से बना-सँवारकर इस लायक बनाया था, वह यह अच्छी प्रकार से जानती थी । कैसे उसने माँझी के किर्च-किर्च हुए हृदयों के टुकड़ों को एक-एक करके जोड़ा था । किस प्रकार उसे जीना सिखाया था और किस उम्मीदों पर वह उसे अभी तक अपने दिल का टुकड़ा समझकर पूज रही थी ? यह वह जानती थी और उसके प्यार की ढेरों-ढेंर हसरतों से भरा-पूरा दिल और अब माँझी केवल माँझी ही नहीं, बल्कि उसके संसाररूपी 'सागर' में उसकी 'जीवन नैया' का वास्तविक माँझी था । उसका वह प्यार था, जिसे उसने एक बड़े संघर्ष के पश्चात् प्राप्त कर पाया था । वह पौधा था जो एक प्रकार से किसी अन्य प्यार के विष के कारण अपने जीने की आस भी खो चुका था और जिसे उसने बाद में फिर से अपने परिश्रम और लगन से हरा-भरा कर लिया था । वह अब उसके गीतों का साज़ था। उसके दिल की हर वक्त धड़कती हुईं धड़कनों का संसार था और उसके आनेवाले भविष्य के सपनों का वह संसार था कि जिसकी छत्र छाया में ही उसे अपना घर बनाना था और सँवारना भी था । जीना था । अपने लिए और अपने प्यार को सुरक्षित रखने के लिए भी ।
और इस प्रकार से उनका प्रेम-सूर्य प्रतिदिन दिन उगता, और ढल भी जाता । हर रोज़ वास्तविक प्यार से बेख़बर पक्षी भावनात्मक या आकर्षणस्वरूप अपना एक नवीन साथी बनाते और दिनभर साथ रहते, खाते-पीते, वृक्षों पर फुदकते फिरते । सारे दिन आकाश की बुलंदियों पर कलाबाजियाँ लगाते फिरते, और दिन ढलते ही वे अलग भी हो जाते, परन्तु माँझी और नैया अगर साथ होते तो साथ छोड़ने का नाम ही नहीं लेते । कहीं भी फुरसत में बैठ जाते तो उठने का ध्यान ही नहीं रहता । एक बार हाथ थाम लेते तो छोड़ने का ख़याल ही नहीं करते । कहीं भी जाते, कहीं भी आते । दोनों का एक साथ होना जैसे आवश्यक बन गया था । वह दोनों एक दूसरे को मन की भावनाओँ से प्यार करते थे, तो लगता था कि कौसानी क्षेत्र की समस्त पर्वतीय वनस्पति भी उनको अपनी दिली हसरतों से चाहने लगी थी । लगता था कि जैसे प्राकृतिक छटा का कोई भी हिस्सा अब उनको अलग-अलग नहीं देखना चाहता था । पहाड़ों पर बादल आते तो वे भी उनको जैसे बहुत प्यार से अपने लिहाफ में छिपाने की चेष्टा करते थे । हर जगह, हरेक स्थान में उनका प्यार था । उनके प्यार की कहानी थी । उन दोनों के दिल की धड़कनों का राग था और हरेक के ओठों पर दबे-दबे, छिपे-छिपे-से उनके बेपनाह प्यार के अफ़साने थे ।
इतने अरसे में माँझी हालाँकी, सुधा के विषय में पूर्णत: भूला तो नहीं था, परन्तु वह अब नैया के असीम प्यार के कारण उसे याद भी नहीं करता था । वह अब अगर सोचता था तो नैया के लिए और जो कुछ भी करता था वह सब नैया के लिए ही । एक प्रकार से उसके दिल में जो खोखलापन सुधा के कारण हो गया था, वहाँ अब नैया का प्यार पनप रहा था । उसके दिल के जख्मों पर नैया ने अपने दिली प्यार का मरहम इतना लगा दिया था कि अब वहाँ अन्य किसी का प्रभाव हो ही नहीं सकता था । नैया ने उसको इस कदर चाहा था, इतना अधिक सँवारा था कि वह कभी इसकी कल्पना ही नहीं कर सकता था । एक दिन था जबकि सुधा की ओर से उसके टूटे हुए दिल ने अपने जीने की सारी तमन्नाएँ ही खो दी थीं और आज वह दिन था कि उन्हीं तमन्नाओँ पर नैया के ख्वाब, उसकी हसरतें और उसके प्यार के गीत प्रस्फुटित हो रहे थे । उसके जीवन की लालसाओँ पर हर दिन , हर पल जीने के नए-नए सन्देश प्रसारित हो रहे थे। कभी वह अपने जीवन की हसरतें और कामनाएँ पत्थरों की मूर्तियों को बना-बनाकर पूर्ण किया करता था, और आज उसकी वही लालसाएँ नैया के स्वरूप को दिल में बिठाकर उसके जीवन के अमोल स्वप्नों के रूप में उजागर हो रही थीं । एक दिन था कि एक लड़की के प्यार में वह बुरी तरह से टूट चुका था तो आज दूसरी लड़की ने अपने प्यार से उसे इस कदर प्रबल बना दिया था कि जहाँ अब और किसी का प्रभाव पड़ ही नहीं सकता था । सुधा ने माँझी के प्यार को अपनी बेरुखी और रुसवाई से आँका था, तो नैया ने उसी बेरुखी को अपने जीवन की सच्चाई समझकर स्वीकार कर लिया था । एक ने उसके प्यार को उसकी मूर्खता समझकर कोई महत्त्व नहीं दिया था, तो दूसरी ने उसको अपने दिल में सँजोकर रख लिया था ।
अब तक माँझी ने नैया को भी सुधा के बारे में सबकुछ बता दिया था या यूँ कहिए कि यह नैया के प्यार का प्रभाव ही था कि माँझी ने उसको अपने दिल के एक-एक रंग तक से परिचित करा दिया था, लेकिन फिर भी दोनों में से अब तक किसी को यह आभास भी नहीं था कि सुधा उनके ही शहर में, डॉक्टर सुधा सागर के नाम से अपना अस्पताल चला रही है और न ही स्वयं सुधा को इसका तनिक भी आभास था कि जिस माँझी के प्यार को वह उसकी जिन्दगी का एक कठोर तमाचा जड़कर अस्वीकृत कर चुकी है, वही माँझी उसके ही शहर में एक बेहद भोली और सभ्य बाला के प्यार के फलस्वरूप अपनी दूसरी मुहब्बत के गीत गा रहा है । वह मुहब्बत जिसने उसे एक नया जीवन दिया । वह प्यार जिसने उसे अपना बनाया । वह लगन कि जिसके प्रभाव के फलस्वरूप वह अपने भविष्य को सुखमय बनाने की योजना बना सका और वह दस्तक, जिसने उसके बन्द हदय के प्यार के सभी द्वार सदा के लिए खोल भी दिए थे ।
माँझी और नैया के कुछेक सप्ताह यूँही और व्यतीत हो गए । वे एक-दूसरे को अपनी आत्मा से भी बढ़कर प्यार करते थे । साथ खाते । साथ ही जाते । कहीं भी जाते, दोनों सदैव एक ही साथ रहते । और नैया ? वह तो अब माँझी को एक पल भी जैसे अकेला नहीं छोड़ सकती थी । उनके प्यार का चर्चा इस कदर बढ़ गया था कि कौसानी के थिएटर तक में जब कभी कोई उनको अलग देख लेता था तो आश्चर्य से टोक अवश्य ही देता था ... और इस तरह ऐसा था उनका प्यार । ऐसी थी उनके प्यार की बातें कि कौसानी के चप्पे-चप्पे तक में उनके प्यार के गीतों के स्वर गूँजते प्रतीत होते थे । पहाड़ों पर । चीड़ों पर । आकाश की शून्यताओं तक में जैसे उनके प्यार के नाम लिखे हुए थे । पर्वतीय फूलों की धड़कनों में भी एक ही नाम था -माँझी और नैया । छोटे-छोटे झरनों के शोर में जैसे एक ही आवाज़ सुनाई देती थी… नैया और माँझी । प्रात: जब भी दिन उगता तो सूर्य की लालिमा बहुत प्यार से उनके प्यार के सन्देश लिख देती और जब भी दिन डूबता तो संध्या की खामोशी में भी जैसे उनके असीम प्यार की फुसफुसाहटें, हल्की-हल्की सुनाई देने लगती थीं ।
और तब एक दिन...
नैया और माँझी बैठे हुए थे । कौसानी इलाके की एक छोटी-सी पर्वतीय नदी के किनारे । संध्या का समय था । आकाश पर पक्षी अपने-अपने नीड़ों की और वापस उड़े चले जाते थे । पर्वत खामोश थे । चीड़ शान्त खड़े-खड़े उन दोनों के ऊपर जैसे अपनी छत्रछाया का साया बनाए हुए थे और नदी का जल धीरे-धीरे पत्थरों और पत्थरों के छोटे-छोटे टुकड़ों के मध्य से किसी नागिन के समान अपना मार्ग बनाता हुआ सरकता जा रहा था… हर तरफ़ एक शान्ति थी ।
नैया नदी के किनारे बैठी हुईं थी । बिलकुल माँझी के साथ ही । उसके क़रीब…बैठी-बैठी, वह चुपचाप नदी की धाराओं को ध्यान से देखे जा रही थी । उन धाराओं को जो हरेक दुख-दर्द से बेख़बर अपनी यात्रा पर चली जा रही थीं । माँझी भी चुपचाप था । बहुत खामोश और गम्भीर-सा । परन्तु कभी-कभार वह कोई-न-कोई पत्थर उठाकर नदी की शान्त धाराओं में फेंक देता था तो अचानक ही एक छपाके के साथ चारों ओर की शान्ति भी भंग हो जाती थी… ।
नैया ने इस समय अपने गोरे, स्वच्छ पैर नदी की धाराओं मेँ डाल रखे थे और कभी-कभी वह यूँ ही जल की धाराओं के साथ छेड़छाड़ करने लगती थी ।
तभी माँझी ने आपस की मौनता को तोडते हुए नैया से कहा,
"नैया "
“हाँ .। ” नैया ने बगैर उसकी ओर देखे ही हांमी भरी ।
"ऐसे चुपचाप क्या देख रही और क्या सोच रही हो ?" माँझी ने पूछा ।
"... .? ” इस पर नैया ने अपनी भूरी, गहरी आँखों से माँझी को निहारा, तो माँझी ने उसकी आँखों में जैसे कुछ पढ़ना चाहा, पर न समझते हुए विस्मय से बोला,
"बताओ कि क्या बात है ?
" क्या बताऊँ और फिर मैं अब क्या देखूँगी और क्या सोचूँगी ?” नैया बोली ।
" फिर भी ... ?"
“बस, अब तो तुम्हें ही देखती हूँ और तुम्हारे ही बारे में सोचा करती हूँ । " नैया माँझी के प्रतिबिम्ब को नदी की धाराओं में देखते हुए बोली ।
“लेकिन तुम तो नदी के जल में देख रही हो !"
"वहाँ भी तो तुम ही हो । मुझे तो अब हर स्थान पर तुम ही नज़र आने लगे हो । “.
"अच्छा, और सोचती क्या हो ?"
"यही कि सारी दुनिया में एक तुम्ही मिले थे मुझे इस कदर प्यार करने के लिए ?"
“तो इसमें क्या हो गया है ?"
"हुआ तो कुछ भी नहीँ है, परन्तु शायद कभी भी हो सकता है । "
" क्या हो सकता है ? " माँझी आश्चर्य से बोला ।
"मान लो कि कभी सुधाजी ने आपके भूले हुए प्यार को आवाज़ दी तो... ?”
"यह क्या कहती हो ? उसका तो विवाह हो चुका है ।"
" उससे क्या होता है । समय पलट भी तो सकता है ।" नैया गम्भीर होकर बोली ।
"मतलब ?"
“उनका विवाह' यदि सफल न हुआ... वे दोनों अलग हो गए, और वे आपको पुन: पिल गई तो...?" नैया जैसे उदास होकर बोली ।
" ?" इस पर माँझी ने गम्भीरता से विस्मय के साथ नैया को ,देखा । फिर उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों से थामकर, उसकी आँखों में झाँकते हुए बोला,
"इधर देखो, मेरी आँखों में ? तुम्हारा प्यार मेरी दृष्टि में इस कदर महानता की ऊँचाइयाँ चढ़ चुका है कि अब वहाँ कोई अन्य पहुँचकर उसकी समानता नहीं कर सकेगा ।”
" ? " तब नैया गम्भीर होकर खामोश हो गई । माँझी भी चुप हो गया । काफी देर तक दोनों मूक बने रहे । फिर नैया ने उसकी ओर देखा । माँझी भी उसी की और देख रहा था, तब नैया बहुत खामोशी से उसके सीने से लग गई । अत्यन्त प्यार के साथ । एक विश्वास के सहारे । फिर धीरे-से बोली,
" एक बात कहूँ । "
"अवश्य ।"
"मैँ तुम्हें इतना अधिक प्यार करने लगी हूँ कि अब शब्दों में उसका वर्णन नहीं कर सकती हूँ ।"
"मैँ जानता हूँ ।"
"' इसलिए मेरी एक बात मानोगे ?”
" क्यों नहीं ?"
“मैं तुम्हें इस कदर चाहती हूँ कि मैं नहीं चाहती कि तुम्हें अब कोई और भी देखे और छुए भी । उन प्यारभरी नज़रों से जैसे मैं देखती हूँ क्योंकि तुम मेरे हो । मैं तुम्हारी हूँ । न कोई अब तुम्हारा है मेरे अतिरिक्त और मैं भी किसी की नहीं हूँ तुम्हारे सिवा ।"
“ऐसा ही होगा ।"
“मेरे मरने के पश्चात् भी ?"
"कैसी बातें करती हो ? ” माँझी एकदम से चौंक गया ।
“मैं सच कहती हूँ । मेरी यही इच्छा है । ”
“ठीक है, लेकिन इतनी अधिक भावुक मत बनो और न ही ऐसी उलटी-सीधी बातें किया करो । " 'माँझी जैसे उदास होकर, क्षणिक क्रोधित होते हुए बोला ।
" अच्छा, ठीक है । अब नहीं करूँगी । अब तो नाराज़ मत होओ । "
“मैं कहाँ नाराज़ होता हूँ, लेकिन एक चीज़ समझ में नहीं आई ।”
“ क्या ?"
"तुम्हारे मस्तिष्क में यह आज जीने-मरने की बात कैसे आ गई ?”
"बस, ऐसे ही । समय किसी के साथ भी पक्षपात नहीं करता है। वह तो अपना कार्य करता है। " नैया ने कहा ।
" इसका अर्थ है कि तुमको मुझपर विश्वास नहीं है । "
"विश्वास नहीँ होता तो शायद इतना आगे कभी भी नहीं बढ़ती कि एक लुटे हुए इन्सान के घर में अपने जीवनभर के जीने का सामान खोजने लगती । "
"तो फिर क्या चाहती हो अब ?”
"बस, तुम सदैव ऐसे ही मेरे बने रहो । मेरे लिए, सिर्फ मेरे लिए ही । ”
यह कहकर नैया पुन: उसके सीने से लग गई, और उसकी धड्रकनों में अपने प्यार की साँसों का एहसास भरने का प्रयत्न करने लगी और माँझी ने भी उसको इस प्रकार देखा तो वह भी उसके बालों में अपना हाथ फेरने लगा, बहुत प्यार और आत्मविश्वास के साथ । उस प्यार और विश्वास के साथ जैसे कि उसने पहली बार कभी सुधा को देखा था, पर यह उसका भाग्य था कि समय ने उसके विश्वास को ठेस पहुँचाई थी और उसके अथाह प्यार को स्वीकार नहीं किया था।
नाटक, 'पथिक जो कहीं का भी नहीं' का प्रदर्शनकाल समाप्त हुआ तो माँझी और नैया को दूसरे नाटक 'टुकड़े-टुकड़े' का कार्यभार प्राप्त हो गया । सो वे दोनों इस नाटक में भी मन लगाकर अपना कार्य करने लगे और यूँ भी एक प्रकार से थिएटर ही अब उनका सहारा था । उनके जीने और दो वक्त की रोटी का साधन था । यह और बात थी कि थिएटर में नाटकों के प्रदर्शन के द्वारा वे जहाँ जनता का मनोरंजन करने की चेष्टा करते थे, वहीँ संसार प्रतिदिन होनेवाली गतिविधियों और समाज के धरातल पर ज़मी हुई यथार्थ की रूपरेखा का एक खुला प्रदर्शन करके उसकी एक वास्तविक तस्वीर भी बनाकर देते थे, ताकि समाज का कोई भी व्यक्ति इस वास्तविकता से नजरअन्दाज न किया जा सके ।
दूसरी और नैया को माँझी का सहारा और उसके हदय के प्यार का साथ मिला, तो वह पहले से और भी अधिक खिल गई । वह अब हर समय प्रसन्न रहती। उसकी भूरी आँखों में हर समय उसके भविष्य के सुनहरे और सुन्दर चित्र बनते रहते । मन खुश रहता तो दिल में नई-नवीन उमंगों के काफिले चलते रहते । दूसरी तरफ़ स्वयं माँझी भी अब तक काफी कुछ परिवर्तित हो चुका था । नैया के प्यार और उसकी आत्मीयता ने जैसे उसको एक नया जीवन दे दिया था । उसके मन-मस्तिष्क में नई-नईं उमंगों और भविष्य के सुन्दर सुखमय सपनों के चलचित्र-से चलते रहते ।
इस प्रकार दोनों नैया और माँझी ने एक-दूसरे में अपने भविष्य का सुन्दर सपना सजाया तो वे उस सपने को साकार करने का प्रयत्न करने लगे थे । इसी कारण दोनों ने निर्णय ले लिया था कि थिएटर के नए नाटक 'टुकड़े-टुकड़े' के सफलतापूर्ण प्रदर्शन के पश्चात् वे दोनों विवाह-सूत्र में बँध जाएँगे । अपनी इस योजना की सूचना उन दोनों ने थिएटर में भी एक तरह से सभी कार्यकर्ताओँ को दे रखी थी । इस प्रकार से सभी को इस बात की खबर थी कि नैया और माँझी अब शीघ्र ही दाम्पत्य-जीवन में पग रखनेवाले हैँ, लेकिन नियति का परिवर्तन शायद कोई भी पहले से महसूस नहीं कर पाता है । होनी को तो कुछ और ही स्वीकार था अथवा दुनियावालों की तरह कहा जाए तो नैया और माँझी के असीम, अथाह और हिम जैसे श्वेत पवित्र प्यार की महक को किसी की बुरी दृष्टि लग गई थी ।
नैया और माँझी को अपने इस नवीन नाटक 'टुकड़े-टुकड़े ' के लिए घोर परिश्रम भी करना पड़ रहा था । वे स्वयं भी चाहते थे कि उनका यह नाटक दुनियावालों की दृष्टि में एक कभी भी न भूलनेवाली यादगार बन जाए । इस कारण दोनों ही उसमें अपनी आत्मा का संचार-सा कर देना चाहते थे और इसलिए नैया प्रतिदिन ही संध्या को थिएटर से छुट्टी होने के पश्चात कुलगुड़ी गाँव के पहाड़ पर अपने नृत्य का अभ्यास करती थी । नाटक का दृश्य कुछ इस प्रकार का था कि एक अधूरे प्रेम की प्यासी युवती की भटकती हुई आत्मा अपने प्रेमी को पुकार-पुकारकर बुलाती है, और उसका प्रेमी भी प्रेम के सागर में सराबोर उसकी और खिंचा आता है । नैया को नृत्य और गीत के साथ-साथ धीरे-धीरे चलते हुए एक पहाड़ी की ओट में जाकर छिप जाना था और उसका प्रेमी उसकी आवाज़ और छाया के सहारे दूसरी तरफ पर्वत के ऊपर चढ़ते हुए अपनी प्रेयसी की आत्मा की तरफ़ जाने की कोशिश करता है । इस दृश्य में भटकती हुईं प्रेयसी की आत्मा का कार्यं नैया कर रही थी और प्रेमी स्वयं माँझी था । परन्तु कौन जानता था कि अचानक-से सारे नाटक का दृश्य ही परिवर्तित हो जाएगा ? नाटक 'टुकड़े-टुकड़े ' की परिणति नैया और माँझी के अपूर्व प्यार की एक साथ जुडी हुई श्रृंखला को बिखरती हुई कड़ियों के रूप में हो जाएगी । नैया के दिल के सजे हुए अरमानों पर वक्त की बिजली चीख मारकर झपट पड़ेगी और साथ ही माँझी के पहले से बुझी-बुझी दिल की हसरतों को पुन: पनपते-पनपते, काले, मटमैले अन्धकार की चादर अचानक से अपने बाहुपाश में जकड़कर शिथिल कर देगी ।
अभ्यास के दौरान माँझी का पैर जो फिसला तो फिसलता ही चला गया । वह अपना सन्तुलन खो बैठा, और एकाएक, पलक झपकते ही, क्षणभर में चीखता-चिल्लाता हुआ नीचे पर्वत की घाटी में जा पड़ा । नैया ने विस्मय से यह सब देखा तो उसकी तो जैसे जान ही निकल गई थी । किंकर्तव्यविमूढ़-सी वह तुरन्त कोई निर्णय भी नहीं कर सकी थी । उसका माँझी, उसके दिल का प्यार, उसकी उपजी हुई कलेजे की हसरतों का वह हार जिसे उसने संसारवालों की दृष्टि से छिप-छिपकर बनाया था । उस हार पर उसने अपनी बेमोल मुहब्बतों के प्यार के अनगिनत पुष्प अर्पित कर दिए थे; यूँ अचानक से लहूलुहान होकर, नीचे घाटी की कोख में पड़ा हुआ उसकी बरबाद मुहब्बत का वह दृश्य प्रदर्शित करेगा, जिसे क्षणभर को भी देख लेने के लिए, उसमें साहस नहीँ था।
नैया ने तो कभी सोचा भी नहीं था कि उसकी बसी-बसाईं प्यार की दुनिया के वे सितारे जिन्हें उसने सदैव चमकते रहने की आरजू की थी, आज अचानक से अपनी क्षीण होती हुई ज्योति पर मलाल कर उठेंगे । उसके प्यार का वह शीर्षक जो 'नैया और माँझी' के नाम से आकाश की बेमिसाल शून्यताओँ में लिखा हुआ प्रतीत होता था, एक दिन यूँ बिना सूचित किए हुए, अचानक से सौरमण्डल से अपने अस्तित्व को अस्वीकृत किए जाने का सन्देश देने लगेगा । यह सोचते ही नैया तो फूट-फूटकर रो पड़ी । रो पड़ी और चिल्ला पड़ी । यह सब भयानक-सा दृश्य देखकर वह अपने को जैसे सँभाल भी नहीं पाई थी । उसकी तो पैरों से जैसे धरती ही सरक गई थी । एक पल में क्या था, और दूसरे ही पल यह क्या-से-क्या हो गया था ?
फिर किसी प्रकार नैया ने अपने को साहस दिलाया और रोती-भागती हुई कुलगुड़ी गाँव में गई । वहाँ से सभी लोग सहायता के लिए दौड पड़े । सब ही ने किसी प्रकार साहस और परिश्रम से माँझी को नीचे घाटी से बाहर निकाला । उसकी तुरन्त ही मरहम पट्टी की । वह लहूलुहान तो हो ही गया था । उसके सिर में काफी चोट आई थी । शरीर पर खरोचों के काफी निशान थे । बेहोश तो वह हो ही चुका था । यह तो उसके लिए अच्छा ही हुआ था कि वह एकदम से पूर्णत: घाटी के अन्दर नहीं जा पाया था, बल्कि बीच मार्ग में ही एक थोड़े-से समतल स्थान पर जाकर रुक गया था । इसलिए उसके बचने की आशा अवश्य ही की जा रही थी । फिर सब ही ने उसको तुरन्त ही अस्पताल भी पहुँचा दिया । वह अभी तक पूर्णत: बेहोश ही था । नैया उसके साथ साये की भाँति ही लगी हुई थी । साथ ही अत्यधिक दुखी, परेशान, उदास और किसी अनहोनी के होने की पूर्व विचारधारा के कारण भयभीत भी थी ।
माँझी को अस्पताल में भरती कराकर अधिकतर लोग तो थोड़ी-थोड़ी देर के अन्तर से वापस चले गए थे, परन्तु नैया वहीं बनी रही थी ... इसके साथ ही सुधा ने जो यूँ अचानक से माँझी को अपने पास पाया और वह भी इस आपात्कालीन स्थिति में ? एक घायल बेहोश मरीज़ के रूप में? तो वह भी पलभर को सकते में आ गई थी, परन्तु इस समय वह सुधा से पहले वह 'डॉक्टर सुधा ' थी और माँझी उसके लिए 'माँझी' न होकर एक मरीज़ था, इस कारण वह भी क्षणभर को अपने अतीत के इतिहास को भुलाकर अपने मरीज़ के इलाज और उपचार में पहले लग गई थी ।
इस प्रकार से कौन जानता था कि माँझी की दुर्घटना के द्वारा जहाँ नैया के प्यार की कहानी का दर्द आरम्भ हुआ था, वहीं से सुधा के अतीत का वह दर्द भी उभर आया था, जिसके किसी भी सुराग से नैया तो बिलकूल ही अपरिचित थी और जिसको स्वयं सुधा ने अपने दिल के एक कोने में, अपने जीवन के किसी भूले-बिसरे दर्द-भरे गीत के रूप में सँजोकर रख लिया था ।
जिन्दगी के वे प्यार-भरे रास्ते जिन पर चलकर एक दिन बिना आज्ञा लिए, माँझी ने सुधा को आवाज़ दी थी । आवाज़ देकर उसको रोकना चाहा था । उसे अपना हमसफ़र बनाना चाहा था, परन्तु उस प्यार-भरी आवाज़ को सुनकर भी सुधा ने तब किसी दूसरे मार्ग पर चलना स्वीकार कर लिया था । फिर उन्हीं प्यार-भरे मार्गों को साफ-सुथरा बनाकर- उसकी समस्त अड़चनों को दूर करके, उसके तिनके-तिनके बीन करके, नैया ने अपने भविष्य के लिए कोई मार्ग बनाया था। किसको ज्ञात था कि एक दिन ये तीन प्यार के पथिक- इनके तीन मार्ग, अचानक से आकर एक स्थान पर मिलकर, इस प्यार की कहानी का वह त्रिकोण बना देंगे कि जिसमें से कहीं भी आगे बढ़ने के लिए कोई मार्ग नहीं होगा ।
तृतीय परिच्छेद
माँझी को दर्दभरी दुर्घटना की खबर कौसानी के मशहूर थिएटर 'नृत्य-संगीत निकेतन' में पलभर में ही जंगल में लगी आग के समान फैल गई । निकेतन की निदेशक श्रीमती राजभारती जिन्होंने माँझी को अपने यहाँ नौकरी दी थी, भी सुनकर आश्चर्य से दाँतों तले अँगुली दबा गई ।
-अभी और है.