भाग 105
पूरे एक महीने तक परीक्षा चली महेश की। चिलचिलाती गर्मी में पसीने से तर -बतर वो किताबे खोले पढ़ाई में जुटा रहता। सभी पेपर अच्छे हुए। पूरी आशा थी कि वो बहुत अच्छे नंबरों से पास कर जायेगा।
इधर महेश के जाने के बाद एक दो महीने तो पुरवा को बिल्कुल भी चिंता नही हुई कि वो घर नहीं आ रहा है। पर जब चार महीने बीत गए ना तो उसका एक भी खत नही आया और ना ही वो खुद ही आया।
गुलाब रोज जब भी बाहर से आती ये पूछती कि बाबू की चिट्ठी आई क्या..?
रोज वो ना में सिर हिला देती।
मां के बार-बार पूछने से पुरवा को भी महेश का खत नही लिखना बुरा लगने लगा। क्या दिन-रात पढ़ाई ही कर रहे होंगे..! क्या दस मिनट का समय निकाल कर चार लाइन नही लिख सकते..! पर क्यों लिखेंगे…? यहां है ही कौन उनको याद करने वाला। इस तरह अपनी तरफ से बे -खबर पटना में महेश का बैठना पुरवा को धीरे -धीरे अखरने लगा। अपनी उपेक्षा से पुरवा को तकलीफ हो रही थी। अब बस उसका दिल यही चाह रहा था कि महेश वापस आ जाए। अब वो उससे कटी -कटी नही रहेगी।
आज परीक्षा खत्म हुई। सारा तनाव सारी चिंता समाप्त हो गई। अब कम से कम दो महीने बाद ही परिणाम आएगा। इस लिए अपना सारा सामान समेट कर उसने घर चलने की तैयारी कर ली।
उसके साथ कमरे में रहने वाला दिल्ली का विक्रम खुराना जिसके पिताजी जाने माने वकील थे उससे विदा ले कर महेश अपने घर के लिए चल पड़ा। दिल में उत्साह और उमंग हिलोरें मार रहा था। जिस मकसद के लिए उसने अपनी नव विवाहिता पत्नी से दूरी बनाई थी वो आज पूरा हो गया था। अब कोई वजह नहीं बची थी कि वो घर से दूर रहे।
आज करीब आठ महीने बाद वो घर जा रहा था। आज वो पुरवा को देख पाएगा… मिल पाएगा.. कितनी जल्दी रास्ता कट जाए, जितनी जल्दी वो घर पहुंच जाए बस दिल यही चाह रहा था। बार -बार घड़ी देखता.. ये रास्ता इतना लंबा कैसे हो गया..? ये घड़ी इतने धीमे क्यों चल रही है..?
देर रात महेश घुघली रेलवे स्टेशन उतारा। वहां से पैदल ही अपने गांव के लिए चल पड़ा।
दिन की झुलसा देने वाली गर्मी उसके गांव उतरते ही जैसे गायब होने लगी। ठंडी ठंडी मीठी पुरवाई चलने लगी। जो तन मन को शीतल करने लगी। कुछ ही देर बाद वो अपने गांव पहुंचा।
घर में सब खा -पी कर सो गए थे। पुरवा को अकेला पन ना लगे इस लिए गुलाब उसके कमरे में ही खटिया बिछा कर सोती थी। अभी सोए कुछ देर ही हुआ था कि महेश ने दरवाजे की सांकल धीरे से खटकाई। गुलाब की कच्ची नींद थी वो झट से उठ कर बैठ गई। उसके दिल ने कहा जरूर महेश ही होगा।
जल्दी से बिस्तर से उतर कर लालटेन हाथों में लिए बाहर के दरवाजे की ओर तेज कदमों से आई और पूछा,
"बाबू है ना…?"
महेश ने हंस कर कहा,
"हां..! मां तेरा बाबू ही है।"
गुलाब ने दरवाजा खोला और महेश उसके चरण -स्पर्श कर के उससे लिपट गया।
अंदर आया तो जवाहर जी भी जाग गए थे। वो भी महेश की आवाज सुनकर बाहर आ गए।
महेश ने पांव छुए तो पूछा इम्तहान कैसा हुआ?
अच्छा हुआ जान कर उन्हें तसल्ली हुई।
महेश बोला,
"मां ..! बहुत जोर की भूख लगी है। कुछ है खाने को तो दे दो।"
"अच्छा रुक देखती हूं। खाना -पीना सब तो बहू ही करती है।"
कह कर गुलाब रसोई में चली गई।
वहां देखा तो दाल रोटी बची हुई थी। घी आचार, प्याज के साथ उन्हे थाली में ले कर आई। महेश भूखा था। इस लिए जल्दी से खा लिया। उसके बाद गुलाब ने एक गिलास भर कर दूध उसे पकड़ा दिया।
तभी आंगन में बूंदें गिरने की आवाज आई। झांक कर देखा तो रिम -झिम फुहार पड़ रही थी।
गुलाब हंस कर बोली,
"देख रहा है बाबू..! तेरे आने सिर्फ तेरे घर वालों के कलेजे को ठंडक नही पहुंची है। देख पूरा गांव, इलाका अभी कुछ देर पहले तक तप रहा था, गर्मी से बेहाल था। तेरे आते ही सब को ठंडक पड़ गई। खेत -खलिहान भी तुझे देख कर जुड़ा गए। अब जा अपने कमरे में जा कर सो जा।"
महेश ने ऐसा जाहिर किया जैसे मां की बात सुनी ही ना हो। अपने बिस्तर पर लेटते हुए महेश को धक्का दिया और बोली,
"जा… अब.. मुझे भी नींद आ रही है।"
महेश संकोचाता हुआ वहां से उठ गया। जब की इसी घड़ी की प्रतीक्षा में पूरे रास्ते बे - चैन था।
कमरे में गया तो पुरवा बाहर की बातों से बेखबर सोई हुई थी।
चुप -चाप दरवाजा बंद कर बिना कोई आहट किये बिस्तर पर धीरे से लेट गया। उसे पुरवा के चेहरे की हैरानी देखनी थी उसे इस तरह अचानक देख कर जो होती।
महेश का खुद पर काबू रखना मुश्किल हो रहा था। उसकी पुरु बगल में थी और वो उसे अपने आलिंगन में ले कर आठ महीनों की तड़प की शांत भी नही कर सकता था। इस कारण की कहीं उसकी पुरु की नींद ना खराब हो जाए। दिल पर काबू किए वो लेता रहा और कब नींद आ गई पता भी नही चला उसे।
जब पुरवा की नींद रोज की तरह सुबह खुली तो आंख मलते हुए उठ बैठी। फिर जैसे ही नजर पलंग पर सोए महेश पर पड़ी। वो आश्चर्य चकित रह गई। खुशी और हैरानी से उसकी चीख निकल गई।
शायद इतने लंबे अरसे तक दूर रहने से और महेश की बेरुखी से भोली -भाली पुरवा को पति और उसके प्यार का एहसास हो गया था।
वो खुशी से खुद पर काबू नही कर सकी और हर्षातिरेक वो महेश के सीने से लिपट गई। उस पल उसे उसे शर्म लज्जा की बात जैसे दिमाग से बिलकुल निकल ही गई थी।
महेश जो गहरी नींद में था इस तरह अचानक पुरवा के लिपटने से जाग गया। जब उसने देखा तो पुरवा थी। उसे जरा सी भी ये उम्मीद नहीं थी कि उसके चार बार कुछ पूछने पर एक बार बोलने वाली पुरवा, उससे दूर भागने वाली पुरवा, उसे इस तरह देख कर इतनी खुश होगी कि अपनी लाज -शर्म की दहलीज लांघ कर खुद बखुद उसके सीने से लग जायेगी।
पुरवा को अपने इतने करीब देख कर महेश के रग -रग में खुशी की लहर दौड़ गई। उसने मुस्कुराते हुए अपने दोनो दोनों बाजुओं का घेरा बना कर कस लिया।
पुरवा का चेहरा अपनी ओर उठाया तो उसने शर्म से अपनी आंखे बंद की हुई थी। होठों पर असीम संतोष था।