भाग 54
देखते ही देखते उस गाड़ी के डिब्बे में मौजूद सब लोग उसकी मूंगफली के ठोँगे के लिए टूट पड़े। जैसे ये कोई मामूली मुंगफली ना हो कर कोई करामाती मुंगफली हो। जो जितना ले सकता था। अपनी इच्छा अनुसार कीमत चुका कर खरीद रहा था। पल भर में ऊपर तक लदी मूंगफली की टोकरी खाली हो गई। उस व्यक्ति के उदास चेहरे पर भी सम्मान की एक स्पष्ट झलक दिखाई दे रही थी।
आज पहली बार ऐसा हुआ था कि घर से मुंगफली से लदी टोकरी ले कर चला हो और वो पूरी की पूरी बिक गई हो। सिर्फ टोकरी हल्की नही हुई थी। आज उसका मन ही उसकी टोकरी जितना हल्का हो गया था। एक सपना इन अंधकार में डूबी आंखों में भी उतरा आया था। अपनी मुन्नी को स्कूल भेजने का। उसको पढ़ा लिखा कर काबिल बनाने का। प्यार से मुन्नी का सिर सहलाया।
फिर थोड़ी देर बाद साजिद ने पूछा,
"भाई आपको उतरना कहां है..?"
वो बोले,
"तिनकोनिया में ही उतरेंगे। वही करीब आधा मिल पर ही है हमारा गांव।"
अगला स्टेशन तिनकोणिया ही था।
अमन ने आदर से उनको हल्के सहारे के साथ गाड़ी के दरवाजे तक लाया। उनके जाने के लिए खड़ा होते ही वहां मौजूद सभी लोग ताली बजाने लगे। ताली बजा कर कर सम्मान देने को उन्हें विदा करने को खड़े हो गए।
अमन साजिद और अशोक गाड़ी के बाहर तक आए। उनको उतरने में सहयोग किया। वो व्यक्ति उतर कर मुन्नी को साथ उसका सहारा ले कंधा पकड़े हुए धीरे धीरे चला गया।
रोज लौटते वक्त झुके हुए कंधों पर परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी भार बोझ महसूस होता था। ऐसा लगता था कि मोहन की गैर जिम्मेदारी की वजह से उन्हें उसके परिवार का बोझा ढोना पड़ रहा है। ये उनका काम नहीं था। मोहन का फर्ज उनको अदा करना पड़ रहा था।
पर आज बात अलग थी। उन्हें ये जिम्मेदारी बोझ नहीं बल्कि सौभाग्य प्रतीत हो रही थी। कंधे झुके हुए नही थे बल्कि देश के लिए शहीद होने वाले बेटे का पिता होने के गर्व से तने हुए थे। आज जो सम्मान गाड़ी के यात्रियों ने उनको दिया था, वो बहुमूल्य था उनके लिए। वो खुश हो रहे थे कि जब घर पहुंच कर मोहन की अम्मा को ये सब बताएंगे तो उसे कितना अच्छा लगेगा। उसकी विधवा को आज अपने सूनी मांग का कोई अफसोस नहीं होगा।
घर पहुंच कर उसका सामना पत्नी से हुआ। रोज तो आधी टोकरी भी खाली नहीं हो पाती थी। आज पूरी ही खाली दिख रही थी। उसे शंका हुई कि कही किसी ने छीन तो नही लिया..! या फिर कहीं सारे ठोंगें फिर तो नही गए…! सशंकित मन से उसने पूछा,
"क्यों जी..! आज तो पूरी टोकरी खाली है…! कही गिर गए क्या सारे ठोगें…?"
वो बोला,
"नही मोहन की मां…! कहीं गिरा कर नही आया हूं। आज तो गजब ही हो गया। सुनोगी ना तो प्रसन्न हो जाओगी। आओ बैठो तो… तुम्हें सारी बात बताता हूं मैं।"
फिर उसने और मुन्नी ने सारा किस्सा मोहन की अम्मा और पत्नी को सुनाया।
साजिद द्वारा दिए रुपए और पते के कागज को बहू को संभाल कर रखने को दे दिया। कपड़े और मिठाई को मोहन की अम्मा को दे दिया।
आज एक मुद्दत के बाद घर में मिठाई आई थी। मुन्नी तो शायद इसके स्वाद से भी वाकिफ नहीं थी। इन लोगों ने कभी खाया भी होगा तो स्वाद भूल चुके थे। मोहन की अम्मा ने सब को एक एक दिया और बाकी की मिठाइयां मुन्नी को पकड़ा दी। बोली,
"ले मुन्नी ..! तू इसे धीरे धीरे कर के खाना।"
मुन्नी उस थैले को ले कर अपने सामान में संभाल कर रखने फुदकती हुई चली गई। उसे मिठाई अपनी सहेलियों को भी तो दिखानी थी।
मोहन के पिता बोले,
"मोहन की अम्मा..! अब मैं कल ही मुन्नी का दाखिला स्कूल में करवाऊंगा। इन रुपयों से हम एक परचून की दुकान खोलेंगे। खूब मेहनत कर के उसे चलाएंगे। सुन तू बगल में चाय की भट्ठी भी बना लेना। खूब चलेगी। स्वाद है तेरे हाथ की बनी चाय में।"
मोहन की अम्मा बोली,
"हां… हां..! सब हो जायेगा। दुनिया में सब लोग बुरे ही नही हैं अच्छे भी है। तभी तो दुनिया चल रही है।"
अपने और मुन्नी के भविष्य का तना बाना दोनो मिल कर बुनने लगे। ओट में खड़ी बहू चुप चाप सुन रही थी। उसकी लाडली मुन्नी अब मूंगफली बेचने दादा के साथ नही जायेगी। वो अब स्कूल जायेगी। ये ख्याल उसे खुशी से भर दे रहा था। गांव में जब मुन्नी के साथ की बच्चियां स्कूल जाती थीं तो वो भी मचलती थी स्कूल जाने को। पर उसकी उसे बहकाने के लिए डराती और झूठ झूठ कहती कि मुन्नी स्कूल नही जाते…. बिटिया। वहां पर गुरु जी ना पढ़ पाने पर बच्चों को डंडे से मरते हैं। बहुत चोट लगती है। मैं अपनी मुन्नी को मार थोड़ी ना खाने दूंगी। मेरी मुन्नी घर में रहेगी और अपने दादा के साथ जायेगी मुंगफली ले कर। तू घूम भी लेगी और मार से भी बच जाएगी। अपनी मजबूरी को बच्ची से छुपाने के लिए झूठ बोलने में मुन्नी की मां का कलेजा कटता था। पर बताते पर भी वो बच्ची क्या समझती कि उसकी मां उसे क्यों उसको स्कूल नहीं भेज पा रही है..!
मोहन के पिता ने मुन्नी को आवाज लगा कर बाहर से अंदर बुलाया और कहा,
"मुन्नी…! कल सुबह तैयार हो जाना। और हां नहा जरूर लेना। कल तुझे स्कूल ले चलूंगा दाखिला करवाने।"
मुन्नी ने ना में सिर हिलाया और बोली,
"नही .. मैं नही जाऊंगी। वहां गुरु जी मरते हैं डंडे से मां ने बताया था हमको।"
अब बहू को अपने मुन्नी को बताए गए झूठ पर ग्लानि हो रही थी। वो बिचारी मां की बातों को सच मान कर स्कूल के प्रति गलत सोच को मन में बिठा लिया है।
बहू लिहाज वश ससुर के सामने बोलती नही थी। उसने धीरे से मुन्नी को अपने पास बुलाया और समझाते हुए बोली,
"मुन्नी ..! वो तो मैंने गंदे बच्चो के बारे में बताया था। जो बदमाशी करते हैं। गुरु जी की बात को मानते नही है ना उन बच्चों की पिटाई करते हैं गुरु जी। मेरी मुन्नी तो समझदार है। वो पढ़ाई करेगी अच्छे से तो उसको गुरु जी शाबाशी देंगे। तो मुन्नी स्कूल जायेगी ना सुबह..?"
मुन्नी ने तेजी से हां में सिर हिलाया और दादा के पास आ कर बोली,
"दादा..! दादा..! आप कल मुझे ले कर स्कूल चलना। मेरा दाखिला करवा देना।"
उन्होंने मुन्नी का सिर सहलाया और बोले,
"हां.. मेरी मुन्नी..! कल हम चेलेंगे ना स्कूल।"
सब की आंखों में एक नए जीवन की चमक दिखाई दे रही थी।