कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 53 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 53

भाग 53

गोली की आवाज सभी ने सुनी थी गांव में पर इन सिपाहियों के डर से सभी अपने अपने घरों में दुबके हुए थे। क्या पता किस पर विद्रोही की मदद का आरोप लग जाए। पर उसकी अम्मा की आवाज पर एक एक कर के गांव के लोगों ने हिम्मत की और अपने अपने घरों से निकल कर बाहर आए।

मोहन ने मुन्नी के गालों को अपने हाथों से छुआ और मुस्कुराते हुए बोला,

"अम्मा…! अनाथ कहां कर के जा रहा हूं। तुम सब हो न इसकी परवरिश को। मुझे माफ कर देना। पहला फर्ज मेरा भारत मां के लिए निभाना था।"

इसके बाद अपने दोनो हाथ जोड़ दिए।

उसके प्राण पखेरू उड़ गए।

उसकी अम्मा छाती पीट पीट कर बिलखने लगी। पूरा गांव इकट्ठा हो गया। मोहन पूरे गांव का दुलारा था। उन गोली मारने वाले सिपाहियों को मरने की आवाज उठने लगी। किसी तरह उन दोनो ने भाग कर अपनी जान बचाई। पर मेरे बच्चे की अंतिम क्रिया तक पूरे गांव वालों ने किसी भी अंग्रेज को घुसने नही दिया। कोई उसे हाथ नही लगा सका।"

अमन के दिमाग में ये था कि ये जब देख नही सकते तो कैसे दरवाजा खोलने उठे। कैसे बता रहे कि इनका बेटा इतना सजीला नौजवान था। उसने पूछ ही लिया।

"चचा..! आप देख नही सकते तो कैसे अंधेरे में दरवाजा खोलने उठे थे। फिर आप सौदा बेच कर पैसे कैसे गिनते हो..? बच्ची तो छोटी है, लोग कम तो नहीं दे देते।"

वो बोला,

"बेटा…. ! मैं जन्म से अंधा थोड़े ना ही था। ये तो मोहन के लिए दिन रात रोते रोते आहिस्ता आहिस्ता आंखों की रौशनी चली गई। इस बच्ची को दुख ने समय से पहले समझदार बना दिया। बड़ी होशियार है मेरी मुन्नी। रुपए पैसे बड़ी तेजी से गिन लेती है। जोड़ना गांठना भली भांति कर लेती है। "

साजिद ने पूछा,

"फिर क्या हुआ..?"

वो बोला,

"फिर क्या होना था बाबू जी..! कब तक शोक मनाते..! बहू और बच्ची को भी तो पालना था। उनके लिए खुद को संभालना पड़ा। कुछ दिन तक जरूरत पड़ने पर गांव के ही साहूकार से उधार ले लेते। वो भी बिना किसी सवाल जवाब के उधार देता रहा। कुछ चार साल बीतने के बाद एक दिन अचानक से अपना बही खाता ले कर आ धमका। कहता या तो रकम चुकाओ या फिर खेत हमारे नाम कर दो। क्या करता.. पढ़ा लिखा तो हूं नहीं। इतनी रकम मैने नही ली थी उससे। जाने कौन सा नियम लगा कर सुरसा के मुंह सा ब्याज जोड़ लिया था उसने। अब ना आंखे थी, ना जवान बेटे का सहारा था। इस लिए उसने बड़े आराम से खेत पर कब्जा कर लिया। पेट पालने के लिए कुछ ना कुछ तो करना ही था। इसलिए यही उपाय सूझा। पहले इसकी दादी आती थी साथ में। पर अब उससे भी इतना काम नहीं होता कि बाजार से कच्ची मूंगफली लाए, उसे भूजे… फिर साथ में बेचने भी आए। इसलिए मुन्नी को साथ ले कर मैं ही आने लगा।"

अब उसकी दिल की सारी व्यथा बाहर आ चुकी थी। आंखो के आंसू पेट की आग में सूख गए थे।

साजिद ने उस व्यक्ति से पूछा,

"भाई…! अगर किसी दिन ना बिके तुम्हारी मूंगफली तो.."

वो बोला,

"तो क्या…? उस दिन हम एक ही बार खाते हैं। हमारी तो आदत हो गई है अब।"

सभी देश के लिए शहीद होने वाले इस इंसान के बेटे को नमन कर रहे थे। अब ये सिर्फ मूंगफली की फेरी वाला आम व्यक्ति नही था। ये एक शहीद का पिता था। इनका जितना सम्मान किया जाए कम है। हम अपनी कुर्बानी नही दे पा रहे तो क्या हुआ जिसने कुर्बानी दी है, जिसका परिवार उजड़ गया है। उसके लिए क्या कुछ करना हमारी जिम्मेदारी नहीं है। समाज तभी सुचारू रूप से चलता है जब उसके चारो पायें अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाते हैं।

साजिद ने एक निर्णय लिया। उसने जो नए कपड़े उसे शमशाद ने विदाई में दी थी, उसे सलमा से बाहर निकालने को कहा। फिर अपनी जेब खंगाली और उसमे से ढाई सौ रुपए निकाले। उसे उस शहीद के पिता को देते हुए बोले,

"भाई…! आप मुझे गलत मत समझना। ना इसे मेरी कोई मेहरबानी समझना। ये मेरी तरफ से एक छोटी सी अकीदत है। मैं तो इतना नकारा हूं कि वतन के लिए कोई कुर्बानी देने की हिम्मत नही कर सका। सलाम है उस आजादी के दीवाने को। जो इतनी कम उम्र में देश की आजादी की खातिर सबसे बड़ी कुर्बानी दे गया। हम तो बस रुपए कमाने में, अपना कारोबार आगे बढ़ाने में लगे रहे। अपने ऐशो आराम से आगे वतन के लिए कुछ करने का सोच ही नही पाए। आप मना मत करना। उम्र भर आपका एहसान मंद रहूंगा।"

साजिद ने उनकी कमीज की अंदर की जेब में रुपए डाल दिया। कपड़े का थैला बच्ची को पकड़ा दिया।

फिर मशविरा देते हुए बोले,

"आप अब इस तरह गाड़ी में ना भटका करें। इस रकम से कोई छोटा मोटा कारोबार कर लें। और इस बच्ची का दाखिला करवा दे स्कूल में। आपने बताया बच्ची जोड़ने गांठने में होशियार है। इसका मतलब है कि ये तेज दिमाग है। आप इसे खूब पढ़ाना। इसे किसी का मोहताज मत होने देना। इसे खुद के पैरों पर खड़ा करना।"

फिर अमन से बोले,

"अमन ..! तुम इनको एक कागज पर अपना और शमशाद दिनों का पता लिख कर दे दो। भाई ..! कोई भी जरूरत हो आप इस में से किसी भी पते पर खत जरूर लिखे। आपको हर मुमकिन मदद जरूर मिलेगी। मैं आपके किसी भी काम आ सका तो ये मेरी खुश नसीब होगी।"

अमन ने अपनी कमीज में खोंसी कलम निकाली और कागज का एक टुकड़ा ढूंढ उस पर अपना और शमशाद भाई का पता लिख दिया। फिर उसे उनको संभाल कर रखने को दे दिया।

सलमा ने बच्ची को साथ लाई मिठाइयों में से कुछ मिठाइयां पकड़ाई। थोड़ी हिचक के बाद उसने अपने दादा के कहने पर लिया।

बच्ची बेहद मासूम फरिश्ते जैसी सूरत वाली थी। वो उनकी ओर बड़े ही आदर और अपनत्व से देख रही थी। आस पास बैठे लोग भी सब कुछ देख सुन रहे थे। सब की नजरों में ये कोई मामूली मुंगफली वाला या खोमचे वाला शक्श नही रह गया था। अब इसका कद सब की नजरों में बहुत ऊंचा उठ गया था। ये एक शहीद का पिता था।