भाग 43
धनकु बहू जो दूध, दही के मीठे ख्यालों में डूब उतरा रही थी, उर्मिला के पुकारने की आवाज से खयालों से बाहर आई। वो झट से बोली,
"अरे..भौजी..! ऐ कौन सा बड़ा बात है। हम सब कर लेंगे। तुम रत्ती भर भी चिंता मत करो, निधड़के जाओ। यहीं बगल में ही तो है हमारा घर भी। अब यहां सोएं या वहां सोएं क्या फरक है। पर भौजी जा कहां रही हो…? कहीं शादी ब्याह है क्या..?"
उर्मिला बोली,
"ना. ना.. शादी ब्याह नही है। ऐसे ही कहीं दर्शन करने जाना है। अभी कुछ पक्का नहीं है। पुरवा के बाऊ जी आ जाएं तब दो तीन दिन में बताती हूं।"
धनकू बहू का मतलब सिद्ध हो गया था। प्याज मिल गया था। वो उठते हुए बोली,
"ठीक है भौजी..! चाहे जब जाओ। बस हमें बता देना। हम सब संभाल लेंगे आपके देवर के साथ मिल कर।"
उर्मिला इसकी आदत जानती थी कि पेट में पानी नहीं पचता इसके। शाम तक ही पूरे गांव में बच्चा बच्चा को पता चल जायेगा कि हम कहीं बाहर जा रहे हैं। पर मजबूरी थी। इस लिए बताना पड़ा था। उर्मिला उसे सख्ती से सहेजते हुए बोली,
"देख धनकू बहू..! अभी किसी से कुछ कहना मत कि हम कहीं बाहर जा रहे हैं। तुझे कोई भी बात पचती नही है। कान खोल कर सुन ले, ये बात फैलाना मत वरना अच्छा नही होगा।"
वो अपने कानों को हाथ लगाते हुए बोली,
"अरे… ना भौजी..! बिस्वास करो मेरा। जो मैं गांव में किसी से इस बात कि को ले कर सांस भी लूं तो बताना आप। मेरी जुबान जल जाए। मैं खुद ही कभी इस दरवाजे पर मुंह दिखाने नही आऊंगी।"
धनकू बहू के लिए इस वक्त अपने चुगलखोरी वाली आदत की अपेक्षा बच्चों के लिए दूध दही, ज्यादा जरूरी था। चुंगलखोरी की आदत पर ममता का पलड़ा भारी पड़ गया।
इस लिए उसे हर तरीके से उर्मिला भौजी को यकीन दिलाना बहुत जरूरी था। नही तो वो अगर किसी और को कह देंगी घर की देख भाल को तो हाथ आया सुनहरा मौका हाथ से निकल जायेगा। बच्चों के मुंह से दूध दही खाने का मौका वो गंवाना नहीं चाहती थी।
धनकू की माली हालत ठीक नहीं थी। जो भी खेत था वो उसके पांच बाबाओं में बंटा, फिर धनकू के बाबा की बुरी आदत थी। वो दारू का शौखीन था। गांव के ही बेईमान प्रवृति के लोगो ने दारू पिला कर नशे में खेत अपने नाम करवा लिया था। जबकि बाकी चचेरे बाबाओं के काम काम भर का खेत बचा हुआ था। खाने पीने भर की सारी चीजें उनके खेतों में उपज जाती थी। अब धनकु भी तीन भाई था। कुल दस कट्ठा ही जमीन ही उसके हिस्से में आई थी। थोड़ी बहुत सब्जी, थोड़ा बहुत मकई लगा कर किसी तरह उसी के सहारे काम चलता था। गांव के लोगों के खेतो में काम कर अनाज का जुगाड़ दोनो पति पत्नी कर लेते थे। अब दुधारू जानवर किस बूते पालते..!
बच्चे दूध को तरसते थे। कभी कभी उर्मिला ही दे देती थी बचने पर।
बच्चे जी भर दूध दही खायेंगे इसके लिए बहुत छोटी कीमत थी बात को पचाना, अपने तक रखना।
वो प्याज ले कर जाने लगी तो बाहर ही अशोक से सामना हो गया। अशोक धनकू से बड़े थे। इस लिए वो उनसे परदा करती थी। पल्लू से मुंह ढक कर बचते हुए अपने घर चली गई।
अशोक खेत से लौटा था। धूल मिट्टी और पसीने से तर बतर था। इस लिए पहले अशोक कुंए पर ही गया और दो बाल्टी पानी खींच कर खूब नहाया। उसे नहाते देख उर्मिला ने पुरवा से खाना निकाल कर लाने को बोला और खुद पीढ़ा रखने लगी।
अशोक पानी की बाल्टी ले कर आए और आंगन में रख दिया। खाने के पीढ़ा पर बैठते हुए बोले,
"ये क्यों आई थी..? जरूर कुछ ना कुछ घटा होगा। वरना बिना मतलब के दिखाई नही पड़ती।"
उनके बैठते ही पुरवा ने थाली सामने ला कर रख दी। भगवान का भोग निकल कर वो खाने लगे। उर्मिला बगल में बैठी पंखा झल रही थी। वो बोली,
"हां आई तो लेने ही थी। पर क्या कोई खुशी खुशी थोड़ी ना मांगता है। जब मजबूरी होती है, काम नही चलता तभी मांगता है। अब आज उसके घर सिर्फ रोटी ही थी। उसी लिए प्याज लेने आई थी। उसी के सहारे सब खा लेंगे रोटी। दो चार प्याज दे देने से कौन सा हम लुट जायेंगे..?"
अशोक बस ”हुंह” भर कर के खामोशी के साथ खाते रहे। उर्मिला सोच रही थी कैसे चाची से हुई बात चीत को अशोक को बताए..!
सुबह से खेत में खट मर कर आ रहे थे। अब अगर वो कुछ कहेगी चाची के बारे में तो वो यही सोचेंगे कि मैं उनकी शिकायत कर रही हूं। जब भी कोई ऐसी बात वो अशोक को बताती तो वो यही कहते थे कि अपने इस मेहररुआऊ पंचऊरा से हमको तो दूर ही रख्खो। और कोई बात होती, जाने से सबंधित नही होती तो उर्मिला हरगिज न बताती अशोक से। पर ये बात ऐसी थी कि अशोक से बताना जरूरी था।
मर्द के खाते वक्त कोई तनाव वाली बात नही कहनी चाहिए। वरना खाना विष समान ही जाता है, और देह भी नही लगता। ये उसने बड़ी बूढ़ीयों कर मुंह से सुन रक्खा था। इस लिए विचार किया कि शाम को ही जब आराम से बैठेंगे तभी बताऊंगी। अब अशोक का खाना समाप्त होने वाला था। उन्होंने उर्मिला के हाथों का पंखा बगल कर दिया और बोले,
"इसे रख दो, गर्मी नही लग रही है। अब जाओ तुम और पुरवा भी खाना खा लो। सारा दिन इसी में लगी रहती हो।"
अशोक के उठते ही पुरवा अपनी और उर्मिला की थाली परोस कर ले आई। दोनो मां बेटी ने साथ में खाया और फिर आराम करने चली गईं।
शाम को खाना बनाने का काम पुरवा के सुपुर्द कर उर्मिला सत्तू पीसने बैठ गई। अशोक भी जातें की घर्र घर्र सुन कर उठ बैठे और उर्मिला जहां पीस रही थी वहीं पर आ कर बैठ गए। और बोले,
"अब तुम ये ले कर बैठ गई। बिना समय के ही बैठोगी तुम।"
उर्मिला बोली,
"तब जरा आप ही बता दीजिए कि कौन सा समय सही होता है, तभी ले कर बैठूं मैं। सुबह दूध बैठाना, मस्का निकालना, साफ सफाई, पूजा पाठ, खाना पीना, अनगिनत तो काम होते हैं। कितना गिनाऊं मैं।"