भाग 42
उर्मिला अपने घर के दरवाजे तक पहुंच गई थी। जैसे ही अंदर घुसने को हुई। चाची ने तेजी से आवाज लगा कर उसे बुलाया,
"ओ.…. अशोक बहू..! (जब चाची का दिमाग उखड़ता था तो वो उर्मिला को इसी नाम से पुकारती थी।) जरा इधर आ तो।"
उर्मिला हैरत में पड़ गई कि अभी तो बात चीत कर के लौटी हूं। अब इतनी जल्दी क्या हो गया को फिर से बुलाने लगीं। उसे मोरी की पर बैठने की जरूरत महसूस हो रही थी कब से। पर खुद को किसी तरह रोके हुए थी। अब जल्दी से फारिग होना चाहती थी उर्मिला कि चाची ने बुला लिया। मुड़ कर एक नजर देखा और उसे लगा अब अगर चाची ने कुछ देर और रोक लिया तो काबू करना मुश्किल होगा। इसलिए बोली,
"चाची बस अभी आती हूं, बस दो मिनट में।"
इतना कह कर वो अंदर आ गई।
मोरी पर बैठते ही एक सुकून महसूस हुआ और पेट हल्का हो गया।
वहां से फिर वापस चाची के पास आने लगी पता करने की क्यों बुलाया है..!
अम्मा के डांट के डर से पुरवा ने उनके जाते ही नहा लिया था। अब पुरवा किताब ले कर वही बाहर वाले कमरे में लेटी हुई थी और देख रही थी कि अम्मा अभी आई और अभी तुरंत ही फिर जाने लगी। वो ये हाथ लगा मौका कैसे जाने देती बिना बोले..! वो मुस्कुरा कर बोली,
"क्यों ..अम्मा..! अब फिर कहां चली…? घर में तो तुम्हारे कदम ही नही टिकते। घर की मालकिन का इतना घूमना ठीक नही। घर अस्त व्यस्त हो जाता है। समझ लो। थोड़ा घर में रहो समझी।"
उर्मिला समझ गई कि उसी की बात उसी पर दोहराई जा रही है।
"अच्छा.. मेरी सास मत बन। तू इतनी लायक है ना कि घर का सारा काम धंधा करती है और मैं बाहर घूमती हूं। मैं कब घूमती हूं। वो काम ना होता तो आज भी नही निकल पाती। अपनी तरह ही सब को समझा हुआ है कि घूमने ही प्राण बसते हैं।"
पर पुरवा का अम्मा को तंग करना बंद नही हुआ। तब उर्मिला ने डांट कर कहा,
"पुरवा…! अपनी कचर कचर बंद कर चाची ने बुलाया है। बस मैं अभी गई और आई।"
इतना कह कर उर्मिला तेजी से बाहर आ गई। चाची के पास जा कर फिर से उनके पांव छुए और बोली,
"हां.. चाची आपने बुलाया..! क्या बात है..?"
चाची का हृदय अंदर तक द्रवित हो गया। उर्मिला की यही खासियत है कि दिन में चाहे जितनी बार सामना हो वो हर बार पांव जरूर छूती है। यहां उसकी अपनी बहुएं तीज त्यौहार पर पांव छू लें यही बहुत है। चाची का कलेजा कट रहा था वो कहने में जो अब वो उर्मिला से कहने वाली थीं। पर ना जाने क्यों उन्हें इस कड़वाहट में ही पुत्रवत अशोक और उसके परिवार का भला महसूस हो रहा था। वो निष्ठुरता का आवरण अपने हाव भाव और बोली पर ओढ़ते हुए उसकी और से निगाहे फेर कर बोली,
"देख.. भाई अशोक बहू..! दो चार दिन की बात होती तो हम अपने बेटों से कह कर तेरे घर को संभलवा लेते। पर तुम लोग तो पंद्रह दिन से ऊपर को जा रहे हो। इतना समय किसके पास है कि वो पंद्रह, बीस दिन तक दूसरे के घर की देख भाल करे। अब बोआई का मौसम आने वाला है। अपने भी खेत तैयार करने हैं। बीसियों काम रहता है गृहस्ती में।"
उर्मिला मुंह बाए हुए चाची की ओर देख रही थी। क्या ये वही चाची है जो अभी अपना पराया नही करती थीं..! अपनी सास नही है पर कभी सास की कमी इन्होंने महसूस नहीं होने दिया। उर्मिला ने भी सगी सास से बढ़ कर मान दिया था इन्हें। अभी तक तो ठीक थीं, अब क्या हो गया अचानक..!
"तुम लोग कोई और इंतजाम कर लो या फिर मैं तो कहती हूं रहने ही दो इतनी दूर जाने को। सबसे अच्छा यही है।"
चाची का टका सा जवाब सुन कर उर्मिला स्तब्ध रह गई। वो ऐसी पलटी मारेंगी, यही बताने को बुलाया था इसकी को कल्पना भी नहीं की थी उसने।
अब तो कुछ कहना सुनना बाकी नही रह गया था। उर्मिला चुपचाप उठी और चाची के पांव छू कर बोली,
"ठीक है चाची..! चलूं… पुरवा के बाऊ जी खेत से आते होंगे। उन्हें खाना देना होगा।"
इसके बाद सीधा घर चली आई।
पूरा दिमाग उसका भन्ना गया था चाची के व्यवहार से। अब वो बड़ी है तो उनसे तो बहस, जुबान दराजी कर नही सकती थी।
अब बड़ी चिंता में पड़ गई उर्मिला। पहली बार कही दूर देश जाने का कार्यक्रम तय हुआ था, जो चाची की वजह से खटाई में पड़ने वाला था। अब क्या करें..? जब भी चाची के परिवार में जरूरत पड़ती थी वो दोनो पूरे तन मन से सहयोग करते थे। आज उनकी बारी आने पर ठेंगा दिखा दिया था उन्होंने।
पर उर्मिला ने सोच लिया कि वो जाना टालेगी नही चाहे जो कुछ भी करना पड़े। इन चाची को दिखा देगी जा कर कि उनके सहयोग के बिना भी हमारा तीर्थ हो गया। उनको पुण्य का भागी नहीं बनना है ना बने। हमें क्या करना है..!
पूरा दिमाग लगा कर उर्मिला सोचने लगी क्या करे..? तभी धनकू की घरवाली आ गई प्याज मांगने। उसे देख कर उर्मिला को विचार आया कि इसे भी तो कहा जा सकता है घर की देख भाल के लिए। इसके पास तो कोई गाय गोरू भी नही है। दूध पाएगी तो उसी लालच में ही राजी हो जायेगी।
वो मांगने तो एक प्याज आई थी कि उसी से रोटी खा लेगी। पर उर्मिला ने उसे आठ दस प्याज दे दिया। और बोली,
"अच्छा.. ये बताओ धनकू बहू..! हम लोग कुछ बीस दिन के लिए बाहर जा रहे है। तुम लोग हमारा घर और जानवरों को संभाल लोगे क्या..?"
फिर जल्दी से दाना डालते हुए बोली,
"दूध भी पूरा तुम ही रख लेना। अपने घर जैसे रहना। तुम भी खाना, धनकू और बच्चो को भी खिलाना। बोलो क्या कहती हो..?"
धनकू के घर दूध दही सपना ही था। कभी किसी के यहां से कभी किसी के यहां से मट्ठा भर मिल जाता था। उसी में वो खुश हो जाते थे। अब गाय, भैंस का दूध बीस दिन तक खाने को मिल रहा था। वो जाने क्या क्या सोच डाली कि ये बनाऊंगी, वो बनाऊंगी। अब इसके लिए कुछ भी करना पड़े काम ही था उसके लिए।
उसे चुप्पी साधे देख उर्मिला बोली,
"क्या हुआ..? कोई दिक्कत है।"