कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 37 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 37

भाग 37

शमशाद मियां की हवेली से निकलते ही पुरवा तेज कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ी।

पुरवा तेजी से भागी जा रही थी। अमन भी उसके पीछे पीछे आ रहा था। पर अम्मी और आरिफ भाई के सवाल के जवाब देने में को कुछ सेकंड लगे और उन चंद सेकेंडों में ही पुरवा काफी आगे निकल गई।

गजब की तेज चाल थी पुरवा की। हट्टा कट्टा, फुर्तीला जवान होने के बावजूद अमन अपने और पुरवा के बीच के फासले को कम नहीं कर पा रहा था। हार का अमन ने आवाज लगाई,

"पुरवा..जी.. ! पुरवा जी....! मैं भी साथ आ रहा हूं। ठहरिए थोड़ा…।"

पुरवा अमन की आवाज सुन कर एक पल के लिए रुक कर उस की ओर देखा पर ठहरी नही, उसने अपनी रफ्तार को थोड़ा कम जरूर कर दिया।

अमन अभी अभी तेजी से ही चल रहा था। कुछ ही देर में वो पुरवा की बराबरी में पहुंच गया।

पर इस कोशिश में उसकी सांसे तेज चलने लगी थी।

करीब पहुंच कर उसने पुरवा की ओर देखा और हंस कर बोला,

"माशा अल्लाह क्या रफ्तार है आपकी..! आप .. आप तो वो ओलंपिक में भाग ले ना… तो जरूर ही मेडल ले आएंगी।"

पुरवा ने घूर कर अमन की ओर देखा।

बड़ी बड़ी आंखों में साफ झलक रहा था कि उसे अपना इस तरह मजाक उड़ाया जाना पसंद नही आया है।

अमन को ये समझने में कोई परेशानी नही हुई कि पुरवा को उसकी बात अच्छी नहीं लगी है। वो फिर से हंस कर बोला,

"आपको लग रहा है कि मैं मजाक कर रहा हूं। पर सच्ची… मैं कह रहा हूं.. आप बहुत तेज चलती हैं। मुझे पीछे करना कोई मामूली बात नही है। मैं रोज ही दौड़ लगाता हूं और वर्जिश भी करता हूं। और दावे के साथ कह सकता हूं कि आप इनमे से कुछ भी नहीं करती होंगी।"

फिर कुछ देर रुक कर बोला,

"जब आप ऐसे ही इतना तेज भाग लेती हैं तो जब आपको रियाज करवाया जाए तब तो फिर क्या ही बात होगी..! बस आप रोज रियाज करिए और अबकी साल होने वाले लंदन ओलंपिक में भाग लीजिए।"

पुरवा का दिमाग अब थोड़ा सा शांत हो गया। उसे महसूस हुआ कि अमन मजाक नही उड़ा रहा है उसका। जो सच्ची बात उसके दिल में आई है वही कह रहा है।

सामने देखते हुए ही पुरवा गंभीर आवाज में बोली,

"आप भी ना अमन जी..! कुछ भी बोल देते हैं। हमारे यहां पढ़ने को कॉलेज तो बेटियों को भेजते ही नहीं हैं। और आप मुझे दौड़ने के लिए लंदन जाने को बोल रहे हैं। हमारे यहां तो बस किसी भी तरह कर के लड़की की जितनी जल्दी हो सके शादी निपटा कर जिम्मेदारी से मुक्ति पाओ। यही हर माता पिता की ख्वाहिश होती है। और यही मेरी अम्मा, बाऊ जी भी चाहते हैं। यही हमारी किस्मत है और यही हमारा भविष्य है।"

पुरवा और नाज़ दोनो ने ही इसी साल दसवीं की परीक्षा पास की थी। दोनो ही आगे पढ़ना चाहती थी। पर दोनो ही परिवार में कोई भी राजी नहीं हुआ कॉलेज भेजने को। दलील थी कि कोई भी परिवार, पास पड़ोस, रिश्तेदारी में किसी की भी बेटी इतना भी नही पढ़ी है। ज्यादा पढ़ लिख लेने से लड़कियां अपने संस्कार भूल जाती हैं। इसी वजह से आगे दाखिला नही हुआ। नाज़ तो निकाह कर के अपनी नई दुनिया में रमने की तैयारी करने में तल्लीन हो गई। पर पुरवा की पढ़ाई भले ही बंद हो गई हो.. पर उसका किताबों से आकर्षण जरा सा भी धूमिल नही हुआ था। वो कही कहीं से जुगाड़ कर के किताबे ले आती और अपने पढ़ने के शौक को सींचती रहती। उसे अभाव के बावजूद भी मुरझाने नही देती।

आरिफ भी पढ़ने का शौकीन था। इसी क्रम में ही आरिफ से किताबों का लेन देन शुरू हुआ था। आरिफ को रुपए पैसों की कोई कमी थी नही। वो कई शहरों में आता जाता रहता था। जहां भी जाता वक्त निकाल कर पुस्तकालय में जरूर जाता। और नए पुराने लेखकों की ढेरों किताबें उठा ले आता।

पुरवा आरिफ से मांग मांग कर अपने पढ़ने के शौक को धार देती रहती थी। आरिफ भी पुरवा के इस शौख से अच्छे से वाकिफ हो गया था। इसलिए जब भी कोई नई किताब या उपन्यास के आता उसे पुरवा को पढ़ने को जरूर देता था।

आज जी किताब लेने अमन उसके साथ जा रहा था। वो भी पिछली बार आरिफ ने ही दी थी। इसमें कई कहानियां थीं। और हर कहानी जिंदगी के कड़वे सच को बयां करती थी।

पुरवा को खामोश देख अमन बोला,

"क्या सोचने लगीं पुरवा जी..! आप परेशान मत होइए। सबको जिंदगी में वो नही मिलता जिसे वो चाहे। किसी किसी को उसका कार्यक्षेत्र आराम से भी मिल जाता है। पर बिरले ही ऐसे खुश नसीब होते हैं। आप भले ही आगे अपनी पढ़ाई जारी नही रख पाईं। पर ज्ञान तो मिल ही रहा है। कॉलेज भी तो आदमी ज्ञान प्राप्त करने ही जाता है। और वो उद्येश्य तो पूरा हो ही रहा है।"

"अब मुझे ही देख लीजिए। मैं गरीबों की सेवा करना चाहता हूं। कई गरीब बिना इलाज के दवा के अभाव में दम तोड देते हैं। मैं डॉक्टर बन कर उनका इलाज कराना चाहता हूं। पर अम्मी अब्बू को खासा एतराज है मेरे इस राह पर चलने पर। वो चाहते हैं कि मैं भी चमन भाई जान की तरह घर का कारोबार संभालूं। उसे बुलंदियों पर ले जाऊं दोनो भाई मिल कर। पर… पर.. मैं ऐसा नहीं करता। उनकी ख्वाहिश पूरी करने के लिए अपने सपने कुर्बान ना ही कर सकता। मैं तो डॉक्टर ही बनूंगा। अब चाहे वो मेरे फैसले से सहमत हो या असहमत हों।

मुझे मेरे मकसद को पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता।"

पुरवा ने मुस्कुरा कर अमन की ओर देखा। उसे अमन का इतना बिंदास बोलना बहुत अच्छा लगा। वो अपने भविष्य को खुद गढ़ने की हिम्मत रखता है। जो करना चाहता है उसे वो हर हाल में करेगा, चाहे उसके अम्मी अब्बू कुछ भी कहें। आज के समय में कितनो में होती है इतनी हिम्मत कि अपने दिल की आवाज सुन सके और पूरा कर सके।

कितनी नेक सोच है अमन की। जहा हर और गरीबों को सताया जा रहा है, उनका शोषण हो रहा है। हर कोई सिर्फ और सिर्फ अपने स्वार्थ के बारे में सोच रहा है। वही ये उन्हीं गरीबों की सेवा के लिए डॉक्टर बनना चाह रहा है।