कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 30 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 30

भाग 30

मेहमानों के जाने के तुरंत बाद पुरवा खाने बैठ गई और जल्दी-जल्दी दो बाटियां चोखे के साथ हलक के नीचे उतारा। वो इतना ज्यादा थक गई थी कि अब उसके अंदर और कुछ करने ही ताकत बिलकुल भी नहीं बची थी। फिर उसे होश कहां.! जिस थाली में खाया था उस थाली में हाथ धो कर थाली- वाली को वहीं छोड़ कर खटिया पर लेट गई। फिर दूसरे ही पल गहरी नींद में सो गई।

पर उर्मिला तो ऐसे ही सब कुछ खुला नही छोड़ सकती थी। कोई और दिन होता तो पुरवा की इस हरकत पर खीझती चिल्लाती। उर्मिला को थाली में हाथ धोना बिलकुल भी पसंद नही था, कहते है लक्ष्मी उस घर में कभी नही आती जिस घर में खाने के बाद थाली में हाथ धोया जाता हो। इस कारण से घर में कोई भी थाली में हाथ नही धोता था। पर आज … नही क्योंकि आज उसने सुबह से बहुत काम किया था। इस लिए उसकी ये गलती उर्मिला ने माफ़ कर दी। उसने सब कुछ समेट कर साफ किया और अपने बिस्तर पर आ कर लेट गई।

बगल की खटिया पर अशोक लेटा हुआ था। चादर ताने हाथ से आखों को ढके हुए।

वो बोली,

"क्यों मालिक ..! सो गए क्या..?"

अशोकआंख बंद किए सोने की कोशिश कर रहा था। वो बोला,

"ना…! अभी जाग रहा हूं।"

अशोक भारी आवाज में बोले।

"क्या सोचा….? चलोगे उन लोगों के साथ..!"

उर्मिला ने पूछा।

"अब जोर तो वो लोग बहुत दे रहे हैं। फिर मेरा भी मन है बाबा के दर्शन पूजन करने का। पर आने जाने में खर्चा भी तो बहुत पड़ेगा। पुरवा का ब्याह भी करना है। जो कुछ है उसके लिए बचा कर रक्खा है। सब खर्च हो जायेगा।"

फिर हाथ का टेक लगा कर उर्मिला की ओर चेहरा कर लिया और उससे पूछा,

"तुम क्या कहती हो..? क्या करें चलें या नही..?"

उर्मिला बोली,

"अभी जब सलमा आपा के साथ बाहर गई थी तब इसी सिलसिले में बात हुई। वो बहुत जोर दे रही थीं। साथ ही पुरवा को भी ले चलने को बोल रही थीं। जब मैने कोई जवाब नही दिया तो मेरी चुप्पी देख उन्होंने खुद से ही अंदाजा लगा लिया कि मैं पैसों की तंगी की वजह से जाने से झिझक रही हूं। वो बोली, क्या इतनी गई गुजरी हैं कि वो मुझसे राह खर्च ले कर साथ ले जाएगी…? भगवान के दर्शन करवाना बड़े सबाब का काम है और इसे वो खुद अपनी इच्छा से करना चाहती हैं। इस नेक काम के लिए हमसे पैसा लेना उनके लिए हराम होगा। अब आप ही बोलो क्या कहूंगी उनसे..?"

अशोक सोचते हुए बोले,

"समस्या खास कर पैसे ही की थी। अब जब वो लोग खुद से आगे बढ़ कर बिना हमारे कुछ कहे ले जाने को तैयार है तब फिर हमको भी इसे भोले नाथ की मरजी मान कर स्वीकार कर लेना चाहिए। उनकी मर्जी के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता। फिर हम कौन होते हैं फैसला लेने वाले…? वो भी चाहते हैं कि हम उनके दर्शन करें। वरना.. इतनी दूर कटास राज जी के दर्शन के बारे में हम सोच भी नही सकते थे। कुछ चीजें ईश्वर ही तय करता है, हमारे हाथ में नही होता। अब जब वो हमे बुलाने का सारा प्रबंध कर दे रहा है तो हमें भी उनके दर्शन को चलने से झिझकना नही चाहिए।"

उर्मिला बोली,

"आप सही कह रहे हैं। ठीक है हम उनके साथ चलते है। इसी बहाने पुरवा भी घूम घाम लेगी। वरना अभी तक उसे हम सिवाय उसके ननिहाल के और कहीं भी ले कर नही गए हैं।"

अशोक बोला,

"फिर ठीक है, उनसे बात कर अपनी रजामंदी दे दो तुम। जाने की तारीख पूछ कर चलने की तैयारी कर लो अपने हिसाब से।"

जाने का निर्णय हो जाने से दोनो के मन का उथल-पुथल शांत हो गया। इसके उर्मिला और अशोक दोनो सो गए।

रात भर सपने में उन्हें चकवाल ही दिखता रहा। कभी पहाड़ तो कभी जंगल, कभी नहर तो कभी नदियां यही सब उन्हें रात भर सपने में दिखता रहा। आज सुबह उठ कर घर के काम-काज निपटाने में एक अलग ही उत्साह महसूस हो रहा था उर्मिला को। घर की साफ- सफाई के साथ जानवरों का सानी-पानी भी कर दिया। पर पुरवा अभी तक तान कर सो रही थी। आश्चर्य.. उर्मिला को उसपे गुस्सा भी नही आ रहा था। बल्कि ममता उमड़ रही थी कि बेटी कल सारा दिन थक गई है इस लिए सो रही है। उसकी नींद में कोई खलल ना पड़े इस लिए वो सारे काम बड़े ही इत्मीनान से धीरे- धीरे निपटा रही थी।

उर्मिला ने नहा कर पूजा-पाठ भी कर लिया। चूल्हा जला कर चाय चढ़ाया तब पुरवा को आवाज लगाई,

"पुरवा…..! उठ बिटिया..! चाय बन गई है। जा…. दतुअन कर ले।"

अम्मा के काम करने की हल्की आहट उसे महसूस तो हो रही थी। पर जागने का दिल ही नही कर रहा था। अम्मा की पुकार कान में जाते ही पुरवा झट से उठ बैठी। आंखे खोल कर देखा तो धूप आंगन में उतर आई थी। उसे जागने में देर हो गई थी। मन ही मन डरते हुए उठी और दतुअन ले कर कुएं पर चली गई। जल्दी से दांत साफ कर के एक बाल्टी पानी कुएं से भरा और घर आ गई।

अम्मा चाय गिलासों में छान रही थी और चूल्हे पर दाल चढ़ी हुई थी। पर चेहरे पर नाराजगी के कोई भी भाव पुरवा को नजर नही आया। बल्कि उसके आने की आहट पा कर उर्मिला ने उसकी ओर देखा और प्यार से मुस्कुरा कर बोली,

"जाग गई बिटिया…! ले.. जा अपने बाऊजी को चाय दे आ और तू भी पी ले।"

पुरवा के लिए अप्रत्याशित था अम्मा का व्यवहार। इतनी देर से सो कर उठने के बाद अम्मा उससे प्यार से चाय पीने को बोल उसके लिए नया अनुभव था। लगा था डांट पड़ेगी..! पर आशा के विपरीत अम्मा तो गुस्सा की बजाय मिश्री घुले स्वर में बोल रही थी। पर इस और ज्यादा दिमाग ना खर्च करके उसने बाऊ जी और अपनी दो गिलास की चाय उठाई और बाहर अशोक के पास आ गई। चाय का गिलास पकड़ाते हुए बोली,

"बाऊ जी..! चाय।"

अशोक ने उसके सिर पर हाथ फेरा और गिलास पकड़ लिया। पुरवा ने पास के डिब्बे से एक मुट्ठी लाई निकाली और चाय में डाल कर सुर्र- सुर्र करके पीने लगी। उसके इस बचपने को देख अशोक मुस्कुराने लगा। साथ ही ये सोच कर आंखे भर आई कि अब बस कुछ महीने की ही मेहमान है लाडली बिटिया। कितना बचपना है इसके अंदर..! कैसे ससुराल में सट पाएगी ये लड़की…? पर इतना विश्वास था गुलाब बुआ पर कि वो पुरवा को उंगली पकड़ कर ऊंच नीच, सही- गलत की पहचान करना बिना किसी ताना या बोली बोले सिखा- पढ़ा देंगी। उनके अनुभवी मार्गदर्शन में पुरवा सब कुछ जल्दी सीख लेगी। होशियार तो वो है ही।