कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 3 Neerja Pandey द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 3

भाग 3

अमन और सलमा को साजिद रावल पिंडी रेलवे स्टेशन छोड़ने आए। जिससे उन्हें कोई परेशानी नहीं हो। ट्रेन आने पर उन्हें बिठा कर साजिद ट्रेन खुलने तक रुके रहे। फिर ट्रेन जाने पर वापस घर आ गए। सलमा से कई साल बाद वो अलग हो रहे थे। बहुत ही बुरा महसूस हो रहा था उन्हे भीतर से। जब से सलमा जिंदगी में आई थी , तब से कभी अलग नहीं हुई थी। जब भी वो मायके या रिश्तेदारी में गई साजिद के साथ ही गई थी। साजिद को ऐसा लग रहा था जैसे सलमा अकेली नहीं जा रही उसकी सारी ऊर्जा, सारी हिम्मत, सारा उत्साह लिए जा रही है। अगर छोटा मोटा नुकसान होता बिजनेस को उसके जाने से तो वो कभी सलमा को अमन के साथ नही भेजता। पर घर चलता रुपए से और रुपए आते बिजनेस से। घर की सारी खुशियां भी तो इसी बिजनेस के ही भरोसे थी। बड़ा बेटा चमन अभी इतना होशियार नही था कि अब्बू की गैर मौजूदगी से सब कुछ संभाल लेता। चमन की भी अभी अभी पढ़ाई पूरी हुई थी। वो कोशिश तो पूरी करता था सब कुछ सीखने समझने की। पर तजुर्बा एक दो दिन में या एक दो महीने में तो आ नही जाता। वो तो समय के साथ धीरे धीरे, गलतियां करते, उसे सुधारते, आस पास देख कर, समझ कर ही आता है। साजिद घर आ कर सीधा अपने दुकान की गद्दी पर चला गया। अब जिस काम के लिए रुका है। उसे तो पूरा कर ले।

ट्रेन चलते ही अमन ने साथ के बैग झोले और अटैचिया संभाल कर पहले उन्हें व्यवस्थित किया। खाने पीने के समान का झोला अपने पास नीचे रक्खा। कपड़े और कीमती सामान की अटैची ऊपर कोने में रख दी। सफर लंबा था इसलिए सलमा और अमन सीट पर चादर बिछा कर आराम करने लेट गए। अमन अपने साथ कुछ मशहूर लेखकों के उपन्यास भी ले आया था। उसे खाली वक्त में पढ़ना बहुत पसंद था। किताबो से बेहतर साथ अकेलेपन का कोई नही होता। ये बात वो अपने अब्बू साजिद के मुंह से बचपन से सुनता हुआ आया था और अब्बू की ये सीख कब उसकी आदत में शुमार हो गई ये उसे भी पता नही चला। अमन ने अपनी पसंदीदा किताब निकाली और पढ़ने लगा। सलमा आंखे बंद कर पुराने दिनों को याद करने लगी। कैसे कलमा आपी उसके स्कूल जाते वक्त चोटियां बनाया करती थी। वो सिर हिला देती तो प्यार भरी चपत लगा कर कहती,

’ तू ज्यादा सिर हिला डुला मत… नही तो ऐसी चोटियां बन जाएंगी कि सारे क्लास की लड़कियां तुझ पर हसेंगी। फिर वापस आ कर मुझसे लड़ना मत।’

ये सब सोच सलमा आंखे बंद किए किए ही मुस्कुराने लगी। अमन की निगाह जब अम्मी पर पड़ी तो उन्हें मुस्कुराते देख उसने पूछा,

”क्या … बात है… अम्मी..? बड़ा मुस्कुरा रही हो। इस तरह घर पर तो कभी आपको नही देखा। हां ..! हां..! अब मायके जाने… वहां सभी अपनो से मिलने की खुशी के आगे तो घर वगैरह सब कुछ कम ही है आपके लिए।"

अम्मी सलमा के मजे लेते हुए अमन ने उन्हें छेड़ा।

सलमा समझ गई कि उसे पुरानी यादों में मुस्कुराते हुए अमन ने देख लिया है और अब उन्हे छेड़ रहा है।

वो भी मजे लेते हुए बोलीं,

"तुझे बड़ी तकलीफ हो रही है बेटा…? अब साल के बारहों महीने मैं तुम सब का पूरा ख्याल रखती हूं। अब जरा सा मायके के प्रति फर्ज पूरा कर रही हूं तो देख रही हूं तेरे अब्बा ने तो मुझे बिना किसी जिरह के खुशी खुशी भेज दिया। पर तुझे बड़ी तकलीफ हो रही है।"

अमन हंसते हुए सलमा से लाड जताते हुए बोला,

"अरे…! नही अम्मी..! वो तो मैंने ऐसे ही आपको छेड़ने की गर्ज से कह दिया। वरना मैं तो बहुत खुश हूं आपको खुश देख के। अब आपकी खुशी की खातिर ही तो मैं अपने दोस्तों के साथ घूमने नही जा कर आपको ले कर शमशाद भाई के घर जा रहा हूं।"

अमन भले ही ऊंचे कद का जवान हो गया हो। पर व्यवहार में बच्चा ही था। खास कर अपनी अम्मी से। इतना कह कर अमन अपनी सीट से उठा और अम्मी सलमा के सीने पर अपना सर रख कर प्यार जताते हुए बोला,

"मेरी प्यारी अम्मी…! आप हमेशा ही ऐसे खुश रहा करिए।"

सलमा ने भी उसके सर को प्यार से सहलाया।

ट्रेन छोटे बड़े स्टेशन पर रुकती हुई पंजाब के चड़ीगढ़ पहुंच गई। यहां से उन्हें गोरखपुर के लिए लिए ट्रेन मिलनी थी।

गोरखपुर वाली ट्रेन में सवार हो वो पीछे छोड़ उत्तर प्रदेश की सीमा में प्रवेश कर गई। फिर उत्तर प्रदेश की सीमा को पीछे छोड़ बिहार की सीमा में आ गए। मार्च का खुशगवार मौसम था। गेंहू की फसल खेतों में लहलहा रही थी। कहीं कही गेहूं की बालियां पक कर सुनहरी आभा से चमक रही थीं तो कही कहीं हरी मखमली आवरण में लिपटी अपने यौवन पर इतराती हुई झूम रही थी। साथ ही अपने पकने का इंतजार कर रही थी। आम के पेड़ों पर बौर लगे हुए थे। जो पेड़ की शान को और भी बड़ा कर चार चांद लगा रहे थे।

चकवाल भी खूबसूरत था। पर यहां से बिल्कुल अलग। चकवाल में कहीं बहुत हरिवाली थी तो कहीं भूमि बिलकुल बंजर थी। पर यहां तो अलग ही मिजाज का सब कुछ दिख रहा था। देवरिया स्टेशन बीतते ही सलमा ने फैला हुआ समान समेटना शुरू कर दिया। खाई हुई प्लेट अमन को दे कर धुलवाई और वापस झोले में रख दिया। जो खाने का सामान खत्म हो गया था। उसके लपेटे कागजों को फेक कर सब कुछ व्यवस्थित कर लिया। चादर तह कर के झोले में रख लिया। अमन ने भी अपनी उपन्यास को संभाल कर रख लिया। आखिर वहां पर इससे ही तो मन बहलाना था।

ट्रेन सलमा के उम्मीद के मुताबिक नही चली। आगे क्रॉसिंग थी इसलिए ट्रेन रोक दिया गया। बड़ी देर बाद दूसरी ट्रेन गुजरी तब जाकर इनकी ट्रेन चली। और सलमा का इंतजार खत्म हुआ। सिवान स्टेशन पर ट्रेन खड़ी हो गई। पहले तो सलमा ने सामान उतारने में अमन की मदद की। अमन नीचे खड़ा हो सामान पकड़ता गया सलमा ऊपर से थमाती गई। इसे निपटा कर सलमा सुकून से खड़ी हुई। अब ट्रेन चले जाने का डर खत्म हो गया था। पहले जी भर के उस सिवान लिखे तख्ती को निहारा। कितना प्यारा सुकून देने वाला होता है। पीहर और उससे जुड़ी हुई हर चीज। उसे देखने को आंखे तरस गई। ऐसा गृहस्ती बच्चों में गुम हुई कि अपना मायका ही बिसरा दिया..! उसे ताज्जुब हो रहा था। अब लंबे अरसे बाद ही सही पर काम से कम अब तो अपना गांव, अपना शहर देख पा रही है। शायद शमशाद ने निकाह में आने के लिए इतना इसरास नही किया होता तो नही ही आ पाती।

क्या सलमा को रास्ता याद था इस्माइल पुर का…? वो क्या बिना भूले शमशाद के घर तक पहुंच गई..? जानने के लिए पढ़े अगला भाग।