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कहानियों का रचना संसार - 5 - माता सीता के बिना


माता सीता के बिना


(ऐतिहासिक फिक्शन: भगवान राम ,भगवान विष्णु के अवतार होने के साथ-साथ भारत के प्रेरक इतिहास पुरुष भी हैं।यह कथा भारतीय इतिहास के भगवान राम व माता सीता के रामायण काल की है।)

माता सीता अभी कुछ घंटों पहले ही धरती में समाई हैं।लव और कुश की रुलाई नहीं रुक रही है।महल में अपने निज कक्ष में आकर भी भगवान राम बार-बार लव-कुश को गले लगाते हैं।ढाढ़स बंधाते हैं लेकिन वे दोनों बार-बार ‘मां को वापस लाओ’ ‘मां तुम कहां चली गई’ ‘पिताश्री, हमें हमारे गुरु वाल्मीकि के आश्रम में छोड़ दो’ इस तरह की रट लगाए हुए हैं। हृदय में भारी विषाद के साथ भाव विह्वल राम ने अपने दोनों पुत्रों से कहा- "बच्चों,सीते तो मुझे छोड़कर हमेशा के लिए चली गईं। अब क्या तुम दोनों भी मुझे अकेला छोड़ दोगे?"

सुबकते हुए दोनों भाइयों ने कहा- "नहीं पिताश्री! हम भी मां को खोने के बाद अब आपकी स्नेह-छाया से और अधिक दिनों तक वंचित नहीं होना चाहते हैं।"

माता सीता ने धरती में समाने के पूर्व लव व कुश से कहा था-“पुत्रों,अपने पिता के पास जाओ।अब वे ही तुम्हारे माता और पिता दोनों हैं ।उनमें ही अब तुम मेरी भी छवि देखना।“

धरती माता के साथ सीताजी के भूमि में प्रस्थान के दृश्य ने लव और कुश दोनों को स्तब्ध कर दिया है। यह उनके कोमल मनों पर एक बहुत बड़ा आघात है और वे इससे उबर नहीं पा रहे हैं। पहले जब उन्हें हल्की सी भी चोट लगती थी तो उनकी भावनाओं पर मरहम लगाने के लिए स्वयं माता सीता या ऋषि वाल्मीकि उपस्थित रहते थे लेकिन अभी दोनों ही बहुत दूर हैं। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि जब पिता का साथ मिला तो मां का साथ हमेशा हमेशा के लिए छूट गया और माँ गईं भी किस तरह?...........

………… दुखी होकर ……..हताश होकर…………... वे दोनों बालक इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे कि निष्कलंक और पवित्र होने के बाद भी उन्हें इतनी बड़ी परीक्षा क्यों देनी पड़ी कि उन्होंने अपने जीवन तक को दांव पर लगा दिया और यहां तक कि शपथ वाले क्षण में अपने दोनों पुत्रों लव और कुश के संभाव्य विछोह के लिए भी उन्होंने अपने मन को इतना कड़ा क्यों कर लिया ?

रात्रि में दोनों बालक राजमहल में अपने पिता के शयन कक्ष में उनके साथ पलंग पर सोए हुए थे ।रात भर वे सुबकते रहे ।राम ने भी दोनों बालकों से कुछ नहीं कहा।वे जानते थे कि सीता के धरती में समाने को लेकर इन दोनों के अंतर्मन में मेरे प्रति एक दोषी व्यक्ति की ही भावना है।

न राम की आंखों में नींद थी न लव-कुश की।लव-कुश सोच रहे थे कि अपने दोनों पुत्रों के साथ महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में निर्वासित जीवन जी रहीं माँ के लिए क्या पूर्व की परीक्षाएं और कष्ट कम थे,जो एक बार फिर से उन्हें अयोध्या में स्वीकार्यता के लिए अपनी पवित्रता की शपथ देने के लिए कहा गया। श्री राम का समूचा जीवन जनोन्मुखी रहा है। उनका एक मन यह कह रहा था कि लोक अपवाद का निवारण और जनमत के एक छोटे से शेष रह गए धड़े की भावना का भी सम्मान करने के हमारे राजा के फैसले ने संभवतः एक पति और हमारे पिता के रूप में उनके जीवन का सबसे त्रासदीपूर्ण निर्णय उनसे करवा दिया।

राम के मन में भी सारी रात चिंतन,मंथन चलता रहा। वास्तव में सीता माता से शपथ के लिए कहा जाना केवल उनके लिए क्या, बल्कि इस प्रकार की परिस्थिति में किसी भी स्त्री के आत्मसम्मान पर सबसे बड़ा आघात है। प्रारंभ में माता सीता ने अपने पति राम की इच्छा मानकर यह शपथ लेना भी स्वीकार कर लिया था, और ऋषि वाल्मीकि ने भरी सभा में अपनी धर्म पुत्री सीता की पवित्रता की उद्घोषणा भी कर दी थी।तो भी प्रभु राम ने व्यक्तिगत रूप से स्वयं संतुष्ट होने की बात मानते हुए भी सर्वजन स्वीकार्यता के लिए माता सीता द्वारा शपथ की अनिवार्यता पर बल दिया। राजधर्म, एक पति की इच्छा व उनके दृढ़ विश्वास पर भी भारी पड़ गया,यह सोचकर राम की आंखों में भी आंसू आ गए। राम जानते थे कि उनकी सीता संभवतः मेरी इच्छा जानकर, अपनी इच्छा के विरुद्ध शपथ के लिए भी तैयार हो जातीं लेकिन स्वयं मेरे कहे इस वाक्य ने कि शपथ लेने पर ही उनका दोबारा प्रेम सीता में स्थापित हो पाएगा,सीता को संभवतः बुरी तरह तोड़ कर रख दिया होगा। लव और कुश ने रामायण के अपने सुमधुर गायन से सीताजी के निर्वासन के संबंध में अयोध्या की आम जनता के एक बड़े वर्ग को पश्चाताप और आत्मग्लानि से भर दिया था, लेकिन तब भी कुछ ऐसे तत्व शेष रह गए थे, जो अभी भी सीता जी को निर्दोष नहीं मानते थे।

राम को सीता के चरित्र की उदात्तता इस बात में भी दिखी थी कि धरती में समाने के पूर्व उन्होंने स्वयं से(सीता से)क्षमा मांग रहे ऐसे निंदक लोगों से भी लव और कुश की तरह पुत्रवत व्यवहार करने के लिए राम से निवेदन किया। भगवान राम, माता सीता के धरती में समाने के कारणों के संबंध में अपने मन में कई तरह के तर्क वितर्क करते हुए यह भी सोचने लगे कि बहुत संभव होता कि सीता अगर शपथ लेते वक्त धरती माता की गोद में जाने का आह्वान नहीं करतीं और केवल पवित्रता की घोषणा करके अयोध्या के राजमहल में लौट आतीं तो भी ऐसे निंदक लोग भविष्य में किसी न किसी अवसर पर उन्हें पुनःनिशाना बनाते और उनकी आत्मा बार-बार छलनी हुआ करती, इसलिए अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए उन्होंने ऐसी संभावना को ही जड़ से समाप्त कर देना चाहा हो। यह भी हो सकता है कि ऐसा करके उन्होंने भविष्य में किसी भी स्त्री के साथ इस तरह की होने वाली किसी भी परीक्षा या शपथ की संभावना को हमेशा के लिए खत्म कर देना चाहा हो।

रात भर भगवान राम के मन में अनेक तरह के विचार आ-जा रहे थे। राम के मन में यह विचार भी आए कि सीता ने शपथ की अवधारणा को ही सिरे से अस्वीकार क्यों नहीं कर दिया कि ऐसी अग्नि परीक्षाएं और शपथ उनके हिस्से क्यों ? आखिर मुझे भी तो इस बात का अनुमान नहीं था कि सीता एक झटके में यह निर्णय ले लेंगी और मैं उन्हें रोक नहीं पाऊंगा तथा मेरी प्राणप्रिया से मेरा हमेशा के लिए इस तरह वियोग हो जाएगा। पिता और दोनों पुत्रों के मन में कई तरह की कल्पनाओं और तर्कों वितर्कों के बीच ही रात बीती। सुबह लव और कुश की नींद देर से खुली।उन्होंने शयन कक्ष में बगल में अपने पिता के स्थान पर दृष्टि डाली।भगवान राम वहाँ पर नहीं थे। लव और कुश दोनों उन्हें ढूंढते हुए बाह्य कक्ष तक गए।वहां अश्वमेध यज्ञ में प्रयुक्त माता सीता की स्वर्ण मूर्ति रखी हुई थी और राम उनके सम्मुख खड़े होकर मुस्कुरा कर कुछ बातें कर रहे थे। लव कुश के आने की आहट हुई और मुस्कुराते हुए भगवान राम ने दोनों पुत्रों से कहा- लव-कुश देखो।तुम्हारी माता यहां हैं।सीता सृष्टि के कण-कण में हैं। मेरे हृदय में हैं।तुम दोनों के हृदय में हैं और वे इस मूर्ति में भी प्रतिष्ठित हैं। मां की मूर्ति के सामने अपने पिता राम से लिपट कर लव-कुश ने अपने मन में पहली बार थोड़ी सांत्वना का अनुभव किया। भगवान राम व लव-कुश तीनों सीता जी की मूर्ति की ओर बढ़े।


( यह उत्तर रामायण की प्रेरणा से लिखी गई मेरी मौलिक काल्पनिक कथा है।यह मेरे आराध्य भगवान राम और भगवती माँ सीता के श्री चरणों में श्रद्धापूर्वक समर्पित है।)

योगेन्द्र (कॉपीराइट रचना)


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