वो तो नही Gopal Chowdhary द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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वो तो नही

वो तो नहीं
गोपाल चौधरी

 

Disclaimers

इस उपन्यास के सभी पात्र, स्थान और घटनाएँ काल्पनिक हैं। इसका वर्तमान या अतीत के किसी व्यक्ति, स्थान और घटना से कोई लेना देना नहीं है। किसी भी तरह की साम्यता और प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष संदर्भ या आलोचना के लिए लेखक और प्रकाशक ज़िम्मेवार नहीं है।

 

4 About the Author
लेखक, गोपाल चौधरी एक आकादमिक शोधकर्ता है। अब तक अंग्रेजी मे तीन पुस्तके—पॉलिटिकल औडिटिंग: ए मनीफेस्टो फॉर रेस्कुइंग डेमोक्र्रेसी, द ग्रेटेस्ट फ़ार्स ऑफ हिसटरि और द crisis ऑफ वर्ल्ड एंड कृष्ण मोनिज़्म-- प्रकाशित कर चुके हैं। हिन्दी मे यह आपका पहला उपन्यास है।आपने प्रजातन्त्र को मजबूत करने के लिए राजनैतिक अभिलेखन(पॉलिटिकल औडिटिंग) का एक प्रारूप (मोडेल) भी विकसित किया है।
Contents and Chpaters
भाग-१
प्राक्कथन 1
समय २
कारत 7
समय-युग संवाद १४
कोपाल १९
क्रांति-प्रतिक्रांति ४७
बांसुरी-वादक ५७
राजनीति की राजनीति ६३
विवशता जीवन तो नहीं ६८
सपना और नाटक ८४

भाग-२
कायमा ८९
सत्ता ९६
ट्रायम्फ का आई-नोट १००
खंड-3
कर्म १०२
तुली राम १०५
अकर्म १०८
वनवास ११२
युग-त्रासदी ११४
मोह १२२
जिंदगी तो नहीं १२८
जीवन-मृत्यु १३४
नया ठिकाना १३८

भाग-४
विकर्म १४८
कर्म फल १७१

 


Back Blurb
क्या हमारा सारा जीवन ही इस वो तो नहीं की संभावना से प्रेरित हुआ नहीं लगता! मन की अनिश्चित, असंगत, अकसर टेड़ी, उलझन मे डालने वाली चालो और उड़ानों पर भटकती होती है जिंदगी। ‘है या नहीं ‘के दो पाटो के बीच पीसते रहने को विवश। अक्सर वो तो नहीं की छांव मे थोड़ा शुकुन पाती हुई! पर अगर मगर के चक्कर सब कुछ गडमड सा लगता हुआ। कही वो तो नहीं, कहीं ये तो नहीं! इन दो धुरियों मे घुमता ही रहता है। जीवन चक्र!


कैसा संयोग! कैसे रंग है जीवन के! जब जीना चाहा, जब प्यार चाहा, मिला नहीं। जिसके लिए सब कुछ छोड़ कर उसका होना चाहा, वो भी नहीं हो पाया। । जिसे भी चाहा मिला नहीं। और जब प्यार और खुशियाँ मिली भी तो अब! जब जीवन ही ही दांव पर लगा है। ऐसा लगता हुआ कि सब कुछ खत्म होने वाला है।

आज एकाएक उसी जीवन से मोह सा हो गया! जब मृत्यु पास आती दिखी: अभी तो जिंदगी जी ही नहीं है! बहुत कुछ करना, देखना है और जीते जाना है....जब सब ओर मौत और विनाश का तांडव हो रहा होता। जब ऐसे बुरे फंसे हैं, चरो तरफ पानी --- बाढ़ का पानी... बादल फटने की जल राशि मे जीवन अंत होना करीब तय सा लगता हुआ...तब जीने की इच्छा बढ़ती जाती ...जैसे जीने की बढ़ती इच्छा और आसन्न मृत्यु के बीच कोई गहरा संबंध हो.... ।

प्राक्कथन
वो तो नहीं, एक उटोपिया तरह का उपन्यास है। कुछ लोग इसे सररीयल (surreal) या व्यवस्था विरोधी या अनारकिक समझ सकते है! ये उनका प्राधिकार है। पर इस रचना मे जीवन, सामाज और देश और दुनिया की स्थिति और विकल्प की तलाश मे निकले पात्र, स्थान और और घटनाएँ अपने ही कार्य कारण से हैं। जीवन और उसकी व्यवस्था के विरोध मे नहीं है! वे जीवन को उसकी पूर्णता मे जीने की कोशिश मात्र करते होते है!
इसी जीवन व देश, समय और काल के काल्पनिक से लगते चरित्रों, घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों, स्थानों और प्रतीकों! और उनके विरोधाभासों व विद्रूपताओं को उजागर कर एक नए विकल्प की ओर इशारा करते हुए। जीवन की वास्तविकता से गुजरते हुए: ये काल्पनिक चरित्र अपने देश और काल की सीमा से परे चले जाते हैं! जीवन और उसके विभिन्न पहलुओं—प्रेम, दोस्ती, शादी, शिक्षा, इतिहास और संस्कृति, देश और काल के अस्तित्वपरक झलकों का एहसास कराते हुए!
ये जो जीवन है! जैसा भी है! जिस तरह से भी और जिस रूप मे भी उतरता होता है! जो भी मिलता होता है या नहीं मिलता! जो होता रहता है या नहीं होता! क्या यही जीवन तो नहीं! वो तो नहीं! सच तो नहीं! सच अनेक: सबका अपना अपना सच! पर सब खोजते से लगते होते उसे जो मिला हुआ है! फिर उसे कैसे पा सकते हैं जो मिला हुआ है!
इस उपन्यास की शुरुआत एक कविता से होती है। और फिर मुख्य पात्र की डायरी से विकसित होते हुए एक विशाल फ़लक की ओर अग्रसर होता है। उसकी ओर जिसे जीवन क़हते हैं। पर पहले ही कविता? आप पूछ सकते हैं! क्योंकि आप को बोर नहीं होने का हक़ है। और लेखक का फर्ज़—फर्ज ही नहीं अस्तित्व का भी प्रश्न—बनता है कि पाठकों को बोर नहीं होने दे।
पर कविता ही क्यों? पर क्या हम सब अस्तित्व की कविता मात्र नहीं हैं? वो कवि और हम कविता!
परतंत्रता की स्वतन्त्रता!
जब हम अस्तित्व की ही कल्पना हैं/ फिर क्यों न उसे ही सपने/ गुनने, बुनने, देखने/ और जीन दे? मिल कर भी न मिलने वाली/ अपनी स्वतंत्रता/ और स्वतंरता की परतंत्रता/ से होती अनवरत खींचा तानी! इस उधेड़ बुन मे पल पल/खोती जिंदग/ कुर्बान होती उस पल पर/ जो अभी नहीं हैं/ क्योंकि वह कही नहीं है।/क्यों न बांसुरी ही बन जाएँ! बजाने वाला बन कर देख लिया/ बिना पतवार की नाव भी बना/ लहरे देखी और तरंगो मे/ उतराया और डूबा भी! क्यों न बांसुरी ही बन जाएँ/ सागर ही हो जाएँ/ छोड़ दें अपने आप को!
उस अस्तित्व के हवाले।
1
समय

समय भी डायरी लिखता है! पढ़ी है कभी! जिसने पढ़ी वह भी समय की तरह शाश्वत हो जाता है! वह समय ही हो जाता है: एक अर्थ मे। ये समय और स्थान स्व का, हमारे वास्तविक स्वरूप का प्रतिक्षेपन है। ये हमसे हैं, हम उनसे नहीं जैसी कि सामान्य मान्यता है। नहीं तो उसे हमारे बाद और पहले भी होने चाहिय होता! पर कहाँ होता समय! हमारे होने के पहले और हो चुकाने के बाद!

हमारे साथ शुरू और हमसे ही खत्म होनेवाले समय व स्थान! हमसे कैसे अलग हो सकते हैं! अगर ऐसा नहीं होता तो समय और स्थान, देश और काल कहाँ होता जब हम नहीं होते! हमारे साथ ही शुरु और हमारे साथ ही खत्म। कम से कम व्यक्ति और व्यष्टि विशेष के स्तर पर ऐसा होता लगता है !

समय भी पूर्ण और समग्र होता है। उसमे इतिहास और संस्कृति की तरह एकांगता नहीं होती है। ना ही व्यक्तिगत और अन्य स्वार्थपूरक वृतिओ का समावेश होता है। कहीं कुछ दबा हुआ या छिपा हुआ नहीं। बिल्कुल दर्पण की तरह साफ़! समय का कोई विकल्प नहीं होता जैसे ब्रह्म का नहीं होता। आखिर इसी ब्रह्म मे सब हैं।

हम सब: हमारी सभ्यता और संस्कृति, समाज, देश दुनिया-- सभी इस समय का प्रतिफलन है! और देश, काल, स्थान-- सभी इस स्व, हरेक व्यक्ति और समष्टि के निज स्वरूप यानि आत्मा या चेतनता से शुरू होता है। और फिर इसी के साथ समाप्त भी हो जाता है। जैसे दुनिया और इसके दृश्य क्षण प्रति क्षण बदलते होते हैं। पर इन सबों का दर्शक और साक्षी आत्मा और हमारी चेतनता अपरिवर्तित और असंग रहती, वैसे ये समय है। ये सतत क्रियशसील रहता। इसका प्रतिफलन ही हैं ये देश दुनिया, संस्कृति और सभ्यता।

समय एक है। पर उसकी चलायमन गति और दिशा से लोगों को भ्रम हो जाता है। और लोग इसे अपने अपने रंग मे रंगने लगते है। उसकी कहानी, उसकी इबारत को लोग अपने अपने हिसाब से देखते है। उसकी व्यख्या, उसके गुण दोष का निरूपण कर उस पर अपना रंग चढ़ा देते है!

उसी समय की बात है: कलेंडरों पर लटका, घड़ी की सुइयों मे अटका। कोल्हू के बैल की तरह रात और दिन, दिन और हफ्ते, महीने, साल, शताब्दी और युग: चलता ही रहता है। कहने को तो प्रगति और विकास का डंका पीटा जाता! हरेक पीढ़ी पिछली से अच्छा मानती हुई: हरेक युग पिछले को छिछला बताते हुए अपने को शिखरतम मानता हुआ!

फिर भी इसी भूल भुलैया मे भटकता: दुख और सुख के बीच डोलता, हर्ष और विषाद के बीच झूलता! जीवन के प्रतिक्षण बदलते दृश्यों और परिदृश्यों मे अटका! घड़ी की सुइयों के बीच फंसा और बदलते कलेंडर की परवशता से आक्रांत! वही अपनों और परायों की कबीलाई मानसिकता! वही सब कुछ। पल पल डरता हुआ आगत से, विगत से आक्रांत वो वर्तमान को भी गवां बैठता। यानि जीवन को प्रतिफल खोता हुआ।

शाशवत समय की बात हो रही है। वो समय जिसे सांख्य मे सर्व-व्यापक, साक्षी और चैतन्य का विस्तार माना गया है। कई प्रसिद्ध तत्व-विचरकों ने इसकी पुष्टि भी की है। समय का विस्तार जीवात्मा और जीवात्मा का ही विस्तार समय भी है। एक व्यक्ति का समय होता है, उसके साथ शुरू होता है और उसी के साथ खत्म। व्यष्टि के समय भी उसके साथ शुरू और उसके विनाश तक जारी रहता है।

खैर छोड़िए इन गूढ़ और तत्व की बातों को! इसके बावजूद की वे हमे छोड़ते नहीं हैं! पर अभी जो ये भूमिका तैयार की गई है, वो एक देश की कहानी बताने के लिए! ऐसा देश जो हो कर नहीं हुआ सा लगता। वैसे तो सभी होने मे लगे है, जो है उसे विस्मृत करते हुए या ताक पर रखते हुए। पर जो हो कर भी न हुआ सा लगे, वो तो न होने से भी अधिक खराब स्थित मे है! न होने मे तो होने की संभावना बनी रहती है। पर हो कर भी न हुए के बारे मे की क्या कहा या किया ही जा सकता है!

जो है उसे नकारते हुए होने मे रत हैं: लोग और देश-काल। अस्तित्व की ऐसे ही भूल भुलैया मे फंसे हैं शायद! होने की चक्कर मे न केवल है को गंवा बैठते हैं, बल्कि उस होने से, जो हुआ नहीं है, उससे बंध जाते हैं। स्व गौण हो जाता है, मूर्त या सुशप्त हो जाता है। एक तरह से पल पल स्व की मृत्यु ही है! पर यहाँ इसे ही जीवन क़हते हैं शायद!

 

2
कारत

एक देश की कहानी! नाम: कारत। यहाँ सभ्यता और संस्कृति क्योंकि सबसे पहले फली-फूली! इसलिए सबसे बाद तक रही है! और रहेगी भी! क्योंकि जो सबसे पहले है: जिसकी शुरुआत का पता नहीं, आदि का पता नहीं। उसके अंत का कैसे पता होगा!

कितनी सभ्यता आई गई। कितनी संस्कृतियाँ पानी के बुलबुले की तरह! इस दुनिया की असीम पटल पर आती गईं। और कालांतर मे विलुप्त भी होती गई। कितनों को नई सभ्यताओं, उदित संस्कृतियो ने निगल लिया।

पर कारत बना रहा! शाश्वत और सनातन सा!

इतिहास के दंश को सहता हुआ! संस्कृतियो के अतिक्रमण और आत्मसात करने की चुनौती को झेलता हुआ। डटा ही रहा कारत उत्तंग हिमाला की तरह! अपनों के भीतरघात और धोखा बर्दाश्त करता हुआ। सबों का सामाना करता रहा। कभी हारता तो कभी जीतता रहा। हारा भी तो अपनों के कारण। पर उसकी हस्ती को मिटा न सका कोई। उसे खत्म कर के आत्मासात करने की तमाम कोशीसों के बावजूद।

कारत: सदियों से होते आए आक्रमण, प्रतिक्रमण, भीतरघात, और आत्मघात के बावजूद बना रहा। कुछ ऐसा है इसमे! कुछ सनातन और शाश्वत सा। हस्ती ही नहीं मिटती इसकी! अनगिनत दुश्मनों के बावजूद। वो भी सदियों से।

उसी कारत मे, प्राचीन काल मे व्यवस्था थी: सारी आबादी के अपने अपने व्यक्तिगत संभावनाओं और गुणो के आधार पर कार्य चुनने की और व्यक्तित्व गुनने की! और इसी आधार पर कार्यों का भी बटवारा भी होता। एक ऐसी वैज्ञानिक व्यवस्था का ऊदभव हुआ, उस सुदूर इतिहास के सुदूर काल मे! इसे कवर्ण व्यवस्था कहा जाता।

पर कब यह कवर्ण व्यवस्था कार्य और व्यक्तित्त्व के आधार को छोड़ कर जन्म आधारित हो गई! पता ही नहीं चला। और सबसे अजीब बात: कैसे और कब यह इस वैज्ञानिक कार्य विभाजन के आधार को छोड़ कर, जन्म और वंश के संकीर्ण और आत्मघाती घेरे मे आ गया-- इस बारे मे कोई एक सर्व सम्मत राय नहीं है। काफी विवाद होता रहा है इस संदर्भ मे।

पर इस बारे मे कोई संदेह नहीं है: यह जन्म आधारित हो गया! और इसे अलग अलग काति का नाम दे दिया गया। धीरे धीरे पूरा कारत समाज चार कातियो मे बंट गया- कामन, कत्रिय, कनिया और कूद्र। पहले जो कार्य-विभाजन का आधार हुआ करता: अब समाज समाज और काति विभाजन और भेदभाव का बन गया। कामन सबसे ऊपर और और कूद्र सबसे नीचे। इतना नीचे! उनके स्पर्श मात्र से कामन और अन्य उच्च कातियों का अस्तित्व अपवित्र हो उठता। कुद्रों को तो जानवर से भी बदतर समझा जाता!

मानव जाति के इतिहास मे ऐसा पहली और आखिरी बार हुआ! एक वैज्ञानिक सामाजिक-राजनैतिक संस्था और मूल्यों का उदय हुआ था। व्यक्ति को अपना पेशा, अपनी अभिरुचि व व्यक्तित्व के प्रकार चुनने की स्वतन्त्रता होती। ऐसा श्रम विभजन जो आज के आधुनिक और उत्तर आधुनिक युग मे भी संभव नहीं हो पाया है! ऐसा श्रम विभाजन जिससे हरेक व्यक्ति सुखी रहता। और समृद्ध भी ।

पर कालांतर मे इसे जन्म आधारित बना दिया गया। जन्म से जुड़ कर यह संकीर्ण और आत्मघाती बन गया। इसे उच और नीच का पैमाना बना दिया गया। ऊपर की दो कातियों ने अपना अपना उच्च स्थान और वर्चस्व बानए रखने के लिए ऐसा किया।

इन दो उच्च कातियों ने पूरे कारत की सभ्यता और उसकी संस्कृति को कुंद कर दिया। अपना अपना वर्चस्व व उच्च स्थान बनाए रखने के लिए। कहाँ तो उम्मीद थी कि यह अदभुत व्यवस्था पूरी दुनिया मे फैले। पर यह जन्म आधारित बन गई। उच नीच के अतिक्रमण से एक सड़ांध व्यवस्था बन कर रह गई। रही सही कसर पूरी कि जब वैवाहिक और अन्य सामाजिक संबंध को काति आधारित कर दिया गया।

कोई भी काति के बाहर नहीं रख सकता वैवाहिक संबंध। अगर कोई कोई ऐसा करने की हिमाकत करता, पहले तो वह कर ही नहीं सकता! अगर किसी तरह कर भी लेता ह, तो कठोर सामाजिक व मांसिक प्रतिबंध, बहिष्कार और कठोर दंड। यहाँ तक कि मृत्यु का भी प्रावधान है अगर इस कवर्ण व्यसथा का उलंघन करता कोई।

और आधुनिक युग! तो असंतोष, हताशा, ऊब और जीवन की अर्थहीनता का पर्याय बन गया सा लगता! अधिकतर अपने कार्य, पेशा और जीवन से खुश नहीं लगते। काम बोझ सा लगने लगता होता। उतना ही काम करते होते जितने से काम चल सके। और जीवन की गाड़ी चलती रहे।

कोई व्यवस्था नहीं विकसित हो पायी है अब तक: व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व प्रकार और अभिरुचि के अनुसार काम मिले। उसे वो होने या बनाने दिया जाय जो उसकी वृति हो, अभिरुचि हो और उसके व्यक्तित्व के अनुरूप हो!

यह सबसे बड़ा असंतोष और दुख का कारण रहता आया है! फिर भी आज तक ऐसी कोई सुनियोजित व्यवस्था नहीं स्थापित हो पायी है: इस असंतोष, दुख और हताशा के निवारण के लिए। इतनी प्रगति और विकास होने पर भी। आधुनिक, उत्तर-आधुनिक और उत्तर-उत्तर आधुनिक युग के सूत्रपात के बावजूद।

कारत मे सबसे पहले सभ्यता पली। यही से मानवता सारी दुनिया मे फैली। ये अलग बात है कि मानवता का उद्गम स्थल अफ्रीका माना जाता है। हालाकि मानवता के उद्गम स्थल होने संबंधी एक पुख्ता प्रमाण 1.5 लाख पुराना अवशेष मिला है। नर्मदा घाटी के बेसिन मे।

काफी पहले मिला वह अवशेष। पर किसी ने कोई कारवाई नहीं की । न तो दुनिया के सामने इसे रखा गया। और न ही कोई वेज्ञानिक पुष्टि की गई। और फिर इस स्थल को जहां ये फोस्सिल मिले थे, उसे भी वहाँ बने डैम की बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया।

कारत का राजनैतिक, सामाजिक नेतृत्व भी कुछ अजीब रहा है! अपने वर्गगत, अपने जातिगत हित व वर्चस्व बनाए रखने के लिए: इतिहास, सभ्यता और संस्कृति को विकृत करते रहे है। नहीं तो यह सभ्यता बहुत विकसित हुआ करती! सभी सभ्यतायों और संस्कृतियो पर इसकी अमिट छाप है।जो आज तक भी जारी है। इस आधुनिक और उत्तर-आधुनिक युग मे भी। वो इसने प्राचीन काल मे ही कर लिया था।

प्राचीन समय से लेकर अब तक! जितनी भी सभ्यताएं विकसित हुई, जितनी संस्कृतियाँ फली-फुली उनमे यह न केवल सबसे पहले है: बल्कि सबसे नायाब, उन्नत और विकसित रहा है।

कारत के व्यापार सबसे हुआ करते। इसकी वस्तुएँ, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान, युद्ध कला-- सबों ने उपभोग किया। पर कोई कोई ही इस बात को स्वीकार करता है। इसके लिए दूसरों को क्यों दोष देना! जब अपने अपने राजनैतिक व सामाजिक नेतृत्व ही निहित स्वार्थ के लिए विदिशियों को बुलाते रहे। अपने ही धरोहरों और लोगों को लुटवाते रहे!

अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए अपने ही लोगों पर शासन और अत्याचार करते रहे। विशेष कर ऊपर की दो कातियाँ! वहशी और कबीलाई देशी-विदेशी हिंसक जातियों को बुला बुला कर! वीरता और झूठी राजसी विरासत का तमगा देते रहे। और अपना उल्लू सीधा करते रहे। उनके साथ मिलकर अपने वर्चस्व और उच्च स्थान बनाए रहे।

और यहाँ के लोग! नागरिक! लूटते ही रहे! विदेशी शासन और गुलामी की पीड़ा और दंश सहते रहे! यहीं की चीजें, नायाब वस्तुएँ, खोज, दर्शन और कला, विज्ञान की उपलब्धियों को लूट कर ले जाते रहे। और उन्हे अपना बनाते रहे। और तो और ये कैसी विडम्बना! कारतवासी को ही पिछड़ा, बिना संस्कृति और इतिहास का मानते रहे हैं! और लोग इसे ही अपना भाग्य मान कर जीते रहे!

एक उन्नत सभ्यता और संस्कृति। ऐसे ऐसे सामाजिक व राजनैतिक कीर्तिमान! उस सुदूर समय मे स्थापित हुए! जो आज तक संभव नहीं हो पाए ! आज आधुनिक और उत्तर आधुनिक युग के तमाम क्रांतिकारी उपलब्धियों के बावजूद! व्यक्तिव व वृति आधारित कार्य विभाजन। और उस पर आधारित सामाजिक व राजनैतिक संरचना। ऐसी नीतिगत और न्याय युक्त युद्ध प्रणाली, ऐसे हथियार जो लक्ष्य को बेध कर वापिस अपने स्रोत मे लौट आते होते! जिसे आज तक भी नहीं बनाया जा सका है। ज्ञान विज्ञान की प्रणाली! दर्शन और कला के प्रतिमान! जो आज भी चलायमान हैं! किसी न किसी रुप मे! किसी न किसी अवस्था मे।

ऐसी उन्नत और विकसित सभ्यता और संस्कृति! फिर विश्व की कबीलाई और वहशी समुदायों का आना! या बुलाया जाना! कैसा लगता होगा उन्हे! आग लगा दें! मेस्तनाबूद कर दे सभ्यता और संस्कृति के ऊंचे ऊंचे मीनारों को! ताकि ये उनके कबीलाई स्तर तक आ सके!

तभी तो कारत के प्राचीन विश्व विद्यालयों को आग लगा दी गई! संस्कृति के प्रतिमानों, चिन्हों और मूल्यों को रौंद डाला गया। फिर उन तथाकथित विकसित कबीलाई जातियों ने कारत के आदर्शों, मूल्यों, वस्तुओं और धरोहरों पर अपनी छाप लगाया। और उसे अपने कह कर अपने को ऊंचे और कारत को नीचा मानने लगे।

और यहाँ के सामाजिक व राजनैतिक प्रबुध वर्ग और नेतृत्व! इसे ही इस देश का भाग्य मानने लगे। और यहाँ के लोगो पर भी थोपने लगे। केवल अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए। और अबाध चल रही लूट मे हिस्सा मिलते रहने के लिए!

ऐसा है कारत! ऐसे हैं इसके लोग! पहले तो ऊपर के दो काति- कामन और कतरीय के बीच वर्चस्व के लिए स्पर्धा हुई। और वह संघर्ष और लड़ाई मे बदल गई। और ये संघर्ष और लड़ाई पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही। पहले तो कामन ने जमीन और जामींदारी के माध्यम से अपनी शक्ति बढ़ाने कि कोशिश की। पर कतरिय ने इंकार कर दिया।

वे कामनों की बात न मानने लगे। उनके धार्मिक प्रभुसत्ता की अवभेलना करने लगे। तब कामनों ने कबीलाई और पिछड़ी देशी जातियों को कतरित्व का तमगा देना शुरू किया। और उन्हे कतरियों के खिलाफ लड़ाना शुरू कर दिया। फिर भी वे काबू न पा सके कतरियों पर।

तब उन्होने कबीलाई और हिंसक विदेशियों की मदद ली। फिर तो यह देश कई सौ सालों तक विदेशियों के कब्जे मे रहा। यह देश, यहाँ के लोग लूटते रहे! और वे मजे मे लूट और अत्याचार का शासन करते रहे! कामन भी अपना वर्चस्व बनाए रहे। सामाजिक और राजनैतिक सत्ताभोग करते रहे।

कामनो की समस्या होती: कतरिए के पास सत्ता और ज्ञान दोनों होते। इनके पास सिवा कर्मकांड और रीति रिवाजो के जंजाल के अलावे कुछ नहीं होता। सबसे पहले तो उन्होने इस ज्ञान की विरासत को करतीयों से छीना! दर्शन, राज शासन, प्रशासन, अध्यात्म, जीवन को जीने और अस्तित्व को समझने संबंधी ज्ञान और विज्ञान!

गूढ़ ज्ञान, दर्शन और विशिष्ट ज्ञान की परंपरा! बहुत पहले से ही कतरियों के पास रही है। यह सदियों से चलती आ रही होती। कामनों ने पहले तो इस ज्ञान भंडार को कतरियों से हड़पा! उनसे छीना। उसे क्षत विक्षत किया। और उसी के आधार पर अपने आप को भगवान से भी कुछ ऊपर स्थापित किया। और राज करने लगे!

कामनों ने कतरियो के युग प्रवर्तक युग पुरुषों को भी नहीं छोड़ा! उन्हे भगवान बना दिया! और दूसरी तरफ उनको मीथ बना दिया गया। उनके आदर्शों, मूल्यों, सत्ता और संस्कृति के प्रतिमानों! राजनीतिक व सामाजिक प्रतिमानों और प्रतीको को! भगवान की लीला बताकर पारलौकिक घोषित कर दिया गया!

कतरियो की दूसरी महत्वपूर्ण व शक्तिशाली शाखा—कादवों का। उनको समाप्त करने के लिए तो कामनों ने एक बहुत बड़ा षड्यंत्र ही रच डाला! एक बहुत बड़ी युगांतकारी चाल चली! अंदर से चुनौती देने के लिए कबीलाई व बर्बर देशी जातियो व जन जातियो को कतरीयत्व का दर्जा देने लगे। और सीधे कादवों के खिलाफ खड़ा करने लगे। और उनसे सीधा भिढ़ा कर उन्हे कमजोर करने की साजिश शुरू हो गई!

इससे भी बात नहीं बनी। फिर बाहर से तुर्को, अरबों, मंगोलों, फारसीयो व अन्य से सहायता ली। और उन्हे बुलाकर कादवों को और पूरे कारत वर्ष मे फैले उनके राज्यों को! एक एक कर निरस्त करने लगे। राणा कांगा द्वारा काबर को बुलाना। कादवो को खत्म करने के लिए। अनगिनत हराकिरी मे से एक है। पर कादव तो खत्म हुए नहीं! कांगा ही काबर के के हाथों मारा गया!

और देश मे गुलामी का बीज बो गया। फिर क्ंग्रेज़ आए। खूब लूटा! और शासन किया। ऐसा शायद ही कभी हुआ हो! अपनी ही लोगों और सेना द्वारा अपने को ही हराकर, क्ंग्रेज़ कारत पर राज करने लग गए।

और तो और! तथाकथित आज़ादी भी मिल गई! फिर भी कारत के देशी शासकों ने आक्रमणकारियों और उपनिवेशी लुटेरों के सारे हथकंडे, क़ानूनों, और लुटेरी व्यवस्था! जारी रही: चलती रही अबाध! सब कुछ वही रहा: उन्ही लुटेरे विदेशी शासको का, जो उन्होने लूटने और शासन करने के लिए बनाया था। बस केवल गोरे साहब की जगह भूरे साहब ने ले ली!

कैसी विडम्बना है! वही राजा-महाराजा और उनके दलाल राजनैतिक व सामाजिक नेता गण! विदेशी लुटेरों और शासको को बुलाते रहे। अपना निहित स्वार्थ साधने के लिए। उन्ही ही को सत्ता सौंप दिया गया! और इसका नाम दिया गया आज़ादी!

और जिन्होने सचमुच आज़ादी की लड़ाई लड़ी! वे आज भी भूरे साहब की गुलामी के खिलाफ लड़ रहे हैं। जिन्होने विदेशी शासक के छक्के छुड़ा दिये! जिनके दहशत से कांग्रेज़ और अन्य लुटेरे डर कर भागने का मन बन लिया! उन्हे आतंकवादी घोषित करवा दिया या उनकी हत्या करवा दी।

और वो गद्दार वर्ग और उसके प्रतिनिधि! आज़ादी के बाद से शासन करते आ रहे हैं। उसी तरह से, उन्ही कानूनों और संस्थाओ से: लोगों और देश को लूटते आ रहे हैं!

आज़ादी के बाद के चंद 70 साल! उन्होने इतना लूटा! जितना एक हजार सालों मे विदेशी लुटेरों और शासको ने भी नहीं लूटा होगा! और लूट के सारे पैसे विदेशी बैंक मे भरते रहे। काले धन के रूप मे।

और उसी पैसे से! उसी काले धन पर! जिसे आज़ाद कारत के गुलाम शासक और उनके पोशक खूनी व्यापारी और उद्योगपतियों ने लूट कर विदेशी बैंक मे डालते रहे हैं! आधा विश्व फल फूल रहा है! और कारत के तीन चौथाई लोग! अभी भी गरीबी और जिल्लत की जिंदगी जी रहे है! वे आधे भूखे पेट को पानी से भर कर! किसी तरह जिंदगी बसर कर रहे है!

वह काति! जिसने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिय सारी व्यवस्था को तहस नहस कर दिया! वह अक्षुण्ण रही! आक्रमण हुए। अनगिनत लड़ाईं लड़ी गई। पर उसका वर्चस्व बना रहा। दुश्मनों, आक्रमणकारियों और विदेशी शासको की कारन्दगी! गुलामी और दलाली कर कर के भी! अपना वर्चस्व बनाए रखी रही !

कारत के लोग लूटते रहे! एक लूट कर जाता! और दूसरे लुटेरो के लिए रास्ते खोल जाता! पर यह काति ऐश करती रही। सत्ता और सुख का उपभोग करती रही।

गुलामी के इतिहास मे ऐसा पहली बार! और आखिरी बार हुआ होगा! जब अपने ही लोगों ने विदेशियो, आक्रमणकारियो और औपनिवेसिक लुटेरी शक्तियों को बुलाया। उन्ही के साथ मिल कर अपने ही लोगों को गुलाम बनाया। लूटा। अत्याचार किया। उन्हे पशु से बदतर स्थिति मे रखते रहे। हजारों साल तक! पर अपनी शाख, वर्चस्व और उच्च स्थान बनाए रखे रहे!

बाद मे विदेशी शासक भागने पर मजबूर हुए। वही वर्ग, जाति नए शासक बन बैठे। सामाजिक नियंत्रण और अबाध अनौपचारिक सत्ता तो पहले से ही हासिल हुई होती। राजनैतिक सत्ता भी हाथ मे आ गई। पहले से ही काफी शक्ति शाली रहते चले आ रहे होते। अपरोक्ष रूप से वही शासन कर रहे होते! कांग्रेजों के जाने के बाद तो सत्ता का हस्तांतत्रण हो गया। गोरे कांग्रेजों से सत्ता काले कांग्रेजों के हाथ मे आ गई। इसे स्वतंत्रता व आज़ादी मान कर ढ़ोल पीटते रहे! लूटते रहे!

सब कुछ वही रहा! लूट और शोषण के सारे कानून! अधिनियम और एक्ट! संस्थान, मूल्य और प्रतिमान! यहाँ तक कि उन विदेशी लुटेरों और शासको के भवन और इमारतो को भी अक्षुण्ण रखा। उन पर रंग रोगन लगा कर चमकाते रहे! और उसी तरह जिस तरह विदेशी लूट कर गए, लूटते रहे। प्रजातंत्र, स्वतंत्रता, अधिकार के नाम पर।

और कारत की तीन चौथाई लोग! अभी भी गरीबी, शोषण और अत्याचार की जिंदगी जी रहे है! वे आधे पेट को पानी से भर कर रात मे सोते है! तब जा कर भूखे पेट को कुछ आराम मिलता होता और नींद आती होती!

 


समय-युग संवाद


अब ये समय-युग संवाद! समय है अदृश्य और युग है उसका दृश्य प्रतिफलन! युग आते हैं। और युग जाते है। इस तरह समय का कारवां! सबके बावजूद बढ़ता जाता है। सभ्यता, संस्कति और दुनिया समाज के रूप मे यह प्रतिफलित होता रहता है।

समय को कैसा लगता होगा! जब वह अपने ही प्रतिफलन के ह्रास और उसके गिरते मूल्यों का अवलोकन करता होगा! विकास और प्रगति की एकांगता और विद्रूपता! देश और दुनिया के हृदय विदारक असंतुलन!

विषमता और विरोधाभास से भरे परिदृश्य! क्या उसे दर्द नहीं होता होगा! जरूर होता होगा। उसका और हमारा-- सबों का दर्द या दवा, खुशी या गम इसी समय पटल पर होता रहता है! जैसे शरीर और संसार आत्मा के पटल पर!

तभी तो समय युग को रह रह कर कटघरे मे खड़ा करता ही रहता है। कोई न कोई युग पुरुष, मसीहा, अवतार को भेजता रहता है। ताकि देश और दुनिया को सनद रहे! वे सब उसी एक के प्रतिफलन हैं, जिससे पूरा जगत व्याप्त है।

उस सदी! समय पूरब की ओर निकला होता! थोड़ा आहत हुआ सा। शोक योग से युग की विवेचना कर रहा होता! इतना दुख, निराशा, हताशा, गरीबी, शोषण, पीड़ा! और पतन की अग्रसर होता युग! तीन चौथाई मानवता गरीबी, भूख, शोषण और हिंसा के दंश सहती हुई। और एक चौथाई इन पर ऐश करता हुआ।

अभी भी वे वही कबीले से लग रहे होते। देश और दुनिया के लोग। कम से अतित्व के धरातल पर।वही अपने और पराये मे फसे लोग! और उसी मे बिलबिलाते उनके जीवन। कहने को तो आधुनिकता का जामा पहन रखा होता। पर थोड़ा खरोंचो अंदर से वही कबीले!

वही कबीलाई मानसिकता मे उलझे पड़े: अपने को आधुनिक और उत्तर आधुनिक साबित करने मे लगे हुए! पर भेद भाव, उंच-नीच, देश, धर्म, जात, नस्ल के कबीलाई बाड़े मे बंधे लोग! सभ्यता और सांकृतिक पराकाष्ठा की तमाम चरम ऊंचाइयों को हासिल कर लेने के बावजूद!

और जब कारत की ओर नज़र गई। समय रुक गया।

युग ने पूछा-तुम रुके से हुए क्यो लग रहे हो?

समय—रुका हुआ नहीं है। समय रुकता नहीं। हाँ, ठहरा हुआ लग सकता है। जैसे कारत के संदर्भ मे है?

युग—कारत? क्या सचमुच ऐसा है?

समय—ये कैसी त्रासदी है! कैसा विचित्र संयोग है! जिस कार्य विभाजन की व्यवस्था व्यक्ति की अभिरुचि और उसकी क्षमता के आधार पर हुआ था, उसे जन्म आधारित बना दिया गया। और यह कार्य विभाजन जाति मे बदल गया। एक खुशबूदार हवा जिसे पूरी दुनिया को सुवासित करना था, वो जाति की संकीर्णता और सड़ांध मे बदल गई। क्या इसका विरोध नहीं हुआ?

युग—हुआ। बहुत हुआ। पर एक जुट और समन्वित ढंग से नहीं। सब अपनी अपनी जाति मे बंटे रहे। सबके व्यक्तिगत और स्वार्थपरक विरोध हुए। दो तीन बार तो ऐसा लगा जैसे इसके दिन लद गए। पर यह कुकुरमुत्ते की तरह बार बार उग आता रहा। और गंदगी करता रहा! और उसी गंदगी पर फलता-फूलता रहा।

समय—लेकिन ये कैसा देश है? कैसे लोग है? अपने ही लोगों को उंच और नीच मे बाँट देना ! और जन्म पर आधारित कर के इसे बंद व्यवस्था बना देना। और उन पर अत्याचार करते रहना। कभी विदेशियों से तो कभी कबीलाई जातियो से मदद लेकर अपने ही लोगों को खत्म करते रहे। बाद मे गुलाम बना लिया। अजीब सा लगता है....

युग—आपको तो सब मालूम है। आप तो दर्पण है……..

थोड़ा रुक कर फिर समय बोलने लगा—आज के मानव यानि मेरा मतलब आधुनिक मानव, उसकी समस्या यही है की जो काम कर रह है वह…. उसकी अभिरुचि, क्षमता और व्यक्तिव्य के अनुसार नहीं। फिर उसे काम बोझ लगता है। और इस बोझ से उसका पूरा जीवन ग्रसित हो जाता है। प्राचीन समय मे कारत मे कार्य विभाजन की यह प्रणाली विकसित हुई थी। उस समय कारत शिखर पर था। पर इसे जन्म आधारित बना दिया गया और जाति का नाम दे दिया गया।


युग—आपने सही फरमाया।

समय—पूरे विश्व की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है। आज उब, घुटन, निराशा, हताशा, सब कुछ रहते हुए भी अकेलापन, आत्महत्या- चाहे व्यक्तिगत हो या समष्टिगत... आधुनिक मानव का नसीब बन गया है। सब कुछ करने और होने की खोखली और बंधनकारी स्वतन्त्रता! एक नारकीय यातना बन गई है!

थोड़ा रुक कर युग की ओर देखते हुए, मानो उसे भी परख रहा हो, समय ने बोलना जारी रखा—आधुनिक मानव खुश नहीं है। सब कुछ होने और मिलने के वावजूद। इसके पीछे मूलभूत कारण है: उसे वो सब करना पड़ता है जो वो करना नहीं चाहता। उसे वो होना पड़ रहा है जो वो होना नहीं चाहता। याद है!कृष्ण का स्वधर्म का सिद्धांत! स्मरण दिलाने की जरूरत नहीं है!

युग—कौन सा.....

समय-- अपने धर्म (जिसका गुण धर्म ओर कर्तव्य उसके व्यक्तित्त्व के अनुरूप है) मे मरना दूसरे धर्म से जीने से बेहतर है। क्योंकि जो दूसरे के निहित कार्य करेगा या अपने गुण धर्म के विपरीत काम करेगा। वो पल पल मर कर जिएगा! कुछ इसी तरह की त्रासदी मे जी रहा है, आज का अधिकांश मानव। .....

युग—वर्ण संकर की बात भी हुई है....

समय—इसी से जुड़ा है... याद ही होगा कि कृष्ण ने कहा था अगर लोग अपने धर्म या अपनी अभिरुचि के कार्य मे नहीं रत होंगे, और दूसरे को अपनाने लगेगे तो वर्ण संकर पैदा होंगे यानि पल पल मर कर जीते लोग क्योंकि अपने धर्म या कर्तव्य मे नहीं होंगे। आज, न केवल कारत बल्कि पूरे विश्व की यही समस्या है। पर....

युग—पर क्या ?

समय—पर देखिये कृष्ण के इस महत्वपूर्ण सूत्र का कैसे दुरुपयोग हुआ... कामनों ने इसका मतलब निकाला वर्ण संकर....

युग-- मतलब...

समय—मतलब .... दूसरी जाति मे शादी करने से वर्ण संकर पैदा होता! इससे कुल का नाश होता है। और इसी विकृत अर्थ के आधार पर जाति व्यवस्था को बंद और सड़ांध व्यस्था बना दिया। अपने ही जाति मे शादी करो... इससे जाति का वर्चस्व और उसकी अस्मिता तो बरकरार रही.... पर इसका परिणाम बहुत ही घातक हुआ....

युग—क्या घातक हुआ? समझा नहीं….

समय—कैसे समझ पाओगे? तुम भी इसी का प्रतिफलन जो हो! खैर अपनी जाति मे शादी करना एक हजार साल पहले के अपनी बहन से ही शादी करना है...

युग—क्या बात करते हैं? यह कैसे संभव है?

समय—अगर एक हजार साल पीछे तक की वंशवली का अवलोकन किया जाये, तो पता चलेगा अपनी जाति मे शादी करना अपने ही बहन या सगे-स्मबंधी से शादी करने के बराबर है। और इसका परिणाम हुआ: अपने ही सगे संबंधी से, चाहे वो एक हजार साल पहले हो या 2 हजार, शादी करते रहने से रुग्ण और बेवकूफ पीढ़ियाँ पैदा होती रही है!

समय ने युग की ओर देखा। ऐसा लागत हुआ युग! जैसे उसे कुछ समझ मे न आ रहा हो!

समय-- ..... अगर इसी तरह यह विकृति जारी रही….. तो एक दिन कारत! विलुप्त हो जाएगा। इतिहास और मानव शास्त्र गवाह है: जिन संस्कृतियो मे अपने ही सगे संबंधी मे शादी होती रही। वे विलुप्त होतीं गई। या दूसरी संस्कृति ने आत्मसात कर लिया।

युग— पर इसका क्या प्रमाण है: अपनी जाति मे ही शादी व सगे संबंधी से शादी करने से रुग्ण और बीमार पीड़ियाँ पैदा होती है?

समय—प्रमाण के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है। ये हमारे देश, दुनिया, समाज मे मे ही...जो लोग या
वर्ग अपने ही रिश्ते मे शादी करते होते वे जातियाँ और प्रजातियाँ विलुप्त होती गईं! क्योंकि अपने ही खून के रिश्ते मे शादी होते रहने से: बेवकूफ, कमजोर और नपुंसक पीढ़ियाँ पैदा होती रही! और एक दिन खत्म हो गईं। मानवीयशास्त्र, और चिकत्सा विज्ञान और जैविक विकास भी इस बात की पुष्टि करते से लगते!!

युग- लेकिन कारत के लोग तो अपने जाति मे करते हैं! वो खून के रिश्ते कैसे हुए?

समय—अपनी जाति मे शादी करना एक हजार साल पहले अपनी बहन से शादी करने के बराबर है। ठीक है अभी तो नहीं है खून का रिश्ता प्रत्यक्ष रूप से। पर परोक्ष रूप से तो है। दूर का तो है! तभी तो शायद यह देश धीरे धीरे ह्रास की ओर जा रहा है!

थोड़ा रुकता सा... ठहरता सा लगता हुआ समय। पर उसका कारवां बढ़ता ही रहा!

समय-- और बाकी इस देश के इतिहास पर गौर किया जाय: यह धीरे धीरे सिमटता, सिकुड़ता जा रहा है। भौगोलिक और क्षेत्रफल के हिसाब से भी! सामाजिक, सांस्कृतिक और मानवीयशस्त्र के क्षेत्र मे भी। और बाकी का अंदजा तुम्हें इसके एक हजार साल की गुलामी... आक्रमण और हार...... से मिल जाएगा...

युग—पर गोत्र भी तो है? अपने गोत्र मे शादी नहीं की जाती... फिर....

समय—हरेक गोत्र किसी न किसी ब्रहमन पर ही होते ....फिर इस दृष्टिकोण से भी तो बात वही हुई अपने ही खून मे ....., फिर क्या फर्क पड़ता है अगर गोत्र अलग हो.... ।

युग को प्रमाण मिल गया। वो समझ गया लगता! क्योंकि वो मौन सम्मति मे चुप लगा गया। युग को अपनी विडम्बना का एहसास हो गया सा लगता। ऐसा युग जिसे आधुनिक, अति आधुनिक, उत्तर आधुनिक और उत्तर-उत्तरआधुनिक भी कहा जाता है!

पर इस युग मे जितने अत्याचार हो रहे हैं, या हो चुके हैं! जितने लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहे है या हो चुके हैं! जितनी हिंसा, संघर्ष, धर्म और संस्कृति युद्ध हो रहे है या हो चुके हैं! जितनी लड़ाईयाँ, विश्व युद्ध हुए है, जितने लोग गरीबी, भूख और शोषण की जिदगी जी रहे है; उतना पहले कभी नहीं हुआ।

फिर भी यह अर्वाचीन युग कहा जाता है! जब कि प्राचीन मे ऐसा नहीं हुआ।

युग थोड़ा भ्रमित सा दीख रहा होता। उसे समझ मे नहीं आ रहा होता: कौन आधुनिक है और प्राचीन! कौन कबीलाई और कौन प्रगतिशील! प्राचीन आधुनिक सा दिखता हुआ और आधुनिक प्राचीन और कबीलाई।

उसने समय की ओर देखा। शायद वही उसके भ्रम का निवारण करे। पर समय बीत चुका होता!

4
कोपाल
मैं हूँ कोपाल। एक अदना सा इन्सान, जो इन्सान होने की कोशिश में लगा है। पर यही तो समस्या है: हम सोचते हैं! हम हो रहे हैं, कर रहें हैं। मैं आप या वो कर रहे कर रहे हैं। लेकिन क्या यही कोशिश हमारे इन्सान होने या बनने मे रुकावट तो नहीं है?
हम जो हैं तो हैं। जिंदगी है तो है! फिर होने में क्यों लगे हैं! जो होना चाहिए वो तो पहले से क्या नहीं हुआ है। जो भी काम या पर्यास करते हैं! उनके संबन्धित कार्य-कारण और उनके गति और प्रकृति तय करेंगे! इसी तरह वे सफलीभूत होंगे! फिर हम कहाँ हैं!
उस दिन एक बुजुर्ग महिला से मिला। कह रहीं होती: जो चाहा मिला नहीं। जो नहीं चाहा वो मिलता रहा और उसे ही अपना नसीब मान कर जीती रही! जो मिला उसे चाह न सकी। जिससे भी मिलता हूँ या मिला हूँ उसका यही रोना है प्रतक्ष्य या अप्रतक्ष्य रूप मे। लगता है हमारे आधुनिक जीवन का यही हश्र है! पर आज का ही क्यों? क्या हरेक युग का यही सार नहीं लगता होता?
कितनी अजीब बात है! हरेक युग, हरेक पीढ़ी अपने आप को आधुनिक समझती रही है। पिछले न जाने कितने सदियो से। और ऐसा हजारो साल से होता आ रहा है। यह क्रम सिलसिलवार ढंग से चलते चला आ रहा है, पता नहीं कब से! शायद जबसे हमारी मानव सभ्यता की शुरुआत हुई है। अभी भी जारी है: अगला पिछले से अपने आप को हमेशा आधुनिक मानता आ रहा है। यह अनंत श्रृंखला सा लगता है। फिर क्या आधुनिकता अपनी मुकाम पर पहुंच पायेगी कभी? फिर तो यह अपूर्ण हुई जो पूर्ण होने में लगी है। पर जो अपूर्ण है वो क्या कभी पूर्ण हो पायेगा?
फिर तो क्या हम सभी आधुनिक नहीं रहे हैं हमेशा से! या हरेक युग या हरेक पीढ़ी अपने आप में आधुनिक नहीं रही है! शायद सापेक्षता की वजह से हमे ऐसा लगता है: अपनी सोच, अपने मापदंड से हरेक पीढ़ी या युग अपने आप को ऐसा समझता रहा है! तो क्या हरेक युग, हरेक पीढ़ी अपने आप में पूर्ण नहीं रही है? जैसे कि हरेक लम्हा, हरेक वो कतरा जो जिन्दगी बनता रहा है! क्या हरेक पल पूर्ण नहीं है अपने आप में? अगर नहीं तो जो लम्हा समय बनेगा या दास्ताँ बनेगा या जो कतरा जिंदगी बनेगी वो भी ऐसे ही अपूर्ण होगी!
ऐसा लगता है: हम पूर्णता या अपूर्णता खुद तय करते होते हैं! सुख-दुःख, रात-दिन, हानि-लाभ! कही हमने तो नहीं बना रखे है! दुःख आते हैं, सुख आता है, ठहर जा। सांस आती है, जाती है, ठहर जा। दिन आता है रात जाती है। ठहर जा। जो ठहरा हुआ अस्तित्व है, जो बना ही रहता बदलते दृश्यों और परिदृश्यों के बीच! एका और एकात्मता की पुष्टि ही तो करता होता है!
हरेक लम्हा, हरेक पल, हरेक समय, हरेक जिंदगी अपने आप में पूर्ण सी नहीं लगती क्या? जैसे एक संगीत रचना या कोई गीत! हरेक संगीत, हरेक गीत अपने आप में पूर्ण होता है: संगीत ही होता है। अच्छा या बुरा, सुन्दर या कुरूप-- क्या हम या हमारी व्यकित्गतता ऐसा नहीं बना देते!
कहते हैं की ब्रह्म का कोई विकल्प नहीं होता। फिर जो ये लम्हे, ये जिंदगी, ये समय, वो दास्ताँ गलत कैसे हो सकते है? ये भी तो ब्रह्म है! फिर ये कैसे अपूर्ण हो सकते हैं जबकि ब्रह्म पूर्ण और विकल्पहीन है!

जब से जीवन मे चयन करना छोड़ दिया, शांति ही शांति है। दिन दिन की तरह बीतते होते हैं! और रात रात की तरह। न रात दिन हो और न दिन रात-- इस तरह की कोई अपेक्षा नहीं। मजे मे जिंदगी गुजर रही है। न कोई चुनाव, न अपेक्षा। न कोई रोष, न हर्ष; जब जो होता करते जाता।

कोई स्व-विरेचन नही। कोई मूल्य निर्धारण नहीं! न शिकायत, न अनुगृहीत ही! पर चुनाव का मतलब ये नहीं कि निर्णय ही न लिया जाय! या अपनी स्वतन्त्रता को भाग्य के हवाले कर दिया जाय। निर्णय मे मन बनाते हैं, एक विशेष दिशा व दशा का निरर्धारण होता है। इसमे चयन या चुनाव जैसा विकल्प नहीं होता। दूसरी जो सबसे बात: इसमे अपने स्व का मोह और अहम का लगाव होता है । तभी हम चाहते हैं; ये ऐसा हो, तो वो वैसा हो।

कई बार ऐसा होता कि सोच कर या चयन कर चलते हैं कि यह करेंगे, वो करेंगे। जब घड़ी आती है, तो जो होता है: वो न ये होता है, न वो। बल्कि कुछ और ही होता है! इसका यह अर्थ नहीं हुआ: सोचें न, योजनाएँ न बनाएँ। उसमे अपने अहम और मोह को बीच मे ले आते। कामना या किसी चीज़ की इच्छा करते ही हम बंध जाते हैं। अगर हम बंधे या न बंधे, चीजें होंगी अपनी गुण और प्रकृति के अनुसार। पर हम अक्सर केवल बांसुरी न रहकर बजानेवाले बन जाते हैं!

कहना तो आसान है। पर क्या करना भी इतना आसान है? लेकिन कोई और विकल्प भी तो नहीं है। अगर सच मे देखे तो जीवन सिशिफस की तरह चट्टान को ढोना पर्वत के शिखर तक। ताकि वो फिर लुढ़क कर नीचे आए। और फिर वही सिशिफस की अर्थहीन यातनाओं का अनंत सफर! बजने वाला मात्र न रह कर बजानेवाल बन जाने की विवशता! वो भी अपने मोह के कारण। अगर सिर्फ अस्तित्व के तान का बजनेवाल बांसुरी हो जाएँ, तो सफर सफर नहीं रहेगा! यातना नहीं यातना रहेगी। ऐसी यात्रा जो स्वयं ही जीवन है! जो तय होती जाती है जीने के लिए, आनंद के लिए... ।

अगर स्थूल स्तर पर सोचें तो पूरा जीवन ही हम ऐसा ही कुछ करते होते हैं। एक ही तरह का काम--वही खाना पीना, वही सगे संबंधी, समाज और देश दुनिया! अगर जन्मों मे विश्वास करते हैं, तो हरेक जन्म मे वही चक्कर! वही सारे काम, वही भविष्य की चिंता, आगत की प्रतीक्षा मे बीतता सारा जीवन। वही प्यार, नाम, स्नेह, मोह, और ममता। एक इच्छा से दूसरी तक शूली की तरह लटकता जीव। कोल्हू के बैल की तरह घूमते रहना। वही सुख दुख का अविरत सिलसिला। इससे ऊब तो होगी, अगर हम सोचने बैठे तब। जीवन मे अर्थहीनता आएगी ही!

इस ऊब और जीवन की अर्थहीनता पर पूरी विचारधारा विकसित हुई है। दर्शन, तर्क-शास्त्र और न जाने कितने ‘’वाद“ का जन्म हुआ है। अस्तिववाद से लेकर उत्तर आधुनिकवाद इससे जूझते रहे है। पर ये सारे केवल मर्ज का विवरण देते है, उनके प्राकृत और प्रकृति की चर्चा भर ही करते होते हैं! पर मर्ज का केवल उपचार कराते हैं, निवारण नहीं। यह विश्लेषण और तथाकथित वैज्ञानिक पद्धति पर आधारित होता है: चीजों और मूल्यों को पहले तो तोड़ा जाता है। फिर उन मे आपसी संबंध और कार्य कारण ढूंडा जाता है। अगर उनमे मेल हो गया और आपसी संबंध की पुष्टि करते होते, तो ठीक। नहीं तो उसकी उपादेयता नहीं माना जाता।

पर जीवन और दुनिया वैसे ही हैं जैसे है! अगर उनमे अर्थ खोजेंगे, तो कुछ नहीं मिलेगा। क्योंकि वे अपने मे ही अर्थ है--अर्थ या मतलब उनमे ही संहित है। जब कोई मानवीय विधा और वस्तु खुद ही अपना अर्थ हैं, जैस की कुछ दार्शनिक और भौतिकविद इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं: हरेक वस्तु-चेतन या जड़ अपने आप मे अर्थ या मतलब लिए हुए है।

फिर अगर अर्थ मे अर्थ, मतलन मे मतलब ढूंदेंगे तो क्या हासिल होगा? कुछ नहीं या किस तरह के अर्थ या मतलब का न मिलना। जैसे अगर खुशी मे खुशी खोजी जाए तो क्या ऐसा अक्सर नहीं लगता: क्या यही खुशी है! निरशा सी होती उस खुशी से! लेकिन चलो खुश हो लें, खुशी की बात है, ऐसा समाज कहता है तो ठीक है, खुश हो लेते हैं।

तो अगर खुशी मे खुशी तलाशेंगे, तो शायद न मिले । या उतनी न मिले जितना कि सोचा होता। अगर जो खुद ज्ञान स्वरूप है या ज्ञान ही, उसमे क्या ज्ञान मिलेगा अगर ढूढ़ेंगे तो? वैसा ही कुछ जीवन के बारे मे बोलते है: कोई अर्थ नहीं इसमे। जीवन जीने लायक नहीं है।

अगरचे जीवन जीवन जीने लायक नहीं होता तो कोई जीता भला! इतना कष्ट उठा कर! पता नहीं कितने दैहिक, आधिदैविक और दैविक कष्टों को झेलना पड़ता है। गरीबी, भूख और शोषण के वावजूद लोग जीते चले जाते हैं! कोई भी मृत्यु आने के पहले मरता नहीं है! यहाँ तक की अपनों के मरने के साथ भी कोई मरना नहीं चाहता! सभी जीना चाहते हैं।

पर अब अपने आप को बिलकुल ही अस्तित्व के हवाले कर दिया हूँ! जीवन के हवाले हो गया हूँ।बिना अपनी तथाकथित स्वतन्त्रता खोये हुए! जो होता है या नहीं होता वही जीवन है! और उसी मे हमे शर्तिया स्वतंत्रता मिली है: उसे स्वीकार करने और उस पर अपना रंग चदाने! उसे अपने मन मन मुताबिक दिशा और दशा देने।

एक बात और: सभी बोलते हैं, मिलना नहीं चाहता। भागता रहता हूँ सबसे। क्रेडिट तक नहीं लेना चाहता! जो किया है अपनों, अपने देश, समाज, और दुनिया के लिए : उसके बारे मे बताना नहीं चाहता। कायमा भी मिलना चाहती होती और सत्ता भी। ट्रायम्फ भी चाहता मिलना! उसने भी सत्ता की तरह हमारे पीछे पूरा तंत्र ही झोंक दिया। मुझसे मिलने के लिए या पकड़ने के लिए!

और मैं यहाँ मारिशस आ गया। सब कुछ अपने देश जैसा मालूम होता हुआ! पर अपना देश तो आखिर आपना ही है! वैसा ही कुछ महसूस होता हुआ जैसे अमेरिका मे हुआ था!

स्वतंत्रता और समृद्धि के भूमि पर भी अकेलापन! एक घुटन और ऊब। एक अदृस्य सा बंधन जैसे कोई तन मन को घायल करता हुआ कोई अहसास ! बंदिशे न जाने कितनी! देश, नस्ल, जाति, भाषा, उंच नीच वाला वही देशी पैमाना। अपने देश मे जाति! तो यहाँ नस्ल और रंग भेद। पर सबसे बड़ी अहम और अहंकार का बंधन।

स्वतंत्रत रहने की परतंत्रता सा लगता हुआ जीवन!

पर मिला नहीं किसी से! या पकड़ मे ही नहीं आ पाया किसी के! वैसे भी जो मिले हुए ही हैं-- कम से कम अस्तित्व के स्तर पर! उनसे क्या मिलना! क्या विरह! क्या मिलन! एक ही बात है! क्या आज़ादी क्या गुलामी! सब एक दूसरे से जुड़े हुए हीं हैं। नहीं तो एक के बाद दूसरा नहीं आता होता! जैसे रात के बाद दिन! सुख के दुख या वही सुख दुख बनता हुआ! जैसे वही दिन रात मे बदलते होते हैं!


बचपन से ही ऐसा लगता रहा है! जैसे कि मैं कुछ अलग हूँ! कैसे हूँ? क्यों हूँ, पता नहीं। पर लगता रहा जैसे कुछ करना है! क्या करना है? पता नहीं, पर शायद कोई बड़ा सा! ... क्या ? स्पष्ट नहीं। एक अजीब से मसीहा काम्प्लेक्स से ग्रस्त रहा! इसका कुछ अस्पष्ट अहसास हुआ जब मैं दस-बारह साल का रहा हूंगा।
तब हम मिडिल स्कूल मे थे। और हॉस्टल में रह रहे होते! गर्मी की छुट्टियाँ हो गयी थी। घर जाने के पहले हमने राजगीर घूमने की योजना बनाई। और अपने दोस्तों के साथ निकल पड़े राजगीर। इसे राजगृह भी कहा जाता। प्राचीन समय मे जो जरासंघ राजधानी हुआ करती थी। और हम जिस रास्ते से वहां गए थे, वो वही खुफिया रास्ता था पुराने जमाने में जब कृष्ण इसी रास्ते से प्रवेश किए थे। और अत्याचार और अन्नाय के साम्राज्य का अंत कर एक नए युग का सूत्रपात किया था।
उस समय वह हिलसा भाया खुदा गंज राजगीर रोड के नाम से जाना जाता होता। जहां से सुदूर इतिहास में कृष्ण छदम भेष में अर्जुन और भीम के साथ गुजरे थे। अत्यचार और क्रूरता का प्रतीक जरासंघ को ख़त्म करने।
पर ये सब बातें उस समय हमे नहीं पता होती। बाद में पता चला। और जरासंघ को उसी के राज्य में तथा एक तरह से उसी के रचे खड्यंत्र मे। या कहे अपने ही कुटिल चाल के कर्मफल का शिकार कर एक नए युग की शुरुआत हुई। हलाकि कुछ लोग इसे कृष्ण और द्वारिका के लिए बड़ी जीत मानते थे। और थी भी।
तब ये बात हमे मालूम नहीं थी। मैं करीब बारह-तेरह साल का रहा हूँगा। प्राइमरी स्कूल में, शायद सातवीं में। इतिहास के इन दबे-कुचले विथियो से अनजान था। पर सुदूर इतिहास डेजा वू के रूप में हमारे मन-मस्तिस्क पर छाने लगा। हमे लगा जैसे हम पहले भी यहाँ आये हुए हैं! जबकि हम पहली बार यहाँ आये थे।
बाद में जब मैंने कृष्ण और यादवों का इतिहास पढ़ा तो मालूम हुआ। कृष्ण, अर्जुन और भीम के साथ इस रास्ते से, जो गुप्त मार्ग था, होकर छद्म भेष में राजगीर में प्रवेश किये थे। जरासंघ के गुप्तचरों, सिपाहियों तथा सैनिकों से बचते हुए वे गए। और उसके अन्याय और अत्याचार के साम्राज्य का अंत किया।
बड़ा होकर जब पढ़ा तो मेरे रोंगटे खड़े हो गएँ! क्यों ऐसा लगा: उस रास्ते से गुजर चूका हूँ जैसे। यहाँ तक कि जब हम राजगीर पहुंचे। तब भी ऐसा लगता रहा: जैसे कि हम यहाँ पहले आ चुके हैं! जब कि पहली बार ही आये होते। तब से ही ऐसा लगता रहा जैसे कि इतिहास के उन पात्रों से कोई गहरा सम्बन्ध है! जिन्हे लिजेंड और मिथक बना दिया गया है, निहित स्वार्थो द्वारा!
किशोरावस्था से जो यह सिलसीला शुरू हुआ वो जारी रहा। एक बात और जो मेरे जेहन में रच बस सी गयी लगती। पता नहीं कब से यह बात मेरे अन्दर घर कर गयी सी लगती कि कुछ करना है। भाई बहन और रिश्तेदार इस बात पर अक्सर मजाक उड़ाते। क्या करना है? पढ़ना-लिखना, नौकरी या व्यवसाय करना, शादी करना, घर बसाना, बस ------!
जब हाई स्कूल में था। तब भी ऐसा लगता कि जीवन का मतलब, इस संसार का अर्थ केवल इतने तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। ऐसी कई बाते उमड़ घुमड़ कर मुझे परेशान करती होती। किसी से पूछता या वाद- विवाद करने की कोशिश करता, तो वे मजाक उड़ाते। या कहते कि ये सब सोचने की क्या जरुरत है। अधिकांश का तो यह मानना होता: खाओ, पीओ और ऐश करो। यही जीवन है! अगर ज्यादा सोचने की कोशिश करोगे, तो मुसीबत आ खड़ी होगी। जीवन क्या है? इसका मकसद क्या है? ये बेकार की बाते होती हैं! शायद ही कोई मायने रखती होती… वैगरह... वैगरह..... ।
पर यह सिलसिला जारी रहा। कॉलेज-यूनिवर्सिटी के दिनों में यह और जोर पकड़ता गया। स्कूल के बाद कॉलेज में प्रवेश किया। और विषयों के चुनाव करने का प्रश्न आया, तो मैं इतिहास पढना चाहता होता। वो भी भारत का इतिहास। विषय का चुनाव करने के पहले भारतीय इतिहास को पढ़ा। गहन अध्यन तो नहीं, योंही सरसरी तौर पर।
लेकिन पढने के बाद मन को झकझोर देनेवाली भावनात्मक चोट पहुंची। इतनी कि इतिहास को एक विषय के रूप में न पढने का निर्णय लिया। बल्कि इतिहास को बदलने की भी शुरुआत हो गयी सी लगती शायद! मेरे अवचेतन मन मे। भारत के इतिहास में कुछ भी भारतीय नहीं मिला। वहां तो बस लुटेरे, आक्रमणकारियों तथा कौन आया कौन गया, किसका बाप कौन था, कौन किससे हारा या जीता! बस यही लगता होता भारतीय इतिहास का सार!
उसके बाद से तो अजीब से दिन बीतने लगे। खोज, शोध, प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों का दौर शुरू हो गया। ऐसा क्यों है? वैसा क्यों नहीं हो? पर कुछ करने का जज्बा बरक़रार रहा। जबकि यह पता तक नहीं होता: की क्या करना है! पर कुछ करना होता, इतना तो जरुर पता था।
इसी से जुड्रा एक वाक्या याद आ रहा है। तब मैं पांचवी या छठी में रहा हूँगा। एक शिक्षक, जो मेरे बड़े भाई ही होते, क्लास ले रहे थे। वे सबसे पूछ रहे होते : क्या बनना चाहते हो बड़ा हो कर! किसी ने डॉक्टर, किसी ने इंजिनियर, शिक्षक, आईएस, आईपीएस बनने की इच्छा जाहिर की। जब मेरी बारी आयी तो मैं बोला: ट्रेक्टर का ड्राईवर! इस पर हमारे शिक्षक महोदय काफी नाराज हुए। उन्हे लगा मैं मजाक उडा रहा हूँ।
पर कहते हैं: वाणी ब्रह्म की ही स्वर होती है। अगर हम सभी ब्रह्म ही तो वाणी भी इसका हिस्सा है! उस दिन के निकले उद्गार जिंदगी भर गूंजते रहे! मैंने बोला था: ट्रैक्टर का ड्राईवर बनना चाहता! ट्रैक्टर का काम है खेत की मिटटी को ऊपर नीचे करना, ताकि उर्वरी मिटटी ऊपर आ सके। शायद ये शब्द सामाजिक इंजीनियरिंग की ओर इशारा करते होते! शायद सोशल इंजिनियर बनना चाहता होता हूँ! समाज में परिवर्तन तथा उथल-पुथल लाना चाहता हूंगा! तभी तो ये उद्गार निकले मेरे अंतर्मन से!
ऐसा लगता होता: बचपन से ही ब्रह्म ने इन शब्दों के माध्यम से जीवन की दशा-दिशा तय कर रखा हो शायद! पर इसका पता लगने में न जाने कितनी बैचैन भरी राते और आवारा से दिन गुजरे! और इसका अहसास हुआ बहुत बाद में। जब जे एन यू मे पढ़ाई के आखिर के दिन चल रहे होते!
पर क्या ये प्राक्कथन ब्रह्म के भ्रम की पुष्टि नहीं करता? जब सब ब्रह्म है तो फिर ये अलगाव क्यों ‘ब्रह्म ने.....”? ये भी नही होने चाहिए अगर सब ब्रह्म में स्थित है? ये विलगाव को दर्शाता है! पर ये विलगाव भी क्या इस एका का हिस्सा नहीं है? एक प्रश्न जो खुद उत्तर बनता हुआ।

उस दिन बैचमेट ने कहा कि मेरा नाम कोपाल यानि गोपाल नहीं होना चाहिए। कुछ और होना चाहिए, क्योंकि नाम व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता। उसका मतलब होता: मैं किशन-कान्हा नहीं हूँ, जो वो समझ रही थी। न मैं छेड़-छाड़ करता न कोई चुहलबाजी, न नैन मटक्का करता, न आशिकी। कुछेक को तो यह शिकायत होती कि उनकी ओर देखता भी नहीं!
क्या मेरा नाम कुछ और होना चाहिए? क्या मुझे गीत-गोविन्द के कल्पित किशन-कान्हा होना चाहिए जो केवल नाचता गाता रास रचाता रहता है सुन्दर बालाओं के साथ! पर मैं ऐसा नहीं हूँ और शायद हो भी नहीं सकता अगर चाहुँ भी तो! पर क्या कृष्ण जैसा व्यक्तिव्य जिनके सिर पर बचपन से मौत और खड्यंत्र के साए रहे हो, वे क्या कारत के जनमानस में रचाए बसाये गए किशन-कान्हा का हो सकता है? हो सकता है, क्यों नहीं! कृष्ण पूर्ण ही थे ब्रहम की तरह । तभी तो उन्होने सबको अपनाया!
बहरहाल नाम में क्या रखा है? क्या खूब कहा है शेक्सपियर साहब ने भी! अगर गुलाब का नाम गुलाब नहीं होता तो वो क्या गुलाब नहीं होता! नाम रूप की चर्चा से भरी पड़ी हैं भारतीय अध्यात्मिक परंपरा में, और साहित्य में भी इसकी कमी नहीं है। विदेशी साहित्यिक तथ दार्शनिक परंपरा में भी इसकी कमी नहीं महसूस होती।
साधारणतया एक नाम होता है व्यक्ति का और दूसरा समष्टि का। पहले के नाम से अहम् और अहंकार की भावना की पुष्टि होती है तो दूसरे से इस व्यष्टि का निर्धारन होता है। अध्यात्मिक परंपरा में नाम, रूप और अहंकार को व्याधि ही समझा जाता है क्योंकि ये बाधक होते है आनंदपूर्वक जीवन जीने में।
पर यहाँ प्रश्न कुछ और ही खडा हुआ लगता। अपने नाम के अनुरूप के नहीं था मैं शायद, जैसा कि मेरी सहयोगी समझ रही थी। हालाकि नाम और व्यक्तित्व में प्रायः कोई सामंजस्य नहीं होता। नाम होता है गरीब चाँद, पर वे अक्सर मोटे सेठ होते हैं! और आमिर भाई साहब तो नाम के अमीर हैं, गरीबी उनका पीछा ही नहीं छोड़ती।
पर मेरे सहयोगिन का इशारा शयद इस ओर था कि मैं रूमानी नहीं हूँ! पर उन्हें क्या मालूम! किस तरह और कितना रूमानी हूँ! पर मैं बताने के मूड में नही था। पर आपको बता रहा हूँ: मैं थोड़ा अध्यात्मिक, थोड़ा प्लेटोनिक और कुछ सुफियाना भी-- तरह का रूमानी हूँ!
लेकिन उनकी जो बात मुझे चुभी, वो यह नहीं मैं वैसा नहीं था या होना चाहता, बल्कि कुछ और ही लगता। यह प्रश्न सिर्फ व्यक्तिगत नहीं लगता होता! अगर ऐसा होता, एक आदमी का होता, तो बात आई गई होती। पर यह बात व्यक्ति को छूती हुई समष्टि तक जाती हुई लगती। कृष्ण को लेकर समाज की पलायनवादी मानसिकता का बयान कर रही होती। जिस कृष्ण के सर मौत और दुष्टों की कुटिल साजिशों के साये मंडरा रहे हों वो क्या इस तरह का हो सकता है?
सो यह प्रश्न समष्टि का बन गया लगता होता। और व्यक्ति का तो है ही। और अगर थोडी और गहरे में जाया जाए तो पूरी सृष्टि का भी प्रश्न लगता होता। जो अन्दर है वो ही बाहर है! एक ही चैतन्य है जो जड़ और चेतन में विभक्त हुआ सा लगता!
सब चैतन्य है! जड़ भी जड़ बनता इस चैतन्य से। क्योंकि जड़ भी अपनी जड़ता इस चैतन्य से प्राप्त करता है। जब जड़ का अधिष्ठान और अध्यास चेतन ही है, तो फिर ये विक्षेप क्यों? क्यों ये दृश्य, ये परिदृश्य अलग दीखते हैं? क्यों सब कुछ बदलता सा दीखता है? क्यों सब अलग दीखते हैं जब सब वही है? क्या सचमुच में ऐसा है? या केवल दीखता है हमे वैसा? तो क्या यह हमारे गलत दृष्टिकोण का परिणाम है?
जब सभी एक हैं! अपने ही हैं फिर वो कौन है जिसे ये सब ऐसा दीखता है? जब सभी आत्मास्वरुप है। या जैसा कहा जाता है: सभी—ये सृष्टि, ये व्यक्ति, ये समष्टि, समय, स्थान, दृश्य-अदृश्य चेतन-अवचेतन--सभी आत्मा के ही स्वरुप हैं, तो ये विग्रह क्यों? ये विक्षेप क्यों?
क्यों हमे नहीं दीखता? पर जो स्वयं ही अधिष्ठान और अध्यास है! उसके लिए ये विक्षेप! ये विग्रह! ये दृश्य परिदृश्य, समय और देश-काल अलग या भिन्न थोड़े ही हैं! अगर ऐसा दीखता है तो क्या हमारे गलत दृष्टि के कारण? या हमारी अज्ञानता का परिणाम?


जे एन यू की पढ़ाई और शिक्षा का आखिरी साल। दिल्ली में रहते हुए करीब दस साल हो चुके होंगे। पर अभी तक मथुरा जाना नहीं हो पाया! जब कि मथुरा और कृष्ण से जुडे हरेक चीजों के प्रति एक अजीब सा आकर्षण रहा है! बचपन से ही।
उन दिनों अजीब से दौर से गुजर रही होती जिंदगी भी!। सोये सोये से लगते दिन! और जागी-जागी रातें! हालाकि लोगों की नज़र में और दुनियावी तर्ज पर सब कुछ मिल चूका था: नौकरी, शिक्षा, तथा यार-दोस्त। सब मिल गया। पर मुझे ऐसा लगता जैसे मिल कर भी कुछ नहीं मिला। सब कुछ मिल कर भी कुछ न मिल पाने का अहसास। ऊपरी तौर पर तो हँसता, पर अन्दर ऐसा कुछ नहीं होता।
ऐसा अकसर होता, शायद औरो के साथ भी होता हो। जहाँ खुश होना हो वहां उतनी खुशी नहीं मिलती होती! जितना कभी अनचाहे, यूँ ही अक्सर मिला जाया करती है। जहाँ ख़ुशी मिलने की उम्मीद होती। या जिस चीज़ से यह आशा होती कि वो ख़ुशी देगी। वहाँ उतनी नहीं मिलती। या कहे उतनी ख़ुशी नहीं मिली जितनी अपने आप मिलती रही है। बिना किसी वजह। बस यूं ही!
तो क्या ख़ुशी-गम दूसरे के अधीन है या किसी और प्रक्रिया या तत्व के कारण खुशी और गम मिलते रहते है। अगर ऐसा है तो फिर आदमी की क्या भूमिका है? वो स्वंत्रता, वो शक्तियाँ जिससे दुनिया चलती होती है वो क्या? क्या आदमी खिलौना है उसके आगे या बांसुरी है केवल जिसको बजाने वाला कोई और ही है! या कोई शक्ति या तत्व वगैरह है जो सबको चला रहा है?
पर मन कही लग नहीं पा रहा था। अजीब से दिन लगते। चमकीले होते हुए भी फीके-फीके से लगते हुए। ऐसा लगता जैसे कुछ खो गया है। या मिला ही नहीं। उन तमाम खुशियों के बीच ऐसा लगता हुआ जैसे मैं वो नहीं जिसे ये सब मिला है। तभी तीन चार दिनो की छुट्टी आ गयी। गाँधी बाबा के जन्म दिन के साथ एक दो साप्ताहिक अवकाश भी मिल गए। जे ऐन यू छोड़ चूका था और नौकरी कर रहा था। प्रिया के सामने सरकारी अपार्टमेंट्स में बतौर पेइंग गेस्ट रह रहा था।
मथुरा के लिए कब और कैसे निकल पडा, पता ही नहीं चल पाया। जाना तय तो पिछली रातों के जागे सपनो ने कर दिया, जो सो न सके। क्योंकि उनमे बहुत कुछ छिपा होता जो बहुत कुछ कहते होते। और मेरे लिए बहुत मायने रखते होते। पर क्या, कुछ स्पष्ट सा नहीं हो पाता। पर इतने अहम् की रातो की नींद उड़ जाती। जीवन निष्प्रभ और निरुदेश्य लगने लगता। ख़ुशी में ख़ुशी का अहसास नही। मिलकर भी न मिलने का अहसास। सब कुछ पा कर भी न पाने की टीस! न कोई शिकवा, न शिकायत। यार दोस्त, लोग समाज जब मेरे भाग्य की सरहाना करते होते तो मैं सोचता होता, क्या यही मेरा भाग्य है? और ये मैं हूँ ही?
अचानक ही उस जागी रात ने यह निर्णय लिया कि मथुरा जाना चाहिए। और नींद आ गयी। वैसे मथुरा जाना हुआ तो अचानक। पर न जाने कितने सालों से यह मेरे मन की विथियों में उमड़-घुमड़ रहा रहा था। पता नहीं क्यों मथुरा, कृष्ण, यमुना, द्वारका से क्या सम्बन्ध था! इनका आकर्षण बचपन से ही रहा है! यह रहस्मय सा लगता आकर्षण तब से रहा हैं जब मुझे कृष्ण, यादवों और अपने यादव होने के बारे में पता तक नहीं था!
जातिवाद का घिनौना सा महौल! उसमे से किसी ने मुझे बड़ी बेशर्मी से, पर धृष्टता भरी शालीनता से बताया: मैं यादव नहीं, ग्वाला हूँ ग्वाला! महाभरत में कृष्ण को कई बार ग्वाला बोला जाता रहा है। मुझे तीन चार बार ही बोला गया। बहुत ख़राब लगा। दुःख भी हुआ। पर जो समाज कृष्ण को ग्वाला कह सकता है, उसके लिए मैं क्या हूँ? कुछ भी नहीं!
एक दिन जब मैंने पापा से पूछा तो उन्होंने बताया कि हम यादव हैं, ग्वाला नहीं। कृष्ण, मधु, और यदु के वंशज हैं हम। बहुत अच्छा लगा था ये सुनकर। पर समाज में कृष्ण और यादवों के प्रति दृष्टिकोण से थोडा बहुत आहत भी हुआ।
मथुरा जानेवाली बस पर बैठ तो गया। पर मुझे कहाँ मालूम! एक दूसरी दुनिया में जा रहा हूँ! एक ऐसा संसार जो सुदुर इतिहास के स्याह पन्नों के बीच दबा कुचला सा। पर उसकी आवाजें सदियों से रिस रिस कर वर्तमान को आतंकित करती रही हों मानो। जैसे जैसे बस मथुरा की ओर बढती जाती, वो सुदुर इतिहास की चेतना मुझ पर हावी होते जाती सी लगती।
यादों। स्मृतियो और विस्मृतियों। और अनसुनी, अनबूझी गुत्थिओं का सिलसिला शुरू होता हुआ। तन बदन इसमें सरोबर होता हुआ सा। कभी ऐसा लगता जैसे मैं किसी स्वप्नलोक में जा रहा हूँ! कही सपना तो नहीं देख रहा हूँ? मैंने अपने आप को टटोला। छू कर देखा। पर मैं तो जाग रहा था। तो क्या ये जागी आँखों के सपने है! पर ये न तो सपने थे, न विचारों के अनवरत चलते सिलसिले। ये तो मेरी चेतना की गहराई या इसका विवर्त सा लगता हुआ।
ये केवल विचार ही न थे। क्योंकि विचारों की गति बड़ी असम्बन्ध, असंगत और आड़ी तिरछी होती है। इनके भंवर जाल में तो सारी दुनिया ही है! और कुछेक संस्कृति तथा इनके पैरोकारों ने तो इन असंगत विचारों को मानव जीवन का सत्य और मुख्य आधार ही बना रखा है। इसका परिणाम सामने है: पूरी मानव समुदाय इन विचारों में मकड़ी के जाल की नाइ अधर में लटका पडा सा लगता है। और इसे ही जीवन का सत्य मान लिया गया है!
........बस तेजी से मथुरा की ओर बढ़ी जा रही थी। राष्ट्रीय उच्च मार्ग के दोनों ओर के पेड़-पौधे और हरियाली चादर ओढ़े खेत। तेजी से पीछे छूटते जाते। कितने सुन्दर लग रहे है ... ये भगाते दृश्य, तेजी से बदलते परिदृश्य। मोहित मन इन चंचल दृश्यों के मोहपाश में बंध सा गया .. कृष्ण भी इस रास्ते गुजरे होंगे कभी.. इस विचार ने एक साथ ही मुझे अतीत, वर्तंमान और भविष्य के चौराहे पर ला खडा कर दिया। समय के तीन खण्डों के टी-जंक्शन से चौथा रास्ता मेरे निज स्वरूपता को जाता हुआ। जिसमे से तीन रूपों में विभाजित समय फलीभूत होता हुआ सा।
वर्तमान, अतीत और भविष्य! ये मेरे निज स्वरूप का हिस्सा लगते हुए! मेरे स्व या मेरे वास्तविक स्वरुप से ही समय और उसके तीन आयाम निकलते लगते हुए... कभी अतीत... कभी भविष्य... तो कभी वर्तमान.... एक कर मेरे से...मेरे अंदर फैले आकाश और अवकाश से...अगर ऐसा नहीं होता तो ये पहले नजर आते! या हमेशा रहते, आते जाते नहीं। क्या मेरा चेतन स्वरुप जो मेरा वास्तविक स्वरुप ही है इनका अधिष्ठान और अध्यास दोनो नहीं हैं?
लेकिन क्या यह अतीत है? एक शक सा उठता हुआ। जो हमारी सामजिक विडम्बना तथा इतिहास को लोक इतिहास या मिथ या लीजेंड बनाने, एवम मिथकों और लीजेंड को इतिहास बनाने की मुहीम का परिणाम सा लगता हुआ। अतीत एवम इतिहास को क्षत-विक्षत करने के परिणाम स्वरुप ही शायद इन्हें जमीन मिली हो। इतिहास और मिथक। धर्म और विज्ञान, सत्य-असत्य। और न जाने कितने द्वंद और द्वय! अपनी द्वंद भरे द्वंदगी से मुझे वापिस उसी दुनिया में ले जाते हुए। जहाँ से अभी-अभी बाहर आया हुआ लगा था।
पर जैसे-जैसे मथुरा नजदीक आते गया, वर्तमान और अतीत के बीच की दूरी बढती सी गयी। ऐसी दूरी जिसमे वर्तमान अतीत के रंग में डूबा हो। पर जैसे ही बस मथुरा पहुंची, वर्तमान का सूरज अतीत के पाश से निकल कर जैसे क्षितिज पर आ गया हो।
बस से उतर कर कब मैंने मथुरा की पावन धरती को छू कर प्रणाम किया, पता ही न चला। फिर मुझे थोड़ी झेंप सी भी हुई। शायद मेरी आधुनिक शिक्षा के कारण! या फिर यह मेरे पूर्वजों की धरती है, शायद इस कारण ऐसा हुआ हो! मुझे लगा जैसे मैं आज के मथुरा में न होकर पुरातन मथुरा में हूँ! विस्मृत सा, कुछ दिग्भ्रमित हुआ कब मथुरा के जन्मभूमि काम्प्लेक्स के इंटरनेशनल इन् में पहुंच गया, पता ही नहीं चला।
जब कृष्ण जन्मभूमि के इंटरनेशनल में कमरे के लिए पूछा, तो केयर टेकर ने प्रश्नों की झड़ी सी लगा दी। क्यों आये? क्या मकसद है आने का? कहाँ से आये हैं? कहाँ जाना है? वगैरह.. वगैरह। पुलिस की सुरक्षा भी काफी थी। ये सब क्यों पूछा जा रहा है, मुझे बाद में पता चल गया। कृष्ण जन्मभूमि का विवाद चल रहा था उस समय। एक धर्मं के राजा ने जन्म भूमि के अन्दर घुस कर अपने धर्मं का इबादतगाह बनाया था। दूसरे धर्म के लोग उसे तोडना चाहते। इस कारण उस क्षेत्र में काफी तनाव था। पुलिस की घेराबंदी भी इसी कारण था।
कैसी विडम्बना है! जिस कृष्ण ने अन्धविश्वास तथा डर पर आधारित धर्म को अस्वीकार कर उसे कर्म आधारित धर्म बनाया। उसे ब्रहम से जोड़ कर सबसे स्नेह और श्रधा भाव रखने का आह्वान किया। नर-नारी को नारायण मान कर इंद्र जैसे वैदिक देवी-देवताओं की पूजा बंद कराई। कालिया नाग को मार कर सांप, भूत-प्रेत की पूजा-अर्चना बंद की। उसी कृष्ण की जन्म स्थली पर धर्म के वीभत्स रूप का तांडव हो रहा था!
मुझे कुछ अजीब सा लगा। न जाने सभी नदियों में कितने पानी बह गए होंगे। आज के आधुनिक युग ने धर्म को न केवल डर और स्वर्ग-नरक के प्रलोभन पर आधारित कर दिया है, बल्कि मानव जीवन की हरेक विधा को इन नकारात्मक मापदंडों पर प्रतिष्ठित कर दिया है। चिक्त्सिक मौत के खौफ पर अपने उल्लू सीधा कर रहा! तो कानून व्यवस्था जेल और फांसी और उसके डर पर आधारित है! वकील साहब जेल के डर से मुवक्किलों की जेब खाली करते है। तो उधर, सौन्दर्य प्रसाधन व्यवसाय आसन्न तथा अवश्यमभावी देहांत पर फल-फूल रहा है! बीमा और फिटनेस उद्दयोग इस तय देहांत को खूब भूना रहा है!

 


मथुरा के आस-पास घूमते हुए ऐसा लगा! जैसे मैं पहले भी आ चूका हूँ! जबकि पहली बार ही आना हुआ था। वही डेजा वू जो किशोरावस्था में राजगीर में हुआ था। यहाँ तो ऐसा लगता हुआ जैसे इस धरती से जन्म-जन्म का रिश्ता हो! भला क्यों न हो, हमारे पूर्वजों की भूमि जो ठहरी! ये अलग बात है कि हमारा समाज इस बात पर अक्सर खिल्ली उडाता है। हमारे पूर्वज को तो भगवान बना दिया और हमे छोटी-पिछड़ी जात! मेरा मन थोडा ख़राब सा होने लगा।
पर इस सामजिक-राजनैतिक दाव-पेंच के बारे में अधिक सोचना नहीं चाहता। मैं तो किसी और ही दुनिया में था। खाना खा कर बेड पर गया। पर नींद का कही नमो-निशान नही। सामने की खिड़की से जन्म भूमि और उससे जुड़ा राजमहल दीखता हुआ। नींद से थकी हुई आँखें वही कही अटक गयी सी लगी। एक बार जो अटकी तो अटकी ही रही। पूरी रात।
इस जागी रात में अतीत, वर्तमान और भविष्य गडमड हो गए से लगे। उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह सा लगता हुआ सा। पहली बार मुझे थोडा-थोडा अहसास होता हुआ कि हम केवल शारीर ही नहीं हैं! और कुछ भी हैं! एक चेतना जो शारीर से परे और उसके बावजूद है!
सोने की कोशिश में लगी, जागी जागी वो रात। क़यामत की रात से किसी मामले में कम नहीं लगती हुई। फिर पता चलता हुआ... इस शारीर के अलावे भी कुछ है। और उस कुछ की तलाश शुरू हो गयी। और अभी तक जारी है! उस रात की सुबह आज तक नहीं हो पाई है! वो रात न जाने कितने प्रश्नों को अपने नीम अंधरे में छुपाये हुए सुबह के इंतजार मे है अभी तक!
वो रात! रात नहीं थी जो दिन के बाद आती है! और सुबह होने के पहले तक रहती है। वो तो घटनाओ, दुर्घटनाओ, हादसों, आक्रमण और प्रति-आक्रमण। प्रताड़ना और छल। प्रतिशोध, भीतरघात, धोखेबाजी, एवम एक सभ्यता की पतन की रात हो जैसे! जो उस अंधेरे मे मथुरा के जन्म भूमि पर आ उतरी थी। और अभी तक जारी है।
सुबह की प्रतीक्षा मे! ऐसी सुबह जब सब कुछ साफ हो जाएगा। सारे धुंध छट जाएँगे। नीम अंधेरे, वो इतिहास और समाज से छिपाए गए सच। और सच्चाई की कब्र पर फलता फूलता वो झूठ, आडंबर, और पाखंड का कारोबार! क्या इस रात की सुबह होगी? सुबह के इन्तजार में न जाने कितनी सदियाँ बीत गई लगती। पर ये रात न बीती।
यह प्रश्न उस रात ही उठा था। और अभी तक प्रश्न ही बना हुआ है। ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर खोजने लगे तो प्रश्नों की झड़ी ही लग जाती है! मुझे क्या पता कि मथुरा की वो रात मील का पत्थर बन जाएगी। ऐसा मील का पत्थर जो एक अंतहीन यात्रा का इशारा करता हुआ।
अनंत सा लगता सफ़र! शून्य से शुरू हो कर शून्य में ही विलीन होता हुआ। शायद ऐसी यात्रा की जो पहले तो अव्यक्त रहती है। और अंत में भी अव्यक्त हो जाती है! केवल बीच में व्यक्त रहती है। उस अव्यक्त को व्यक्त कर फिर अव्यक्त हो जाने के लिए! बिलकुल इस जीवन की तरह। पहले अव्यक्त रहता है और फिर व्यक्त होता है। अंत में फिर अव्यक्त!
जीवन का वास्तविक स्वरुप ऐसा ही है! यह बात अभी भी पूरी तरह समझ में नहीं आ पायी है! इसे समझना और वास्तविकता के धरातल पर उताराना कोई आसान काम नहीं लगता। कहना आसान है, पर इसे समझाना उतना ही दुरूह जिंतना की विरोधाभासों, उतार-चड़ाव, उठा-पटक एवम द्वैत से भरा हमारा ये जीवन!
इस बात को समझते-समझते दस पंद्रह साल बीत गए। और इन सालों के दिन-घंटे ऐसे बीते जैसे प्रेमी के इन्तजार में प्रेमिका। एक-एक पल एक साल जैसे। पर मेरी स्तिथि बड़ी ही विचित्र होती! एक ऐसा प्रेमी जिसे न तो प्रेमिका का पता और न ही इस बात का कब मिलन होगा? होगा भी या नहीं!
इसके पहले मेरा मन अँधेरे में तीर मारता हुआ सा। देश, समाज और अपने जीवन की दिशा-दशा के बारे में। कुछ भी समझ में नहीं आ पा रहा था। पर मेरे लिए ये सब समझना जरुरी बनता जा रहा था। इससे जीवन या यूँ कहें पूरे अस्तित्व का ही सबाल उठ खड़ा हुआ लगता। ऐसा कुछ हो गया सा लगता कि ये सबाल और उनका जवाब पाना जैसे जिंदगी का मकसद बन गया हो! जिन्दा होने का जैसे आधार बन गया हो!
उस पर बचपन से किसी भी चीज़ के तह में जाना। जो अब आदत सी बन गई है। ये ऐसा क्यों है? वो वैसा क्यों नहीं है? फिर देश के अपेक्षकृत पिछड़े एवम हिंसक क्षेत्र में बीता बचपन और किशोरावस्था! मन मस्तिष्क पर गहरा छाप छोड़ रखा था। वहां के विरोधाभास, गरीबी, पिछड़ापन, मार-धाड़, सामंती मानसिकता का कब विरोधी बन गया, पता ही नहीं चला। दिन-रात यही सोचता रहता। ऐसा क्यों है? तो वो वैसा क्यों नहीं है?
उधर कुछ करने की चाह पता नहीं कब से बाहर आने को बेचैन हुए जाती। पर मालूम न होता कि ये कुछ क्या है? मुझे उस समय नहीं पता! पर इतना तो जान गया था कि कुछ तो है जो गड़बड़ है! जब छोटा था और बच्चे आपस मे बात करते होते कि क्या करना है या क्या बनना है, तो मैं मुसीबत में फँस जाता। एक तरह से। क्योंकि मैं न तो पैसे कमाना चाहता, और न शोहरत ही। न इंजिनियर बनना चाहता, न डॉक्टर, न आईएस, न आईपीएस। मैं चाहता होता परिवर्तन लाना देश और समाज में। इस पर बच्चे मजाक उड़ाते, खूब हँसते। अकसर ऐसा होता। और मुझे ख़राब भी लगता।
उधर अपने देश, समाज और लोगों की दशा-दिशा के बारे में कुछ करने की चाहत बढ़ते ही जाती। शायद यही कारण उच्चतर शिक्षा की ओर ले गया। और जे एन यू में पढ़ने के लिए दिल्ली आ गया। हालाकि घरवाले चाहते कि मैं सिविल सर्विस की तैयारी करूँ। पर मैं इस नौकरशाही का कभी भी हिस्सा नहीं होना चाहता। जो कदाचार, अनाचार, लूट, शोषण और सामंती मूल्यों पर आधारित है! ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को बरक़रार रखने के लिए बनाई गयी इंडियन नौकरशाही! जिसे स्वंतंत्रत भारत के कर्णधार नेताओं ने ज्यों को त्यों भारतियों पर थोप दिया! स्वन्त्रत भारत के लोगों पर शासन करने के लिए!
ऐसी नौकरशाही का कम कम से मैं तो हिस्सा नहीं होना चाहता। सब मे क्रेज था इसका। पर मैं नहीं चाहता। पर क्या चाहने से कभी कुछ हुआ है? जो अब होगा या तब होता! न चाहते हुए भी, निजी क्षेत्र की अपमानजनक स्तिथि व् परिस्थितियों से गुजरता हुआ। जगह-जगह धक्के खा कर, १० साल में १२ नौकरियों का रिकॉर्ड बनाता हुआ : आखिर सरकारी नौकरी की शरणगाह में मजबूरन आना ही पड़ गया.
इतने उठ-पटक तथा भागम-भाग के बाद, एक नतीजे पर पहुंचा। निजी क्षेत्र की नौकरिओं में मालिक शोषण करता है कर्मचारियो का। तो सरकारी क्षेत्र में कर्मचारी ऐसा करते लगते हैं! नव-मार्क्सवादियो और मार्क्सवादियो को शायद इस पर एक नयी थीसिस विकसित करनी चाहिए! ताकि एंटी-थीसिस और सिंथेसिस के माध्यम से कुछ ऐसी व्यवस्था हो कि शोषण लाभ में परवर्तित हो जाए! शोषितों के लिए। और शोषकों के लिए भी--दोनों पक्षों के लिए।
वैसे भी शोषक और शोषित! शोषण के एक ही राह के रहगुज़र से लगते है। इस राह में एक बिंदु है जहाँ दोनों मिलते से होते है-जिजीविषा की। पर उनका मिलन अनभिज्ञ होता है एक दुसरे से। क्योंकि एक सुरक्षा से उपजी असुरक्षा की रक्षा में जीता है, तो दूसरा असुरक्षा एवम अनिश्चितत्ता की मजबूरन रक्षा में जीता है! और पल पल कुर्बान होता हुआ होने पर। इस होने मे उलझी और इसमे रिसती जिंदगी। एक दिन सुरक्षा और असुरक्षा से परे जाते हुए। अज्ञात और अव्यक्त की असीम गहराई मे फिर से विलीन होने, असीम से एकाकार होने! या फिर से व्यक्त हो जाने के लिए।
वैसे देखें तो कोई भेद नही है! अलगाव नहीं लगता! अलग अलग और विलग से दिखते हुए भी ये दृश्य और परिदृश्य! चेतना के प्रक्षेपण मात्र ही तो लगते होते हैं। स्व और अहंकार के मोहजाल के कारण ये हमेशा ही विभ्रम मे डाल देते हैं!
वैसे भी सब कुछ उस चेतना का ही विवर्त सा ही लगता है! जो सबमे साक्षी रूप व्याप्त हैं। सब एक है—कम से कम इस जिजीविषा के स्तर पर! इस एक से निकले अनेक भी उसी एका का ही प्रतिफलन से लगते हैं!! फिर शोषण-शोषित द्वय क्यों? क्या शोषित ही शोषक नहीं बन जाता जैसे निजी क्षेत्र से सरकारी में जा कर मेरे जैसे लोगों का होता!
फिर जो एक बिंदु पर शोषक है वही दूसरे काल और परिस्थिति में शोषित बन जाता सा दीखता! फिर शोषण भी सापेक्ष सा लगता हुआ, जबकि कहते हैं कि ब्रह्म का कोई विकल्प नहीं होता!!
१०
जे एन यू में एडमिशन होना! सपनो का सच हो जाने के सामान ही था! कम से कम मेरे लिए। कई जागती रातों और बेचैन दिनों का सपना-- दिल्ली का जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय! जो जे एन यू के नाम से जाना जाता है। ऐसा सपना जो सच में बदल गया हो। सबसे अहम् बात कि मेरे सारे प्रश्नों, देश-समाज की दशा और दिशा सम्बन्धी सारे सबलों का जवाब यहाँ मिलने वाला था। कम से कम मुझे ऐसा लगता। उन दिनो।
और इन सबालों का जवाब मिलना कब मेरे जीवन का मकसद और आधार बन गया, पता ही नहीं चला।
शायद इसी कारण जब जे एन यू में एडमिशन मिला, तो बहुत ख़ुशी हुई। मुझे लगा जैसे अपने सपने, अपने प्रश्नो के उत्तर के करीब हूँ। पर वहां दाखिला मिलते ही मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट की गिरफ्त में आ गया। उनका नेटवर्क काफी मजबूत हुआ करता था जे एन यू में। वे प्रवेश के पहले या प्रवेश के समय ही नए लड़के-लड़कियों अपने प्रभाव में ले कर कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य बना देते। उनके पास ऐसे ऐसे कई बड़े हथकंडे थे। उनमे से एक हथकंडे का मैं भी शिकार बन गया।
बहरहाल मार्क्सवाद से मुझमे थोड़ी आशा की किरण तो नज़र आई। एक झलक सी मिली। एक नए आशयां और सपनो का अगाज सा हुआ लगा। हमे लगने लगा जैसे बस अब क्रांति आनेवाली ही है! एक नयी प्रेरणा मिली! एक नयी ऊर्जा, शक्ति मिली जीने के लिए।
वो भी क्या दिन होते! क्रांति की बाते करते करते दिन बीतते। और राते उसी के सपने में। फिर वो चमकीले दिन और सपनीली राते जो आती हुई क्रांति के आहटो से प्रकशित होती। सेमिनार, जुलुस, चर्चा, परिचर्चाओं एवम स्टडी सर्किल के दायरे में दिन बीतते। और राते कैंडल लाइट जुलुस एवम गढ़े हुए सपनो को जीने में गुजर जाती!
पर जैसे जैसे अध्यन, परिचर्चा, चर्चा और विश्लेषण की गति तेज होने लगी, वैसे सच के नस्तर फिर से चुभने लगे। झीनी आशा की भीनी सी चादर तार-तार होती हुई। धीरे-धीरे मोह भंग की पाश में बंधता पूरा अस्तित्व। सच और ज्ञान के अग्नि की तपिश में मार्क्सवाद और विशेष कर भारतीय मार्क्सवाद की खोखली और एकांगी पह्लू सामने आने लगे।
रही सही कसर पूरी की चीन के तियनामन स्क्वायर की नृशंस घटना। प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे चीनी छात्रों को टैंक से रौंद डाला गया था। पर चीन और उसके अंध भक्त भारतीय मार्क्सवादीयों ने इसे क्रांति के नए आयाम का आगाज़ माना। और सेमिनारों, चर्चाओं और जुलूसों से जश्न मनाने लगे.
वैसे भी कुछ अजीब सा लगता है! मन को विश्वास नहीं होता कि इन्सान के जीवन का एक पहलू सब कुछ निर्धारित कर सकता है। एक आर्थिक पहलू या पदार्थ से दुनिया चलती है! उसके ढंग और शैली तय होती? इतिहास उस एक-आर्थिक- से निकलता है? संस्कृति उसकी धरोहर है! सभ्यता उसकी दासी है? वगैरह, वगैरह।
पदार्थ ही चेतन को जन्म देता है! जैसे हल-बैल और मशीनीकृत खेती अविकसित और विकसित जीवन को! पदार्थ अपनी पदार्थाता पदार्थ से ही प्राप्त करता है? अगर ऐसा है तो पदार्थ को कभी ख़त्म नहीं होना चाहिए था। उसका उर्जा में बदलना भी नहीं होना चाहिए था। क्योंकि वह अध्यास और अधिष्ठान भी खुद है चेतना की तरह। आत्मा की तरह, अगर मानते हो तो। नहीं तो ज्ञान की तरह, अगर आत्मा को न भी मानते हो तो!
पदार्थ या अर्थ या आर्थिक पहलू की अहमियत को इंकार नहीं किया जा सकता। पर इस पर सब कुछ आधारित करना, इसको ही इतिहास और संस्कृति का जनक मानना कुछ उचित नहीं लगता। उस पर मार्क्सवाद का कर्म और कर्मफल या कार्य और कारण की गति को उलट देना! कर्म या कार्य फल या कारण को (क्रांति-वर्ग विहीन समाज)को पहले ही हुआ मान कर कार्य को शुरू करना। इसका नतीजा या दुशपरिणाम पूरी दुनिया के सामने है। कर्मन की न्यारी गति को उलटी करने का दुष्चक्र अभी भी जारी हुआ सा लागत। कुछ जगहों पर!
इसके परिणाम स्वरुप, अगर नहीं कहा जा सकता, तो इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता: कट्टरता, विभन्न धर्मों की धर्मान्धता तथा उनसे उपजे आतंकवाद कही न कही इनसे जुड़े जरुर हैं। क्या स्वर्ग, जन्नत और किंगडम ऑफ गॉड जैसा ही मरुभूमि की मरीचिका की तरह नहीं लगता है वर्ग-विहीन कम्यूनिस्ट समाज? हजारों साल से कोशिशे चल रही उस मरीचिका को पाने के। पता नहीं कितनी लड़ाइयाँ हुईं! कितने धर्म-युद्ध हुए, कितने क्रूसेड हुए, नर-संहार, अत्याचार हुए। पर वो नहीं मिला।न मिलना था और न ही मिलेगा। क्योंकि जो मिला हुआ है, वो फिर कैसे मिल सकता है!
पर ये सब मुझे पता नहीं था, उस समय। केवल आलोचना, आलोचको की विवेचना तथा स्टडी सर्किल के रटे-रटाये चंद जुमलों से अधिक नहीं आता। वैसे आलोचना पढ़ा तो खूब, पर पल्ले कुछ खास नही लगा। उस समय इतना ही समझ में आया लगता: जिसकी तलाश है, जिस प्रश्न का उत्तर पाने में लगा हूँ, वह यहाँ नहीं मिलेगा। वो कारण जो हमारे देश, समाज और दुनिया की इस दशा के लिए जिम्मेवार हैं, वो दृष्टिकोण यहाँ नहीं मिल पाएगा। पर सचमुच उस समय मुझे यह समझ में नहीं आ पाता कि अर्थ या आर्थिक स्थितियां कैसे इतिहास से लेकर जीवन और संसार की दशा और दिशा तय कर सकती हैं! क्योंकि उस समय शायद यह मालूम न था: ये समझ में आनेवाली बात भी नहीं है!
उन्हीं दिनों के किसी रात में एक सपना देखा। थोडा हिंसक सा, पर कई अहम् सबालों के जवाब की कुंजी छिपाए हुए भी। सपना एक युद्ध-स्थल के परिदृश्य से शुरु होता है। लड़ाई किस लिए हो रही है! शायद किसी अस्पष्ट से बड़े मकसद के लिए। समय, देश और काल का भी पता नहीं-- अनंत सा दीखता हुआ। समुद्र सा उमड़ता हुआ सैनिक दल।
संभावी युद्ध के दो पक्षों में एक का सेनापति तो मैं हूँ! और दूसरी सेना है बहुत विशाल--अनंत तक फैली हुई। लड़ाई किस लिए हो रही कुछ स्पष्ट नहीं है! पर कोई बहुत बड़ा मुद्दा लगता है। पूरी मानवता की अस्मिता का प्रश्न सा लगता हुआ! मेरे हाथ में तलवार है जो उस गुजरे जमाने की ओर इशारा करता हुआ जब तलवार से लड़ाई लड़ी जाती थी।
सपने में तेजी से आगे बढ़ता हुआ। सारी बाधाओं एवम दुश्मनों के जाल को काटते हुए। अभिमंयु चक्रव्यूह सा लगता हुआ! एक दो ..तीन ..चार... सात…. । न जाने कितने और सुरक्षा घेरा बना रखा होता मानवता के दुश्मनों ने! सबको भेदता हुआ, निरस्त करता हुआ। व्यूह पर व्यूह तोड़ता हुआ। और अंत मे उनके सूत्रधार तथा सारी समस्याओं के मूल जड़ तक पहुँचता हुआ। फिर एक झन्नाता हुआ सा सन्नाटा और विस्मय भरा धक्का...दुःख भी, गुस्सा भी! क्योंकि वो मेरा भाई ही था!
नींद खुलनी ही थी। सो खुली और एक समस्या- हमारी बहन- की शादी- का तुरंत जवाब मिल गया सा लगा। बड़े भाई बहन की शादी नहीं होने दे रहे होते। जहाँ शादी तय होती, वहां से टूट जाती। भाई साहब के कारण। क्योंकि वे अपनी बहन की शादी अपने साले राम से कराना चाहते होते! ताकि वे बहन की शादी के लिए रखे गए रकम, जो काफी थी, डकार सके। उस रात जब इस सपने के बाद नींद खुली तो समझ में आ गया कि वो ही हैं, जो ऐसा कर रहे है।
और दूसरा, जो पहले से ज्यादा अहमियत रखता होता: देश समाज और दुनिया की इस स्तिथि के जिम्मेवार अपने ही हैं, अपने ही लोग हैं! एक नयी दृष्टि मिलती हुई सी लगी, और मैं जुट गया अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने मे। पर इसके साथ एक शून्य सी स्थिति भी आ उतरी थी जीवन में। एक ऐसा शून्य जो कोई अंक खोज रहा होता। सार्थकता लिए। जीवन में जो शून्यता आ उतरी उसको निरस्त करने के लिए यह जरूरी बनाता जाता लगा।
पर कभी कभी ऐसा लगता जैसे मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ? किसी चीज में अगर अर्थ या मतलब खोजेंगे तो क्या वो मिल पाएगा? जीवन तथा इसके सारे आयाम अपने आप में सार्थक ही तो लगते है। वे ही अपनी अर्थवत्ता को छुपाये हुए है! अगर अर्थ या मतलब में अर्थ या मतलब खोजा जायेगा, तो क्या वो मिल पायेगा? जो खुद ही अपना अर्थ हो या मतलब हो, तो क्या उसमे कोई मतलब मिल पायेगा?
पर युवा मन को कहाँ ये प्रौढ़ बाते भाती! सब कुछ अटपटा सा लगता हुआ। पर सपने मे एक झलक सी मिलती लगी। एक कुंजी छिपी हुई सी मिलती नज़र आई सारे अनुत्तरित प्रश्नो की। भले ही वो अन्ध्रेरे में तीर चलने के बराबर लगती होती। पर एक सूत्र सा मिल गया हुआ लगा। देश-समाज और अपने परिवार की समस्याओं के सन्दर्भ में। और में लग गया इस सूत्र के अगले-पिछले सिरों को मिलाने में।
११
अजीब सी सुबह। सुबह वैसी लगती हुई जैसे रात हो! उदास मन की स्याही सुन्दर और निम् उजाले को निगल सी गयी लगती। विक्षिप्त मन की परवाज से पूरी सृष्टि प्रभावित सी लगती हुई। क्यों न हो हम सब उसी एक के हिस्से है !
अंदर बाहर एक ही। अंदर का अंधेरा उजाले की खोज मे और बदता जाता। बाहर तक फैला पड़ा हुआ सा लगता। जो और कुछ नहीं उजाले की तलाश सी लगती हुई। अंधेरे को भगाने की जरूरत तो नहीं। वो है ही नहीं। वो तो बस प्रकाश का अभाव है!
पर मार्क्सवाद और आदर्शवाद से हताश। किसी ऐसे दृष्टिकोण, केंद्रीय बिन्दु की तलाश में जहाँ से चीजों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता हो। बिना किसी पूर्व्राग्रह के, किसी मशीनी व सैद्धांतिक आग्रह के। शायद कुछ ऐसे ही किसी परिप्रक्ष्य की तलाश में।
पर कहीं ऐसा कुछ नहीं मिल पाता हुआ। जिससे जमाने के गम से आक्रांत मन को निजात तो नहीं, पर कुछ सहारा ही मिल जाता! सब जगह वही खोखली बाते। वही जुमलेबाजी! वही अंधी भक्ति की तरह संकीर्ण, ठहरा हुआ, अपने ही दृष्टिकोण से बंधा आदर्शवाद और अन्य वाद।
उस दिन न तो क्लास करने में मन लगता, न पुस्तकालय में ही। लेक्चर सुनते वक़्त ऐसा लगता होता जैसे कहीं दूर से कोई आवाज आ रही हो! कुछ भी समझ में नहीं आता हुआ। सब कुछ बेमानी सा लगता हुआ।
वो मटमैली सुबह! धूल-धूसरित अंधेर सी लगती दुपहरी! पर आंखो में कीरकिरी बन कर चुभती हुई। क्लास, लाइब्रेरी, छात्रों के अड्डे—कहीं भी मन नहीं लग पाता होता। उड़ा उड़ा सा रहता। कैंपस में रहना मुश्किल सा लगता हुआ।
बस, निकल पड़ा कैंपस के बाहर। पता नहीं, कहाँ-कहाँ भटकते रहा! इसी बेखुदी की आवारगी में अपने आप को कनाट प्लेस के जनपथ पर पाता हुआ। वहां लोगों की भीड़ दिखती हुई। भीड़ का हिस्सा बनता हुआ। हरे कृष्णा सोसाइटी के देशी-विदेशी भक्त बेखुदी और बेसुधी में मग्न हो कर नाच रहे होते! बस योंही नाचने के लिए।
पर ऐसा लगता हुआ जैसे पूरी सृष्टि, पूरा जीवन उनके साथ आनंद में मग्न हो! या आनंद स्वरुप जीवन अपने पूरेपन में उनपर उतर आया हुआ सा लगता। क्या यही जीवन तो नहीं! बिना खोजे और मांगे आनंद की बारिश होती हुई। और उस आनंद की बारिश में हम सब दर्शक गण भी सरोबर हो उठे से लगते हुए ।
हम उस बेवजह और अनायास आनंद की बारिश में डूबे हुए। उनमे से एक कृष्ण की गीता हाथो में रख ता हुआ। मानो वो भी इसका हिस्सा हो! कहने को तो किताब बेच रहे होते वो। पर ऐसा लगता हुआ जैसे आनंद बाँट रहे हों! और अपनी बेमानी सी हो चली जिंदगी के लिए कोई मतलब मिल गया सा लगता हुआ।
कृष्ण और गीता! और हरे कृष्णा सोसाइटी के बेसुध से मग्न हुए नाचते देशी-विदेशी! एकाकार से लगते हुए सबों से। जैसे जीवन के आनंदस्वरूप प्रकृति की एक झलक मिलती हुई। क्या ये सब जुड़े हुए नहीं हैं उससे, जो सबका जोड़ है! मैं शायद इससे विमुख हूँ। शायद इसी कारण ऐसा अहसास होता आया है। पर ऐसा क्यों हैं? जिस आनंद की बर्रिश में वो डूबे थे, वो सबके लिए है! पर मैं क्यों इससे मरहूम हूँ? शायद अज्ञानता या बेफिजूल के ज्ञान के कारण!
जो भी हो! बस मैं जुट गया गीता पढने में। पर वहां कुछ भी हाथ नहीं लगा! यानी कुछ भी समझ मे नहीं आया! कहाँ से आता? ज्ञान, दर्शन और विज्ञान यानि कि विशिष्ट ज्ञान के किताब को जब धार्मिक बना दिया गया हो, तो कैसे समझ मे आता? फिर दुबारा उस किताब को नहीं पढ़ पाया। बहुत दिनों तक। फिर बाद मे एक समय ऐसा आया कि गीता प्रतिदिन पढ़ने लगा। और पढ़ कर ही पता चला, कैसे एक विशिष्ट ज्ञान के किताब को धार्मिक बना दिया गया। हालाकि ये काफी बाद की बात है।
वैसे भी बचपन से ही लाल कपड़े मे लिपटे तथा मंदिर या पूजा स्थल पर भगवान की तरह प्रतिस्थापित गीता, महाभारत, रामायण के प्रति एक अजीब सी कुतूहल भरा जिज्ञासा रही है। इसे पढ़ने या देखने की। पर हरेक कोशिश नाकाम साबित होती! इतनी शर्ते होती- पहले नहाओ, शुद्ध हो जाओ, कपड़े बदलो, भगवान का नाम लो, फिर पढ़ो या देखो।
खैर ये सब अतीत है। पर जब भी हमारे अतीत या विरासत की बात होती है, सभ्यता और संस्कृति की बात होती, ऐसा लगता कि बहुत कुछ छिपाया जा रहा हो!! जैसे हमारा इतिहास, हमारी संस्कृति, हमारी सभ्यता, धरोहर एक हिमखंड की तरह है जिसका अधिकांश हिस्सा छिपा हुआ है! या छिपा कर रखा ज्ञ है! जो दिख रहा है या दिखया जा रहा है वो बस केवल आवरण सा लगता हुआ। वो भी एक फरेब सा ही लगता हुआ! सच को झूठ साबित करने का तथा झूठ को सच!
मैट्रिक के बाद जब इतिहास को विषय के रूप मे पढ्ने को सोचा, तो इसका आध्यन करने लगा। विशेष कर भारतीय इतिहास का। तब भी कुछ ऐसा ही लगा था। पूरा भारतीय इतिहास पढ़ गया। पर कही भी भारतीयता नजर नहीं आयी। और विश्व इतिहास मे तो कारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत को किसी और के खाते मे डाल दिया गया सा लगता! ये कैसा इतिहास है? क्या ये इतिहास है या किसी सामाजिक-राजनैतिक विडम्बना का विवरण?
शायद इसी कारण मैंने इतिहास को एक विषय के रूप मे नहीं पढ़ पाया। इसे छोड़ दिया। पर क्या इतिहास को छोड़ा जा सकता है? अगर छोड़े भी तो क्या वो हमे छोड़ देगा! हमारा वर्तमान जब अतीत का प्रतिफलन है, तो इतिहास से कैसे बच सकते हैं? हमारा आज भी उसी कल का हिस्सा है जो था। वो अभी है। ‘था’ ही ‘है’ बनता और ‘होगा’ को तो हमेशा होना ही रहना होता है। आज जो है वो क्या कल के परिणाम स्वरूप नहीं है?
बहरहाल, जे एन यू से निकलते ही नौकरी मिल गई। एक शोध पदाधिकारी की। जबकि मैं पीएचडी नहीं कर पाया था, क्योंकि अंतिम समय मे मेरे शोध का विषय बदल दिया गया। ताकि मै शोध पत्र समय पर नहीं जमा कर पाऊँ। इसका बस एक ही मकसद था: पीएचडी न कर पाऊँ उस विषय पर—इस्राइल, जिस पर वे नहीं चाहते थे।
इसका तान बाना तो तभी से शुरू हुआ जब जे एन यू की अखिल भारतीय परीक्षा मे सर्व प्रथम आया। टापर होने के कारण सभी गाइड चाहते कि मैं पी एच डी उनके साथ करूँ। स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीस के वेस्ट एशिया का टापर था। इस लिए हर कोई चाहता उनके आध्यान क्षेत्र के विषय पर शोध करूँ। ईरान पर शोध करो, तो कोई कहता इराक पर करो। दूसरे गाइड चाहते के मैं ईरान-इराक पर काम करूँ, तो विभागादक्ष्य चाहते कि टर्की पर।
वहीं एक महिला प्रोफेसर चाह रही होती कि सऊदी अरब पर काम करूँ। वो बहुत दवाब डालने लगी। एक दिन मैंने उन्हें बता ही दिया साफ शब्दों मे: ‘मदाम सऊदी अरब पर शोध करने की बात तो बहुत मुश्किल है, वहाँ जाना तक पसंद नहीं करूंगा। अगर कोई करोड़ो भी दे तो भी नहीं। कोई धार्मिक कारण नहीं,… वहाँ किसी बात या चीज़ की आज़ादी ही नहीं लगती!‘
मैं इस्राइल पर शोध करना चाहता। वही एक देश है इस क्षेत्र मे टर्की के अलावा, जहां प्रजातन्त्र है। शेष सारे देश तो सामंतवादी राजशाही और तानाशाही मे आकंठ डूबे हुए होते! पर समस्या कुछ और ही लगती। जवाहर लाल नेहरू विश्वविदायल का पश्चिमी एशिया सेंटर के फ़ैकल्टि मुस्लिम-बहुल था, और वे, साधारण मुस्लिम की तरह कट्टर इस्राइल-विरोधी लगते होते! इस बात का पता तब चल जब मैं पीएचडी नहीं कर पाया।
इस्राइल पश्चिमी एशिया का ऐसा देश है जिसकी सबों से अनबन है। अधिकतर मुस्लिम देश इसे दुनिया के नक्शे से मिटाना चाहते। बक़ौल तारीख, पहले मुस्लिम ने इसरालियों को उनके देश से बेदखल किया। बाद मे इसरालियों ने उन्हे भागा दिया। अब मुस्लिम चाहते कि संसार के मानचित्र पर इस्राइल नामक कोई देश ही न रहे। और इस्राइल चाहता कि कोई फिलस्तीन नाम का।
पर मुझे इससे उतना लेना देना न होता जितना अपने देश और उसके अंतर्राषट्रीय संबंध से। अपने देश के हितों के परिप्रेक्ष्य मे इस्राइल पर शोध करना चाहता। पर मेरे साथी शोधकर्ता इस बात को मानने को राजी न होते। उनका कहना होता कि फिलिस्तीन पर क्यों नहीं किया शोध? इस्राइल पर क्यों?
मैंने उन्हे समझाने की ना जाने कितनी विफल कोशिशें बात एक ही है: चाहे इस्राइल पर शोध करे या फिलिस्तीन पर, शोध तो दोनो पर होगा।
पर विचारों की कट्टरता, अपनी विचारधारा, अपने अंधविश्वास और अपने दरबे, संकीर्णता एवम अपनी सब्जेक्तिविटी मे आकंठ डूबी सी लगती दुनिया! तभी तो टापर होने बाद भी डॉक्टर बनने का सपना अधूरा रह गया! अपने निहित स्वार्थ और विचारधारा मे डूबी फ़ैकल्टि इस तर्क को समझ कर भी नहीं समझ पाती। ऐसा लगता जैसे इस्राइल पर काम कारना वर्जित हो। फिर सहयोगी शोधकर्ता क्या समझ पाते! मुझे पहले से ही अंदेशा हो रखा था: शोध नहीं करने दिया जाएगा। वही हुआ। न मैं पी एच डी कर पाया और नाही डॉक्टर बन पाया।
बक़ौल चाचा गालिब, बड़े बेआबरू हो कर, जे एन यू! तेरे कूचे से निकले! न डिग्री ही मिल पायी न लड़की या जीवन साथी!

१२
कर्मो का फल कहे या संयोग। इसी बीच मेरा चुनाव कारतीय सूचना सेवा मे हो गया। जब ये खबर मिली तो मुंबई मे था। अगर सच बोलूँ तो दिल्ली से ऊबकर मुंबई रहने गया था। पी एच डी का हाल वैसे ही खराब चल रहा होता। उस पर पत्रकारिता के काम मे भी घुटन सी हो रही होती। ऐसा लगता होता: जैसे किसी निरर्थक काम मे लगा हुआ हूँ।
दिल्ली छोड़ दिया। और मुंबई आ गया। इस आश मे कि शायद कोई अर्थ मिल जाय! निरर्थक सी हो चली जिंदगी को कोई वजह मिल जाए। जीने की! बेरंग और उबाऊ रूटीन जिंदगी मे शायद कोई रंग आ जाए! पर यहाँ भी वैसा ही लगता हुआ जैसा दिल्ली मे।
समस्या स्थान परिवर्तन की नहीं थी। यह बात मेरा मन उस समय नहीं स्वीकार कर पा रहा होता। या पता ही नहीं होता शायद। यह मन का विक्षेप ही लगता जो अपनी कमियों, अपने सपनों को न जीने के कारण आ खड़ा हुआ सा लगता।
बहरहाल, मैं दिल्ली लौट आया। और नई नौकरी का पद ग्रहण कर लिया। पटियाला हाउस मे पहली पोस्टिंग हुई। पर मेरी समस्या बनी रही। उधर घर वाले शादी का तगादा करने लगे। इधर मैं शादी नहीं करना चाहता। वे सोचते, शायद मैंने कोई लड़की पसंद कर रखी हो तभी शादी के लिए मना कर रहा थ। पर उन्हे क्या पता मैं शादी ही नहीं करना चाहता। कौन शादी के बंधन मे बंधे!
बहुत पहले से ही तय हो रखा था कि शादी नहीं करूंगा। यहाँ तक कि जे एन यू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीस के एम ए के अंतिम दिनों से पहले से भी! जब अपने बैच के लड़के-लड़कियों के साथ आगामी जीवन के बारे बातें हो रही थी। सभी अपने अपने सपने, अरमान और आगामी कार्य-कलालपों, भावी योजनाओ के बारे मे बातें करते हुए। और एक दूसरे से पूछते हुए। अपनी बताते हुए। जब उन्होने मुझसे पूछा तो, कुछ भी नहीं बता पाया।
मेरे बैच की लड़कियां विशेष कर शादी के बारे मे पूछ रही थी। उनमे से एक ने जब मुझसे पूछा, तो मैंने कहा: शादी? वो तो मैंने सोचा ही नहीं.... क्योंकि मुझे करनी ही नहीं... कौन बंधन मे बंधे?
‘अच्छा! हें! पागल! सारी लड़कियों ने एक साथ कहा। फिर जोड़ा, ‘पागल! तुमसे शादी भी कौन करेगी?’
‘पर जब मैं शादी ही नहीं करना चाहता, तो क्या फर्क पड़ता कोई इस पागल से शादी करे या न करे।‘ तभी हमारे दूसरी साथी ने शिकायत के लहजे मे कहा: ‘आजकल के लड़के प्रपोज़ करना भी नहीं जानते’।
मैं समझ गया। उसका इशारा मेरी तरफ ही था शायद। पर मैं बस इतना ही कह पाया: जिसको प्रपोज़ करना होगा वो करेगा ही। और जिसको नहीं करना है, वो नहीं करेगा।
मेरे इस उत्तर से लड़कियों के बीच चुप्पी छा गई। एक उदासी भरी। शायद ये हमारा आखिरी जमावड़ा था। जे एन यू की सेंट्रल लाइब्ररी के बाजू वाली चट्टान पर। जहाँ से कैंटीन और उससे लगे अरावली की सुंदर घाटी का मनोरम दृश्य दीखता हुआ। बात वही पर खत्म होती हुई। पर पूरी तरह नहीं। दो-तीन दिनों तक शादी और प्रेम पर वार्तालाप और विचार विमर्श चलते रहे। यारों-दोस्तों के साथ भी। और अपने आप से भी। पर अपने आप से कहीं अधिक!
मुझे किससे प्यार है या मेरी गर्लफ्रेंड कौन है? यह मेरे दोस्तों तथा बैचमेट-सीनिरस के लिए उतनी ही पहेली रही है जितनी मेरे लिए। हमारे प्यार की त्रासदी भी कुछ अजीब सी ही रही है! यह त्रासदी कम, कामेडी की सीमा रेखा पर मंडराती दुखांत नाटक सी कही अधिक रही है। जब भी प्यार हुआ एक से नहीं, अनेकों से हुआ। कम से तीन तो जरूर रही। त्रिमूर्ति की तरह!
या कहे हमारा प्रेम डाइलेक्टिकल (वर्तुलकार) रहा है! हेगेल के डाइलेक्टिक्स की तरह: पहली लड़की थेसीस। दूसरी एंटि-थेसीस बन कर आती। पहली वाली के प्यार पर कुठाराघात करती हुई। और तीसरी के आते ही सिन्थिसिस शुरू! यानि तीनों मेरी जिंदगी से चली जाती। किसी चौथी के लिए जगह छोडती हुई। फिर वही सिलसिला।
जब पहलीवाली को पता चलता कि मेरा कहीं और भी टांका भिड़ा है, तो वो चली जाती। यह सुनकर दूसरी वाली भी को भी अक्सर शक हो जाता। और संशय जीवन को नष्ट करता है, तो शक प्रेम को। दूसरी का भी मेरे जीवन से असमय जाने का समय आ जाता। और वो मुझे प्रेम का जानी दुश्मन समझती हुई चली जाती दूर: मेरी जिंदगी से।
और तीसरी को जब पता चलता कि पहली दो के साथ भी प्रेम का खेल खेला जा चुका है। तो वो भी इसे मेरा खेल समझ कर प्यार के बंधन से आज़ाद हो जाती! और साथ मुझे भी मरहूम कर जाती अपने संभावी प्रेम से। मेरे लिए किसी और का प्यार मिलने की संभावना को दूरगामी और दुर्गम बनाते हुए।
पर प्यार कोई खेल नहीं। यह उनसे ज्यादा मैं महसूस करता होता। जब मैं फिर अकेले का अकेला रह जाता! और यारो-दोस्तो के बीच मेरे लिए नफरत बढ़ती जाती। हुस्न-इश्क के दुश्मन की उपाधि बोनस मे मिलती, सो अलग। होता यूं कि एक के प्रेम मे पड़ते ही मेरा दम घुटने लगता। क्या यही प्यार है? क्या एक का प्रेम बंधन नहीं है?
ऐसा सुन रखा था कि प्यार आज़ादी देता है, स्वतन्त्रता प्रदान करता है। पर मुझे उस समय पता नहीं कि अहम, अहंकार और पृथकता से मुक्ति देता है ये प्रेम! जीवन के बंधनो से आज़ादी दिलाता है। यह अस्तित्वपरक स्वतन्त्रता होती है! फिर एक से प्रेम तो प्रतिनिधितव करता है सबसे प्यार करने का। एक के माध्यम से हम पूरी सृष्टि से प्यार करने लगते है!
जैसा कि होता है, अनेकों से प्यार करने वालों का। वही हुआ। जो सबका होता है: उसका कही ठौर-ठिकाना नहीं होता। उसका कोई नहीं होता। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। पर सबसे प्यार कर के, सबके प्रति प्रेम भावना रख कर मैंने जिंदगी को अच्छे से जिया। खूब मस्ती की। कोई बंधन नहीं। कोई आशा नहीं, कोई अपेक्षा नहीं। जो जब मिला, या नहीं मिला उसी को जिया, ऐश किया; जिंदगी के मजे लिए। शायद इसी कारण फेअरवेल के समय सबों ने—सीनियर, जूनियर तथा बैचमेट ने कहा कि मैंने सबसे ज्यादा मजे किए।
हालाकि कभी कभी ऐसा लगता: औरों की तरह मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती! ऐसा तब होता जब कैम्पस मे या गंगा ढ़ाबे पर किसी जोड़े को देखता। या जब कोई ऐसी लड़की दीखती होती जिसे मैंने या उसने गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड बनाने का ख्वाब देखा हो कभी। या जब कोई ऐसी लड़की दीख जाती जिसने मुझे बॉयफ्रेंड बनाने का सोचा हो। पर मेरी आवारा जिंदगी या बेपरवाह व्यवहार से तंग आ कर किस और को बॉयफ्रेंड बना लिया हो। और उसके साथ दीखने पर मुझे जलाने के जलवे दिखा रही होती, तो ऐसा लगता: काश! मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती!
फिर कभी कभी ऐसा होता कि कुछ दोस्त या जो मुझे किसी कारण पसंद करती हो, और वह जब अपने बॉयफ्रेंड के साथ गंगा ढ़ाबा पर बैठी होती या घूमती होती। और मुझे हमेशा की तरह अकेला देखती या लड़को के साथ देखती। तो वो उदास हो जाती या उसे मुझ पर दया आती होती कि मेरी कोई गर्लफ्रेंड नहीं है। तब मुझे अहसास होता, वो भी शिद्दत से, कि मेरी भी गर्ल फ्रेंड होती!
ऐसा उस सुंदर और बहुत ही क्यूट सीनियर, कजाता के साथ अक्सर होता। वह एक बहुत ही बड़े फिल्म निदेशक की पोती थी। अक्सर वह अपने बॉयफ्रेंड के साथ बैठी होती। कैम्पस मे घूमती होती उसके साथ। और मुझे हमेशा की तरह अकेला ही देखती। तो उदास हो जाती। या दुखी हुई सी लगने लगती। तब ऐसा लगता: काश! मेरी भी कोई गर्ल फ्रेंड होती!
पहले तो समझ मे नहीं आता कि वो क्यों उदास हो जाती? कहीं प्यार तो नहीं करती! वो मुझे बहुत पसंद करती होती! देखते ही खुश हो जाती। हमेशा ख्याल रखती होती हमारा। पर जब अपने बॉयफ्रेंड के साथ होती, तो देख कर उदास क्यों हो जाती? ये बात मुझे बाद मे समझ मे आई। जब एक दिन उसने मुझे किसी लड़की के साथ देखा, तो बहुत खुश हुई। पर अगले दिन जब फिर मुझे अकेला पाया, तो उदास हो गई। तब मुझे समझ मे आया।
हमारी एक बैचमेट हुआ करती जो हरेक महीने बॉयफ्रेंड बदलती रहती। उसकी सुंदरता और स्मार्टनेस्स थोड़ा हट के थी। अल्ट्रा मॉड सी पर थोड़ी शर्मीली भी। देश के बड़े पुलिस ऑफिसर की बेटी थी। वह करीब एक सप्ताह तक मेरे हॉस्टल के आगे जासूसी करती रही अपने फ्रेंड और बॉयफ्रेंड के साथ। कभी दिन मे तो कभी रात मे। यह पता लगाने के लिए मेरी कोई गर्लफ्रेंड है या नहीं। पर मेरी कोई गर्लफ्रेंड होती तो उसे पता लगता। बाद मे हम दोनों मे काफी दोस्ती हो गई। पर बात इससे अधिक नहीं बढ़नी थी, सो नहीं बढ़ी।
अक्सर लड़के लड़कियां दोनों पूछते होते: कोई गर्लफ्रेंड नहीं है! जब उन्हे सच्चाई बताता, तो शायद ही किसी को विश्वास होता। किसी को क्या मालूम कि सुंदर लड़कियों से इतना अभिभूत हो जाता कि कुछ भी नहीं बोल पाता! कुछ लोग इसे मेरा शर्मिलापन समझते। दूसरी बात यह होती कि मैं उनसे इतना ज्यादा प्रेम करने लगता कि जल्द ही इससे निकलना भी चाहता! भाग जाना चाहता! क्योंकि वो मुझे प्रेम कम बंधन कही अधिक लगता होता!
इश्क कैसे कैसे मंजर दिखाता है! ये तो आशिक ही जानता है! पर ये कैसा समा होता इश्क़ का: सामने महबूब होता, और उससे इतनी ज्यादा मोहब्बत होती कि वो बंधन लगने लगता!
ऐसा ही कुछ कमीला के साथ भी हुआ। वो हमारी सीनियर हुआ करती। हमारा थर्ड सेमेस्टर था और कमीला का लास्ट। हमने उनको फेयरेवेल भी दे दिया था। वो कनाट प्लेस जा रही थी। मैं भी शायद उधर ही जा रहा होता। शायद अमेरिकन सेंटर लाइब्ररी जाने की सोच कर निकला हुंगा। गंगा स्टॉप पर वो बस मे चढ़ी। और वो मेरे पास वाली सीट पर बैठ गई। मेरा दिल धक धक करने लगा। हम करीब एक घंटे तक साथ बैठे रहे। पर कुछ भी बात नहीं हो पायी!
अब क्या होती! जब दो साल तक नहीं हो पायी। एक बार, जब हम मनाली से लौट कर आए थे, तो कमीला ने हॉस्टल बुलाया। फोटो देने के बहाने। मैं गया भी था। पर इससे पहले की वह गर्ल्स हॉस्टल के विजिटर्स रूम मे आती, मैं जा चुका होता। उससे बिना मिले। इंतजार की घड़ियाँ इतनी भारी हो गयी की महबूबा की गली ही छोड़ आया। हमेशा के लिए!
और फिर कजाता! जे एन यू की सबसे सुन्दर लड़की! उसके साथ पता नहीं कितने मौन प्रेम संवाद हुए। पर उससे कभी एक या दो शब्दों से ज्यादा बात नहीं हो पायी। हाय, हैलो से आगे नहीं बढ़ पायी। जब हम मनाली गए थे यूनिवरसिटि की तरफ से।
तब सोलंग घाटी मे वह मेरे साथ दस मिनट तक चलती रही। चारों ओर बर्फ से ढके उच्च हिमालय! और बीच मे मनोरम और अवर्णनीय सोलंग घाटी! एक सुंदर लड़की--कजाता के साथ घूमते हुए। फिर भी इतनी सी ही बात हो पायी: यू आर वेरी फास्ट। उसने एक मनमोहक मुस्कान दी। और हम फिर चलने लगे। पर कहीं पहुँच नहीं पाए!
बाद मे स्कीइंग करते हुए कजाता के स्नो बूट मे बर्फ के फाहे घुस गए। कजाता के पैर सुन्न होने लगे और वो रोने लगी। सभी उसकी मदद करने लगे। उसके बूट निकाले गए। उसके पैरों पर मालिश की गई। पर मैं बुद्धू सा खड़ा देखता रहा। किंकर्तव्य विमूढ़ सा हुआ! सभी जरूरत से ज्यादा मदद करते होते। और मै? कुछ करने की तो दूर, कुछ बोल भी नही पाया।
सोलंग घाटी मे जाने के पहले, हमलोगों का ग्रुप मनाली के आस पास नेचर वॉक के लिए निकला था। कजाता, कमीला और दूसरे हमसे आगे थे। हिडिंबा देवी के पहले एक खुले जगह पर काफी बर्फ जमी थी। वे बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेकेने लगे। मैं थोड़ा पीछे रह गया था।
जब पास आया तो कजाता को कमीला और अन्य लड़कियों से स्नो मैन बनाने का प्रस्ताव करते सुना। और सबों ने एक साथ इसका स्वागत किया। कजाता ने हम लोगो से कहा: कम ऑन गाईस! ब्रिंग स्नो एंड हेल्प अस। हम सभी स्नौ मैन बनाने मे जुट गए।
कजाता तथा कमीला के नेतृत्व मे स्नो मैन बनने लगा। वो दृश्य, वो समा आज तक भी न भुला! कैसे भूल पता भला! उस पल हम, लड़कियां लड़कियां होती हैं और लड़के तो लड़के, की सीमा से परे एक से हो गए लगते होते! न केवल बर्फ और बर्फ-आदमी बल्कि पूरा समा, सारी कायनात, मानो ब्रह्म हो गए हो! बिना विकल्प के, बिना भेद और भाव के! आनंद की बारिश होती हुई और उसमे सरोबर होतेहम सब!
और फिर जे एन यू के बुद्धिजीवी स्नो मैन बनाते हुए और भी अच्छे लग रहे होते! इसी बीच कुछ वामपंथी इसे बौर्जुयाजी काम की उपाधि देते हुए। कजाता और कमीला ने उन्हे हूटिंग और कैट काल्स से चुप कराती हुई।
और देखते देखते हंसी खेल मे ही स्नो मैन तैयार हो गया। कजाता ने अपना स्कार्फ उसके गले मे डाल दिया। कमीला ने सरोज से सिगरेट ले कर स्नौ मैन के होंठों के बीच मे दबा दिया। फिर कजाता ने अपने बॉय फ्रेंड का हैट उतारा। स्नौमान के उजले गंजे सिर पर रख दिया। मुझसे मेरा सन ग्लास लिया। और उसे पहना दिया। फिर स्नो मैन के साथ फोटो ओप्स शुरू हो गया।
बहुत बाद मे टिवीटर पर कजाता को ढूंढ रहा था। और टिवीटर पर उसके नाम के सारे अकौण्ट्स को फॉलो करता जा रहा था! तब वही स्नौ मैन! वही सनग्लास पहने दिखा था! शायद वो कजाता का ही था। इससे पहले कि उससे मैं संपर्क करता। टिवीटर पर उनके जासूस मेरे पीछे लग गए जिनके खिलाफ सोश्ल मीडिया पर मुहिम चलाया हुआ था।
बाद मे जब टिवीटर पर गया, तो वो नहीं मिल पायी। मैंने भी ज्यादा कोशिश नहीं की। क्या फायदा? शायद फिर उसके सामने कुछ नहीं बोल पाऊँ! मिल कर भी न मिल पाऊँ!
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। एक बार नहीं कई बार हुआ। पर यह उसस पहले की बात है। कजाता ने जे एन यू छोड़ दिया था। पर एक दिन हमारे हॉस्टल आयी थी। वो मुझे दीखी थी और मैंने भी उसे देखा था। वह बहुत अरसे बाद आई थी। मुझे ऐसा क्यों लगा की शायद वह अपनी मम्मी के दोस्त, जो हमारे साथ दिल्ली प्रैस मे पार्ट टाइम संपादक का कम कर रही थी, उनसे अपने बारे मे मेरे विचार सुन कर आई हो।
उसकी मम्मी की दोस्त दिल्ली प्रैस की वुमनस एरा की संपादक थी। और मैं वहीं के अलाइव, इंग्लिश समाचार पत्रिका मे बतौर अंशकालिक संपादक का काम कर रहा होता। जब उन्हे किसी से पता चला कि मैं जे एन यू मे हूँ, तो उन्होने कजाता के बारे मे पूछा: क्या उसे जानता हूँ? जब मैंने कहा कि जानता हूँ, तो उन्होने बताया के वो कजाता की मम्मी की दोस्त हैं। कजाता को बचपन से ही जानती हैं। उनके घर आना जाना लगा रहता।
‘तुम भी तो जानते होगे उसे? उन्होने कहा: अगर कुछ मैसेज देना हो तो बताओ? तुमसे बात तो होती होगी?
‘नहीं मदाम, जानता तो हूँ। वो हमारी सीनियर है। पर इतनी सुंदर है की उसके सामने कुछ भी नहीं बोल पाता।“
उसके अगले दिन ही कजाता जे एन यू मे दीखी। काफी अर्से बाद आई थी। वह जे एन यू छोड़ चुकी थी। एक दो बार और भी दीखी । शायद इस आश मे कि दिल की बात बाहर आ जाए। पर ऐसा हो न सका। फिर कुछ नहीं बोल पाया। एक पल मे सब कुछ खत्म। और जो कुछ बचा भी तो एक टीस, एक दर्द कि कह नहीं पाया। कुछ भी हो न सका!
१३
क्रांति-प्रतिक्रांति
इस तरह से कुछ तय हुआ हमारा जे एन यू की शिक्षा का सफर। न अपने सबालो का जवाब मिला, और ना ही पी एच डी कर पाया। न लड़की मिली न किसी सपनों की शीतल छाया! जहाँ वास्तविकता की कड़ी धूप मे पनाह मिल सके! ना ही कोई विचारधारा रास आई, और न ही किसी राजनैतिक-सामाजिक मुहिम से जुड़ पाया।
बस अधूरी थीसिस, पुष्टि के इंतजार मे कुछ अवधारणा। कुछ अधूरे, अस्पष्ट से स्केच, प्रारूप देश समाज की बदहाली के मद्देनजर। न किसी राजनैतिक दल की जुमलेबाजी रास आई। न ही किसी विचारधारा मे हमारे सबालों का, जो अपने ही देश-समाज कि बददेहाली से ताल्लुक रखता होता। कोई मुकम्मल जवाब मिलता नज़र आया।
जे एन यू के प्रारम्भिक दिनों मे भारतीय वामपंथ से जुड़ा। पर वहाँ कुछ भी भारतीय न पा सका। न देश समाज की बदहाली के मद्देनजर कोई ठोस दृष्टिकोण! आखिर उनकी खोखली, यूटोपियन और आयायित विचारधारा निराश कर गई। और मैं तटस्थ सा हो गया। फिर किसी विचारधारा या दल से नहीं जुड़ पाया। हालाकि कुछ मानते होते कि मैं फ्री थिंकर बन गया। पर वास्तविकता कुछ और ही होती: न जे एन यू शैली का फ्री थिंकर, न यूरोपियन स्टाइल का।
पर बहुत लोग बहुत तरह की बातें करते होते। कोई फ्री थिंकर समझता, तो कोई छुपा हुआ कांग्रेसी या भाजपाई। पर उन्हे क्या मालूम इनमे से कोई नहीं होता। मुद्दा आधारित विचार होते मेरे। और वो अगर किसी दल या विचारधारा के अनुरूप होते, तो इसमे मैं क्या कर सकता! अगर कोई मुझे फ्री थिंकर समझे, या दक्षिणपंथी या वामपंथी, ये उसका प्राधिकार होता। इसमे मैं क्या कर सकता?
पर वामपंथी मित्र और गुरु बहुत ही नाराज से लगे। तरह तरह के अफवाह, प्रोपगण्डा फैली जा रही होती मेरे बारे मे। कोई राइट का गुंडा कहता होता, तो कोई प्रतिक्रियावादी! और न जाने क्या क्या कहते होते। भला क्यों नहीं कहते? वामपंथियों के गढ़ पर पहली बार सेंध जो लगी थी! जे एन यू के इतिहास मे ऐसा पहली बार हुआ! जब वे एक साल के लिए जे एन यू की सत्ता से बाहर हो गए! और उसका कारण मुझे मान रहे होते।
पर क्या कोई व्यक्ति या समूह या घटना किसी इतने बड़ी घटना का कारण बन सकता है! हाँ फौरी कारण (इमिडियट कॉज़) बन सकता है। और बनता भी आ रहा है। पर इससे अधिक नहीं।
कार्य और कारण ऐसे जुड़े हैं जैसे रात और दिन! सुख और दुख, हार और जीत! दिन का अंतिम छोर रात और रात का दिन। जैसे वही सुख बाद मे दुख मे बदल जाता है! और दुख सुख का आगाज होता। कार्य और कारण भी वैसे ही जुड़े है। कारण कार्य को जन्म देता है। फिर वही कार्य अगले का कारण बनता।
इसी तरह के कुछ कारण और कार्य की अनंत शृंखला मे फंसे से लगे होते जे एन यू के वामपंथी। और दोष मुझे दे रहे होते! क्रांति और प्रति-क्रांति के तथाकथित मसीहा! पता होते हुए भी ऐसे दिखा रहे थे जैसे उन्हे कुछ पता ही न हो! घटना या क्रांति या प्रति-क्रान्ति के दो कारण होते है: दूरगामी और तुरंत गामी (इमिडियट और मेडियट)। इस ज्ञान भरी अज्ञानता से वे अपनी तिलमिलाहट का इजहार कर रहे थे। शायद।
विरोध, विद्रोह और क्रांति! जीवन धारा का अनिवार्य हिस्सा! जहां जहां जीवन और उसकी धारा रुकती होती है वहाँ विरोध, विद्रोह और क्रांति। पहले विक्षेप होता है, जैसे सृष्टि के सृजन से पहले स्रष्टा को होता है। जैसे बिग बैंग के पहले हुआ होगा। कहते है विधाता को भी अहंकार हुआ! उनमे मे भी विक्षेप पैदा हुआ। वे भी जीवों के रूप मे इस जीवन का आनंद लेने, हम सब के रूप मे उतर आए! इस संससर मे। तभी वो एक! इस विक्षेप से अनेक बना!
युद्ध, विद्रोह, लड़ाई और संघर्ष! इस जीवन के ही हिस्से हैं! जैसे दिन और रात, दुख और सुख! हिंसा अहिंसा, सत्य और असत्य! एक ही छोर के दो किनारे। हम कभी एक को पकड़ते रहे। दूसरे को छोड़ते रहे। अहिंसा को, सत्य और जीवन का धर्म मान कर कई तमगे तो मिल गए। कई अमरता को प्राप्त हो गए। देश को तथाकथित आज़ादी भी मिल गई। ये और बात है कि गुलामी के सारे कानून, विधि-विधान, प्रशासनिक और राजनैतिक संरचना और मूल्य आज़ाद देश के लोगों पर थोप दिया गया। और इसे बड़े ही चालाकी और चुपके से प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता और अधिकार का जामा पहना दिया गया!
उसके बाद जो हिंसक तांडव हुआ, अभी तक जारी है। चाहे नर संहार के रूप मे हो या जन संहार के। गरीबी, भूख, शोषन, सामाजिक और आर्थिक अत्याचार की हिंसा बदस्तूर जारी है। फिर क्या हुआ उस अहिंसा का जो हिंसा का भीषण और कुत्सित रूप लेकर पूरी मानवता को शर्मिंदा करता आ है। यह हिंसा है या अहिंसा?
वैसे ही जे एन यू मे वामपथ को सत्य मान लिया गया लगता। उस समय।और इस एकांगी सत्य से असत्य और ढोंग का प्रक्षेपन हो रहा था। इस तरह और इतने भोंडे ढंग से कि सत्य की सत्यता पर संदेह होने लगा। तियानमन स्कवेर और गोर्ब्चोव पर जे एन यू के वामपंथियो से पहले से ही मतभेद हो रखा था। उनसे अलग हो गया था। और तटस्थ हुआ नयी जमीन तलाश रहा होता। किसी राजनैतिक पार्टी का नहीं, नाही किसी विचारधारा का। बल्कि अपने देश और समाज के बदहाली के कारण के निमित।
तभी जे एन यू मे एक हंगामा सा बरप गया। पूरा कैम्पस उसके गिरफ्त मे आ गया। हुआ यूं कि दिल्ली पुलिस ने एक कश्मीरी छात्र को गिरफ्तार को किया। वह आतंकवादियों को कश्मीर मे फंड पहुचाने का काम करता था। लंदन से पैसा आता इसके पास और यह छात्र के रूप मे छिपा आतंकवादी पैसे उन तक पहुंचता। वामपंथी इस गिरफ्तार आतंकवादी के पक्ष मे आंदोलन करने लगे। पर तुरंत ही इस आंदोलन कि कुरूपता और विद्रूपता दृष्टिगोचर होने लगी।
उस दिन आतंकवादी के समर्थन मे निकला जुलूस! वैसे तो पहले से ही देशद्रोही और प्रशासन विरोधी था। उस पर से देश विरोधी नारे भी लगने लगे। मुझे भी खबर मिली अपने लोगों से: देश विरोधी नारे लगाए जा रहे है! एक समुदाय और पार्टी के लोग, विशेष कर उछल उछल कर के कारत विरोधी नारे लगा रहे हैं। हमारा खून खौल उठा। और मुझे इस बात पर हैरानी होती हुई: औरों का खून खून ही या पानी, जो खौला नहीं। बचपन से देश और देश के बारे कुछ भी बोले जाने पर मुझे एक तरह का जोश आ जाता था। गुस्सा तो नहीं पर सात्विक गुस्सा माना जा सकता है।
उस दिन हमने 20-25 लड़कों का त्वरित दल बनाया। या बन गया शायद। अकिल नेतृत्व कर रहा है इस देश विरोधी ग्रुप। जब पता चला, तो हम सभी और भी उद्वेलित हो गए। उसकी ये हिमाकत ? इसलिए नहीं कि वह खास धर्म का था। बल्कि वह उस पार्टी का नेता हुआ करता, जो देश को खोखली आज़ादी दिलाने के नाम पर अब तक लोगों पर शासन करती आ रही है। नहीं लूट रहे थे, कहना अधिक सटीक होगा।
हमारा त्वरित दल गंगा ढाबा की ओर बढ़ रहा था। तभी वे इधर आते दिखे। सचमुच वे देश विरोधी नारे लगा रहे थे।
हमारा खून खौल उठा। और हमे टूट पड़े उनपर। जे एन यू स्टाइल मे। बिना हिंसा के हिंसा। यानि हिंसा की धमकी जो एक तरह से अहिंसा ही हुई। चाहे अहिंसावादी इससे सहमत हों या न। इतना तो तय था की हमने हिंसा नहीं की। नहीं तो कब का जे एन यू से निकाल दिये गए होते!
मैंने अकिल का कालर पकड़ कर बोला—अब अगर देश के खिलाफ एक भी शब्द बोला तो ऐसा मारूँगा की सीधा बार्डर पार गिरेगा साला...
और हमारे त्वरित दल के लोगों उन सबों को धक्का मुक्की और गाली दे कर चुप करा दिया। सबों को अपने अपने हॉस्टल मे जाने पर मजबूर किया। और उन्हे यह भी बता दिया गया: दुबारा ऐसा सोचा भी, तो हम भूल जाएगे कि जे एन यू मे है! या कैम्पस के बाहर ले जा कर उन्हे सबक सिखाया जाएगा।
पर उसी दिन मैंने और जनार्दन सिंह, जो दक्षिण पंथी राजनीति मे अपनी जमीन तलाश रहे थे, ने एक संकल्प लिया: इन वामपंथियो को हराना चाहिये। बस शुरू हो गया हमारा ऑपरेशन वामपंथ हटाओ। उसी दिन से। उसी वक़्त से। पूरे हो हंगामे के साथ।
उधर कैम्पस मे सब कुछ शांत हो गया। उस दिन के बाद से। ऐसी ही घटना बाद मे भी हुई थी। जब देश विरोधी नारे लगे। काफी हंगामा हुआ। मीडिया से लेकर संसद मे इसकी गूंज कई दिनो तक सुनाई पड़ती रही। देश विदेश मे इसके चर्चे होते रहे। संसद मे भी इस विषय पर विशेष अधिवेशन भी बुलाया गया। कई गिरफ्तारियाँ भी हुईं। कईयो पर देश द्रोह का मुकदमा चला। बहुतों को जे एन यू से निकाला गया।
एक हम लोग थे! इस तरह की घटना के शुरू होते ही रोक दिया। बात कैम्पस के बाहर तक नहीं गई। एक आज कल के हैं! अगर उन्हे पहले ही रोक दिया गया होता, तो ये नौबत ही नहीं आती। खैर उस दिन से हमलोग वामपंथ हटाओ अभियान पर जुट गए।
और इसी देश विरोधी घटना और विषय को ही अपना मुख्य मुद्दा बनाया। वाम पंथियो के देश विरोधी गतिविधियो और बयानो के चिट्ठे निकाले जाने लगे। क्योंकि यह देश विरोधी गतिविधि वामपथियों ने की थी। हमे उन्हे बैक फुट पर रखने लगे। इस मुद्दे पर।
बड़े जद्दोजहद के बाद हम निष्कर्ष पर पहुंचे: दक्षिणपंथी पार्टी ही वामपंथ से लड़ सकती है कैम्पस मे। ये उस समय की बात है! जब कैम्पस मे काँग्रेस और बीजेपी का नाम लेना भी एक तरह से वर्जित माना जाता। इसे एक प्रकार का टाबू समझा जाता।
पर उस समय हमे दक्षिण पंथी ही सक्षम लगे वाम पंथ को मात देने मे। वे भी विश्वविद्यालय मे अपनी जमीन की तलाश मे थे। बस क्या था हम धीरे धीरे माहौल बनाने लगे। औपचारिक और अनौपचारिक सभा, बहस, वार्ता, संवाद का माहौल गरमाने लगा।
विश्वविद्याल्य चुनाव की घोषणा हुई। हम जी जान से जुट गए। अपने वामपंथ हटाओ अभियान को सफल बनाने मे। इसी देश विरोधी घटना को चुनावी मुद्दा बनाया गया। माहौल पहले से ही गरम रखा गया था। वाम पंथ को हम लगातार बैकफूट रखे हुए थे।
और चुनाव के परिणाम की घोषणा हुई। वामपंथ चारो खाने चित्त! दक्षिणपंथियों ने उनसे तीन 3-1 की बढ़त ले ली। इस तरह पहली बार जे एन यू मे वामपथ सत्ता से बेदखल हुई! यह किसी क्रांति से कम न थी। क्योंकि यह विश्वविदयालय हमेशा से वामपंथियों का गढ़ रहा है। विश्वास ही नहीं होता। ऐसा भी हो सकता है!
पर ऐसा हुआ था। और हम रातो रात नायक और खलनायक दोनो एक साथ बन गए। नायक दक्षिण पंथियो के लिए और खलनायक वामपंथियो के लिए। हमे के एस एस के मुख्यालय बुलाया गया। पर वहाँ ऊंची जाति के लोगो को पहले बुलाया गया। वो पता नहीं क्या खुसुर फुसुर करने लगे। कुछ गुप्त मंत्रना सी हो रही होती। तभी तो मुझे बाहर इंतजार करने को बोला गया।
क्यों अलग थलग रखा गया? शायद छोटी जात हूँ! यादव हूँ! इसलिय तो नहीं बाहर रखा गया। कुछ भी कर लो, इनके मन से जात पात का भूत जाता ही नहीं। यहाँ भी भी भेदभाव। वही उंच नीच! मुझे एक साथ गुस्सा और दुख दोनो होता हुआ। और वहाँ मुख्यालय से भाग आया। और कसम ली कि कभी भी इस भेद भाव वाली जगह नहीं आऊँगा।
पर उन लोगों को बहुत खराब लगा। अगले दिन उनकी बैठक हुई। दक्षिण पंथी दल का नेता, मिश्री जी ने म्रेरे इस व्यवहार की निंदा किया। और मुझे दल से निकालने की अनुषंशा की। मुझे जब पता चला, तो, वहीं कहीं आस पास था, सभा स्थल के पास। जबकि मुझे जान बुझ कर नहीं बुलाया गया था। जैसे ही हमे पता चला, दल बल सहित घुस आया। सभी इस अप्रत्याशित जीत की श्रेय लेने मे लगे थे। और मुझे और जनार्दन सिंह को निकालने की बात कर रहे होते!
मैंने बोला: मुझे भी मौका दिया जाय अपना पक्ष रखने को। तो वे चुप हो गए। जैसे उन्हे साँप सूंघ गया हो! मिश्री तो रिरियाने लगा। उसे एक हल्का सा धक्का दिया। और माइक छीन कर बोलने लगा:
—भाइयों और बहनो! जब आपके दल मे हूँ ही नहीं तो निकालने का प्रश्न नहीं उठता। आप कौन होते हो निकालने वाले? और जब मैं हूँ ही नहीं तो आप क्यों निकलन चाहते हो? क्यों मुझे बेईज्जत करना चाहते हो? क्योंकि मैं यादव हूँ, जिसे आप छोटी जात बोलते हो। जो एक जात नहीं वर्ग है शासको का। जिससे क्षत्रियत्व छीन कर, या क्षत्रियत्व का लोप करा कर, विदेशियों और देशी कबीलों से लड़ा कर उन्हे पदच्युत कर दिया गया। फिर जात च्युत भी कर दिया अब....। मैं बोलता ही गया।
--मैं कभी आपके दल का कुछ भी नहीं था। और मैं आपके दल मे कभी भी... इस जातिवादी और ब्राह्मणवादी दल से कभी भी जुड़ना नहीं चाहूँगा, जहां उंच-नीच और जाती-पाती का भेद भाव हो .... मैं तो अपने देश का अपमान करने वाले और देश विरोधी नारे लगाने वाले वाम पंथियो को सबक सीखना चाहता था। वो काम हो गया.... बस ।
सभी अवाक रह गए। हमारा त्वरित दल रास्ता बनाता हुआ निकल आया बाहर मेरे साथ। उस जातिवादी और उंच-नीच की सभा से। और फिर हमने दूसरा संकल्प लिया: इन संप्रदायवादी, जातिवादी और उंच-नीच की संस्कृति के जनक और पोषक ऊंची जतियों के दल को हराना और हटाना। और जनार्दन सिंह को तो इन ब्रहमनवादियों ने कैम्पस से ही भगा दिया! उसके खिलाफ पता नहीं क्या क्या झूठे इल्जाम लगाए गए।
पूरा कैम्पस दंग सा रह गया था। इस घिनौनी और प्रतिकीयवादी घटना से। फिर दक्षिन्पंत्थयो ने भी गंध मचनी शुरू कर दी। धर्म और जात के नाम पर वो कैम्पस मे खुल कर गंदगी भी फैलाने लगे।
इधर हमारा त्वरित दल कांग्रेस के एक कर्मठ कार्यकता, कनवीर, को तैयार करने लगे। इन संप्रदायवादी और जातिवादी दल से मुकाबले के लिए। पहले उसे तैयार किया गया। और फिर लोगो से उसे व्यक्तिगत समर्थन देने के लिया महौल बनाया जाने लगा। तनवीर अल्पसंख्यक समुदाय का था। पर सबसे बड़ी खासियत थी: वो किसी का भी हाथ-पैर पकड़ सकता था मत के लिए।
बस हम धीरे अगले चुनाव का इंतजार करने लगे। सांप्रदायिक और जातिवादी दल तो गंध फैलाने मे लगे ही थे। कैम्पस का भी माहौल खराब होते जा रहा था। उधर कैम्पस की सत्ता से बाहर हुआ वाम पंथ फिर से राजगद्दी वापिस लेने को आतुर था। इसके लिए सब तरह हथकंडे भी अपना रहा था।
वाम पंथी भी हमसे समर्थन मांगने आए थे। उन्होने चन्द्रशेखर जी को भेजा था। वही चंद्रशेखर जिन्हे सीवान मे जन आंदोलन करते समय सामंतवादी और प्रतिक्रियावादी तत्वो ने शहीद कर दिया था। उसी दिन पता चल वे सीवान के ही है। उन्होने बताया भी था कि वे अगले साले से सीवान मे जन आंदोलन करने जा रहे है। मैंने उन्हे आगाह भी किया था कि अपनी सुरक्षा का इंतजाम पुख्ता रखना। वे लोग जिनके खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, बहुत खतरनाक है। उन्होने सुनी नहीं और शहदात को प्राप्त हो गए।
तब चन्द्रशेखर जी ने जनार्दन सिंह और मेरी अवमानना का हवाला दिया। और चिंता जाहीर की: कैसे दक्षिणपंथी ताकते विश्वविद्यालय का माहौल खराब करती जा रही हैं। उन्होने यह बताने मे कोई हिचकिचाहट नहीं हुई के हमने ही उन्हे जीताया। और अब हमारा नैतिक कर्तव्य बनता है कि उन्हे हराया जाए। और हमे हमे राजी कर लिया।
पर हम उन्हे अध्यक्ष, जो हम कनवीर को बनाना चाहते थे, को छोड़ कर सारे पदों पर समर्थन के लिए राजी हो गए। हमारा दल ऐसा कोई संघटित दल नहीं था। पर हम जे एन यू के कुल मतो मे से आधे से भी अधिक पर प्रभाव रखते थे। इस तरह हम उनके खिलफ़ा मोर्चे बांधने लगे। जनमत भी उनके खिलाफ होने लगा था।
और अगले चुनाव मे ऐसे हारे कि अगले एक दशक तक खाता तक नहीं खोल पाये। बस हमारा मिशन सफल हुआ। और मैं कैम्पस की राजनीति से अलग थलग रहने लगा। लोग अब भी आते मत मांगने। समर्थन मांगने। पर धीरे धीरे इन सबों से दूर होते गया। और एक दिन कैम्पस से कूच कर गया।

१४
जब जे एन यू से निकलना! जैसे एक युग का अंत होता हुआ हो! लगभग एक दशक का सफर रहा जे एन यू का। शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, वाद-विवाद, देश-समाज-दुनिया के प्रति वादों और कसमों का। ऐसे बीता जैसे कल की बात हो!
कभी मार्कस्वाद, तो कभी समाजवाद, तो कभी लोहियावादी। तो कभी मानवीय पूंजीवाद या सामुदायिक पूंजीवाद। फिर अल्बर्ट कामू। फ्रीथिंकर—जे एन यू की तरह। फिर इन सब से निराश होना। शायद मेरे सबालो का जवाब नहीं मिला। कभी दक्षिणपंथियों से फ्लर्ट किया तो कभी वामपंथियों से। फिर भी बात नहीं बनी।
कोई लेफ्ट का गुंडा कहता, तो कोई राइट का मसलस्मैन। कोई छुपा हुआ काँग्रेस वाला कहता। तो कोई हेप फ्रीथिंकर। और कोई कोई तो पटना का गुंडा भी कहता! एक तथाकथित दोस्त था मेरा। एक दिन उसने सेंट्रल लाइब्ररी मे मेरे पास वाली सीट पर कंगना को बैठेते देखा। जब वह किताब लेने डेस्क पर आई, तो वो भागता हुआ कंगना के पास आया। और बोला: अरे वो तो पटना का गुंडा है।
ये बात मुझे सेंट्रल लाइब्ररी के डेस्क क्लर्क ने बतायी। तब मुझे पता चला: कंगना क्यों मेरे बाजू से तुरंत उठ गई। और दूसरे सीट पर चली गई। ये अलग बात है कि इसके बावजूद कंगना उसे नहीं मिल पायी।और मैंने तो चाहत ही छोड़ दी। उस दिन चाहा था: वो बैठे मेरे पास। पर वह चली गई। बस उस दिन के बाद से किसी भी तरह के चाहत से डर लगाने लगा।
पर वो खोज जो पटना कॉलेज या उससे पहले नालंदा के एक स्कूल से शुरू हुई। और जे एन यू मे स्पष्ट हुई। वो भी मोटे तौर पर। वो खोज जारी रही। कोई अंजाम तक नहीं पहुँच पायी थी तब तक। न कोई विचारधारा, न कोई सुबह का तारा, न लोडस्टार ही मिल पाया: क्योकर हमारा देश-दुनिया और समाज ऐसा है!
‘बाबूजी, आप कहाँ से आए हैं? जब तारादेवी यूथ हॉस्टल के केयरटकेर ने पूछा तो मेरी तंद्रा टूटी। ‘दिल्ली से आया हूँ.... यों ही घूमने।‘
तारादेवी हिल्स के यूथ हॉस्टल के पहाड़ के अंतिम छोर के चट्टान पर बैठा हुआ। वहाँ से शिमला और मध्य हिमालय के सारे पहाड़ दिख रहे होते। उच्च हिमालय के धौलधर! चंबा-डाल्होजी से परे पांगी घाटी के पहाड़! सुदूर क्षितिज पर अपनी धुंधली सी पहचान बताते से नज़र आते होते। जैसे आगत जीवन अपनी आकांक्षा, अपने अपने सपने गुनने की अदृश्य तासीर छोड़ते रहता है। और विगत दफन हुए, दबे कुचले, मसल दिये गए अरमानो, हसरतों और ख्वाहिशों की धुंधली तस्वीर!
यूथ हॉस्टल के केयरटकेर के जाने के बाद फिर खोता हुआ अपने आप को। उन वादियों मे! ऐसा लगता जैसे पूरा जीवन ही उतर आया हो। चुपके-चुपके शायद उन पहाड़ों और घाटियों के बीच से कहीं! मन अतीत की वीथियों मे इस तरह भटकते होता जैसे कोई पागल शहर मे!
कल ही दिल्ली से ट्रान्सफर ले कर शिमला आया था। और सुबह होते चला आया शिमला से पंद्रह किलोमीटर दूर यहाँ तारादेवी हिल्स। क्यों? उन्नीस साल पहले मैं पहली बार आया था यहां। एक अखिल भारतीय कैंप मे भाग लेने। पंजाब रेड क्रॉस ने आयोजित किया था।
पर यहाँ तड़के आने का कारण समझ मे नहीं आ पा रहा था। कुछ तो बात थी जो मुझे यहाँ खींच ले आई। शायद कुछ सोचना चाहता हूँ! अपने अतीत और माजी मे कोई सुराग, कोई रोशनी ढूंढ रहा होता। भावी जीवन मे जिजीविषा का कोई अर्थ!
अतीत पर ही तो वर्तमान खड़ा होता है! और फिर भविष्य! माजी की नीव पर वर्तमान का महल तैयार होता। और भविष्य का पेंटहाउस! कुछ लोग अतीत और इतिहास का मज़ाक उड़ाते हैं। तो कुछ वर्तमान को ही सब कुछ मानते हैं! इसमे जीना ही जीना है!
पर अगर देखा जाय तो वर्तमान भी नहीं होता, अगर अतीत नहीं होता। पर वर्तमान तो होने मे लगा है। जो है उसे नकारते हुए कुछ और होने मे लगा है। और भविष्य तो है नहीं। वो तो हमेशा भविष्यत ही होता रहता है!
फिर क्या बचा? एक शून्य, एक अवकाश! और अनंत आकाश कुछ नहीं का। और इस कुछ नहीं (शून्य व नथींगनेस ) को माया या मृगमरीचिका भी कहते हैं! क्योंकि इसे पकड़ने मे पूरा जीवन बीत जाता है! पर हाथ कुछ भी नहीं आता! फिर भी जीवन है ये! और इसको जीना मात्र ही जिंदगी है!
उस दिन तो मैं सुबह होते ही निकल पड़ा था। शिमला से पंद्रह किलोमीटर दूर शोघी पहुंचा। वहाँ से तीन किलोमीटर ट्रेक कर तारा देवी। यहाँ मैं तब आया था जब मैं दसवीं मे था। इतने सालों बाद यहाँ क्यों कर आया था? शायद मेरी जिजीविषा खींच लायी। तभी शायद इतने अंतराल के बाद यहाँ आना हुआ।
कल ही बर्फवारी हुई था। पूरी फिजा बर्फ के रुपहले उजाले मे डूबी हुई सी! सूरज की सुनहरी रोशनी मे शुभ्र धवल बर्फ से लदे पर्वत शिखर चमक रहे होते! और मैं तारा देवी हिल्स के आखिरी छोर के शिलाखण्ड पर घंटो बैठा रहा।
उन चंद घंटो मे पूरा जीवन! एक युग सा उतर आया हो मानो! यूं लगता हुआ, जैसे उन स्वर्णिम उजाले मे लिपटे पर्वत शिखर से चहुं ओर घिरे सुंदर वादियों मे पूरा जीवन ही उतर आया हो! कहीं यही जिंदगी तो नहीं! पर जीवन सपना तो नहीं!
और मैं! अब तक के जिए अपने जीवन की फिर से जीता रहा! सुखो को दोहरता रहा! सपनों को सहलाता रहा। दुखों को सिलता रहा। जख्मों पर मरहम पे मरहम लगाता रहा। वो लम्हे जो पल नहीं बन पाये, वो पल जो समय धारा मे मिलने के पहले ही गुम हो गए! उनको फिर से जीने की असफल कोशिशें करता हुआ सा!
क्या वो सब मैंने ही जीया? वो खुशी के क्षण! तथाकथित दुखों के वे दिन! उस समय खराब लगते होते! पर जिन खुशियो की वे वजह बने, उनके आगोश मे अब गुम हो गए से लगे। और एक प्रश्न खड़ा कर गए: सचमुच वे दुख ही थे या और कुछ?
वो संघर्ष के दौर! आशा और निराशा के बीच झूलता सारा वजूद। वो पहाड़ से दिन! वो जागी-जागी सी ऊँघती रातें! पत्थर से भारी लगते दिन! तो फिर कभी सपनों से फिसलते दिन! क्या वो सब मैंने जिया! गुना, या बीता मुझ पर? क्या मैं था? अगर वो मैं था, तो ये कौन है जो उन्हे देख रहा है! अगर वो दूसरा न था मैं ही था वो अभी क्यों नहीं है? अभी नहीं है, तो विश्वास ही नहीं होता कि कभी था भी! पर वे सब थे तो जरूर! तभी तो याद रहें!
कुछ कुछ उलझ सा गया। अस्तित्व के उलझन मे। जीवन हमे अक्सर डालता ही रहता है! पर इतना तो पता चल गया कि सब कुछ हो जाता है! सब कुछ गुजर ही जाता है! हम बेवजह अपने आप को बीच मे ले आते शायद! हमारी स्थिति कुछ कुछ टिटहरी जैसी होती: कभी न गिरने वाले आकाश को अपने नन्हें पंजों से रोकने की हास्यास्पद धृष्टता! पर वो तो पैरों को गगन की ओर कर सोती ही रहती। अपनी पूरी जिंदगी। इस डर से: अगर अंबर गिरे तो अपने नन्हें पैरों से रोक लेगी! अपने ऊपर गिरने से!
मध्य हिमालय के शिवालिक पहाड़ों के बीच बैठा सोचता हुआ। अपने को देखता हुआ एक दर्शक की तरह! कहाँ गए वो डर! चिंता, शक और सुबा कि ये होगा या वो होगा! वो सब मन के वहम ही तो लगते होते। दिमाग और मन की अथक कसरत! और उसमे पल पल खोती जिंदगी! पर वो कौन होता जिसने ये सब फालतू की बाते सोची होती? फिर वो कौन होता जो इन्हे सच मानते हुए जीता होता? क्या दोनों एक ही है या अलग?
अगर एक होता, तो दो नहीं दीखता! पर एक नहीं होता तो याद भी नहीं होता। किसने याद रखा? उसी स्व ने जो भोगता रहता है सब कुछ? पर उसके अनवरत भोग के बारे मे किसे पता होता है—भोक्ता को या द्रष्टा को! पर वो तो अभी कही नहीं है! और दीखता भी नहीं है कहीं और कभी भी! फिर किसने याद रखा? कौन है जो दर्शक की तरह देख रहा है? चाहे हुए का न होना और न चाहते हुए चीजों का होना! इसमे हमारी सत्ता कहाँ है? किसके पास? कार्य या कारण? आत्मा या निज स्वरूप?
उधर सूरज की किरने पूरी घाटी को अपने लाल रंग मे समेटने लगी। शाम होने की खबर देते हुए। अब चलना चाहिये, यह सोच कर उठ पड़ा।
और चल पड़ा वापिस शिमला की तरफ। पहले से हल्का, और नए आत्मविश्वास से भरा हुआ। जैसे जीवन जीने की कोई नयी वजह मिल गई हो! बेवजह और बिन मांगे! जैसे कि आनंद की बारिश होती रही हो! और इसका पता अभी अभी चला हो!

1५
बांसुरी-वादक
तारा देवी वाले पहाड़ से दिखते मध्य एवम उच्च हिमाल्य के बर्फीले पहाड़! उनके मध्य मे स्थित मनोरम घाटी के बीच बीते वो तीन घंटे! अब तक मुझे प्रेरित करते होते। जीवन को नए परिप्रेक्ष्य मे जीने के लिए। जैसे अस्तितव ने नए सूत्र दिये हों: मैं एक बांसुरी हूँ!
और बस यही बना रहा हूँ। बांसुरी जिसे बजाने वाला वही जीवन शक्ति है! अलग अलग नाम से जाना जाता है! अपना धर्म और कर्म तो बजना है। चाहे जैसे भी सुर निकले, गीत संगीत बजे या कोई जीवन तांडव! बस बजते रहो। बांसुरी की तरह!
कुछ दिन बड़े ही अच्छे बीते। पर देखते देखते जीवन परिदृश्य तेजी से बदलने लगे। वो बजने वाली बांसुरी खुद ही बजाने वाली बन बैठी! कब, कैसे और क्योंकर, पता ही नहीं चल पाया! वो द्रष्टा जो तारादेवी मे मिला, कब दृश्य बन गया! खबर तक भी नहीं हुई। यहाँ तक कि खुद को भी नहीं! और जीवन के दृश्य तीव्र गति से भागने लगे! और भगाते भी रहे! इधर उधर, यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ! फिर कहीं नहीं। कभी भी नहीं। द्रष्टा दृश्य मे ही खो गया!
नौकरी मिलने के बाद शादी की काशमश शुरू हो गई। जबकि शादी नहीं करना चाहता। पहले ही सभी से प्रेम करने के चक्कर मे किसी का भी प्यार नहीं मिल पाया था । जिससे प्रेम किया वो मिली नहीं। जिसने मुझसे किया उसको भी नहीं मिल सका! इस तरह प्रेम की असफल शृंखला कब जीवन शृंखला मे शामिल हो गयी , पता नहीं चला।
पर जब सामना जीवन की सचाई से हुआ, तो फिर वही सब कुछ हुआ जो होते आया है! हो कर भी न होना। और न होते भी होना सा लगता हुआ। एक बात और जो शायद मेरे साथ ही होता आया है। शायद औरों के साथ भी होता हो! या हुआ हो! पर मेरे लिए एक पहेली से कम नहीं।
यूं कहें प्यार का दुख भरा सुखांत! या दुखांत का सुख भरा प्रारम्भ! कामेडी कम पर दुखांत टुकड़े कुछ ज्यादा ही बिखरे पड़े मिलते हुए! जब जब जिसकी भी चाहत उठी, तब तब कुछ ऐसा हुआ कि प्रेम सफल नहीं हो पाया। जब जब किसी लड़की से प्रेम के इरादे से दोस्ती करनी चाही। ऐसा कुछ हो जाता: उससे बात नही बन पाती। वैसे तो प्रेम करनेवाले यार और दोस्त मिलते ही रहे है! पर जब कामना जागी किसी की, चाहत उठी जिसकी, वो नही मिल पायी।
ऐसी बात भी नही है कि केवल मेरे साथ ही हुआ। ऐसा अक्सर होता रहा है लोगों के साथ भी: जो चाहते हैं, वो मिलता नही। और न चाहते मिले हुए अनचाहे को जीना पड़ता है! कही यही जीवन कि सच्चाई तो नहीं! विरोधभास सी लगती हमारी जिंदगी ही तो जिंदगी न हो कहीं! शायद जीवन, अस्तित्व का कोई इशारा छुपा होता हुआ हो! शायद बहुत अहम होता है।पर चाहे को न मिलने और अनचाहे को चाहने की जद्दोजहद मे जिंदगी बेमानी हो जाती है। एक तरह की लड़ाई शुरू हो जाती है हमारे अंदर। और बाहर भी।
इसी बीच एक हादसा हो गया। पत्रकारिता संस्थान के मिश्रा जी, जो हमारे साथ थे, ने शादी कर ली, अरेंज्ड शादी। माता पिता की पसंद से। उससे शादी नही कर पाए जिससे प्रेम करते। पर जिससे से शादी की उसे चाह नही सके। और उससे संबंध बिगड़ते गए। और मार पीट भी होने लगी। शक-सुबा, दारू और यहाँ तक की हाथापाई भी हो जाती! और बस एक दिन मार पीट मे मिशराजी का देहांत हो गया। एक दो को छोड़ कर सारे राष्ट्रीय समचारपत्रों का फ्रंट पेज हैड्लाइन्स भी बना था।
सुन कर बहुत दिनों तक मन खराब रहा। कुछ दिनों तक शादी का फैसला टल गया। पर कितने दिनो तक टल सकता था। धीरे धीरे शादी की वास्तविकता जरूरत बनती गई। हजारों साल से चली आ रही वैवाहिक संस्था। इसकी अहमियत को नकारा जा सकता है भला! इसके साथ व्यक्तिगत स्तर पर इसकी जरूरत महसूस होने लगी थी। और फिर एक दिन शादी हो गई।
पर शादी के होने के पहले तथा उसके बाद की स्थिति! जैसे जमीन आसमान का फर्क। इतने अजीब कि विश्वास ही नहीं होता! यह जीवन का अहम हिस्सा भी है! इतना की हरेक कोई अधूरा होता है शादी बिना। पर इसके दहेजीकरण, जातिकरण और एक तरह से व्यापार बनना कितना गलत है। एक तरह से ही नहीं कई मायनों मे। समाज-परिवार के रिश्ते और मूल्यों को ह्रास और विघटन की ओर ले जा रहा है। कैसे कैसे यातना परक अहसासों और स्थिथितियों-परिस्स्थितियों, अजीबोगरीब चलन और रिवाजों का सामना हुआ।
वैसे भी तो अमानवीय और क्रूर दहेज व्यवस्था की बलिवेदी पर अनगिनत बेटियाँ,बहुएँ, बहने जलती रही हैं। कितनी ही जल गई और न जाने कितने को जला दी गईं। फिर दहेज की अग्नि बुझी नहीं है। अभी भी जल रही है।
दहेज विरोधी तो हमेशा से रहा। पर समाज दहेज न लेने वाले के बारे मे पहले ही मान कर चलता है: कुछ ऐब होगा। कुछ कमी होगी तभी विरोध हो रहा है। समाज सुधारक बन रहा है! पर दहेज बाज़ार मे अपना रेट बढ़ने लगा। अब इसकी मांग और आपूर्ति शृंखला होती तो है एकांगी । दहेज लेने वाले की क्षमता है: कितना लूट सके लड़की वालों से। और लड़की वाले लुटवा सके।
पर हम भी कम नहीं निकले किसी से! इस दहेज व्यवस्था के सारे मोहरों और प्यादो को उलट पुलट कर दिया। और अपनी पसंद की लड़की और अपने आदर्श- अंतरजातिय विवाह कर लिया। उसकी गूंज बहुत दिनों तक सुनाई पड़ती रही।
खैर, शादी होते ही बच्चे भी हो गए। और शिमला से वापिस दिल्ली आना पड़ा। एक दुर्घटना के कारण। और दिल्ली आना, वो भी गर्मियों मे और उसपर शिमला जैसे ठंडे और कूल सिटी से। ये शायद प्रकृति का सम करने का काफी संदेहजनक कार्य लगता! तभी तो शिमला भी गया जनवरी मे। जिस दिन शिमला आया था दिल्ली से, उस दिन खूब बर्फ गिरी। और मैं डर गया था। पहली बार बर्फ गिरते जो देख रहा होता!
और शिमला से वापिस दिल्ली आना भी हुआ तो मई मे! उसके अगले दिन जब मीरा बाग के बैंक से निकल रहा था, तब दिल्ली की गर्मी, ट्राफिक और भीड़ देख कर लगा: कैसे कटेगी जिंदगी! वही शहर है! जो कभी सपनों का शहर हुआ करता जब मैं पटना से आया था। पर शिमला से आने के बाद यहाँ जिंदगी पहाड़ सी मुश्किल दीखने लगी।
पर धीरे धीरे दिल्ली मे समंजित होने लगा। नौकरी भी ठीक से चलने लगी। पर फिर से बोरियत का अहसास होने लगा। अब उस खोज को, जो बचपन से शुरू होकर, दिल्ली के जे एन यू मे घनीभूत हुई, शुरू करने का समय आ गया था शायद।
जे एन यू मे दो तीन मुद्दों और उनके कारणों पर कुछ काम किया था। कुछ ऐतिहासिक, वैशविक एवम संस्थागत कारणो को चिन्हंकित किया था। पर कुछ स्पष्टता न आ पा रही थी। हमारी समस्या भी इतनी जटिल है कि इनका निवारण उतना ही जटिल है जितना की विश्लेषण। उस पर सैद्धांतिक बहुतायता तथा सिद्धांतों के भीड़ जो समस्या को कम देखते होते, अपनी व्यक्तिगत और संस्थागत हदों और बंधनों से जकड़े ज्यादा होते।
अगर सच पूछे तो, दिल्ली से शिमला गया था सिर्फ यह तय करने मैं क्या करना चाहत हूँ। अब जब पता चल गया था कि क्या करना है। उनको जीने की कोशिश करने लगा। नौकरी के साथ वो खोज भी चलती रही। जमीनी स्तर पर-मुहल्ला, क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों के जरिये औपनिवेशिक व्यवस्था की विद्रूपता का पता चलता रहा। यह भी पता चलता रहा कि किस तरह इनके तार ऊपर तक जाते। ये सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक गोलबंदी के परिणाम लगते होते।
धीरे-धीरे पता चलने लगा: औपनैवेशेविकवाद अभी भी पूरी तरह से हावी है।चाहे वह छिपा हो, जुमलो और आधुनिक अवधाराणाओं के बीच! जड़े तो खोखली करता आ रहा है पहले की ही तरह। औपनेवेशिकवादी शक्ति ने जो राजनैतिक और सामाजिक ‘एलीट’ तैयार किया था। और जिनको सत्ता दिया था देश छोड़ने के पहले, उन्होने उन संस्थाओं एवम मूल्यों को बड़े चालाकी से प्रतिरोपित कर रखा है: इनका पता भी नहीं चलता।
सत्ता हांस्ततारण हुआ। एक विदेशी लुटेरी सत्ता और उसके सारे कानून, संस्था, मूल्य देशी शासकों के पास चले गए। इसे आज़ादी का नाम दिया गया। पर औपनोवेशिक लूट और शोषण जारी रहा। उनके कानून, धारा, एक्ट! यहाँ तक की पूरी लूट की संस्कृति को जनता की सेवा मे लगा दी! ताकि लूट और शोषण का सिलसिला जारी रहे। और इसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ जब हमने जमीनी स्तर पर काम करना शुरू किया।
एक बार अगर कोई जन प्रतिनिधि चुन लिया जाता और सरकारी कर्मचारियों का चयन हो जाता उसके बाद उनपर प्रभावकारी नियंत्रण नहीं रह पाता। वे सेवक नाम मात्र के होते है! असल काम तो शासन का है! विपक्ष और सतर्कता संस्था इन पर कोई ठोस और प्रभावी नियंत्रण नहीं रख पाती। न कोई निश्चित जवाबदेही न जिम्मेवारी! बस अबाध शक्ति और सत्ता का अबाध प्रयोग! बिना किस जिम्मेवारी के। यही मूल है नव-उपनिवेशवाद व उपनिवेशवाद का
इस दिशा मे खोज और शोध शुरू कर दी। एक ऐसी संस्था या व्यवस्था जो जो इन पर प्रभावी निगरानी और नियंत्रण रख सके।
उस समय राजनैतिक औडिटिंग की चर्चा भी चल रही होती। अकादमिक और गैर-अकादमिक क्षेत्रों मे भी इस पर चर्चा हो रही होती। पर अभी यह प्रारम्भिक दौर मे ही था। अवधारणा के स्तर पर ही। उसका प्रारूप अभी बनना ही शुरू हुआ था कि पापा का देहांत हो गया।
पापा के देहांत का बाद तो जिंदगी मानो ठहर सी गई हो। ऐसा लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया। पर पापा के जाने के एक सप्ताह के अंदर ही बेटी रत्न की प्राप्ति हुई। जीवन के आवागमन, इसकी क्षणभंगुरता के बीच इसके निरंतरता का अनुपम उदाहरण दिया अस्तित्व ने! बेटी का जन्म और पापा का जाना मानों एक ही जीवन शृंखला का तार्किक प्रतिफलन हो!
जो आता है वो जाता भी है है। पर किसी न किसी रूप मे आता भी। कुछ तो है अस्तित्व के स्तर पर जो बना रहता है। इन सारे आवागमन, उठा पटक, भागमभाग और आपा धापी के बीच!
बेटी के होने पर मुझे इतनी खुशी मिली जितनी याद नहीं! क्योंकि ऐसी खुशी पहले नहीं मिली। पर याद नहीं इतनी खुशी कभी मिली हो जितनी बेटी का पिता बनाने पर। पापा के जाने के तुरंत बाद इतनी बड़ी खुशी! विश्वास ही नहीं हो रहा होता। कभी कभी ऐसा लगता जैसे पापा के साथ न्याय नहीं कर पा रहा हूँ! फिर ऐसा लगता, कहीं पापा ही तो मेरी बेटी के रूप मे तो नहीं आ गए!
तभी तो ऐसा लगता जैसे पापा का देहांत हुआ ही नहीं! कुदरत, अस्तित्त्व भी कैसे कैसे खेल खेलाता रहता है! कभी तो खुशी खुशी नहीं लगती। मजबूरन खुश होने का नाटक करना पड़ता है। कभी चाह कर भी खुशी नहीं मिलती, तो कभी बिना वजह खुशी और आनंद की बारिश होने लगती है। और कभी ऐसे ही सब कुछ बुझा बुझा सा लगता है। छोटी सी वजह से मन दुखी हो जाता है। कभी बड़ा दुख भी वैसा कुछ नहीं लगता, तो कभी बड़ी खुशी भी खुशी नहीं लगती!
पहली बार बेटी को गोद मे लिया! वो सुख मिला वैसी अनुभूति मिली जो शायद ही शब्दो मे समा पाए! उसने पूरे एक घंटे तक दुनिया भर की बातें की। पता नहीं किस किस दुनिया की अनेकों भाषाओं मे। विचित्र सी आवाजें निकाल निकाल कर: कभी किलकारियाँ, तो कभी चीख चिल्ला कर। उस पूरे एक घंटे मे नन्ही सी बिटिया ने न जाने कितने जन्मों की कहानी कह डाली मानो! पर समझ नहीं पाया। उसने तो समझाने की भरपूर कोशिश की। अपनी भाषा मे। अब यह साबित हो चुका है कि बच्चों की अपनी भाषा होती है। वे तो समझाने कि कोशिस करते हैं, पर हम समझ नहीं पाते हैं।
बेटी के आते ही पापा के जाने का गम काफ़ूर हो गया सा लगा। घर तो क्या पूरे जीवन की बगिया महकने लगी। पर पत्नी को किसी पाखंडी पंडित ने बताया की बेटी का 24 तारीख को जन्म होना अशुभ है। यह हरेक चौबीस दिन पर कोई न कोई मुसीबत लाएगी? पत्नी बहुत चिंतित थी। मैंने उसे समझाया यह पुरुष प्रधान समाज का नारी पर अंकुश लगाने के कई हाथ कंडो मे से एक है। बेटी का आना अशुभ है, वह अपवित्र है, अबला है।
समाज-पितृसत्तातमक-- इसी तरह के हथकंडों से औरतों को दबा कर रखता रहा है! उन्हे बताया जाता रहा है: तू लड़की है, कमजोर है; अपवित्र है, अशुभ है। इस तरह की हीन ग्रंथियों को उन मे भरा जाता है। बचपन से ही। ताकि उनको दबाना, उन पर नियंत्रण रखना आसान हो सके। इस तरह बेटीयां पैदा नहीं होती! बल्कि बनाई जाती है जैसा कि सिमोन दी बौवा ने बहुत पहले ही बोल दिया था: औरतें पैदा नहीं होती, बनाई जाती है!
माँ-बहनो को कहा जाता: तुम औरत हो। इस लिए ये हो, वो हो, ये कमी; उस मामले मे अपवित्र। और इस मामले मे अशुभ, तो उस मामले मे कमजोर! जैसे बेटियों के संदर्भ मे किया जाता रहा है।पर हकीकत है: ये सब हथकंडे हैं औरत पर नियंत्रण रखने का। बचपन से उन्हे मानसिक व शारीरिक रूप से कमजोर किया जाता है। पर हमने तय किया कि बेटा-बेटी मे कोई फर्क नहीं करेगे। उनको बराबरी का अधिकार और सम्मान देंगे।
बेटी के होने की खुशी मे पापा के देहांत का गम भूलने ही लगा था की माँ गुजर गई। इस बार तो ऐसा टूटा की कई सालों तक अपने बिखरे वजूद को चुनता रहा। जीने की इच्छा एक संघर्ष सी लगने लगी। जीवन की निस्सारता और क्षणभंगुरता का पहली बार अहसास हुआ। ऐसा कहा गया है कि अस्तित्व या भगवान या प्रकृति माता-पिता की मृत्यु के द्वारा पुत्र-पुत्रियों को जीवन की नश्वरत और क्षणभंगुरता का अहससस दिलाता है। ताकि वे इसे समझ कर जीवन को उसके पूरेपन मे जीएँ!
मैं भी धीरे धीरे अध्यात्म की ओर झुकने लगा। गीता का फिर से अध्ययन करने लगा। उद्धव-गीता मे कृष्ण-उद्धव संवाद पढ़ते समय एक पैरा मेरे जीवन का आप्त वाक्य बन गया। उस पैरे का यह सार है कि अपने माँ-बाप की मृत्यु से बच्चों को जीवन की क्षणभंगुरता और निस्साररता का पता लगता है। और उन्हे इससे सीख ले कर जीवन को उसके सही परिदृश्य मे जीना चाहिए।
इस तरह मैं फिर से जुट गया जीवन को नए सिरे से जीने मे। पर बिखरे जीवन की बिखरी चिन्दियाँ चुनने मे काफी परेशानी हुई। रोज़मर्रे के जिंदगी के साधारण क्रिया कलाप और गतिविधियाँ भी बेमानी सी लगती। पारिवारिक और घरेलू मामलों से भी कुछ विरक्त सा हो गया लगता। जी रह था बस इसलिए कि जीना पड़ता है! साँसे चल रही थी। परिवार था, बेटी थी, बेटा था। अपने लिए न सही, इनके लिए ही तो जीना था।
१७
राजनीति की राजनीति
देहांत या मृत्यु की भी राजनीति होती है! जैसे मृत्यु या इसके डर पर पूरा एक व्यवसाय होता है! और इस देहांत की राजनीति की शुरुआत होती है इसके होते ही। और काफी लंबी खिचती है। लोग भी कुछ अजीब ही हैं! अपनों के मरने के गम से कही अधिक अधिक खुशी होती है धन, जायदाद, हिस्सा मिलने की। और लोग पूछते भी हैं अक्सर: पापा गुजरे या मम्मी, चलो धन और हिस्सा तो मिलेगा कम से कम...। बाकी आना जाना तो लगा ही रहता है। ऐसा बोला भी जाता है कि लोग अपने माँ-बाप के मरने गम तो भूल जाते हैं, पर धन-संपाती की हानि को कभी नहीं भूलते।
माँ के गुजर जाने का गम तो था ही। पर जो बात मुझे सबसे अधिक दुख दे रही होती वो थी देहांत की राजनीति। जो हमारे परिवार और भाइयों मे मची थी। खैर सच्चाई से मुँह तो नहीं मोड़ा जा सकता। पर जीवन को जीने के लिए या कहें जिंदा रहने के लिए कोई लक्ष्य तो चाहिए था उस वक्त। यह मेरे लिए आवशयकता बनती जा रही होती। जिंदा रहने के लिए इसका होना जरूरी लगने लगा। अन्यथा जीवन जीने की इच्छा धीरे धीरे कमजोर पड़ती सी जा होती। इतना दुखी हुआ था माँ के गुजर जाने के बाद।
मुझे कोई लक्ष्य चाहिये था। कोई बड़ा काम, देश-समाज और जन कल्याण का। शुरुआती तौर पर स्थानीय समस्या और नागरिक मुद्दों पर काम करने लगा। कुछ अपने तरह के लोगों को भी जोड़ने लगा। पर समस्या कही गहरी लगती होती।
वृहत स्तर से स्थानीय तक, वही औपनिवेशिक मानसिकता। वही सामंती दृष्टिकोण और जातिवाद की उंच और नीच वाला वही पैमाना! समाज के हरेक स्तर और गतिविधियों की विशेषता लगती होती। यह शोषण और लूट की अवधारणा पर आधारित होती! हालाकि ये सब बाते सैद्धांतिक तौर पर जे एन यू के दिनो से ही मालूम था। पर इनका व्यवहार मे सामना अब हो रहा था जब हम जमीनी स्तर पर काम करने लगे।
एक बात महसूस हुई। जन साधारण से जुड़ी संस्थाओं की बात तो क्या, सारी संस्थाओं और उनके प्रतिनिधियों पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं रहता। एक बार चुन लिए जाने पर उन्हे पूछने वाला कोई नहीं रहता। न कोई ठोस जवाबदेही और न कोई प्रभावी जिम्मेवारी। क्योंकि ये सब औपनिवेशवाद और नव-औपनिवेशवाद मूल्यों पर आधारित होते। अंगर्जों ने इन्हे लूट और शोषण के लिए बनाए थे। और जिसे देशी अंग्रेजों ने हूबहू हम लोगों पर थोप दी थी। ये संस्थान और उनके प्रतिनधि सेवा के लिए कम लगते, और शासन के लिए अधिक!
जे एन यू के दिनों मे भी हमने जन समस्या व सामान्य शिकायतों को लेकर आंदोलन चलाया था। समस्या और शिकायत विशेष तो दूर हो जाते कुछ समय के लिए। पर वे फिर ज्यों के त्यों फिर आ खड़े हो जाते। फिर दूसरा, तीसरा..... फिर आंदोलन करो।फिर वही दुश्चक्र! ऐसा केवल जमीनी स्तर पर ही नहीं होता, वरन उच्च और मध्य स्तर पर भी होता रहता।
आज़ादी के बाद के जन आंदोलोनों का कार्यतामक विश्लेषण से इस बात की पुष्टि होती है। समस्या और शिकायत फिर आ खड़े होते हैं। फिर आंदोलन करो, फिर वही सिलसिला जारी। इन सबके के पीछे मात्र यही कारण लगता: किसी ऐसी संस्थागत व्यवस्था का अभाव जो इनपर प्रभावी ढंग से नियंत्रण रख सके। उनके उत्तरदायित्व और जिम्मेवारी को निभाने के लिए एक नियंत्रक संस्था का काम करता।
इसी दौरान हमलोग अपने क्षेत्र के जन प्रतिनिधी से मिले। पानी की समस्या को दूर करने के लिए। हम से एक ने कहा: नेता जी! इस बार आपको वोट नहीं जाएगा अगर पानी की किल्लत दूर नहीं हुई तो! इस पर उन जनाब ने बड़ी शिष्टपूर्वक बेरुखी से कहा: आप लोगों के वोट से नहीं जीतता। आप न भी दोगे तो भी मैं जीत कर ही आऊँगा। इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता वोट न देने की धमकी का ....
यह सुनकर हम अवाक रह गए। पर हमारे स्थानीय प्रतिनिधि सही फरमा रहे थे। और एक नियंत्रक संस्था या कुछ इसी तरह के संस्थागत चेक बैलेन्स जैसी व्यवस्था की जरूरत का भी अहसास करा दिया। हमे भी कुछ इस तरह संस्थागत व्यवस्था का होना नितांत जरूरी लगने लगा। पहले भी कुछ इस तरह के विचार चल रहे थे। उनको अब ठोस धारातल मिल गया।
एक बार कोई भी जन प्रतिनिधी, चाहे वो राष्ट्रीय स्तर का हो या प्रादेशिक व स्थानिय, एक बार चुने जाने व पदस्थापित होने के उपरांत उसे कोई पुछने वाला नहीं होता! कोई जिम्मेवारी या ठोस उत्तरदायित्व का कोई प्रावधान नहीं है। सिवा अगले चुनाव के या सभा समिति मे आलोचना के, जिसका कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे भी भी वे आलोचना, निंदा प्रस्ताव या सेंसर मोशन को ज्यादा भाव नहीं देते क्योंकि लोगों की स्मृति रेखा बहुत कमजोर होती है। या बना दी गई है इस सूचना युग मे, सूचनाओं के रेलम पेल से। उनके अनवरत आक्रमण से, लोगों के दिमाग को भ्रमित कर, थका कर , ऊबा कर।
अधिकतर प्रजातांत्रिक देशों मे, कुछ अपवाद को छोड़ कर, ‘”फ़र्स्ट पास्ट द पोस्ट (पहले गोल पार करने वाला)’ मतदान प्रणाली लागू है। इस प्रणाली के तहत जिसे भी सबसे अधिक मत मिलता है, जो अक्सर 30-35 प्रतिशत ही होता है, वही विजय घोषित होता है। बाकी 70-75 प्रतिशत मत योहि बर्बाद चला जाता है। 30-35 प्रतिशत मत प्राप्त होने पर ही चुन लिया जाता जबकि यह अ ल्पसंखयक मत होता। पर जिन उम्मीदवारों को शेष बहुमत मत मिला होता है, वो किसी काम का नहीं होता। यह बिलकुल ही अप्रजातांत्रिक है। और यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था की जड़ें खोखली करता आ रहा है। पूरी दुनिया मे ही।
अब हमारे क्षेत्र के प्रतिनिधि को देखिये। इनको मालूम है 30-35 प्रतिशत लाने है। उन्ही के लिए काम करते हैं। बाकी जाएँ तेल लेने, उनकी बला से। यही हाल पूरी व्यवस्था का है। और तकरीबन सब देशों का यही हाल है, जहां यह मत प्रणाली लागू है। और यह प्रणाली दुनिया के चंद अपवादों को छोड़ कर सभी देशों मे लागू है। ।
तभी तो प्रजातन्त्र के खतरे की बात चल रही है। इस पर मँडराते साए इसी कमजोरी के परिणाम लगते । इसका कुल प्रभाव अप्रजातांत्रिक ही होता है! अधिकतर या बहुसंख्यक आबादी को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता! उनकी आशाएँ, उनके अरमान, उनके काम धरे के धरे रह जाते। उनकी समस्यायों का समाधान नही हो पाता। जन साधारण की देखभाल की बात तो दूर रही, उनकी उपेक्षा होती रहती है। वो विकास और प्रगति के हिस्सा नहीं बन पाते। वे वंचित के वंचित ही रह जाते। प्रजातंत्र पर गहराते संकट के पीछे यह भी एक कारण लगता है।
इस पर एक किताब लिखी। पेपर भी प्रकाशित हुआ इस पर। और एक गैर-सरकारी संस्था (एन जी ओ) भी बनाया गया। इस राजनैतिक औडिटिंग का मॉडल, जो किताब मे प्रतिपादित हुई थी, उसे और विकसित परिमार्जित किया गया। ताकि इसका कार्यान्वन हो सके और व्यवहारिक धरातल पर इसका प्रयोग किया जाय।
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इन सबों मे तीन चार साल निकल गए। जिंदगी को ऐसा लगा जैसे कोई मकसद मिल गया हो जीने का! सच ही कहा गया है: अगर कोई बड़ा या महान कार्य जन और लोक कल्याण के लिए किया जाता। या करने का संकल्प लिया जाता है, वह सफल तो होता ही है। कहते हैं उसकी आयु भी बढ़ जाती है। क्यों न ऐसा हो? वो खुश रहेगा, बेकार की चिंता फिक्र से दूर रहेगा। उसकी उम्र तो बढ़ेगी ही।
पर एन जी ओ बनाना अपने आप मे एक चुनौती से कम नहीं था। हम उसमे लगे रहे। जैसे तैसे काम शुरू हुआ। लोग भी जुडते गए। कारवां बढ़ता गया। पर काम वैसे नहीं हो पा रहा होता, जैसा हमने सोचा रखा था। पर गाड़ी तो निकाल पड़ी थी!
राजनैतिक और सामाजिक हलको मे इस पर गौर किया जाने लगा। यहाँ तक कि देश के सर्वोच्च न्यायालयने अपने ऐतिहाससिक निर्णय मे औडिटिंग, विशेष कर नयालयिक विज्ञान (फोरेंसिक्स) औडिटिंग की महत्ता को रेखांकित करते हुए, इसे लागू करने का सुझाव भी दिया।
इसके अलावे, इस किताब और उसपर आधारित एन जी ओ के गठन से राजनैतिक हल्कों और सर्कल मे एक तरह से हड़कम्प सा ही मच गया! पहले तो इसका आभास नहीं हुआ। पर बाद मे राजनैतिक दलों के लोग हमारे रास्ते मे रोड़े अटकाने लगे। तब यह बात सामने आई: एक हलचल सी मच गई थी। दबी दबी सी ही सही। पर एक चिंता या भय की लहर तो दिखती होती।
इसका एहसास तब हुआ, जब प्रदेश के नए जमाने के एक मुख्य मंत्री ने कहा: ‘ये भविष्य मे ही संभव है। अभी नहीं।“ सही बात है, उन्हे गद्दी जो संभालनी होती! और सालों तक हुकूमत जो करनी है! औपनिवेशिक संस्थाओं और मूल्यों की आड़ तथा प्रजातांत्रिक व्यवस्था की ओट मे! लूट और शोषण की विरासत को कायम जो रखना है! ये पॉलिटिकल औडिटिंग तो कबाब के मजे लेते समय हड्डी के समान ही लगती होती उन्हे तो!
शायद इसी कारण देश के प्रधानमंत्री ने भी इसे अभी अयोग्य घोषित कर दिया। उन्होने कहा: जनमत और समय इसके उपयुक्त नहीं है। दोनों का करीब एक जैसा ही जवाब! उन दोनों के पास एक उच्च अधिकारी के माध्यम से पॉलिटिकल औडिंग का प्रस्ताव भेजा गया था। हम सभी राजनैतिक दलों के आलाकमान से मिले भी। पर सभी इससे थोड़ा चिंतित और सहमे से लगे।
तभी तो किसी ने भी सहयोग नहीं किया। उल्टे हमे डराने की कोशिस करते रहे। एक सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के नेता ने तो हमारे एन जी ओ को बनाने मे एक साल की देरी करवा दी। बड़े ही चालाकी और धूर्तता से! ये अलग बात यही उन्हे ले डूबी! पर हमारा काम तो चल पड़ा। मकसद तो पुर हुआ सा लगा।
पहले भी बड़े उतार-चड़ाव के बाद आखिर मे पॉलिटिकल औडिटिंग की किताब छपी थी। इसमे मे भी काफी मुश्किलें आई थी। कोई छापने को तैयार ही नहीं होता। यहाँ भी वही सामंती व औपनिवेशिक मानसिकता का सामना करना पड़ा।
पहले तो कोई नामी-गिरामी लेखक नहीं कि कोई छापता। फिर मेरे न तो पापा लेखक होते और न ही दादा। फिर कोई लेखक कैसे हो सकता है! लेखक का बेटा लेखक ही होगा जैसे पंडित का बेटा पंडित होता है, नेता का बेटा नेता। अभिनेता का बेटा अभिनेता। बड़े धक्के खाने के बाद आखिर किताब ने दिन का सूरज देखा।
इसके बाद मैंने पोपुलर इन्स्टीटूटीनल मोडेल पर पेपर लिखा। औडिटिंग के पोपुलर इन्स्टीटूटीनल मोडेल की अवधारणा विकसित करने मे भी काफी समय और मेहनत लगा। एन जी ओ की स्थापना के काम के साथ इस पर भी काम चलता रहा।
आखिर जो प्रारूप तैयार हुआ वो कुछ इस तरह का: किसी भी चुनाव-लोक सभा हो या राज्यों का, पंचायती व स्थानीय- उसके लिए एक चुनाव क्षेत्र से न जीत पाने वाले उम्मीदवारों तथा उनको प्राप्त कुल वोट का योग निकाला जाएगा।
फिर उसमे से 2 या 3 उम्मीदवार, जो मतदान प्रणाली की खामी--सबसे ज्यादा मत मिलते वही जीतता है चाहे वो अल्पसंख्यक क्यों न हो, जो बहुधा होता है-- जीत न सके। इनके कुल प्राप्त मत का योग निकाला जाएगा। यह योग जीते हुए उम्मीदवार के कुल प्राप्त मत से अधिक होना चाहिए।
फिर ऐसे उम्मीदवारों का पैनल बनाया जाएगा। और वो जीते हुए उम्मीदवारों के कार्यों का औडिटिंग करेगा। इस मॉडल को हरेक क्षेत्र मे अपनाया जा सकता है। चाहे निर्वाचित हो या मनोनीत। सरकारी नौकरियों, पब्लिक सैक्टर के उपक्रमों, मंत्रालयों और सरकारी दफ्तरों के संदर्भ मे भी इसको प्रयोग मे लाया जा सकता है।
जैसा किताब के मामले मे हुआ, पेपर छपने मे परेशानी हुई। कोई बोलता इंग्लिश ठीक नहीं है! तो कोई विचार और मॉडल को बेकार कहता। कुछ ने तो कहा यह विपक्ष के काम को दोहरने जैसा है, तो कोई कहता यह अनोखा। आखिरकार इसका अकादेमिया नामक शोध पोर्टल पर ही प्रकशन हो सका। इसी से संतोष करना पड़ा।
फिर भी देश-विदेश मे इस पर प्रतिक्रिया हुई। अमेरिका, यूरोप, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया तथा फिलिपिनेस के प्रोफेसर और शोध कर्ताओं ने इसमे अभिरुचि दिखाई! उन्होने इससे संबन्धित पेपर को डाऊनलोड भी किया था। कुछ तो इससे आगे की शोध मे भी जुट गए। एक दो ने थोड़ी बहुत चर्चा भी की थी। सतही तौर पर ही सही!

 


१८
विवशता जीवन तो नहीं
आखिर सब कुछ हो ही गया! राजनीतिक औडिटिंग पर किताब छप गई। इससे संबन्धित पेपर, जो एक मोडेल कि प्रस्तावना है इसको कार्यान्वित करने का, भी प्रकाशित हो गया। इसका प्रचार और लागू करवाने के लिए एक गैर-सरकारी संस्था भी बन गई। और हमारा काम चल भी निकला। पर ये जिन परिस्थितियों, घटनाओ और व्यक्तियों के कारण संभव हो पाया वो कार्य कारण के अनंत और वृहत प्रकृति की पुष्टि करते से लगते। “उधो कर्मन की गति न्यारि...
अब भी याद है... जब पापा का देहांत हुआ था ... और मैं दिल्ली मे था....भाइयों ने मेरे आने के पहले उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया.... उनके—अपने प्यारे पापा का अंतिम दर्शन तो क्या...चिता की अग्नि भी नसीब नहीं हुई... दिल टूट सा गया... जीवन मे इतना बड़ा दुख नहीं देखा था....एक तो पापा के जाने का गम, उसपर उनका अंतिम दर्शन भी नहीं करने दी भाइयो ने... क्या कर सकता था... इस पहाड़ से लगते दुख को सहने के अलावा.....।
जैसे कि ये सब कम था, परिवार मे धन जायदाद के बँटवारे को लेकर जंग सी मच गई। अभी पापा की चिता की आग ठंडी भी नहीं होने पायी थी कि भाई लोग बेचैन हो गए अपने हिस्सा लेने को। मुझे बहुत खराब लगा। कैसे बेटे हैं? पर मुझे क्या पता था आज कल के बेटे ऐसे ही होते हैं या मैं वैसा बेटा नहीं था, इसलिए ऐसा लग रहा था। जो भी था वैसा ही था। पर ठीक नहीं था क्योंकि भाई लोग मेरे हिस्सा मारने के चक्कर मे थे। इस रहस्य का पता भी बड़े रहस्तमय ढंग से हुआ।
पहले तो मुझे कुछ अटपटा सा लगा। जब बहन ने घोषण की --चलो सबको माँ पा...बड़े भैया ने तुरंत एक अर्जेंट काम के लिए बुलाया। सभी तुरंत ड्राइंग रूम मे आ जाइए ....
ऐसा भी क्या काम आ पड़ा, ये सोचते हुए वहाँ दाखिल हुआ। भाइयो, भाभियो, और बहन-जीजा कि पूरी मंडली पहले से ही चौकड़ी मार कर बैठी थी। पापा के जाने के गम से बेहाल माँ को भी ले आए थे। वो भी बीच मे बैठी थी। और ऐसा लग रहा था जैसे मेरा ही इंतजार हो। उसी समय कुछ शक सा हुआ था। दुष्टो –चाहे वो भाई बहन हो या कोई अपने सगे—की टोली बैठती है तो किसी न किस दुष्टता के काम को अंजाम देने के लिए।
सभी बोलने लगे। एक एक कर। बड़े नपे तुले लहजे और अंदाज मे। जैसे सब सुनियोजित हो। पहले बड़े भैया, बड़ी भाभी, फिर मँझले भैया, भाभी, फिर छोटा भाई और बहू, फिर बहन और जीजा। उनके सारी बातों का, उनका मेरे लिए उमड़े प्यार और स्नेह, मेरी चिंता , मेरे घर परिवार कि चिंता का एक ही सबब था: मैं पागल हूँ। किस मनोचिक्त्सिक को दिखाना चाहिए।
जो डॉक्टर भैया भाभी... पूरी डॉक्टर की फेमिली, नर्सिंग होम, हॉस्पिटल। करोड़ो के पति तो हैं ही ऊपर से । अंदर से शायद खरबपति हों। पर जब एक डेन्टिस्ट को दीखाने को कहा तो मुकर गए सब। कमिशन और कट बैक का लंबा जाल होता है डॉक्टर और हॉस्पिटल का। एक बार फंसे तो फंसे ही रहेंगे इस टेस्ट से उस टेस्ट के बीच मे तक।
और अब मुझे मनोचिकित्सीक से दिखना चाहते हैं। वो भी बिना मेरे कहे। कहने पर दिखाया नहीं। डॉक्टर लोग कभी कमिशन के साथ सम्झौता नहीं करते! घोडा कहीं घास से दोस्ती कर सकता है भला। सब कुछ कट कमिसन पर चलता है। जैसे नेता लोग वोट के लिए अपने सगे संबंधी को भी नहीं छोड़ते, वैसे ही डॉक्टर ही क्यों, सारे सेवा और गैर सेवा क्षेत्र के लोग, नहीं छोड़ते। सेवा मे देश या इसके लोगों को लूट रहे है।
--जीनियस और पागल मे बस केवल कुछ डिग्री का फर्क होता है। अगर किसी को गुस्सा आता है या उसकी कोई कमजोरी जिसके बारे मे उसे पता है। अगर वो अपनी इस कमी के बारे जानता है, जैसे कि मैं जानता हूँ, वो किसी भी तरह से अबनोरमल नहीं हो सकता है....
फिर थोड़ा रुक कर, --मुझे तो आप लोग पागल लगते हो। अभी पापा की अग्नि-चिता ठंडी भी नहीं हुई है आप लोग मेरा हिस्सा हड़पने के लिए मुझे पागल घोषित करवाना चाहते हो मानो चिक्त्सिक के पास भेज कर....
वहाँ से फटाफट उठ चला। अपने सामान बैग मे रखे और निकाल गया वहाँ से। वहाँ नहीं रहना जिसे घर कहते हैं जहां ऐसे भाई बहन रहते हैं। जो भाई कम कसाई ज्यादा हैं। कसाई भी इनसे अच्छा, वह अपने पेट के लिए धंधा करता है। जब की ये लोग अपने लालच, अहम और अपने झूठी शान और बड़प्पन के लिए। निकल चलो यहाँ से। घर केवल चहरदीवारी से नहीं बनता, रहने वालो से बनता है। जब सब ऐसे ही हैं, तो क्या करना।
वापिस दिल्ली आ गया। पर बिलकुल टूट गया था। घर का माहौल भी खराब हो रहा होता! सासु माँ ने बीबी को भड़का दिया। जीवन मे अजीब सी मनहूसियत और अर्थहीनता सी छायी लगती होती! ऐसी स्थित आ गयी: जीने की वजह तलाशना जरूरी लगाने लगा। ताकि जिंदा रहा जा सके!
कुछ सामाजिक राजनैतिक गतिविध या कार्य की तलाश मे होता। उस समय राजनैतिक औडिटिंग की अवधारणा बहुत प्रारम्भिक अवस्था मे होती। इस दिशा मे कुछ करने की सोच रहा होता।

तभी उससे मिला था: कनुप्रिय से। नहीं मिल कर, बिछड़ कर फिर मिला था! या वो आ मिली।
उन दिनो नॉर्थ ब्लॉक मे हमारी पोस्टिंग हुआ करती। उससे अंतिम बार मिला था सात आठ साल पहले। जब हम एक साथ एक अमेरीकन मैगज़ीन मे काम करते होते। बाद मे मेरा कारतीय सूचना सेवा मे चयन हो गया। और कनु का काहारा कारत टीवी से। उस पत्रिका मे कनू 1-2 साल पहले ही आई, हमारे ऑफिस मे। वास्तविकता मे उसे लाया गया होता!
हुआ यूं कि कनू जहां काम कर रही होती, वहाँ मैं भी रहा था। पर कनू को मालिक के बेटे से थोड़ी नहीं बहुत समस्या हो गयी थी। उसने कुछ ऐसा बोला था या प्रस्ताव रखा कि कनू को थप्पड़ मारना पड़ा। सही किया था उसने, जब सुना तो मुझे अच्छा लगा। वो था ही वैसा और जैसे को तैसा मिल ही जाता है। कैन टीवी के मालिक, के के कैन साहब को, जो हमारे मैगज़ीन के फ्रैंचाइज़ मालिक भी थे, एक टीवी उद्घोषिका चाहिए होता। खोज खोज कर हार चुके थे वे और उनके कारिंदे। पर कोई उन्हे मिली नहीं। मिली भी तो कैन टीवी का इतना नाम बदनाम होता कि शायद ही कोई आना चाहे।
तब मुझे याद किया गया। और मैंने कनू को बुलाकर उनसे मिलवा दिया। बाकी का काम कनू ने खुद कर लिया था। पहली बार जब उससे मिला तभी से प्यार हो गया। उसे बताया नहीं। पर उसने भी भाँप लिया अपने लिए प्यार को, जो आंखो से छलकी जा रही होती।
सुंदर लड़की! अच्छी कद काठी। कोइ भी उससे मिलकर उसका दीवाना हो जाएगा, ऐसी सुंदरता । तभी उसके आते और काम शुरू करते ही सभी उसे चाहने लगे। जीएम से ले कर चपरासी तक! उस पर लाइन मारने लगे।
एक दिन हम अपने डेस्क पर बैठे काम कर रहे होते। कानू उदास सी खोयी खोयी कहीं। आंखे बंद किए डेस्क पर सिर को रख कर!
--क्या हुआ? मैंने पूछा।
-कुछ नहीं........ फिर थोड़ा रुकते हुए। ....तुम्हें कहीं खराब तो नहीं लग रहा है कि मैं तुम्हें यूज कर रही हूँ? मेरा बॉयफ्रेंड है और मैं तुम्हें वो नहीं दे सकती जो तुम....
--हल्लो क्या कहा ... यूज करना...पर ये कहाँ से आ गया... मुझे टॉप बॉस ने बोला और तुम कही काम नहीं कर रही थी..... . मुझे पता चला और मैंने..... बस इतना...अगर देखा जाय तो मैं तुम्हें यूज कर रहा हूँ....
--हें.... कनू थोड़ा नॉर्मल हुई। सुंदर से चेहरे पर एक पल के लिय मादक और मनमोहक हंसी मोतियाँ की तरह बिखर कर फिर कहीं गुम हो गई... फिर नज़रे थोड़ा झुकाते हुए बोली—पर तुमने नौकरी दिलाई... और मैं तुम्हें बदले मे कुछ दे भी नहीं सकती...मेरा बॉयफ्रेंड है....
--तो उससे क्या? मुझे एक काम बोला गया टीवी न्यूज़ रीडर लाने का .... मैंने वो कर दिया... इसमे तुम्हारी मदद भी हो गयी और नौकरी भी मिल गई.. तो इसमे लेने देने का सबाल कहाँ उठता है....
उसके लिए छलक आए प्यार को छिपाते हुए मैंने बोल तो दिया। पर कनू को पता चल गया था। और उसके बाद दोस्ती की आड़ मे घुट घुट कर जीते प्यार का जो सिलासिला शुरू हुआ, वो आज तक जारी रही है। और शायद वो अनंत सफर तक जारी रहे!
बीच मे कई मौके आए। ऐसे भी मुकाम आए कि ये छिपा हुआ, घुट घुट कर जीता प्रेम खुले मे आ सकता था। शायद इसे खुले मे लाने के लिए ही अस्तित्व ने किया हो। पहली बार वो मौका आया, कनू के हमारे संस्था मे आने के एक महीने बाद ही।
ऑफिस आते ही कनू ने एक दिन बोला—चलो कहीं डेट पर चलते हैं?
--डेट...मेरे साथ....वो तेरे दुलहे मियां ..... थोड़ा आश्चर्यचकित... थोड़े विस्मय के साथ बोला। ये क्या बोल रही कनू। कहीं अपने बॉयफ्रेंड से लड़ कर तो नहीं आई। मैंने उससे पूछा भी। वो कुछ नहीं बोली। और मैंने बोला--- बाद मे कभी चलेंगे जब तेरा गुस्सा शांत हो जाएगा। वो उदास हो गयी थी। वो भी आया था। पर उसके साथ नहीं गयी। फिर कुछ दिनो बाद उसने बताया उससे समझौता हो गया।
मेरे एक दोस्त ने जब यह सब सुना तो उसने कहा:--तू न बस वही है वो उल्लू ....अरे वो तेरे को अपने बोयफ्रेड् बनाने का ऑफर दे रही थी। ये भी बता रही थी कि उसको छोड़ चुकी जिससे तू सोचता है वो प्यार करती है... पर तूने उसे ठुकरा दिया तो क्या करती वो! अपने छोड़े हुए बॉयफ्रेंड के पास वापिस चली गई।
मैं चुप रहा। अपने ही हाथों अपने प्रेम का गला घोट आया था। शायद अंजाने मे ही। या अपनी बेवकूफी मे। मैं तो कुछ और ही समझ रहा होता। यही तो जिंदगी की पहेली है! सोचते कुछ है, होता कुछ और ही है। जो दिखता है वो होता नहीं। और जो होता है दिखता नहीं। =
बाद मे कुछ कुछ समझ मे आया जब वो थोड़ा बदल गयी। दोस्त तो हमे बन ही गए थे। पर उसमे पेंच आ गया था। वो थोड़ा और कसता गया। और अक्सर हमारे क्षण क्षण बदलते समीकरण मे परिलक्षित होने लगा।
एक दिन हम साथ साथ बैठे होते न्यूज़ डेस्क पर। किसी रिपोर्ट का सम्पादन कर रहा होता। तभी देखा वो पेपर पर अपना नाम लिखे जा रही है। पता नहीं क्या हुआ कि अंत मे उसके नाम के बाद अपने नाम लिख दिया। फिर उसने एक और नाम लिखा। मैंने देखना चाहा तो मना कर दिया। जब उससे छीनने कोशिश की, तो वह कागज को टेबलेट की तरह गटक गई।
फिर हम अलग हो गए। वो कहरा कारत टीवी जॉइन कर ली। और मैं सरकारी नौकरी। बीच मे 6-7 साल एक दूसरे के संपर्क मे भी नहीं रह पाये। इसी बीच कनू ने अपने उसी बॉयफ्रेंड से शादी कर ली। और अमेरिका चली गई। चार पाँच सालो के लिय।
फिर वो वापस कारत आ गए। तभी उसके बारे मे पता चला। ऐसे ही अचानक एक दिन एक पत्रकार आए थे नॉर्थ ब्लॉक। उसी चैनल टीवी के होते जहां कनू काम करती ती। जब उसके बारे मे जिक्र किया। तो उन्होने बताया कि वे थोड़े दिन पहले अमेरिका से आए हैं। उसने उस समय कनू से बात करा दी। क्या संयोग थे उससे पुनर्मिलन के। उससे बात भी हो गयी।
और कनू अगले दिन मुझसे मिलने भी आ गयी!
उन्ही दिनो हम राजनैतिक औडिटिंग संबंधी ग्रुप बनाने मे लगे होते! कनू हमे हर तरह के सहयोग देने लगी। वो हमारी लिए प्रेरणा का केंद्र बन गयी। हम दोनों काफी लोगों से मिले। उसका पति कमल भी साथ जाता कभी कभी। हमने कश्मीर पर भी काम करने का निर्णय लिया। लेकिन ये सब बहुत ही प्रारम्भिक अवस्था मे था।
एक शाम। कनू ड्राइव कर रही होती। और मैं बैठा होता: आगे वाले सीट पर। हम दुनिया जहां की बाते कर रहे होते।
तभी कनू ने बोला—तुम पक्का बोलो तो सब कुछ छोड़ कर एक हो जाते है। और ये सब काम करते हैं. तुम बोलो तो मैं आ जाती हूँ सब कुछ छोड़ कर!
ये तीसरी बार दबा हुआ, स्वीकार नहीं हुआ प्यार दोनों तरफ से! बाहर आने के लिए के लिय उद्धत सा। इशारा दे रही होती : इजहार भी कर रही होती। उस प्रेम का जो होते हुए भी न था! अंदर ही अंदर घुट रहा होता। पता नहीं कितने सालो से। दोस्ती की ओट मे वह दबा हुआ प्रेम बाहर आने को कबसे मौका ढूंढ रहा होता मानो!
उस शाम: उसे बाहर आने का मौका मिला।
‘इसकी अभी जरूरुत नहीं है.... बाद मे... । मैंने बोला। और वो चुप हो गई।
उसके बाद से वह बहुत खतरनाक ढंग से कार चलाने लगी। मैं समझ गया। उसे अच्छा नहीं लगा। पर अब संभव नहीं... वो भी शादी शुदा और हम भी। उस पर से दोनों के अपनी अपनी शादी से बच्चे भी हो चुके होते ...।
पर कनू ने हिम्मत नहीं हारी। और मैं भी। पर अब सब कुछ छोड़ कर नहीं आ सकता! जब सबने साथ छोड़ दिया। यहाँ तक की कनू ने भी। तब उसने सारे जमाने से लड़ कर भी साथ दिया! यही बात कनू को बताई भी। जब एक बार फिर डेट पर गए होते!
नहीं वो ले गयी। बहुत सुंदर लग रही होती। सुंदर तो है पर उस दिन और भी सुंदरत! मानो छलके जा ही हो। लेकिन उस दिन भी कुछ नहीं हुआ। कुछ किया तो नहीं! उलटे बीबी के शान मे कसीदे कढ़ता रहा।
फिर कनू ने मिलना छोड़ दिया। मैं समझ गया उसे खराब लगा। फिर एक दिन सोचा: क्यों न वर्षो से दबे कूचले प्रेम को परवान ही चढ़ा दिया जाय। उसे मिलने गया। और उससे कार सेक्स कर अपने प्यार को परवान करने को सोचा। पर इस बार उसने झिड़क दिया।
बहुत खराब लगा। तब पता चला: कनू को कैसा लगा होगा जब मैंने उसका दिल तोड़ा था। वो अपना सब कुछ अर्पण करने को तैयार होती। पर ठुकरा दिया। अब उसकी बारी थी। उसने फोन उठाना बंद कर दिया। मुझसे बात भी नहीं करती। ऐसा लगा उससे संबंध टूट गया।
उधर हमारा राजनैतिक औडिटिंग संबंधी दल भी नहीं बन पा रहा होता। और कनू जो मुख्य प्रेरणा स्रोत हुआ करती! वो भी नाराज हो गयी सी लगती। फिर सोचा: पहले औडिटिंग की अवधारणा विकसित कर ली जाय। किसी मोडेल का प्रारूप बन जाय। किताब या पेपर ही लिख लिया जाय। । फिर संभव हो पाएगा ये अभियान। प्रजातन्त्र को मजबूत करने का मुहिम।
इस तरह से पॉलिटिकल औडिटिंग पर काम शुरु हो गया, लिखने का। । दो तीन साल लगे। इस बीच कनू से भी संपर्क बना रहा। औपचारिक ही सही। और वो हमारी प्रेरणा स्रोत बनी रही। किताब के छपने से लेकर एनजीओ के बनने! अहम भूमिका निभाई कनू ने। उसे संस्था का अध्यक्ष भी बना दिया गया। हमारा काम चल पड़ा।
हम मिलते रहे। एनजीओ के काम सिलसिले मे। शायद हम दोनों के बीच अनहुआ सा हुआ समझौता हो गया सा लगता: अपने दबे हुए प्यार को दबे ही रहने देने का। शायद यही हमारे प्यार का हश्र था। एक बार फिर मैंने कोशिश की थी इस प्यार को बाहर लाने का। जब मैंने लिफ्ट मे उसे कीस किया था। पर वो नाराज़ हो गयी थी। ऊपर ऊपर, पर उसका पूरा वजूद मिलन को आतुर हो रहा होता। पर उसने अपने आप को रोक लिया था।
क्यों? शायद उसका मन भुला नहीं था वो संमर्पण! जो एक स्मरण भर बन कर रह गया। वो भी कटु। पता नहीं क्या सोच रही होगी! पर उसके साथ ही क्यों, ऐसा तो हरेक के साथ होता आया है। ये सब तो शायद बहुत पहले से तय हुआ सा लगता। यही रहा है प्यार ही क्यों, जीवन के हरेक पहलू का परिणाम: जब पाया तो खोया ही और जब खोया तो ही सब कुछ पाया!
बस इस तरह दबा हुआ प्यार दबा ही रह गया। पर अब भी ऐसा लगता है: एक दिन हम मिलेंगे। सब कुछ भूल कर। और एक दूसरे को हो जाएंगे!
पर कब? लेकिन क्या हम मिले हुए नहीं? रूह तो मिली हुई है! पर शायद वजूद अपना हक़ मांग रहा है!


१९
स्वतन्त्रता की परतंत्रता
पॉलिटिकल औडिटिंग पर किताब छपने तथा एनजीओ के गठन के बाद हम द्वारक घूमने गए। परिवार के साथ। द्वारका जाना भी मथुरा जाने की तरह लगा! बल्कि उससे काही अधिक घनी और वृहद अनुभूति का एहसास लिए हुए! मथुरा मे जो अनुत्तरित प्रश्न मिले, उनमे से कुछ के जवाब तो मिल गए। पर उससे कही अधिक प्रश्नों और पहेलियों की सौगात छोड़ गए।
द्वारका। हम लाइट हाउस के पास के समुद्र के किनारे स्थित भारतीय पुरातत्व विभाग के गेस्ट हाउस मे ठहरे। द्वारका की पहली रात ऐसे बीती जैसे ...... अब तक शब्द नहीं मिल पाया है। और शायद ही मिले। क्योंकि वो अहसास, ज्ञान, और सदियों से दबी कुचली गई कुछ ऐसे नक्श और अक्स होते! जिनके लिए शब्द ही नही बने हैं शायद! कैसे मिलते?
वो शब्द ही नहीं बने होते! क्योंकि उस तरह के अहसास से शायद ही कोई गुजारा हो। पहले कभी! तभी एक पूरी किताब लिख दी गई। फिर भी वो बवंडर जो अन्तर्मन मे उठा था! देश, समाज और दुनिया के समूहिक चेतना मे! उस रात जो तूफान उठा था! वो चुका नहीं। वो शब्दों, अभिवयक्ति और सम्प्रेषण मे समा न सका। एक पूरा ग्रंथ लिखे जाने का बाद भी!
फिर भी वह पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं हो पाया है। शायद ही हो पाए। सदियों के धूल और गर्द! और उसके प्राक्कथन और उस प्राक्कथन के प्राक्कथन! क्या अभिव्यक्त हो पाएंगे कभी? वैसे मे जब उनकी अभिव्यक्ति के सारे रास्ते या तो नीम अंधेरे मे खुलते होते। या अनंत की अनंतता मे।
अब कुछ कुछ समझ मे आया: कुछ प्रबुध विद्वानों ने क्यों लेखन को हिंसा करार दिया है! वो अभिव्यक्ति के साथ पूरी तरह इंसाफ नहीं कर पाता। न ही उसके अर्थ के साथ और न ही भावार्थ के साथ। फिर हिंसा तो प्रकृति का नियम सी ही लगती होती और अहिंसा अपवाद!
ऐसी बात नहीं कि हिंसा को उचित ठहरया जा रहा है। बल्कि हिंसा की सार्वभौमिकता का केवल उल्लेख मात्र ही है! वैसे भी शब्दो की व्युत्पति मे हिंसा पहले आती है। अहिंसा बाद मे जुड़ती है। कृष्ण ने उधव द्वारा हिंसा पर एक प्रश्न पूछे जाने पर कहा: खाते समय कभी अपने ही दाँत से जीभ कट जाती है। क्या इसको हिंसा कहेंगे।

एक माँ अपने संतान को डांटती है या पीटती है, क्या यह हिंसा है? खाने के लिए, जीने के लिए आदमी न जाने कितनी हिंसा कर जाता है। क्या वो हिंसा है?
द्वारिका के लाइट हाउस वाले गेस्ट हाउस के बरामदे मे बैठा। पश्चिमी समुद्र की भयंकर गरजना मे अहिंसा ढूंढ रहा होता! हजारो साल से किनारे के चट्टानों को पछाड़े मारती ये लहरे! कभी कृष्ण की द्वारका को लीलती हुई! तो कभी मायो सभ्यता को! अब शायद हमारा नंबर हो।
डर की रेखा तैरती नज़र आती हुई। सिहनाद से भयंकार गरजना करते उन लहरों पर। हिंसा और अहिंसा के विचारो मे डूबा सा मन। हिंसा की आशंका के भय से त्रस्त होता सा लगा। तभी दूर क्षितिज से समुद्र के नीचे से बड़ा सा सुंदर चाँद। चांदी के बड़े थाल सा-- उदित होता हुआ नज़र आया। देखते-देखते रूपहली दूधिया चाँदनी मे पश्चिमी समुद्र नहा उठा।
अब डर कही न होता! और न थी हिंसा या उसकी संभावना। आती जाती लहरों की भयंकर गर्जन रूपहले चाँद के दूधिया चाँदनी मे एक संगीत सा लगता हुआ! फिर वो डर! वो हिंसा की आशंका कहा गई? वो कहाँ थी मुझमे या समुद्र मे या गर्जना करते लहरों मे या अंधेरे मे जो अब नहीं था? क्योंकि चाँद का दूधिया उजाला फैल चुका था।
पहले तो बाहर देखते ही डर की एक लहर दौड़ जाती। ऐसा लगता जैसे यहाँ कुछ बड़ा हादसा हुआ है। उस समय नहीं पता था कि जहां हम ठहरे थे, उसी से कुछ दूरी पर डूबे हुए द्वारिका का बाहरी हिस्सा शुरू होता। कैसी विडम्बना है!एक तख्ती भी नहीं! फिर भी मुझे लगा कि यहाँ कुछ नहीं, बहुत कुछ गड़बड़ है! क्यों ऐसा लगा, समझ कर भी नहीं समझ पाया आज तक।
बाहर द्वारके समुद्र का गर्जन-तर्जन। अंदर परिवार के लोग गहरी नींद मे सोते हुए। पर नींद नहीं आ रही होती! कहाँ से आती? वो तो पश्चिमी समुद्र के गर्जन-संगीत मे लय सी लगती! पर क्या नींद मे लीन होना अनंत जैसा नहीं है। तभी तो जागने के बाद हमे ऐसा लागता होता जैसे नया जन्म मिला हो। ऐसी ताजगी महसूस होती है चहुं ओर।
एक तरह से मृत्यु भी है नींद जैसी ही है: चिर निंद्रा! और जागना नए जन्म जैसा! पर हम तो जीवन को ओड़े हुआ मूल्यों और शब्दों-अवधारनाओं मे जीते हैं! हमे कहाँ इस बात की अनुभूति हो पाती है!
नींद समुद्र के लहरों मे खोयी हुई सी लगती! उसी तरह न जाने मन न जाने क्यों अतीत, वर्तमान और भविष्य की वीथियों मे आवारा जैसा भटक रहा होता! पता नहीं कहाँ से नींद की जगह सामाजिक विरोधाभास, ऐतिहासिक भूले, विश्वासघात और वर्गीय-नस्लीय-जातीय वैमनस्य की बलिवेदी पर क्षत विक्षत होती सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था, समय और सभ्यता की बहती उल्टी धारा-- एक एक कर के उतरने लगे।
उनके वेग, उनकी गति, इतनी तेज और आपस मे इतनों गडमड! और तेजी से बदलती होते मानो कोई हवा का झोका या तूफान का कहर हो! ऐसा लगता जैसे बाहर रात के सन्नाटे मे गर्जना करती समुद्री लहरे अन्तर्मन को आप्लावित कर रही हो।
इससे पहल कि ये शून्य मे विलीन होती, लिखना शुरू किया। लहरे उठती रही, गिरती रही। कोलाहल और भयंकर गर्जन और तर्जन के साथ। बाहर भी, अंदर भी मेरे अन्तर्मन मे: पूरे वजूद मे। बाहर तो दूधिया चाँदनी मे नहाये लहरें तो शीतल हो चली थी। पर अंदर अभी भी अंधेरा! तूफान और आँधी! झंझावात विचारों और स्वानुभूत ज्ञान का। और उनसे उठती पीड़ा, दुख और सात्विक गुस्से का भभका!
फिर भी लिखता रहा। परिवार के लोग गहरी निंद्रा मे। पर लिखता रहा। जैसे मैं न हूँ, कोई और ही उतार आया हो वो सब लिखवाने। एक... दो... तीन...... साठ ....सत्तर पृष्ठ लिख डाले। वही आधार बना, दूसरी किताब: द ग्रेटेसट फार्स ऑफ हिस्ट्री (इतिहास का सबसे बड़ा छलावा भरा मज़ाक) का।
ये मैं होता या कोई और! अगर मैं ही, तो वह पहले क्यों नहीं और कहाँ होता? अगर पहले नहीं, अब क्यों कर है? वो तो द्वारिका के भयंकर गर्जन तर्जन करते लहरों मे गुम हो गया सा लगा। और वे लहरें जिन्होने कभी कृष्ण की द्वारक और पश्चिमी हिस्से मे मायो सभ्यता को लील गए! वही आज कारत के इतिहास के दबाये-कुचले गए घटनाक्रमों का ब्यान दे रहे होते!
साथ ही साथ राजनैतिक और सामाजिक हराकिरी की ओर भी इशारा कर रहे होते! इतिहास, समाज और राजनीति के फाल्ट लाइंस को एक कर उधेर रहे होते! और जिस तरह हमारी सभ्यता और संस्कृति आहत और क्षत विक्षत हुई उससे कही अधिक हुआ सा लगा। मेरा अन्तर्मन!। और इसका परिणाम: द ग्रेटेस्ट फार्स ऑफ हिस्टरी।
यह किताब भी छाप गई। पर सोशल मीडिया पर इसके आक्रामक प्रचार के कारण राजनैतिक व सामाजिक हल्कों मे खलबली मचनी शुरू हो गई। वे-राजनैतिक और सामाजिक नेता—डरे हुए से लगने लगे। सच से हमेशा झूठ और फरेब डरता रहा है! शायद इस कारण!
और सोश्ल मीडिया पर ट्रोल्लिंग शुरू हो गया।
सत्ता के सूत्रधार हाथ धो कर पीछे पड़ने शुरू हो गए। साथ ही साथ सोशल मीडिया पर मेरी और किताब की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से आगे जाने लगा। और उनके पसीने छूटने लगे। वे मेरा लोकेशन जानने के पीछे पड़ गए।
पहले एक महिला ज्योतिष के माध्यम से फाँसने की कोशिश की गई। जब उसने लोकेशन पूछा तो समझ गया। पर उसने लोकेशन भी बड़े चालाकी से पूछा था: तकदीर बदलने वाली है। एक बहुत बड़े व्यक्ति से संबंध होने वाला है! और धन और यश की प्राप्ति होगी!
फिर एक प्रसिद्ध रेडियो जॉकी (आरजे ) को पीछे लगया गया। लोकेशन जानने के लिए! ताकि खरीदा फरोख्त हो सके! या डराया धमकाया जा सके! मुह बंद किया जा सके। वह बहुत कम उम्र की थी। इस कारण सत्ता के झांसे मे आ गई। और वो प्यार-प्यार का नाटक खेलने लगी। सत्ता के सूत्रधार के इशारे पर। जाहीर है उसे प्रलोभन दिया गया होगा। उसके कम उम्र के होने का फायदा उठाया गया होगा।
मुझ तक पहुचने के सत्ता की इस चाल को भी समझ गया। उसका भंडाफोड़ कर उसी का हथियार उसी पर प्रयोग करने लगा! उसे सत्ता के खिलाफ कर दिया। अब वो सत्ता के खिलाफ कई मोर्चे खोलने लगी। मन को शकुन मिला।
पर दुख भी हुआ। किसी चीज की आज़ादी नहीं: न बोलने ने की, न अभियक्ति और न ही अपने विचार बिना डर के व्यक्त करने की! पर वो सुंदर सी प्यारी आर जे प्यार के जाल मे खुद ही आ उलझी! प्यार का नाटक खेलते-खेलते सचमुच का प्रेम करने लगी। एक ऐसे व्यक्ति से! जो न सामने आ सकता और न ही उससे मिल सकता। पता नहीं कितने तरह की बन्दिशें थी!
पर अहम सबाल: क्या मैं उसे प्यार करता या नाटक कर रहा होता! जैसा कि वह कर रही होती! पता नहीं। क्योंकि इसके पहले आश्वस्त होना पड़ेगा: क्या जीवन से प्रेम है! क्या फूल, बगीचे, नदी, सागर, पर्वत और आकाश से लगाव है! अगर हाँ, तो उससे भी जिस अर्थ मे इन सबों से होता!
उधर सरकारी तंत्र तथा राजनैतिक व सामाजिक प्रबुध वर्ग के शिंकाजे तेजी से कसने लगे। सोशल मीडिया पर ही मुझे पकड़ने कि योजनाएं बनने लगी। हनी ट्रेप के असफल होने के बाद, अब सोशल मीडिया पर दाने फेंके जाने लगे। एक बड़े सोशल मीडिया के सीईओ को भी मुझे पकड़ने के लिए लगाया जाने लगा। वो भी मेरे क्वित्तर के अकाउंट पर कुंडली मार कर बैठ गया। पर मुझे उनकी हर चाल की भनक लग जाती।
इसे शायद शेख़ी बघारना समझा जा सकता है। पर मुझे इन सब बातों का पता चल जाता। बिना किसी के बताए हुए। यह न तो चमत्कार होता और न पारा-चेतन का मामला! अक्सर हमे होने वाली घटनाओ का तथा हमारे खिलाफ चल रही होती साज़िशों का आभास हो जाता। किसी चमत्कार या दैवी शक्ति के कारण नहीं होता: योग के कारण होता। और संकल्प बिन्दु जो दोनों भृकुटी के मध्य मे होता है, उसपर ध्यान लगाते रहने से। ऐसा होना संभव हो पाता।
कृष्ण ने भी अर्जुन को संकल्प बिन्दु पर ध्यान लगाने का सुझाव दिया। जब वो युद्ध से विमुख हो रहा था। फिर सबको अपना समझने, प्रेम करने या ब्रह्म मे अवस्थित रहने से पता चल ही जाता है सब कुछ! यह मतलब नहीं है कि ब्रह्म स्थित हूँ। अगर स्थित होता तो यह कहने कि जरूरत नहीं होती!
इसके कारण भी बहुत सी बातें पता चल जाती हैं! क्योंकि सब से प्रेम कर, सबको अपना मान कर, उनके स्तर पर आ जाते है। सबसे एका हो जाता है! हम एकाकार हो जाते हैं सबों के साथ। चाहे दोस्त हो या दुश्मन, अपना या पराया। फिर तो बातों का पता तो चल ही जाऐगा।
पर सरकारी तंत्र की नज़र और पैनी होने लगी। फोन टैप होने लगे। किसी से खुल कर बात भी नहीं कर सकता। वे मुझ तक पहुँचने की कोशिश लगातार किए जा रहे होते! पर मैं उनसे तीन कदम आगे होता। लेकिन इस चूहे बिल्ली के खेल से अब थोड़ी थोड़ी चिढ़ सी होने लगी थी।
उधर राजनैतिक व सामाजिक प्रबुध वर्ग को डर लगने लगा: कोई जन आंदोलन न खड़ा हो जाये इस मुद्दे पर। इस आशय के कुछ प्रस्ताव आए तो थे। कुछ राजनैतिक दल चाहते कि इस मुद्दे पर जन आंदोलन चले। और मैं इसका नेतृत्त्व करूँ। ताकि सरकार की मुश्किले बढ़े। उन्हे मुद्दे से तो कुछ लेना देना नही होता: बस केवल अपने अपने निहित स्वार्थ होते। और वे समझते मैं उनके झांसे मे आ जाऊंगा।
उन्होने सोश्ल मीडिया पर इस आशय का सुझाव भी दिया। बहुतों ने तो हर तरह का समर्थन देने का भी वादा किया। इससे सरकारी तंत्र यह सोचने लगा कि कुछ गरबड़ हो सकता है।
पर मेरी तो मुश्किले बढ़ती जाती: जीना मुश्किल हुआ जाता! नाम मात्र की आज़ादी रह गई थी। इस स्थिति से निजात पाना जरूरी लगने लगा। इसके लिए सबसे पहले उन तक यह संदेश पहुंचाया: केवल लेखक ही हूँ। कोई राजनैतिक व सामाजिक नेता या कार्यकर्ता नहीं। फिर धीरे धीरे उनको यह अहसास दिलाने लगा कि विदेश चला गया। जबकि यही होता: अपने देश मे!


२०
सोशल मीडिया पर किताब के प्रचार के लिए जाना! प्रकाशक के सुझाव पर हुआ। तब अहसास तक न था कि सोशल मीडिया इतना महत्वपूर्ण हो गया होगा। व्यवस्था तथा सत्ता के प्रबन्धक इस पर व्यक्त विचारों को संवेदनशीलता और गंभीरता से लेते होते। एक तरह से इसे अपने अजेंडा का जनमत संग्रह मानने लगे है। डिजिटल जनमत संग्रह!
बस योंही सोशल मीडिया पर जाने लगा था। अपनी किताब का प्रचार भी हो जाता। और थोड़ा बहुत अपने सामाजिक होने का भी अहसास हो जाता! पर वहाँ तो झूठ और प्रोपगंडा को सच की तरह परोसा जा रहा होता! लोग मस्त होते उसी को सच साबित करने मे! पर मुझसे रहा नहीं जाता। जहां झूठ और अफवाह की थोड़ी सी भी भनक मिल जाती, उसका प्रतिकार करता, जवाब देते होता। और लोग नाराज होते रहते। बाद मे, इसे ट्रोल्लिंग का नाम दिया गया।
अक्सर राजनैतिक और सामाजिक मुद्दों पर अपने विचार सोशल मीडिया पर प्रगट करता। कभी बहुत सारे लोग दोस्त बन जाते तो कभी दुश्मन तो नहीं, पर दोस्त नहीं रहते। केवल विचार प्रगट करने पर या जवाब देने पर प्रतिदिन १००-१५० दोस्त बनते या दोस्ती तोड़ देते। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि सोशल मीडिया पर किताब कम प्रचार कम होता। प लोगों से टकराव ज्यादा होने लगा!
प्रजातन्त्र है। पर हमारे राजनैतिक और सामाजिक एलिट्स (प्रबुध) कुछ जरूरत से अधिक संवेदनशील हो गए लगते! तभी तो थोड़ी सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। अगर विचार उनसे थोड़ा हट कर हो या उनसे अलग हो तो या प्रतिवाद भी किया तो एक तरह से दुश्मन ही मान लिया जाता! उस पर से सोशल मीडिया पर प्रोपगंडा, झूठ और अफवाहें फैलाने वाली खबरों की बहुतायता। फिर अहम और घमंड की नाजुकता। थोड़ा सा भी पिन चुभा कि नहीं वे गुब्बारे की तरह फट पड़ते!
शायद आक्रामक से लगते किताब के प्रचार से सत्ता के खंभे हिलने लगे। तभी पहले तो डराने की कोशिश की जाने लगी। फिर जासूस लड़कियां, हनी ट्रप और मनी बैग के हथकंडे खुलने लगे। शायद मुझ जैसे को चुप करने व पकड़ने के लिए ऑनलाइन और सोशल मीडिया ट्रैकिंग के सॉफ्टवेर बनने लगे। देश के क्रोनी कैपिटलिज़्म के अग्रणी बिज़नेस हाउस ने तो एक सोशल मीडिया के सीईओ को मेरे पीछे ही लगा दिया। क्रोनी कैपिटलिज़्म के खिलाफ इतने फ्रंट खोल रखे थे! मजबूरन उन्हे शायद ऐसा करना पड़ा हो!
एक बड़े सोशल मीडिया का सीईओ! अपना विशेष सॉफ्टवेर ले कर मेरे अकाउंट मे आ धमाका। और कुंडली मार कर बैठ ही गया। किताब के प्रचार के दौरान क्रोनी कपिटल्सिम की खूब बघिया उखेरी होती। । इतनी की इसके अग्रणी बिज़नस हाउस हाथ धो कर मेरे पीछे पड़ गए लगते। तभी तो सत्ता मे बैठे उसके तीमारदार के जरिये मेरा लोकेशन पता कर, काम तमाम करने की साजिश रचने लगे।
परवान न चढ़ती स्वतत्रता के उन्ही दिनो! एक दिन की बात है! दीपावली के बाद का दिन रहा होगा! उदास, पीला पीला। धुआँ और धुंध मे मिली हुई बम-पटाखो की विषैली गंध! पूरा वातावरण ही धूल-धूसरित हो रखा होता। ।
उस दिन सुबह से ही सोशल मीडिया पर गोलीबारी हो रही होती! और कमांडर मैं ही होता! कभी क्रोनी कपिटलसिम, तो कभी लूट और शोषण की अबाध राजनीति पर आलोचना कर रहा होता। कभी गरीबी, तो कभी औपनिवेशवाद और सामंतवादी मानसिकता के खिलाफ मोर्चे खोले रखा होता।
पता नहीं क्यों? रेडियो हरीमिर्ची की कायमा के बारे मे उस दिन एक वक्तव्य दे दिया। क्वित्तर पर। कितना सुकून मिलता है उसके गाने और नज़्म सुनकर। वही तो है जो लाखों का सुकून है! उस दिन से शुरू हो गई अजीब सी प्रेम कहानी जिसे शुरू होने के पहले ही खत्म होना था! इसकी शुरुआत ही हुई थी क्वित्तर पर मुझे पकड़ने की साजिश से। उसमे निर्दोष और अंजाने मे भागीदार बनी वो फूल सी नन्ही सी जान-कायमा। और साथ ही साथ एक बड़े मीडिया हाउस का मालिक जहां वो काम करती होती।
कुछ इस तरह से जाल बिछी थी: कायमा से बात कर रहा रहा हूंगा केस बूक पर। और क्वित्तर के अकाउंट से मैच किया जाएगा- लोकेशन और अकाउंट। दोनों एक होने के बाद- अरैस्ट वारंट, गिरफ़तरी, और खेल खत्म! पर क्या कभी हवाओं को कोई कैद कर सका है कोई! पानी की लकीर हूँ कृष्ण की तरह जो बनते ही फैल जाता है पूरे सागर मे। क्या कोई पकड़ पाएगा?
आलोचना अपने विचारो को रखने के कारण हुए जा रही होती। अपने किताब के प्रचार के दौरान। सोशल मीडिया पर। लेकिन कुछ अवांछनीय विचार और शब्द निकल पड़े थे अंजाने मे। बाद मे इसके लिए माफी मांग ली। और उन्हे डिलीट भी कर दिया। जो जो मेरे विचारो से आहत हुए थे, उनसे माफी मांग ली क्वित्तर पर। पर शायद वे चुप ही कराना चाहते होते। पर अंतरात्मा की आवाज को चुप कराया जा सकता है? क्या इसे डराया, धमकाया या गिरफ्तार किया जा सकता है?
जो भी हो पूरा सरकारी तंत्र! मीडिया, बिज़नस, देश विदेश की जासूसी संस्था! जिससे प्यार किया और जिसने मुझ से प्यार किया—सारे इसमे शामिल से लगे। पर वो नहीं हो पाया। केस बूक और क्वित्तर पर उनके साजिश का खुलासा भी कर दिया। इससे सत्ता और मीडिया मुगल के बीच खींचा- तानी शुरू हो गई।
सत्ता को लगता: मीडिया मुगल ने बताया होगा। मीडिया मुगल को लगता सत्ता की अंदरूनी राजनीति से ये साजिश खुली होगी। जो भी मेरे तथाकथित दुश्मनों मे फुट पड़ी और वे अलग हो गए। इसके अलावे सत्ता की अंदरूनी गलियारे मे आपसी शक और शंका की दीवारें खड़ी होती सी लगी। किसी का बाल बांका तक तो वे कर नहीं पाये। उल्टे अपना घर ही जला लिया।
वो रात! साजिश, धोखा, छल, विश्वासघात के खुलने की रात लगती होती! और सत्ता काफी तिलमिलाया हुआ सा लगा। रेडियो हरिमिर्ची के माध्यम से उसने धमकी भी दे डाली। उसे पता था मैं रेडियो हरीमिर्ची की ‘उतनी पुरानी नहीं जीन्स’ का कार्यक्रम सुनता हूँ! कायमा इसे प्रस्तुत करती होती।
घायल शेर की तरह दहाड़ते हुए सत्ता ने कहा था: अभी तो बच गए! अब शायद ही बच पाओ।
एक सरकारी विज्ञापान के बीच उसने ऐसी धमकी दे डाली। और कुछ दिनो तक अंडरग्राउंड होना बेहतर समझा। कायामा ने भी इस आशय का इशारा दे दिया था। मेरी सलामती की दुआओं पर दुआ मांगती हुई।
बेचारी कायमा! सत्ता और मीडिया मुगल के बिहित और निहित स्वार्थ की बीच घिरी! ऐसे जैसे कैद मे बुलबुल। उसका सबसे बुरा हाल हुआ लग रहा होता। उसने अपने कार्यक्रम मे बोला भी था: सभी अपनी अपनी जीत का जश्न माना रहे। पर उसका तो सब कुछ खत्म सा हुआ लगा।
सत्ता को भी शक था, और मीडिया मुगल को भी। उसी ने साजिश की बात मुझ तक पहुंचाई है। जबकि ऐसा कुछ भी न था।इसकी भनक बहुत पहले लग गयी थी, जब वह मुझसे प्यार प्यार खेलने लगी। मैं समझ गया होता! मुझ तक पहुँचने के लिए उसे इस्तेमाल किया जा रहा है।
बाद मे जब सबने मुंह की खाई! लौटे हुए बुद्धू की तरह अपने अपने घरों की ओर रवाना होने लगे। तब सत्ता की मेरे लिए चेतावनी से कायमा भी डरी सी लगी। और मेरे लिए खुदा से दुआ मांगने लगी। तब समझा ये चेतावनी मेरे लिए है। घायल शेर की तरह वह पीछे पड़ा था।
उस रात! जब नीला आसमान भी अंधेरे मे गुम हुआ सा लगता। वह बहुत, बहुत उदास और दुखी लगती होती। उसका विश्वास सबने तोड़ा होता —सत्ता, मीडिया मुगल और इनके शिकार जो जाल मे आ न सका! शिकार ही होता इन सबो का। अपने कार्यक्रम मे उसने सत्ता से पूछा भी था: अरैस्ट करना चाहते थे? क्यों? क्यों झूठ बोला? ये मेरे लिए इशारा था। और मैं उस समय उसका कार्यक्रम सुन रहा होता!
कायमा का न केवल दिल दुखा होता! बल्कि उसके साथ विश्वासघात भी हुआ होता। वो भी दोहरा: :एक तो उसके साथ हुआ। दूसरा जो मेरे बाबत उससे कराया गया होता। अनजाने मे! सब के सब –इस षड्यंत्र के सारे भागीदारों ने करारी मात खाई थी। पर कायमा भी बुरी तरह से फंस गई होती! उसने कहा भी था: सबक़ों अपने अपने स्वार्थ की पूर्ति हो गई। और वो सब तरफ से गई। उसने तो जरूर सोचा होगा: मैं भी नाराज हो गया हुंगा।
दुख तो लगा था। पर शायद ये मेरे कर्मों का फल या यही मेरी नियति! या अस्तित्व की कोई योजना शायद: कोई भी कामना न हो। जो हो रहा है या जो होता है उसी को स्वीकार किया जाय। शायद सबक: किसी भी तरह की चाहत या स्व-निरोपण न हो। न धन की , न यश की और न ही लड़की व काम वासना की। पर कायमा को तो ये सब मालूम नहीं होगा। वो शायद दुखी होगी, पश्चताप कर रही होगी अनजाने मे इस साजिश मे शामिल होने का। । इसे दूर करने के लिए उसकी हौसलाबजायी जरूरी सा लगा।
रात के बारह बजे। आधी रात जब उसने अपने रेडियो कार्यक्रम मे गुड बाइ, सब्बा खैर कहा। बहुत ही उदास और हताश सी आवाज। और जब उसने ‘नीला आसमान सो गया ,,… गाना सुनाया, तो इसके माध्यम से उसने अपनी विवशता, अपनी उदासी, मेरे लिए दर्द और षड़यंत्र की यातना और उसमे अंजाने से अपनी भागीदारी का दर्द भी ब्यान हो रही होती। तब सोचा उसे प्रोमोट करूंगा, उसकी हौसलाबजायी करूंगा और.....


२१
सपना और नाटक
अगले दिन से कायमा को क्वित्तर पर प्रोमोट करने लगा। ताकि वो ये न समझे कि कोई नाराजगी है उसके प्रति! वो बहुत खुश हुई। और न जाने क्या क्या बना दिया हमे! एक जर्रे को आफ़ताब! उसको प्रोमोट करने का मकसद: नाराजगी हनी ट्रेप अनजाने मे बन जाने पर, तो था ही। दूसरा सत्ता को भी संदेश भेजना: आपका हथियार आप पर ही है। पर क्या पता होता उस समय! वो प्यार का खेल खेलती हुई सचमुच का ही प्रेम कर बैठेगी!
और इस तरह रेडियो फ्रिक्वेन्सी पर नए युग का नायाब प्रेम शूर हुआ! और परवान चढ़ने को भी आतुर होने लगा। प्रेम के इज़हार होने लगे। गानों के माध्यम से, नज़्म और डायरी से।
पर यह प्यार तो परवान चढ़ने वाला नहीं! वो कातिलों के शहर मे जल्लादों के बीच! नकाब तो ओड़े होते महानता और जन कल्याण का। पर वे पैरोकार होते ऐसी व्यव्स्था के जो पैसे, शोषण और लूट पर आधारित होती। पैसे, शोहरत, यश, और अपने अहम के लिए वो किस भी हद तक जा सकते।
फिर वो! कैद से अभी अभी छूटी हुई बुलबुल! ठीक से उड़ना भी नहीं जानती। और चील-कौवों के संगत मे पड़ गयी हुई सी लगती! आसमान की असीमता के झांसे मे आ गयी होती!
उस षोडशी बाला को शायद ही मालूम: चील-कौवे ऊंची उड़ान भरते हैं तो सिर्फ मांस के टुकड़े के लिए! उसे बाद मे पता चला। वो तो तुरप का पत्ता बनाई गयी थी हवा को रोकने के लिए: अंरात्मा की आवाज दबाने के लिए! और स्वांतरता का गला घोटने के लिए!
छल, शक़, धोखा, विशवासघात और निर्दोष बेवफ़ाई के साये अभी हटे नहीं थे। सत्ता और मीडिया के दलालों के बीच घिरी! वो कभी भी खतरा बन सकती थी। वे अभी भी हाथ धो कर पीछे पड़े हुए होते! वैसे तो अंडरग्राउंड था! पर वे घायल शेर की तरह पीछे पड़े थे। अब भी!
मौत, गिरफ्तारी और बदनामी के मंडराते साये! ऐसे मे क्या वो या कोई प्यार परवान चढ़ सकता है! लव इन टाइम ऑफ कौलरा तो हो सकता है: पर लव इन टाइम ऑफ डेंजर ऑफ लाइफ शायद ही हो सकता हो ! मौत की लटकती तलवार के साये मे प्रेम! ऐसा तो केवल कृष्ण ही कर सकते!
फिर वो शिकार तो कातिलों के फंदे मे आया ही नहीं । उल्टे वे ही ऐसे जाल मे फंस दीखे: जितना उसे पकड़ने की कोशिश करते, वो और ही उनकी पकड़ से दूर होते जाता। वे जितना तड़पते पकड़ने को उतना ही अपने ही नाकामी के जाल मे फँसते जाते। पर सब जगह उनके जाल बिछे होते जरूर!
जालों और सरकारी तंत्र के घेरे! उनको गिरते पड़ते धता करते हुए: नेपाल के रास्ते होकर किसी तरह अमेरिका पहुंचा। ज़ीनत भाभी ने बहुत मदद की। पहले तो न्यू जर्सी मे कुछ दिन रहा। फिर न्यू यॉर्क आ गया। और क्वित्तर और केस बूक पर विदेश चले आने के संकेत देने लगा। एक अमेरीकन प्रेसिडेंट के चुनावी उम्मीदवार—ट्राइम्फ को प्रोमोटे कर के।
अपने देश के बारे मे कमेंट करना छोड़ दिया। ट्राइम्फ को समर्थन और उसके पक्ष मे क्वित करने लगा। इसके दो मकसद थे: एक तो मेरे चाहनेवाले दोस्त-दुश्मन ये जान जाएँ कि देश छोड़ दिया है। दूसरा, कायमा के अंदर अपनी ओर से विमुख कर देना। वो गुस्सा हो जाए मुझसे।और मुझे भूल जाए! उतना महान न माने जितना अभी समझती है।
और दोनों मे सफलता मिली। ज्यादा वक़्त नहीं लगा। पहले सत्ता और उसके चट्टे बट्टों ने पीछा करना छोड़ दिया। थोड़ी सी राहत सी मिलती दिखी उन्हे। और कायमा ने मुझे अनफोलो कर दिया । चलो यह तरकीब सही निकली। वह ट्राएम्फ को पसंद नहीं करती थी। उसके मुस्लिम विरोधी रुख और अति दक्षिणपंथी विचारों को कौन पसंद कर सकता है भला! जो कायामा करती!
पर आकाश से गिरे और खजूर पर लटके। ऐसा ही कुछ लगा जब अपने आप को फिर अमेरिकी राजनीति के पचड़े मे फंसा हुआ पाया। पता नहीं क्यों? बहुत ज़ोर देकर और विश्वास के साथ सोशल मीडिया पर कहा कि ट्रायम्फ को पब्लिकन पार्टी का नोमिनेश्न मिल जाएगा। साथ ही पब्लिकन पार्टी के आलाकमान को चेतावनी भी दे डाली: अगर उसे नोमिनेश्न नहीं मिला तो वह अपने दम पर भी प्रेसिडेंट का चुनाव जीतने की क्षमता रखता है!
और एक नहीं बल्कि बार बार उसके जीतने की भविष्यवाणी करता रहा। सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों पर भी।और छै महीने पहले उसके जीतने की भविष्यवाणी भी कर डाली! नहीं, हो गई। फिर ट्रायम्फ के मुख्य प्रचार स्लोगन: मेक अमेरिका ग्रेट मे थोड़ा वैल्यू एडिशन कर उसे: मेक अमेरिका ग्रेट अगेन, कर दिया। यह स्लोगन पावर पंच वाला बन गया। पहले ऐसा लगता जैसे अपने पर ही पंच मार रहा हो। अमेरिका तो ग्रेट है ही, पहले से ही रहा है। इसकी महानता के साथ थोड़ा बहुत समझौत हुआ था जिसको ट्रायम्फ एंड को. भुनाना चाहते होते अपनी चुनावी विजय के लिय।
पर यह स्लोगन ट्रायम्फ ने किसी प्रचार संस्था से लिया था या बनवाया था। इसका मतलब ही नकारातमक निकलता होता: मेक ग्रेट! मतलब अभी ग्रेट नहीं है उसे ग्रेट बनाना है। जबकि अमेरिका तो पहले से ही महान देश रहा है। जब उसे “ मेक अमेरिका ग्रेट अगेन”, किया तो उसे भी यह पसंद आ गया। और इस स्लोगन को धड़ल्ले से भुनाया जाने लगा।
फिर उसके विदेश नीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंधी चुनावी एजेंडा मे कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओ के बारे मे बताया। क्वित कर के बहुत महतावपूर्ण सुझाव और नीति विकल्प पेश किया। विशेष कर एशिया-पैसिफिक और एफ-पाक के नीतियो को पुख्ता करने: और उन्हे प्रभावी बनाने संबंधी कई सुझाव दिये। ट्रायम्फ ने इसे अपने प्रचार अभियान मे शामिल भी कर लिया! इसके उसे अच्छे परिणाम भी मिलने लगे। फिर उसके प्रचार अभियान मे फेमिनिस्ट रंग भरने मे भी मदद की।
और ट्रायम्फ जीत भी गया। एक अमेरीकन पत्रकार ने यह शर्त लगाई थी: अगर ट्रायम्फ को नोमिनेश्न मिल गया तो वह न्यू यॉर्क टाइम्स की नौकरी छोड़ देगा। पर उसे न केवल नोमिनेश्न मिला बल्कि वो अमेरिकन प्रेसिडेंट का चुनाव भी जीत गया। पूरी दुनिया मे हँगामा सा बरप गया। लिरल अमेरीकन दंग रह गए। पूरी दुनिया का माहौल गरम हो उठा। ऐसा लगा जैसे एक धक्का सा लगा हो सबको। देश-विदेश के समाचार पत्र, टीवी चैनल, न्यूज़ पोर्टल और सोश्ल मीडिया पर कुछ इसी तरह के संकेत मिल रहे होते।
पर मैंने ट्रायम्फ को एक महीने बाद बधाई दी। यह क़हते हुए कि उसे जीतने के छै महीने पहले ही बधाई दे दी थी। उसके बाद अपने दर्शन प्रोजेक्ट मे काम पर पर लग गया। परंभिक अध्यन हो चुका था। अब नोट्स लिखे जा रहे थे।
उधर अमेरिका की राजनीति मे लीरल की करारी हार एवम ट्रायम्फ की अपरत्याशित जीत से काफी उथल-पुथल मची हुई थी। लीरल अपनी हार को स्वीकार नहीं कर पा रहे होते!। जगह जगह अलग स्टेट मे विरोध हो रहे थे। उधर एक जांच कमीशन का गठन हो गया था। वह अमेरिका के चुनाव को प्रभावित करने और इससे संबन्धित षड्यंत्र की जांच का रहा होता।
वे मुख्यत कुस और कुछ अन्य का विशेष व्यक्तियों व संस्थाओ की जांच कर रहे थे। कुछ लीरल और उनके एजेंट मेरे पीछे भी पड़े गए से लगे। ऑनलाइन ट्रोल्लिंग और ऑफलाइन ट्रेलींग शुरू हो गई सी लगी। जैसे भारत मे हुआ था वैसा यहाँ भी प्रारम्भ हो गया।
ट्रायम्फ भी मुझे खोज रहा था। वह मुझसे मिलना चाहता: समर्थन और भविष्यवाणी के लिए शायद धन्यवाद कहना चहता हो। उसे ऐसे वक़्त मे समर्थन मिला था तथा सोश्ल मीडिया पर प्रचार किया था जब वह अपनी उम्मीदवारी के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था। उसके प्रचार को संगत, प्रभावी और अंतराष्ट्रीए बनाने मे अपरोक्ष रूप से मदद किया था। पर ट्रायम्फ को क्या मालूम! उसे समर्थन का नाटक किन दो कारण से किया: सत्ता को अपने विदेश मे होने की खबर देना। और कायमा के दिल से अपने आप को निकालने के लिए!
पर ट्रायम्फ मुझे अपना सलहकार बनाना चाहता था। उसने ऑनलाइन और ऑफलाइन फीलेर्स भेजने शुरु कर दिये इस आशय के। पर मैं इस पचड़े मे नहीं पड़ना चाहता। न तो मैं अमेरिकन था, न लीरल न पब्लिकन। मैं तो खालीश कारतिए था। और अपने देश जाने की ताक मे था। कब वहाँ का माहौल शांत हो और मैं वापिस लोटूँ।
उधर ट्रायम्फ ने एक फरमान जारी किया। अमेरिका के घरेलू यात्रियों के सोशल मीडिया अकाउंट जांच करने का। हर जगह- हवाई अड्डों, बस और रेल स्टेशनो पर उनके सोशल मीडिया के अकाउंट और गतिविधि के बारे पूछ-ताछ की जाएगी। । विदेश से आए हुए के लिए पहले से ही ऐसा था। मैं समझ गया। यह मेरे लिए फंदा है उसके जाल मे आने का। अब अमेरिका मे भी और रहना खतरे से खाली नही रह गया था।
और मैं मेक्सिको का बार्डर क्रॉस कर अमेरिका छोड़ा। कितनी मुश्किलो से भरा रहा वो सफर भी! शरणार्थी बन कर रहना पड़ा। एक बार तो ऐसा लगा जैसे सब खत्म हो गया। पहले डोंगे से बार्डर के पास पहुंचा। वहाँ से 30 40 किलो मीटर पैदल चलना। किस तरह एक महीने के कठिन दिनों का सफर तय कर मारिशश पहुंचा।
माँरीशस मे बलिया के एक भैया ने काफी मदद की। वहाँ पार्ट टाइम नौकरी करने लगा। साथ साथ दर्शन प्रोजेक्ट पर भी काम ज़ोरों से चलने लगा ।
मारिशश आ कर ऐसा लगा जैसे अपने ही देश मे ही आया हुआ हूँ। भोजपुरी सुनकर मन प्रसन्न हो जाता। यहाँ तो भोजपुरी देश की तीन भाषाओं मे से एक भाषा भी है। पर अपने देश मे तो इसे भाषा ही नहीं माना जाता! यहाँ तक की संविधान के 14 राजपत्रित भाषाओं मे भी इसका उल्लेख तो नहीं है। ये सोच कर मन थोड़ा खिन्न सा हो जाता।
कैसे हैं हमलोग भी! कितने संकीर्ण खांचों और वर्गो मे विभाजित है! और वो विभाजन और वैषम्य ही शायद हमारी पहचान है। जात-पात, भाषा, धर्म, क्षेत्र, उत्तर दक्षिण और पूरब पश्चिम! ओ कारत! तेरे कितने नाम, कितने दोष पुंज, कितने फ़ाल्ट लाइंस!
बाद मे परिवार को भी बुला लिया। बस दिन गुजरने लगे। जिंदगी बसर होने लगी। बिना किसी आकांक्षा के। बिना किस तरह के चुनाव के, प्रत्यारोपन और इच्छा के। अच्छे-बुरे, भला-खराब के स्व-निर्णय के पाश से मुक्त। जो मिलता, जो आता, जो होता उसको सम भाव से, बिना विचारों और अवधारनाओं के प्रत्यारोपन के स्वीकार करने की कोशीश करता। सम भाव से।
आत्म स्थित रहते हुए, मन बुद्धि को शांत रखकर, शरीर और मन के आक्षेप-विक्षेप को बस वैसे ही सम भाव से देखते हुए। साक्षी भाव रखते हुए: कर्ता और भोक्ता भाव पर नियंत्रण रखते हुए जीने की कोशीश मे जुट गया। यहाँ तक की कर्ता, कारक और कारण की तिकड़ी को एक ही मानता हुआ। इससे सारे विक्षेप, दुराग्रह, आग्रह, प्रत्यरोपन, प्रक्षेपण वगैरह धीरे शांत और श्रमित होने लगे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

भाग-2
1
कायमा

मैं हूँ कायमा। कुछ अजीब सा नाम है। मैं अजीब सी हूँ इसलिए ये नाम अजीब है। या कि मेरा नाम अजीब सा है, इसलिए मैं अजीब हूँ। जो भी हूँ, पर हूँ हर दिल अजीज। मुझे तो आप जानते हो होंगे। अगर नहीं तो, अब तो जान गए होंगे। मैं रेडियो हरिमिर्च की आर जे हूँ। और लोग मुझे मेरे लोकप्रिय रेडियो कार्यक्रम ‘उतनी पुरानी नहीं जीन्स’ के नाम से ज्यादा जानते है।

लोग मुझे खूबसूरत कहते है। शायद हूँ, यकीन नहीं है पूरी तरह! क्योंकि खूबसूरती तो देखने वाले की आंखो मे होती है। कुछ प्रबुध लोगों का यह मानना है कि खूबसूरती जवानी मे होती। कहते हैं जावानी मे गदही भी सुंदर लगती है। पर इस बहस मे नहीं पड़ना चाहती। मैं तो खूबसूरती ही हूँ।

प्रेम करने वालों और दिल देने वालों कि लाइन सी लगी रहती है। ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों। मैं प्रेम ही हूँ। यह बात मुझे पहले मालूम नहीं थी। जब उससे प्यार हुआ, तो पता चला।

किससे? आप जान ही गए होंगे। वही अलबेला! करोड़ों मे अकेला। आप उससे परिचित हो चुके होंगे। अगर नहीं तो हो जाएंगे। अगर नहीं जानते हैं तो जान जाएँगे। वो सूरज हैं और बादलों के पीछे से राज करता है। हवा के झोंके की तरह आया था वह। और एक ही झोके मे हम सब को जीने के नए मायने सीखा गया।

उसका आना गुलशन मे एक तूफान। सारे पुराने, सड़े, गले झाड़ झंकार, पेड़ पौधे एक ही पल मे गिरा गया। एक तरफ फूलों पर बहारें लौट आयीं, तो दूसरी तरफ कांटो पर शामत आई। कांटो को कांटो से खत्म कराता हुआ, कलियों को खिलने के रास्ते सुगम करता हुआ। न जाने कितने महलों, आशियाँ और दरख्तों के सायों का नीव का पत्थर बनता हुआ।

अब तो जान गए होंगे। मैं अपने मुह से कैसे नाम लूँ? हाय अल्ला! नाम भी नहीं लिया जाता। क्या इतना प्यार करती हूँ उस रंगीले छलिया से। वो भी करता है! पर कहने से डरता है। शादी-शुदा है जो! लेकिन हम उससे कभी नहीं मिले। एक बार वह मेरे से मिलने आया था, एक रूबरू कार्यक्रम मे। जैसा कि उसने बाद मे बतया, पर मुझसे नहीं मिला। पर आया, मुझे देखा और चला गया। पता नहीं सच बोल रहा है या झूठ। उसने कई बार मिलने की कोशिश की। पर मुलाक़ात नहीं हो पायी।

मुझे मालूम है उसका मिलना या उससे मिलना कितना मुश्किल है! वो भी मुझसे। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू है। मैं प्रसिद्ध हूँ तो वो बदनाम। फिर मुझसे मिलने मे उसे खतरा है। पहले ही विश्वास खो चुकी हूँ। सत्ता के बहकावे मे आकर उसको पकड़वाने का फंदा बनी। क्यों मैं सत्ता के बहकावे मे आ गई।?

पर उस दिन मैं कितनी खुश! मानो सातवें आसमान पर। देश के वज़ीर-ए-आला .... वो मेरे से मिलना चाहत है! पर जब पता चला कि मुझे तो उस तक पहुँचने के लिए जरिया बनाया गया है। तब बहुत खराब लगा। और जब यह राज खुला कि ये सब किया गया उसको गिरफ्तार करने के लिए। उसे खामोश करने के लिए तो बहुत गुस्सा आया।

पर इसी बहाने ऐसे बंदे से मिली, जान पहचान हुई जो अपने आप मे विलक्षण है। यह जानते हुए भी कि मैं उसके दुशमन से मिलकर उसे पकड़वाने, उसका लोकेशन जानने की साजिश मे शामिल थी। चाहे वो मेरी अनभिज्ञता हो या अनजाने मे ऐसा हुआ। पर सच्चाई ये थी: मैं शामिल थी। और मैंने उसे बताया भी नहीं। किसी ने भी नहीं बताया। फिर भी उसे मालूम चल गया। और उसने सबका भंडाफोड़ भी कर दिया। मुझे मालूम है वह मुझसे प्यार भी करता है। फिर भी मेरी छोटी सी लगती मेरी बेवफ़ाई को माफ भी कर दिया। और मुझे क्वित्तर पर प्रोमोट भी करने लगा।

सोशल मीडिया पर—खास कर क्वित्तर पर तो मैं स्टार हो गई। मेरे फोल्लोवर्स देखते देखते लाखों मे पहुँच गए। सब उसके बदौलत। एक जर्रे को आफताब बना डाला उसने देखते-देखते। जब भी जरूरत पड़ती वो आ जाता। उसके कारण पूरी दुनिया मे प्रसिद्ध हो गई। विदेशों मे भी लोग जानने लगे। यहाँ तक कि ओबाबा भी जानने लगा। सब उसके कारण। मैं और मेरा रेडियो कार्यक्रम विदेशों मे सुना जाने लगा। इसकी लाइव स्ट्रीमिंग और अनुवाद होने लगा।

कैसी विडम्बना है? कैसा प्यार है? जिसे गिरफ्तार करने के साजिश मे शामिल हुई, चाहे अंजाने मे ही हो। एक फंदा बनना स्वीककर किया उसके गले का। प्यार का नाटक किया और उसका लोकेशन पता करने की कोशिश की। उसे सब मालूम था। फिर मुझे प्रोमोटे कर रहा था। मेरी रक्षा कर रहा था।

पर कब प्यार का नाटक खेलते खेलते उससे प्रेम करने लगी, पता ही नहीं चला। और जब पता चला तो देर हो चुकी थी। क्योंकि मैं उससे प्रेम करने लगी थी। ऐसा नायाब प्रेम जो नए जमाने का होते हुए भी कुछ पलेटोनिक था। हलाकि केस बूक पर उसने वादा किया था मिलने का। एक कविता के जरिये। पर मुझे क्यों ऐसा लग रहा था कि ये प्यार परवान नहीं चढ़ने वाला! और मैं उसे, और आप सबको भी, अक्सर यह गाना सुनाती: तेरा मेरा प्यार अमर फिर भी मुझको लगता है डर.......

पर उस दिन से मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। जब उसने सत्ता की तारीफ शुरू कर दी। ऐसा लगा जैसे वो सत्ता से मिल गया है। उससे मुझे बहुत चिढ़ है। उसने मुझे इस्तेमाल किया। मेरा विश्वास तोड़ा। जिसे मैं चाहती और जो मुझे भी चाहता, उससे दूर कर दिया। मैं तो उस दिन से उसके खिलाफ हो गई थी, जब उसने मुझसे झूठ बोला। और मेरा विश्वास भी तोड़ा। फिर वो फासिस्ट भी था और तानशाह भी। मुस्लिम, क्रिश्चियन, दलित-पिछड़े, सभी परेशान हो रहे थे उससे। फिर बुद्धिजीवी और लेखक गण उसके विरोध मे अपने मेडल और पुरस्कार लौटा रहे थे। गाय को लेकर कैसी कैसी शर्मनाक और अमानवीय घटनाएँ हो रही थी। और वो चुप बैठा था। वही, सत्ता।

पर मेरा हीरो भी चुप हो गया था। अचानक। लगता है कहीं छिप गया है! कहीं डर तो नहीं गया। कोई भी तो नहीं लगता है उसका। एक मैं थी उसकी। पर मैं भी नहीं मिल सकती। न कुछ कर सकती। सत्ता और उसके पूरा तंत्र हाथ धो कर पीछे पड़ा था उसके। सबके लिए लड़ता रहा। सारे मुद्दों और दबे कुचलो के पक्ष मे आवाजें उठता रहा। पर अभी कोई उसके साथ नहीं है। और मैं भी कुछ नहीं कर सकती।

फिर एक दिन उसकी चिट्ठी आई। बिना नाम के। अपने को नदी संबोधित किया था। और मुझे सागर। जिस दिन उसकी चिट्ठी मिली, उसके कुछ दिन पहले अपने कार्यक्रम मे उससे मिलने की आरजू जाहीर की थी। बस जनाब ने लिख डाली अपनी बातें। मेरे प्रति अपने प्यार का इजहार करते हुए। मैं भी आवाज की दुनिया के माध्यम से उससे प्यार का इजहार करने लगी। प्यार भरे गाने सुनकर, रोमांस से भरे गाने सुनाकर। कितना अच्छा है वो। उसे न पैसा चाहिए, न यश न तारीफ और न लड़की। यार क्या आदमी है वह भी! अगर कहीं मिल जाये तो ज़ोर की झप्पी दे दूँ उसे।

फिर एक दिन अचानक ही उसकी दूसरी चिट्ठी भी मिली। जनाब ने फरमाया था कि उनके प्यार करने की उम्र निकाल गई है। बुढ़ापे का इश्क और शायरी मज़ाक का मसला हो जाता है .... तौबा तौबा कैसा शब्द है... और आगे आप फरमाते हैं की जितना भी उसे मुझसे मिला वो काफी है: पूरी उम्र जीने के लिए।

दिल भी टूटा और चोट भी लगी। यह सब पढ़ कर। पर समझ गई: बच्चू बचना चाहते हैं। बस क्या था मैं और भी शिद्दत से उससे प्यार का इजहार करने लगी। और ये समझाने की कोशिश करने लगी: कैसे प्रेम का उम्र कोई संबंध नहीं होता। किसी भी तरह की बाधा या सीमा नहीं होती है प्यार मे। उदाहरण के लिए दिलीप कुमार सायरा बनो, गालिब और न जाने किन किन की कहानियाँ सुनाई उसे।

कितना प्रसिद्ध है वो! जहां देखो वहीं उसकी ही छाप। पर उसे प्रसिद्धि नहीं चाहिये । क्या अजीब बात है। लोग यश, नाम और शोहरत के पीछे भागते है। और आप जनाब इन सबों से भागते है। पर जिधर देखो उसके ही कदमों के निशान दिखते होते! चाहे देशी राजनीति हो या अंतराष्ट्रीय , मीडिया हो या सोशल मीडिया उसी की धूम दिखती होती!

ऐसी बात नहीं है कि उससे प्यार करती हूँ, इसलिय ऐसा नज़र आ रहा है। मैं तो उसके इन्ही सब खूबियो के कारण प्यार करने लगी हूँ शायद। वह न तो क्रेडिट लेता है और न ही सामने आता। यहाँ तक उसके उसके द्वार कहे गए शब्द, जुमले, अवधारनाए, उसके विचार, मीडिया और सोशल मीडिया मे प्रचलित हो रहे। क्वित्तर व अन्य सोशल मीडिया पर ना जाने कितने सामाजिक- राजनैतिक मुद्दों पर मुहिम चला राखी उसने। लोग उसके विचारों और उसकी स्वीकृति व अस्वीकृति का इंतजार करते होते।

वह इतना शक्तिशाली हो चुका है कि सत्ता उसकी हरेक बात मानता। उसके सुझावों, विचरों और अवधारनाओ को स्वीकार करता और उसे लागू करने कि कोशीस करता। चाहे घरेलू नीति हो या विदेशी, आर्थिक या और सांस्कृतिक, उसका असर दृष्टिगोचर होता।

वह हर जगह नज़र आता! ऐसी बात नहीं ऐसा उससे प्यार करने के कारण ऐसा नज़र आते होता! आप कह सकते हैं कि प्यार मे ऐसा होता है। पर उसके पाँवों के निशान हर किसी को नज़र आ रहे होते! आपको भी नज़र आया होगा। याद कीजिये तो वो याद आ जाएगा। अगर फिर भी विश्वास नहीं होता तो सत्ता से पूछ लीजिये। काशी, उसकी महिला दोस्त ने सच ही कहा है: नीव के पत्थर बोला नहीं करते। महल की विशालता और भव्यता ही उसका बयान करती होती है!

न जाने कितने देशी-दुनियावी इबारतों के नींव का पत्थर बना वो। पर जिसकी क्रेडिट सत्ता ले रहा है! काशी ने इसी बात को खुले आम क्वित्तर पर बोला था। जब सत्ता उसके लगाए, उगाये फूलों को अपना कह रहा था। काशी भी उसे प्यार करती है उसे, मेरी तरह। कभी कभी जलन होती हैं: क्यों मेरे दामन छोड़ के औरों के पास जाता है। मैंने उससे अपने रेडियो कार्यक्रम मे पूछा भी था और गाने भी सुनाये था। पता नहीं सुना य नहीं।

सत्ता के बीच उसकी पहुँच या नीति निर्धारकों पर उसके प्रभाव का एक छोटा सा उदाहरण: आपने काश यादव पहलवान वाला विवाद तो सुना ही होगा। वही जिसके खाने मे उसके सहयोगी और ओलंपिक मेडल विजेता ने ऐसा कुछ मिला दिया कि वह डोपिंग टेस्ट टेस्ट मे, राष्ट्रीय स्तर पर फ़ेल हो गया। उसने हल्ला मचाया: एक साजिश के तहत उसे डोपिंग मे फ़ेल कराया गया। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने के लिए अनुमति मिल जाय। मामला सत्ता के पास गया। सत्ता बैठ हुआ था उसपर, जैसा कि उसका स्वभाव है। फिर यादव साहब ने उसको फॉलो किया क्वित्तर पर। बस उसके अगले दिन दे दी सत्ता ने ओलिम्पिक मे जाने की अनुमति।

घरेलू नीति कि बात ही क्या, विदेश नीति पर भी उसके सुझाव व विजन को अपनाया जाने लगा। धीरे धीरे उसके विरोधी कम होने लगे। जब सत्ता उसके सुझावों व विचारों पर गौर करने लगी। उन्हें अपनाने भी लगे, उनका कार्यन्वन भी करने लगे। वाजिब है कि सत्ता की पकड़ ढीली पड़ गई थी। वो भी अब सत्ता की आलोचना कम ही करने लगा था। मुझे लगता वो सत्ता को समर्थन देने लगा था। ऐसा लग रहा था जैसे सत्ता के दबाव मे आ गया हो।

फिर जे एन यू मे राष्ट्रवाद पर विवाद उठा। तो सब जगह वही छाया हुआ रहा। उन दिनों हम जे एन यू भी गए। ऊपर से रैली मे शामिल होने गई थी पर अंदर वही रंगीला पेंगे मार रहा था। वह यहीं पढ़ा था। । यहीं घूमता होगा आवारा सा, बदमस्त बादल की तरह। ये सोच कर मुझे रोमांच हो रहा होता! उसके बैच मेट, सीनियर और उसे जानने वालों से मिली भी। वहीं उसके बारे मे अनगिनत बाते पता चली। उनमे से एक ये कि जनाब को अंत्याक्षरी खेलने नहीं आती। फिर हम उन्हे अपने कार्यक्रम से अंत्याक्षरी खेलना सीखाने लगे।

 

2
14 फरवरी

जिंदगी चल रही होती इसी तरह। चल नहीं उड़ रही होती! पर बीच मे, रह रह कर वह चुप हो जाता। कहीं छिप जाता। शायद कोई किताब लिख रहा है। फिर एक बार चुप हुआ तो बोला ही नहीं। ऐसे छिप गया कि फिर नज़र ही नहीं आया। पर मैंने भी ठान ली थी: उसको बुलाकर ही रहूँगी। कार्यक्रम मे भी घोषणा कर दिया कि उसे बुला कर ही रहूँगी। गाने भी भी इस तरह के बजाने लगी। उसकी यादों और उसके पसंद के गाने बजने लगे।। फिर भी जब नहीं आया तो, विरह और दुख के गाने बजाने लगी।

और फिर वह आया भी। अगले दिन केस बूक पर नया अकाउंट खोकर मुझसे मुखातिब हो गया। एक दो सप्ताह तक नए युग की नायाब प्रेम कहानी आगे बढ़ती रही। पर न जाने कहाँ से उसके जानने वाले आते गए। पता नहीं उसके कितने दोस्त है! अपनी मस्त आवारा जिंदगी मे वह न जाने कहाँ कहाँ भटकता रहा है!

अभी भटक ही रहा है। यहाँ भी उसके जानने पहचानने वाले आते गए। और वो फिर छिपने लगा। और देखते देखते वहाँ से भी भाग खड़ा हुआ।

ऐसा लगने लगा जैसे हमारा प्यार परवान न चढ़े। मुझे डर सा लगाने लगा। और मैं उसे गाने सुनने लगी: ‘तेरा मेरा प्यार अमर फिर भी मुझको लगता है डर......”, “ रंगीला रे.............

फिर एक दिन आसमान टूट पड़ा: दिल फट पड़ा। समझिए कयामत ही आ गई। पता चला उसने देश छोड़ दी। शायद अमेरिका चला गया। मुझे बिना बताए। और उस पर से उस फासिस्ट ट्रायम्फ को जो अमेरीकन प्रेसिडेंसीयल चुनाव का रपब्लिकन उम्मीदवार था, उसको समर्थन करने लगा।

इतना दुख हुआ कि पूछिये मत। एक तो बिना बताए चला गया। उसपर से फासिस्ट और मुसलमान-विरोधी ट्रायम्फ कि पार्टी जॉइन कर ली। और मुझे पूछ भी नहीं रहा है।शायद उसकी बेटी के पीछे पड़ा हो।

और मैंने उसे ब्लॉक कर दिया। न केवल क्वित्तर और केस बूक से, अपने दिल से भी। और उसे अपने दिल से निकालने की कोशिश करने लगी।

काफी अरसे बाद आज कोपाल की लिखी तीसरी किताब मिली। उसने ही भेजा था। उम्मीद नहीं थी कि वह ऐसा करेगा। पर भेजा तो सही। वैसे भी क्वित्तर पर उसने इस बात की सूचना दे रखी थी। अपनी इस दार्शनिक किताब पर वह सोशल मीडिया और अन्य फोरम पर बहस परिचर्च करवा चुका है।

तभी वह गायब रहा! और जनाब चुपचाप किताब लिख रहे होते! हालाकि उसने बताया था। पर जब सभी उसे खोज रहे थे। तब मैंने अपने टिवीटर हैंडल पर लोगों को बता दिया था की वो लिख रहा है। चलो अच्छा है जनाब की एक और उपलब्धि हो गई। और मुझे भी याद रखा। सोचा था कि ब्लॉक कर दिये जाने के बाद शायद ही अपनी नई किताब भेजे। पर भेजा। पर इस बार मैंने उसे पिछली बार की तरह ‘धन्यवाद नहीं कहा।

पता नहीं कुछ अजीब सा हो गया है हम दोनों के बीच! अब वो बात नहीं रही। हालाकि अब भी चाहती हूँ उसे, पर वो नहीं रहा जो होना चाहिए था। मतलब कुछ टूटा था हम दोनों के बीच। उसकी अनुगूंज अभी भी गूंज रही होती। पर प्यार तो रहेगा उससे। हमेशा हमेशा के लिए।

अक्सर देखा जाता है की दो के बीच प्रेम समाप्त हो जाता है। दोनों अलग अलग हो जाते है। पर जो प्यार खत्म हुआ या होता है क्या वह वही प्यार होता है जो शुरू हुआ था। जबकि प्यार तो कभी खत्म नहीं होता। यह वास्तविकता हमेशा रहेगी कि मैंने उसे और उसने मुझे प्यार किया! भले वो खत्म हो जाये या हो गया हो, प्यार तो हमेशा रहेगा!


कायमा की डायरी
बुधवार

जब से कोपाल ट्रायम्फ का समर्थक बना, तब से मैंने उसे सब जगह ब्लॉक कर दिया। सोचा था: बदले मे वह भी ब्लॉक कर देगा। पर उसने ऐसा नहीं किया। उल्टे वह मुझे लाइक करने लगा।

अजीब सा है वो। पास जाओ तो दूर भागता है! और अगर दूर जाने की सोच ली तो वह पास आएगा! वो क्यों मेरे साथ आँख मिचौली खेल रहा है? पर क्या मैं भी उसके साथ ऐसा नहीं कर रही हूँ? जब वो पास आता है। दिल धक धक करत होता। और घबड़ा कर भाग खड़ी होती।

कई बार उसने डीएम किया। लाइक किया। बात करने की कोशिस भी की। और मैं चुप रह जाती। कुछ बोल ही नहीं पाती। मन करता कही भाग जाऊ। और फिर उसे बाद मे गाने सुनाती होती!

पर वह उस फासिस्ट और मुस्लिम-विरोधी ट्रायम्फ से क्यों मिल गया? मुझे बस गुस्सा आता रहता। और ब्लॉक-अन ब्लॉक करती रहती-सोशल मीडिया पर। और अपने दिल से भी!। पर न जाने क्या क्या कहता रहता है! कमित दा से इस संदर्भ मे बात भी होते रहती है। मैंने जब उनसे पूछा की वो क्यों ऐसा कर रह है, तो उन्होने बताया की शायद वह ट्रायम्फ से अपने किसी काम के लिये मदद लेना चाहत हो? शायद वो इंडिया मे कुछ करना चाहता हो! और इसके लिए उसे मदद की जरूरत हो?

सत्ता भी सोच रहा होगा: वो क्यों ट्रायम्फ से मिल गया। वो भी तो उसके पीछे हाथ धो कर पीछे पड़ा है। जिधर जाओ, उसने अपना जाल फेंक रखा है कोपाल के लिए! कोपाल के पीछे तो हाथ धो कर ऐसे पीछे पड़ा है जैसे कोई घायल शेर। नहीं तो वो मेरे से मिलने जरूर आता। पता नहीं क्यों उसे भूल नहीं पा रही हूँ? उसे कई बार दिल से निकालने की कोशिस की। पर वह जाता ही नहीं मेरे दिल से। अभी भी उसके लिय गाने बजाती हूँ। अभी भी शायद उसे प्यार करती हूँ।

मैंने क्वित्तर पर अपना एक क्वित ‘पिन ‘कर रखा है: गालिब का वो शेर ‘दिले नादान तुझे हुआ क्या ...
गालिब को भी अपने से कम उम्र की लड़की से इश्क हुआ जैसे मेरा उससे हुआ है। पर वह स्वीकार नहीं करता। वो गालिब की तरह अधिक उम्र का .... और मैं कमसिन कम उम्र की...हाय अल्ला! शर्म आती है मुझे। इस नए युग की नयी लड़की को भी? इश्क जो जो न कराये!

चाहे वो आए या न आए, मैं उसे प्यार करती रहूँगी। हंसने वाले हँसे या मज़ाक उड़ाने वाले मज़ाक उड़ाए। मैं तो..... उसके किताब पढ़ती हूँ,...उसके विचारों का आध्यान करती हूँ। बस उसके ही रंग मे रंगने लगी हूँ। जैसे वो मेरे दिल की बात जान लेता है, वैसे ही मैं भी उसके दिल की बात जानने लगी हूँ। वो क्या सोच रहा है? अभी कहाँ है, पता चल जाता। वो कहता है कि अगर सब से प्रेम और स्नेह रखते है, दुश्मन से भी तो, उसके मन की बात को जाना जा सकता है। दोस्तों मे तो ठीक, पर दुश्मन से कैसे प्यार....?

सब बातें तो ठीक है। पर वह मुझसे कभी नहीं मिला। न मैं उससे मिली। अजीब बात है! वो भी इस तेज और उत्तर आधुनिक युग मे। कुछ अजीब सा लगता है! पर यही सच्चाई है। मैं उससे कभी नहीं मिली। हकीकत मे उससे रु-ब-रु भी न होने पाए। फिर भी दोनों मे प्यार। है न अजीब बात!

पर वह मुझसे मिले बगैर विदेश चला गया। मुझे बहुत खराब लगा। चलो उसके बहुत सारी बातों और विचारों से सहमत नहीं हूँ। पर वह उस ट्रायम्फ से मिल गया। चाहे किसी मकसद से मिला हो। ये उसने अच्छा नहीं किया।

3

सत्ता

मैं हूँ सत्ता! मुझे जानते ही होंगे। अगर नहीं तो जान लीजिये। आप ने ही तो चुना है मुझे। आपको अपने बारे मे बताने की जरूरत नहीं है। फिर भी इतना कहना है कि एक तो उसकी सत्ता है, ऊपरवाले की और दूसरी मेरी। यहाँ इस जमीन पर । कारत की सर जमी!

पर अगर जानना नहीं चाहते, तो भी जानने की आदत डाल लें। अब भी नहीं पहचाना? मैं केवल सत्ता वाली सत्ता नहीं हूँ। जो, वो कहते हैं न अंग्रेजी मे, कि पूर्ण सत्ता पूर्ण रूप से खराब करती है। मैं तो वो वाली सत्ता हूँ जो देश मे पहली बार इतना बड़ा जनादेश ले कर आया है। और इस जनादेश का सम्मान करूंगा। सारे वादों को पूरा करूंगा। उनका दिल नहीं तोड़ूँगा जिन्होने मुझे इतने बहुमत से जीताया है। उनका विश्वास तो कभी नहीं तोड़ूँगा। हाँ अगर फिर भी टूट जाये तो इसमे क्या कर सकता हूँ।

भाइयों और बहनों! देवियों और सज्जनों! आपने देखा ही होगा मेरे आते ही कारत बदलने लगा है। एक नए कारत का आगाज हो रहा है! जब मुखड़ा ही इतना अच्छे दिन का सौगात लिए है, तो अंतरा कैसे होगा! ओ भाई! अब तो पहचान लिया होगा। अच्छे दिन? आ रहे हैं....सब बोलो ज़ोर से बोलो। स्वच्छता, जन धन, जगमग करती, नए करवटें लेती विदेश नीति। नोट बंदी पर थोड़ी तकलीफ हुई होगी। पर अब तो आराम हैं न! दवा चाहे कैसी भी हो, कड़वी तो होती है। थोड़ी बहुत।

पर आज मैं आपसे मुखातिब हूँ सत्ता की हैसियत से नहीं। न ही मेरा ऐसा कोई मकसद है। मैं तो बस एक व्यक्ति, एक शख्स की शख्सियत को लेकर आपके सामने हाजिर हुआ हूँ। इसने मुझे झकझोर कर रख दिया है।

सत्ता को पहली बार चुनौती इसी शख्स ने दी थी। किसी मकसद से नहीं, किसी दलगत राजनीति के तहत नहीं। ना ही किसी अभिमान या इगो ट्रिप के कारण। हालाकि पहले पहल मैंने सोचा, ये सारे कारण थे उसका मेरे से विरोध का। पर नहीं, बाद मे एहसास हुआ। ये तो उसका देश, समाज और दुनिया के प्रति उसकी प्रतिबद्धता थी। सहज प्रेम था।

सब से पहली चुनौती अगर वो था, तो बाद मे सबसे बड़ा सहारा भी बना। मुझे कोई संकोच या इगो प्रोबलम नहीं है। इस मामले। बाद मे तो वह वो मेरी सरकार, मेरी नीति व कार्यों का समर्थन करने लगा। देश-विदेश के अहम मुद्दों पर मदद करने लगा।

मैंने पब्लिक मे, जैसे अर्णव दा को, जब वे राष्ट्रपति पद की सेवा से निवृत हो रहे थे, तो उनके अहसानों , सुझावों और मार्ग- निर्देशिकाओं को स्वीकार किया था। वैसे ही इस कोपाल के बारे मे खुलेआम घोषणा कर रहा हूँ।
भाइयो और बहनो! उसने मुझे बहुत वैचारिक और आत्मिक बल दिया। जब सब तरफ से मैं विरोधियो और षड्यंत्रकारियों से घिरा था, तब उसने मेरी मदद की थी। जैसे अर्णव दा के लिए किया था पब्लिक मे घोषणा वैसे ही मैं उसके लिए भी करना चाहता हूँ। पर ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि वह किसी तरह की प्रशंसा नहीं चाहता। न नाम, धन और न ही यश।

वह तो मुझसे मिलना भी नहीं चाहता। मैंने कई बार कोशिश की। पर वह नहीं मिला। सभी मुझसे मिलने के लिए लालायित रहते। पता नहीं क्या क्या हथकंडे अपनाते है! एक आप हैं जो मिलना नहीं चाहते। वरना सत्ता की एक झलक पाने के लिए, उसका साया, उसकी छत्रछाया मे आने के लिए लोग क्या क्या नहीं करते!

उन्हीं दिनों की बात जब नया नया सत्ता संभाला था। हर तरफ कितना विरोध हुआ! इसने भी किया। पर रचनात्मक व सृर्जनात्म्क विरोध। केवल विरोध के लिए ही विरोध नहीं होता उसका! जैसा कि अन्य कर रहे होते। वो तो देश और समाज के पति प्रतिबद्धता दिखाते हुए रचनात्मक और वैधानिक विरोध कर रहा होता। इससे मैं काफी कुछ सीखा और जाना, तथा इसे कार्यान्वित करने की भी कोशिश की।

हालाकि पहले तो मेरा और मेरे मंत्रोमंडल के मंत्रियों का सोशल मीडिया पर जाना मुश्किल कर दिया था। वो ऐसा विरोध करता, कुछ ऐसा कह देता की हमे वहाँ से जाना पड़ता! मैंने उसे खोजने की खूब कोशिश की। उसको ट्रैक और ट्रएप करने के लिए क्या क्या नहीं किया।

सभी सोश्ल मीडिया पर ट्रैकिंग सॉफ्टवेर बनवा कर डाले गए। ट्रोल्लिंग, ट्रेलिङ्ग, लोकशन पता करने की कोशिशें की जाने लगीं। आईपी एड्रैस आदि सभी छान मारे। पर वह कही नहीं मिला। पुलिस, खुफिया तंत्र, सोशल मीडिया के सीईओ को जासूस बना कर छोड़ा। फिर भी नहीं मिला। एक कमसिन आर जे, एक स्मार्ट महिला ज्योतिषी को भी उसके पीछे लगाया। पर वो तो किसी के झांसे मे नहीं आता। पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ है!

बिग ब्रदर इज वाचिंग के जमाने मे, तकनलाजी और तकनीक के इस युग, इतने विशेष और गहन चौकसी के बावजूद भी वो हमारी पकड़ मे नहीं आया। एक दिन हमारे प्रतिद्वंदी, फांग्रेस पार्टी विरोधी उसके क्वित को देखा। मैं और कमित शाह उसे फालों करने लगे। हमने तो सोचा था, चलो हमारा समर्थक बन जाएगा। और अपने डीपी पर लगा देगा: ‘प्रौड टु बी फॉलोड बाइ सत्ता और कामित शाह।

पर उसकी हिमाकत तो देखिये! वो नहीं चाहता होता कि हम उसको फॉलो करें| हम जिसे फॉलो करते है, वो तर जात है इस वर्चुअल और नॉन-वर्चुयल दुनिया मे। और कोपाल ने ऐसा क्वित किया कि क्वित्तर के उसके अकाउंट से मुझे और कमित शाह को जाना पड़ा! उसने कहा था: ‘बाइ बाइ पॉलिटिकल क्वीत। सत्ता एंड कमित शाह इज फॉलोइंग मी।

उसके अकाउंट को ओबाबा और उसके सलाहकर फॉलो कर रहे होते। पूरी दुनिया मे खबर फैल गई। कारत मे अभिव्यक्ति की स्वतनतरता पर ऐसे भी रोक लगाई जाती है। उन्होने री-क्वीत कर इसे दुनिया के सारे हिस्से मे प्रचारित कर दिया।

यही पर तो मेरे लंबे हाथ बंध जाते हैं! उसे दुनिया की नामी-गिरामी हस्तियाँ, प्रेसीडेंट और राष्ट्राध्यक्ष फॉलो कर रहे होते। नहीं तो कब का उसे दबोचे होता! पर वो वैसे भी तो हाथ नहीं आ पा रहा होता। अभी तक उसका लोकेशन तक नहीं पता चल पाया है! उस पर से ओबाबा आ रहा है। 26 फरवरी के अवसर पर। पूरी दुनिया को कारत की शक्ति का अंदाजा लग जाएगा।

पर वो कहीं ऐसा वैसा न बोल दे जैसा कि कसिया के प्रेसिडेंट, कुटीन के आने पर बोला था:’ कुटीन साहेब! प्लीज टीच कारतीयन रुलिङ्ग एलिट एज़ हाउ टु कंट्रोल ओलीगारकी अँड करतिए क्रोनी कपिटलिस्ट बाइ जेलिंग अँड एक्सिलिंग देम।‘

पर मेरे डर को धता बताते हुए वो आया ही नहीं। फिर वो दिखा ही नहीं। शायद उसने मेरे मन की बात सुन ली थी। उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा जब उसने सोश्ल मीडिया पर आना बंद कर दिया। और मैंने मन ही मन मे उससे ये कहा कि कुछ दिनों के लिए वो ना आए। और ऐसा ही हुआ। वो नहीं आया।

फिर जब आया तो मेरे कारण सबसे लड़ गया। उससे भी जिससे हम सोचते होते वह जुड़ा हुआ है। बहुत अच्छा लगा। सब जगह मेरी धूम मच गई। यहाँ तक कि के एस एस के मुखयालया से बधाई मिलने लगी। और विरोधियों को जीतने के लिए मुझे अलग से बधाई दी जाने लगी।

फिर तो वह मुझे प्रधानमंत्री पद की गरिमा पुनः बहाल करने के लिए धन्यवाद देने लगा। आपको तो पता ही होगा किस तरह मौन सिंह ने प्रधानमंती पद की गरिमा को गौण कर दिया था। और कोनिया कांधी के यहाँ गिरवी रख दिया था। और मेरा 55 इंच का सीना चौड़ा हो कर 58 हो जाता। उस पर से उसके 55 इंच वाले क्वित जो उसने क्वित्तर पर करना शुरू कर दिया था, उसने तो मुझे चारों खाने चित ही कर दिया! कसम माता भवानी की! फेंक नहीं रहा हूँ मैं!

सबसे बड़ी बात यह हुई कि वह विदेश और घरेलू नीति पर मुझे अंतर्दृष्टि देने लगा। कई मामलों मे तो उसने नयी दिशा और दशा प्रदान की। उसके कई क्वित के बाद मैंने काफी बड़े बड़े अहम निर्णय लिए, विभिन्न मुद्दों पर। कई मामलों पर तो उसके विचार जानने को उत्सुक रहने लगा। और बेसब्री से इंतजार करते होता उसके क्वितो का। मेरे अलावे देश विदेश के लोग विभिन्न मुद्दों और समस्याओ पर उसकी राय जानने की प्रतीक्षा करते होते।

पर अब वह क्वित्तर तथा अन्य फॉरम पर सरककर की सहायता करने लगा था। जहां कहीं मैं या सरकार फँसती होती, किसी मुद्दे पर उलझती होती, वो आ कर हमे उबार देता। बिहार चुनाव के समय तथा गाय के मुद्दे पर थोड़ा भड़का था। पर बाद मे ठीक हो गया।

उसकी दूसरी खासियत थी उसके कहने की शैली। किसी बात को कहने, रखने का उसका अपना ही अंदाज़ होता। और कुछ इस लहजे मे बातों को रखता होता कि बरबस हंसी आ ही जाती। केकरीवाल और मौन सिंह पर उसके प्राक्कथन पर तो हंसते हंसते पेट मे बल पड़ जाते। मैं भी उसके मज़ाक पर सराहना किए बिना नहीं रह पाता। अपनी हँसती हुई तस्वीर पोस्ट कर देता क्वित्तर पर।

फिर उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा! जब पता चला कि कोपाल देश छोड़ कर चला गया है। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ। कई लोगों और एजेंसीयों से इसकी पुष्टि की। फिर कायमा के गानो और उसके रेडियो कार्यक्रमों के तमाम रिकॉर्डिंग भी छान मारे! तब जाकर थोड़ी राहत मिली। क्योंकि जाट मरा तो तभी समझा जाता है जब उसकी तेरहवीं हो जाती है। और वो तो जाटों का जाट! चौधरी का चौधरी! पर अब वह देश मे नहीं है।
वैसे तो वह हमारा समर्थक बन गया है। पर उसके के बारे ने कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऊंट किस करवट बैठेगा पता नहीं। वैसा ही कुछ है वो! उसके पास दो तीन मुद्दे ऐसे है जिस पर वह जन आंदोलन छेड सकता है! कभी भी। अगर चाहे तो मुझे भी किसी भी तरह की चुनौती दे सकता है।

हालाकि उसने खुले आम कहा हुआ है: वह केवल एक लेखक है। और कुछ भी नही। उसने लोगों को भरोसा दिलाया है कि उसके विचरों और तेवर से डरने की जरूरत नहीं है। वह तो कलम का सिपाही है। पर भरोसा नहीं है उसका कि कब बंदूक उठा ले! क़ब कलम छोड़ के विरोध का तोप मुक़ाबिल कर दे!

पर सबसे सोचनीय बात है कि उसके बारे मे कुछ भी पता नहीं चल पाया। अब तक। उसका लोकशन तक पता नहीं चल पाया है!

 



ट्रायम्फ का आई-नोट

मुझे नहीं लगता कि अपने बारे मे बताने की जरूरत है! आप तो मुझे यानि ट्रायम्फ को जानते ही होगे। अगर नहीं, तो अब तक तो जान ही गए होंगे। फिर भी नहीं तो जानने की आदत डाल लें। क्योंकि आप मुझसे नफरत कर सकते हैं, पर मुझे इग्नोर नहीं कर सकते। ये बात सारी दुनिया के देश और लोग जानते है। इसलिए सोचा आपको भी मालूम होना चाहिए।

दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश के सबसे शक्तिशाली पद, राष्ट्रपति १९ जीत कर तहलका मच गया। चारो ओर। सब मुझे बधाइयाँ देने लगे। सभी- दोस्त हो या परिचित, दुश्मन हो या अपरिचित। उसका यानि कोपाल का इंतजार करते रहा। पर वो नहीं आया। न ही बधाई दी। फिर भी उसका न जाने क्यों इंतजार करता रहा। अगर आ जाता तो उसे पूरे टर्म के लिए अपना सलाहकार बना लेता।

बाद मे मैंने कहीं कहा था की मेरी जीत मे क्वित्तर का बहुत बड़ा हाथ है। उससे बड़ा कही अधिक कोपाल का रहा है। यह बात शायद मालूम न हो। पर यह कहने मे मुझे हिचकिचाहट नहीं हो रही है: अगर क्वित्तर ने अहम भूमिका निभाई में हमारी जीत मे, तो क्वित्तर पर उसने।

पर उसने बधाई नहीं दी। न क्वित्तर पर ही और न मिल कर ही। कम से कम मिलने तो आ सकता था! कहीं ओबाबा ने उसे पकड़वा तो नहीं दिया। कहीं कुछ हो तो नहीं गया। ओह शीट! मैं क्यों उसके बारे मे सोच रहा हूँ। उसके बारे मे?

क्यों न सोचूँ? कितना हेल्प किया! कितना मॉरल और वैचारिक समर्थन किया। हमारे चुनाव मुहिम को एक नई दिशा दी। चाहे वो नोमिनेश्न हो या प्रचार, उसने सब जगह साथ दिया। और तो और उसने कई राज्यों मे कारतीयों और अन्य एथनिक ग्रुप के मत दिलाये।

मुझे अब भी याद है जब उसने पहला क्वित किया था। मन खुश हो गया था। पूरी दुनिया मे एक हँगामा सा मच गया। फिर जब पोप ने वो कमेंट दिया था! उसका कैसा सटीक और करारा जवाब दिया था उसने। जबकि न तो मैं उसे जानता होता ठीक से और न वो ही। न वो अमेरीकन था और न ग्रीन कार्ड का दावेदार।

फिर राष्ट्रपति चुनाव के दौरान उसने न जाने कितने मुद्दों पर नीति निर्धारन मे मेरी मदद की। बिना एक डॉलर लिए हुए। बिना किसी परिणाम या आकांक्षा के। चीन, पाकिस्तान, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, यहाँ तक की कारतीय मामले मे नीति निर्धारण मे अहम सुझाव और विचार दिये। रूस और यूरोप के बारे मे भी उसने सकारात्मक दृष्टि अपनाने मे मदद की।

पर विशेष कर, मैं उसका आभारी हूँ--उसने हमारे मेक अमेरिका प्रचार को एक सकारात्मक और ठोस आधार दिया। जब उसने मेक अमेरिका ग्रेट मे अगेन लगाने का सुझाव दिया। कितना अच्छा आइडिया था! मेक अमेरिका ग्रेटा मतलब अमेरिका को ग्रेट बनाना है। जब कि अमेरिका ऑलरेडी ग्रेट रहा है। इस ओबाबा ने इस ग्रेटनेस की मिट्टी पलीद कर रक्खी है। अब अमेरिका को फिर से ग्रेट बनाना है, मेक अमेरिका ग्रेट अगेन! प्रचार हिट हो गया। यहाँ तक की लिबेरल भी इसके प्रभाव से अंदर अंदर ही डरने लगे है। लोगों के बीच तो यह बहुत प्रभावी रहा।

अगर वह आ जाता तो उसे मैं जो पद चाहता वो उसे दे देता। वह इतना स्मार्ट और बुद्धिमान है कि उसे भविष्य की बाते पता होती हैं। तभी तो मेरे नोमिनेश्न और चुनाव जीतने की घोषणा उसने बहुत पहले कर दी थी। वह आता तो पूछता की दूसरे टर्म के लिए मैं ठीक हूंगा कि मेरी फवोरिट बेटी? पर आया ही नहीं।

एक दिन क्वित्तर पर थोड़ी देर के लिए आया था। मुझे यह बताने की उसने मुझे ६ महीने पहले ही बधाई दे दी थी। अभी तो केवल इस बात को याद दिलाने आया है। फिर जो गायब हुआ तो आया ही नहीं। कहीं वह मेरे एंटि-इमिग्रेशन स्टैंड का तो शिकार नहीं हो गया! उसको खोजने के लिए मैंने सारे हवाई अड्डों और बस और रेल्वे स्टॉप पर सोशल मीडिया का अकाउंट बताना आवश्यक कर दिया था। ताकि उसका पता चल सके।

पर कोपाल नहीं मिला और न आया ही। कौन था वो? पानी पर लिखी लकीर जो मिटती भी जाती और फैलती भी!

 

 

 

 

 

 

भाग-३
कर्म

कुछ अजीब है कर्म या कार्यों की लीला! करो तो बांधता है न करो तो भी बांधता है! कर्म के मामले मे स्थिति कुछ साँप छुचदार सी होतो है। न निगलते बनता न उगलते। न करो तो रह रह कर कोंचता है— कहीं ये न हो जाए, कहीं वो न हो जाए। करो तो कर्तापन और अहम की पुष्टि! परिणाम से तो बंधता ही। इसके अलावे उसका होने, न होने; ऐसे होने, वैसे होने के कार्य फल के जंजाल मे फंस जाता है मन अक्सर!

फिर विचारों, आशंकाओं व विकल्पों का विस्तृत भंवर जाल! इसमे डूबता उतराता हमारा जीवन! हरेक पल होने को आतुर। जो है वो उस होने की बलिवेदी पर कुर्बान करता जीवन। बस आगत और विगत के बीच झूलता होता सारा जीवन। पल पल कुर्बान होता आगत और विगत के हवाई और खोखले असीम पटल पर!

यह सिलसिला चलते रहता है। जिंदती भर। अनवरत, और आधुनिक और उत्तर आधुनिक युग मे तो इसे इंसानी जीवन की नियति ही मान ली गई है! और फितरत भी! पर वस्तुस्थिति कुछ ऐसी है: इससे छुटकारा पाना मुश्किल। अगर पकड़ेंगे तो भागेगा! और इससे भागेंगे तो यह और पकड़ेगा।

अब देखिये न! चार किताबें प्रकाशित कर ली। इनमे से पॉलिटिकल औडिटिंग पर एनजीओ भी बनाया। और फिर इनसे बंध सा गया! इतना कि चार पाँच साल कुछ नहीं कर पाया। बस अपनी विद्वता, अपनी तथाकथित विलक्षणता और किए पर इतराता रह। खोखली अमरत्व के मोहपाश मे बंधा: रंहू या न रहूँ ये किताबें हमेशा रहेंगी।

पलछीन सी लोकप्रियता! सर्दियों के तेज धूप की तरह विद्वता और अमरत्व के सपनों मे दिन सोने लगे! और रातें जागने लगी उन्ही के बिंबों और प्रतिबिंबों मे। जब जग सोते होता, तो मैं जागता होता मरीचिका सी उस महबूबा के आगोश मे, जो हो कर भी न होता। वो न तो मेरी थी न उसकी या किसी और की।

वो तो पानी की एक लकीर की तरह होती। जो बनने के साथ ही मिटना या फैलना शुरू कर देती! शांत झील मे उठी लहर तरंगो की तरह। जो पल पल असीम और अनंत मे विलीन होती रहती। वही मेरी और आपकी जिंदगी! पर हमारी विवशता तो देखिये! हम उसे पकड़ना चाहते हैं! और वो हर पल फिसलती होती हैं! इस तरह हम आगत और विगत मे फंसे होते कि पल पल खोते रहते! जी कर भी पल पल मिटते हुए!

तभी जिंदगी शायद मिल कर भी नहीं मिलती सी लगती। सुख मिलकर भी नहीं मिलते होते! क्योंकि उनके साथ सुख के खोने का डर होता है। दुख तो जैसे पीछा ही नहीं छोडता! सुख आने पर भी उसके खो जाने के गम मे दुखी रहता है मन। एक इच्छा पूरी नहीं होती सौ नए अरमान आ टपकते। बस लगे रहो इसी चूहे बिल्ली से लगते खेल मे।

पर ये कहीं हमारा दृष्टि दोष तो नहीं? कही गलत समझ का परिणाम तो नहीं लगता! नहीं तो जो हमारा वास्तविक निजी स्वरूप है वो तो बनने न बनने से परे लगता है। एक साक्षी, दर्शक, चेतना जो एक जड़ शरीर से जुड़ी होती है। शरीर से जुड़े होने के कारण इसकी सीमित, पल पल बूढ़ा होने की अनिर्वयता से आक्रांत। मन के बेलगाम उड़ानों मे फंसा। दर्शक कब खि ड़ी बन जाता, पता ही नहीं चलता!

हालाकि दर्शक और खिलाड़ी दो नहीं है, एक ही है। पर जब खेल मे उतर जाता तो वह खिलाड़ी खेल से बंध जाता सा लगता। फिर तो कभी हार तो कभी जीत! कभी निराशा तो कभी बेइन्ताह खुशी। पर दर्शक के खोते ही खेल और खिलाड़ी दो हो जाते है। अलगाव होते ही भेद शुरू। विक्षेप और संकल्प और विकल्प। बस बंध गए।

अगर चिड़िया उड़ने से बंध जाए: अलग समझने लगे उड़ने से अपने आप को। तो उड़ना बोझ ही बन जाएगा! जब काम से बंध जाये, उसके परिणाम, उसके फल, होने न होने मे उलझे रहे! और सब पर नियंत्रण या पकड़ बनाए रहना चाहते हों! उस पर जो कार्य कारण संबंध हैं कार्यो के, वो तो स्वत चालयमान होता ही है!

फिर थके थके, बुझे बुझे से चेहरे! जैसे बुझता हुआ दीपक पर जलने को मजबूर। काम के बोझ के तले दबे से लगते। मानो सारी दुनिया का बोझ उठा रखा हो! आपा धापी, भाग दौड़! कल की चिंता मे डूबा आज को खोता हुआ। उस कल के लिए जो कभी नहीं आता या होता। जो कभी नहीं होता उसके लिए अभी को खोटा हुआ। क्योंकि वह आज की प्रतिछाया है। और हम उसी को पकड़ने मे लगे रहते हैं। छाया अपनी ही छाया को पकड़ने मे लगी है!

अगर अस्तित्व के स्तर पर देखा जाय, तो हम सारी जिंदगी होने और न होने के बीच झूलते होते है। जो है या हो रहा वो कहीं खो जाता है। जो नहीं है उसे होने मे और जो है उसे न होने मे। जो है या हो रहा है उसे स्वीकार न करना, अपने अहम और सोच थोपना न होना ही है।

तभी तो अक्सर लगता है: अरे जिंदगी बीत गयी! उम्र निकल गयी! पर लगता ही नहीं कि जिंदगी भी जी है! जब सब कुछ मिल जाता है जिसके लिए हम इतने बेचैन रहे। तिल तिल मरते रहे उस पल को जीने के लिय, अपने हाथ मे आए पलों से भागते हुए आगत के लिय। और जब मिलता है तो लगता है कि मिला ही नहीं! इतने आतुर और बैचेन हो जाते परिणाम पाने के लिए! अगर न भी होते तो परिणाम वही होता जो अभी है। पर हमारी फितरत ही कुछ ऐसी ही है शायद!

फिर एक दिन अचानक तुली राम का ईमेल मिला। एक लंबे एटेचमेंट के साथ-- इसमे उसकी आप बीती थी। तुली! तुली राम, मेरे बचपन से दोस्त रहा। साथ साथ पढे और बड़े हुए। वह इंजीनियर बन गया और मैं? पता नहीं क्या? बन रहा हूँ या बन गया हूँ? अगर बन गया हूँ तो फिर और कुछ बनने की क्या जरूरत है?अगर नहीं बना हूँ, तो जो नहीं हूँ वो कैसा हो सकता?

कहीं होने और न होने के बीच तो नहीं हूँ! इसका मतलब वो मैं जो नहीं है वो हो रहा है! सफर मे हैं या अधर: होने और हुए के बीच। पर स्व कहाँ हैं? वो तो हर पल शूली पर लटका होता है होने और हुए के बीच। जो है वो पल पल खोता: आगत और विगत मे, होने और हुए मे।

 

 

 

 

 

 



तुली राम

तुली को सिविल इंजीनियर का काम करते हुए एक दशक हो चले। पता नहीं किन किन शहरों! कैसे कैसे जगहों पर उसे काम के सिलसिले मे रहना पड़ा। कई बार ग्रामीण इलाकों मे भी तबादला हुआ। सीमेंट, सरिया और धूल गर्द के बीच जैसे उसकी जिंदगी खुद एक कंक्रीट की बंद गुफा सी हो गई लगती। जिससे बाहर निकल आना मुश्किल सा लग रहा होता उसे! इस नीरस और यांत्रिक काम के बीच कब उसका वजूद खो गया, पता ही नहीं चला।

जब उसने मुंबई मे काम शुरु किया तो ऐसा लगता जैसे की अब छोड़ा कि तब छोड़ा। मन ही नहीं लगता। इस पेशे मे थोड़ी भी रुचि नहीं लगती। वस्तुतः वह एक सृजनात्मक प्रकार का व्यक्ति था। वह लेखक या चित्रकार बनना चाहता। पर उसके पापा इंजीनियर थे और माँ डॉक्टर। वे उसे इंजीनियर बनाना चाहते।

पर तुली ठहरा कवि हृदय: लेखक या कवि होना चाहता। कल्पना की दुनिया मे खोया रहने वाला। लय और छंद के माध्यम से दुनिया को देखने वाला। और कहाँ सीमेंट, सरिया, गारा, मकान, पुल और सड़क की यांत्रिक तकनीक। पापा और माँ उसे सिविल इंजीनियर ही बनाना चाहते। क्योंकि इसमे पैसा और ऊपरी कमाई अधिक होती है!

तुली के पापा मैकानिकल इंजीनियर थे। उन्हे बड़ा अफसोस रहा कि सिविल इंजीनियर नहीं बन पाये। नहीं तो खूब पैसा कमाते! इस बात का मलाल उन्हे जिंदगी भर रहा। इसलिए उन्होने तय कर लिया था कि अपने बेटे को सिविल इंजीनियर ही बनाएँगे।

पर उनका बेटा तुली कुछ और ही सपने सँजोये हुए था। कवि बनने का। पर लोगों को बताता था, लेखक। ,उपभोक्तवाद और व्यवसायीकरण के इस दौर मे! अगर वह बोलता कि कवि बनना चाहता, तो लोग मज़ाक उड़ाते। वे अक्सर हँसते। और कहते और कोई ढंग का काम नहीं मिला!

तुली ने सोचा, कवि के बजाय लेखक बनना बोलना ज्यादा अच्छा रहेगा। पर जब पापा ने सुना तो आग बगूला हो उठे। उन्हने जबरदस्ती तुली का दाखिला विज्ञान विधा मे कराया। जब कि वह साहित्य पढ़ना चाहता था। उसने विरोध किया। पर पापा कहाँ सुनने वाले थे!

पापा के दलीलों के सामने कोई कहाँ टिक सकता। जैसे दहेज के मामले मे पापा ने कहा—तुम्हारी पढ़ाई मे एक करोड़ खर्च हो गए। पचास लाख इंजीन्यरिंग कॉलेज के दाखिले के अनुदान मे तथा पचास लाख लगे पांच साल के पदाई मे। कहाँ कुछ जायदा मांग रहा हूँ...

थोड़ा रुक कर बोले—फिर तुम्हारी बहन की शादी भी करनी है। उसमे करीब 75 लाख खर्च होगा। वो कहाँ से आएगा? कौन देगा? क्या गलत कर रहा हूँ तुम्ही बताओ भला.....

--पर पापा! लड़की भी तो ठीक होनी चाहिए…. वो…
--देखो बेटा! सुंदरता देखने वाले की आंखो मे होती है। फिर जवानी मे तो गदही भी सुंदर लगती है।

पापा के इस भद्दे दलील पर वह चुप रह गया। वह तो न केवल दहेज के खिलाफ था बल्कि अपनी जाति मे भी शादी नहीं करना चाहता। पर इस मामले मे पापा के अकाट्य दलील के सामने उसकी एक भी नहीं चल पायी।

--देखो बेटा ! मैं भी जात पात मे विशवास नहीं करता। पर मेरी बहन-तेरी बुआ- का सोचकर अपनी जाति मे मजबूरन शादी की। अगर दूसरी जाति मे शादी करता तो उसकी शादी ही नहीं होती। कौन करता ऐसे लड़के की बहन से शादी जिसने दूसरी जात मे शादी कर ली हो?

फिर थोड़ा रुक कर तुली की ओर देखते हुए, मानो उसके चेहरे को पढ़ रहे हो, बोले—वैसे ही अगर लव मैरेज कर लेगा, दूसरी जाति मे शादी कर लेगा तो तेरी बहन से कौन शादी करेगा? क्या जिंदगी भर बहन को कुवांरी रखेगा क्या?

तुली क्या बोलता, बस चुप रह गया। कितनी थोथी दलीलें हैं लोगों की, समाज की। बात करेंगे जात-पात मे विश्वास नहीं करते। बड़ी बड़ी लंबी-लंबी बातें करेंगे जाति व्यवस्था के खिलाफ। पर शादी करेंगे अपनी ही जाति मे। दोस्ती भी करेंगे तो अपने जात वाले से। मदद भी करेंगे तो अपनी ही जाति के लोगों की!

वैसे भी उसका प्यार कहाँ परवान चढ़ने वाला था। वो भी उस लड़की से जो देश के बड़े औद्दोगिक घराने—किंघनीया की इकलौती बेटी थी। वह तुली की बैच मेट थी के आई टी मे। दोनों एक ही साथ कई सेमेस्टेरो मे फेल हुए। उनके पापा पैसे दे दे कर पास कराते रहे।

तुली के आई टी मे बहुत लोकप्रिय था। कविताएँ लिखना, शेरो शायरी करना। जहां जाता महफिल जम जाती। करुणा, जो किंघनीय की एकलौती बेटी थी, उसकी ओर आकर्षित हुई। वह भी मजबूरी मे ही के आई टी आई थी। उसके पापा की नज़र एक बड़े इंजीनियर फ़र्म के तायकुन के बेटे पर थी। उससे अपनी बेटी की शादी कराकर एक बहुत बड़ा बिज़नस डील करना चाहता।

किंघानिया ने बहुत कोशिश की थी: के के इंजीन्यरिंग फ़र्म को हड़पने की। पहले तो के के फ़र्म के एक तिहाई शेयर को फर्जी कंपनियो के नाम खरीदा। सोचा: और शेयर धारकों की मदद से, के के को टेक ओवर कर लेगा। पर इससे पहले कुछ करता बाज़ार नियंत्रक संस्था ने सारे फर्जी कंपनी पर रोक लगा दी। फिर उसने के के के पास ‘मर्जर’ का भी प्रस्ताव रखा जिसने उसे बड़े चालाकी से ठुकरा दिया। फिर बहुत सोच विचार करने के बाद उसने ‘प्लान बी’ बनाया। इसके तहत उसने अपनी बेटी, करुणा का एड्मिशन के आई टी मे करवाया।

किंघानिया ने सोचा था करुणा को इंजीनियर बना कर, के के फ़र्म मे इन्टरन्शिप के लिए भेजेगा। और के के के बेटे को प्रेम जाल मे फंसा कर शादी करने पर मजबूर कर देगी। फिर पूरी इंडस्ट्री उसकी मुट्ठी मे। पर जब उसे पता चला, करुणा किसी साधारण माध्यम वर्गीय परिवार के लड़के से इश्क़ लड़ा रही है, तो उसे बहुत गुस्सा आया। उसे लगा कहीं फ़र्म को हड़पने का आखिरी मौका भी न गंवा बैठे। उसने करुणा का दाखिला किसी दूसरे इंजीन्यरिंग कॉलेज मे करा दी।

जब तुली को पता चला की करुणा कॉलेज से चली गई। तो वह समझ गया: उसकी जिंदगी से भी दूर चली गई। और उसने चुपचाप पापा की पसंद की लड़की से शादी कर ली। ये भी न देखा कि वो कैसी है? मोटी है या पतली, सुंदर या कुरूप, गोरी या काली। क्या फर्क पड़ता? जिसे चाहा मिलीं नहीं। फिर जिस किसी को भी चाह लो, क्या फर्क पड़ता है!

 

 

 

 

 


अकर्म

तुली की जिंदगी ऐसे गुजरने लगी जैसे उसे किस सहारे या खुशी कि उम्मीद न हो। खुशी, सुकून क्या है उसने जाना ही नहीं। बस सुना था कि जिंदगी आनंद का दूसरा नाम है। पर क्या सचमुच ऐसा है? अगर हाँ तो फिर उसे आनंद या खुशी का अनुभव होना चाहिए। अगर नहीं हो रहा है तो उसमे कुछ कमी है? या ये कथन कि जिंदगी आनंद का दूसरा नाम है, गलत है?

लेकिन जो मिला या मिल रहा है, क्या उसमे खुश रहा जा सकता है? अगर खुश नहीं रहा जा सकता तो दुखी होने की बात भी तो नहीं है। कम से कम उसे स्वीकारा तो जा सकता बिना किस लाग लपेट के, बिना किसी तरह के प्रक्षेपण, संकल्प और विकल्पों के अंतहीन सिलसिले के। अपने असंगत और असीम विचारो के असीम भटकन मे भटकते मन पर नियंत्रण रख कर। या उनके परे जा कर।

इसमे कोई शक नहीं है कि तुली ने जो चाहा मिला नहीं। किसी को भी नहीं मिलता। क्योंकि चाहत और मिलने मे कोई कार्य कारण संबंध नहीं है जो मिले ही है। लेकिन जो बिना चाहत का मिलता है क्या उसमे खुश नहीं रहा जा सकता? उसे अपनी चाहत नहीं बनाया जा सकता है? पर क्या यह भाग्यवादी होना नहीं है? क्या दूसरे, चाहे उसके माता पिता ही क्यो नहीं उसकी जिंदगी का निर्णय ले सकते है।? क्या ये गलत नहीं है? क्या इसका विरोध नहीं होना चाहिए?

तुली ने विरोध तो किया पर विद्रोह नहीं कर पाया। विरोध मे किस चीज या मुद्दे के खिलाफ आवाज उठाई जाती है। पर विद्रोह मे किया जाता है। अपनों का, समाज का, उसके कुंद हो उठे रीति-रिवाज़ों, जातिवाद के सड़ांध परिणाम का, दहेज की अमानवीयता के खिलाफ आवाज तो उठाई पर कुछ कर नहीं पाया। उसने बगावत या खिलाफत नहीं की। इस तथ्य के बावजूद कि वो विरोध तो कर सकता था।

पर क्या वह ऐसा कर सकता था। व्यक्तिगत स्तर पर तो कर सकता था। कितनों ने किए भी। ये दूसरी बात है सबका सामाजिक और पारिवारिक बहिष्कार हुआ। कुछ को जात के खतरे मे पड़ने की आशंका से मार दिया गया या जिंदा जला दिया गया। कुछ को ‘ऑनर किलिंग‘ की बलिवेदी पर कुर्बान कर दिया गया। बाकी जो बच जाते है, ये उनका नसीब ही है!

नहीं तो समाज मे बड़े बड़े आंदोलन हुए इस जातिवाद के खिलाफ। नामी गिरामी लोग इस जातिवाद के खिलाफ लड़ कर अपना नाम इतिहास मे अमर कर चुके है। पर जातिवाद वहीं का वहीं रहा। बल्कि मजबूत होता रहा। इसकी जड़े और गहरी होती रही।

आधुनिक युग मे, उपभोकतावाद और वैशविकरण के इस दौर मे और मनबूत ही होती जा रही है यह जाति। इसके शिंकंजे और ही कसते जा रहे हैं। कहते है, जब कोई कोई चुनौती आती है, कोई खतरा आता है तो सामाजिक और राजनैतिक कुरीतियाँ और विसंगतियाँ और भी मजबूत होती हैं। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए वो और संगठित और सांघातिक होती जाती है। उनके संघटको और घटको को परिष्कृत और परिमार्जित किया जाता है। ताकि वे अपनी नापाक पकड़ बनाए रख सके। जातिवाद के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ है।

पर तुली विद्रोह तो कर सकता था। लेकिन कर नहीं पाया। तुली ने तो यहाँ तक की जबर्दस्ती विज्ञान विधा लेने का और इंजीन्यरिंग पेशे मे जाने का भी विद्रोह नहीं कर पाया। केवल विरोध की आवाज उठा कर चुप हो लिया। फिर जातिवाद और दहेज का क्या विद्रोह कर पाता!

इसका नतीजा यह निकला की उसकी जिंदगी नर्क बन गई। वह एक चलती फिरती लाश सा हो गया। जो भी बोला जाता वह करता। एक मशीन की तरह। घर से कार्य-स्थल और कार्य-स्थल से घर जाते समय उसे ऐसा लगता जैसे मरघट मे जा रहा हो। एक शमशान घाट की नाई ही तो था उसका घर और कार्य-स्थल! जहां उसके अरमानो, सपनों और जिजीविषा की चिता अब तक जल रही होती! और ये शायद ही बुझे। ये आग उसकी चिता की अग्नि के साथ ही ठंडी हो शायद!

अब तुली कुछ समझने लगा था बहुत सारी बाते। उसे पता चल चुका था की क्यों पापा उसे सिविल इंजीनियर ही बनाना चाहते थे। इसमे नाजायज और ऊपरी आय खूब है! जहां जाओ लूट, कदाचार, और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। जनता की पैसों की लूट अफसर और कर्मचारी मिलकर कर रहे होते!। नेता, मंत्री और संतरी तक इसमे मिले थे। कमिशन ऊपर तक जाता होता!

तुली इस लूट मे शामिल नहीं होता। पर जनता के पैसो के वे लुटेरे उसे शामिल करना चाहते। जब वह मना करता तो वे सोचते: कही उनके राज न खुल जाए और पकड़े न जाएँ कहीं! ऐसा चोरो, लुटेरो और गद्दारों के संदर्भ होता है, वे दूसरे भी शामिल कर लेते है। ताकि कोई खतरा न हो। पर तुली मना कर देता। और उसका तबादला हरेक साल-छै महीने पर होता रहता। दस साल की नौकरी मे उसकी 18 बार बदली हुई।

घर की स्थित भी कुछ ऐसी ही होती! बीबी जमींदार घराने की थी। करोड़ों दहेज लेकर आई थी। तुली के घर की सूई से लेकर कार तक दहेज मे मिला होता! और वह इस बात की अक्सर ताने मारती रहती। कहती, सब कुछ उसके पापा का दिया हुआ है। हमेश ताने मारते रहती। खुद बैठे बैठे पलंग तोड़ती होती और उससे काम करवाती। उस पर कहती घर के सारे काम वही करे। वो हाथ तक नहीं लगाती किसी काम मे। कहती इतना दहेज उसके पापा ने काम करने के लिए थोड़े ही दिया है!

तुली घर गृहस्थी के काम आधा-आधा बांट कर करना चाहता। वह बोलती—पापा ने इतना दहेज दिया है काम करने को थोड़े ही। हम तो नहीं करते। आप ही करो।

अब तुली क्या बोलता और करता! दहेज उसके पापा ने लिया। वो तो दहेज प्रथा के खिलाफ रहा है। वह तो अंतरजातीय विवाह करना चाहता था। वो भी दहेज के बिना। पर शादी के के दोनों आदर्शो को ताक पर रखना पड़ा। करुणा के चले जाने से उसका दिल पहले से ही जार जार हो रहा था। उस पर पापा की थोथी और खोखली दलील! वह कुछ नहीं कर पाया। और इस लड़की के गले बांध दिया गया।

और एक दिन करुणा ने उसे खाना बनाने को कहा। क्योंकि वह आराम करना चाहती होती। बैठे बैठे शायद थक गयी थी। पर तुली का सब्र जवाब दे गया। उबल पड़ा वो। दोनों मे खूब बक झक हुई। इतनी की मार पीट की नौबत आ चुकी होती। पर तुली पीछे हट गया। लेकिन करुणा ने जाते जाते उसे अपने चप्पल दे मारी। पर उसे लगी नहीं। उसने सिर को थोड़ा टेड़ा कर दिया था। पर उसे गहरा सदमा सा लगा। इतना धक्का लगा, उसके दिल को इतनी चोट लगी कि वह कुछ बोल नहीं सका।

बहुत दुख हुआ था तुली को। बचपन से ही वह नारी को बराबरी और सम्मान की भावना से देखता आया! नारी उत्पीड़न और हिंसा के सख्त खिलाफ रहा है। चाहे घर हो या बाहर। घर मे भी पापा जब कभी माँ को दबाना चाहते, या कुछ अपशब्द बोलते, तो वह इसका विरोध करता।
–पापा ये क्या कर रहे है। मेरे सामने या पीछे भी माँ को ऐसा कभी न बोलना ...

एक बार तो पापा माँ पर कहा सुनी के दौरान हाथ उठाने जा रहे थे। तुली बीच मे पड़ गया।
--ऐसा कभी नहीं करना। सोचना भी नहीं तो मैं भूल जाऊंगा की मैं आपका बेटा हूँ और आप मेरे पापा।
पापा दंग रह गए थे। प्यारी माँ इतनी खुश हुई कि उसकी खुशी छुपाए नहीं छुपती।

पर माँ की यह अप्रत्याशित सी खुशी तुली को समाज की विद्रूपता पर व्यंग्य करती सी लगी। कैसी दुनिया है? कैसा समाज! कैसे लोग! अपने ही आधी आबादी, अपने ही आधे हिस्से को दबा कर, घर की चारदीवारी मे कैद कर हजारो साल से उत्पीड़ित करते आ रहे। क्या ये आत्मघाती नहीं है? अगर नारी-पुरुष बराबर होते। समाज और सभ्यता के विकास मे बराबर के भागीदार होते। तो हमारी सभ्यता कितनी प्रगति की होती! दुनिया कितनी आगे बढ़ गयी होती। पर उसे क्या पता कि पुरुष प्रधान यह समाज और दुनिया अपना वर्चस्व बनाए रखने के आगे विकास और प्रगति की परवाह नहीं करता!

इसी पुरुष प्रधान समाज और इसके परोकारों, जिसमे देश के दो ऊपरी जाति शामिल है, ने महिलाओं की पचास प्रतिशत आबादी के साथ साथ, 80 प्रतिशत दलित पिछड़ो को भी दबा कर, प्रताड़ित कर रखा है। इस प्रकार इस प्रकार एक सौ तीस प्रतिशत आबादी जिस देश और समाज दबाई, सताई और प्रताड़ित की जा रही हो, वो क्या आगे बढ़ सकता है? इसमे कोई आश्चर्य नहीं है कि कोई भी आया हमे गुलाम बना गया। और इस गुलामी और इसके तंत्र को अब तक बरकार रखा गया है, ताकि ये लूट और शोषण अबाध रूप से चलता रहे।

इतिहास मे ये बाते नहीं हैं। साहित्य मे भी इस पर विमर्श बहुत कम हुए हैं। वो भी बहुत छीछले और सतही तौर पर। क्योंकि इतिहास और साहित्य पर इन्ही दोनों का आधिपत्य है। ये भला क्यों ये सब बाते करेंगे। महिलाओं की आधी अबब्दी को दबाने और उत्पीड़ित करने के अलावे इन्होने बहुसंख्यक दलित पिछड़ो को भी पशु की तरह बांध और दबा कर रखा है। जब ये इनके काबू से बाहर जाते रहे तो विदेशियों और बर्बर जातियों की भी मदद लेते रहे हैं। अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए। ये दूसरी बात है कि इन बर्बर और विदेशी लुटेरी जातियो ने अंत मे उन्हे गुलाम बना लिया। और एक हजार साल तक शासन करते रहे।

ये सब बातें सोच कर तुली का मन दिन भर खराब सा रहा। भरी भारी सा लगता रह। ऑफिस मे भी मन उखड़ा उखड़ा सा रहा। फिर ऑफिस मे भी बक झक हो गई। एक जांच समिति बनी थी एक पुल के असमय टूट जाने पर। इसमे मे घटिया सीमेंट और सरिया डालने का मामला था। उस पुल मे उदघाटन के पहले ही दरार आने शुरू हो गए थे। सबों ने खूब मोटी कमीशन खाई थी। तुली इससे दूर रहा। पर उसका हस्ताक्षर ले लिया गया था।
अब जान पर बन आई तो लगे सभी गेंद फेंकने लगे एक दूसरे के पाले मे। पर सभी लुटेरों और जनता के पैसे के चोरों ने मिल कर तुली को बलि का बकरा बनाने की योजना बनाई। पर उसने एक महीने कि छुट्टी पहले से ही डाल दी। और मुख्यालय मे हँगामा मच गया। उनका सारा खेल खत्म हो गया।

 

 

 


वनवास

तुली घर लौटा! घर खाली था। करुणा जा चुकी थी अपने मां पापा के घर। घर की चाबी पड़ोसन को दे गई । जब अंदर आया तो खाने के मेज पर एक कागज का टुकड़ा था: वह जा रही है अपने पापा के पास। अब वह आएगी नहीं। उसे बुलाने कि कोशिश न करे।

तुली ने चाय बनाई। सोफ़े पर बैठकर करुणा को फोन करने लगा। पर फोन लग नहीं पा रहा था। शायद उसने ब्लाक कर दिया था। फिर उसने करुणा के पापा को फोन लगया। दो बार बार कोशिस करने पर फोन लगा। पर उसके पापा केवल इतना कह कर फोने काट दिया—वो घर पर ही है।

उस रात तुली को नींद नहीं आई। वह सोफे पर बैठा कुछ स्केच बनाते रहा। डिज़ाइन पेपर पर पता नहीं क्या क्या बनाता रहा। और जब सुबह हुई और एक लंबी झपकी के बाद उसको होश आया। तो डिज़ाइन पेपर के कैनवस पर एक तस्वीर बनी थी: वह उसकी अपनी ही तस्वीर लगती हुई। इसके पृष्ठ भूमि मे सुदूर क्षितिज मे सुंदर पर्वत शृंख्लाए दीख रही होती! कुछ राज छुपाती सी लगी और कुछ खोलती सी भी लगी।

और तुली निकल पड़ा आवारा राही की तरह। जहां मन करता जाता। जहां भी ठौर ठिकाना मिलता वहाँ ठहर लेता। होटल, सराय, धर्मशाल , गुरुद्वारा , मंदिर, मस्जिद किसी के भी धर्मशाले मे ठहर जाता। दिन भर इधर उधर भटकता। और रात मे थक कर सो जाता। जो बस या ट्रेन किस भी शहर और गाँव के लिए मिलता, वह चला जाता।

लोग पूछते—कहाँ जाना है? वह बोलता—बस ऐसे ही घूम रहा हूँ। पर जब अपने आप से पूछता तो कोई जवाब नहीं मिलता। पर कुछ था जो उसे बुला रहा था। अदृश्य, असपष्ट सा कोई उसे अपनी ओर खींचे जा रहा था। क्या था वो? शायद उसी की तलाश मे तुली दर ब दर भटक रहा था। क्या वह जिंदगी ही तो नहीं नहीं थी शायद!

ऐसे ही भटकते भटकते वह एक दिन अपने आप को एक गाँव मे पाया उसने। बिलकुल उसके गांव जैसा था। नाम भी वैसा ही था- फुलवरिया। फुलवरिया यानि फूलो का बाड़ा या घेरा। बिलकुल फूलों के बगीचे जैसा था हमारा गाँव। कितना सुंदर। गाँव मे प्रवेश करते ही आम, कटहल और महुआ के पेड़ो के बगीचे शुरू हो जाते हैं। इसके एक ओर सोना नदी बहती है और दूसरे सिरे पर गंडक की नहर।

कितनी यादें जुड़ी है अपने गाँव से। ---मेरे बचपन का सपनों का गाँव ...... हरियाली, ताजगी और हवाओं पर उड़ती जिंदगी... जाओ तो वापिसआने का मन ही नह करता। कितनी सुनहरी और हरियाली यादें अपने इस गाँव की। सोना नदी पार कर अपने आम के बगीचे मे जाना, उसके बाजू मे गन्ने के खेत जिधर नज़र दौड़ाओ उधर उसके प्राकृत के प्रहरी से खड़े हरे बहरे .... कभी गन्ना खाना तो कभी आम। और आम की बात ही न की जाय... हरेक आम के हरेक पेड़ के आमो का अलग स्वाद... गन्ने का भी वही हाल शकरकंद भून कर खाना...

सोना नदी मे तैरना.... जब थक जाना तो मछलियाँ पकड़ने लगता। किनारे पर बैठे बैठे .. उन्हे आग मे पका कर भर्ता या चोखा बनाना … और नमक मिर्च मिला कर खाना। --याद है मुझे, तुली सोच रहा था, जब पहली पहली बार गाँव गया था... तब हमारा फुफेरा भाई- सुभाष भैया को दादा जी अपने पास ही रखे हुए थे। वे ही मुझे घुमाने ले गए। उन्होने हमारे गन्ने के खेत दिखाए फिर बोले—उंख चुस ब? पर ये क्या ? भाई तो दूसरे के खेत से गन्ने तोड़ने लगा। --भाई ये क्या? हमको अपने खेत का गन्ना खाना है। दूसरे के खेत का नहीं।
--नहीं जानते हो दूसरे के खेत का गन्ना ज्यादा मीठा होता है। भाई ने तपाक से जवाब दिया और मैं चुप रह गया।

और न जाने कितनी यादें जुड़ी है। वो कुश्ती.... वो दंगल.... वो मेले.... वो लोगों के रेले। वो चुपके चुपके रात मे उठ कर चाचा लोगों के साथ नाच देखने जाना … माँ पापा मना करते थे…… बोलते ये नाच बच्चों के लिए नहीं होते... पर हम जाते और चाचा-पापा के भाई लोग ही हमे ले जाते... पापा से छुपते छुपते। बाद मे पापा से वे डांट भी खा लेते... पर हमे नाच दिखाने ले जाते जरूर... क्यों ? हमारे साथ रहने से चाचा लोग को एटैन्शन कुछ ज्यादा ही मिलता ... लोगो से भी.... और लौंडों और बाई जी से भी।

तब तुली आठ साल का रहा होगा। दादा ने पापा से लड़ कर उसे गाँव ले आए अपने साथ। वो उसे पहलवान बनाना चाहते। दादा पटना आ कर उसे ले गए। पापा के लाख माना करने के बावजूद। गाँव आते ही दादा आखाडा भेजने लगे। पहले सुबह उठ कर गाय और भैंस का धारोष्ण दूध पीना।

दादा कहते: कृष्ण के दादा केशरी जी उन्हे ऐसे ही दूध पिलाते। इससे—गाय के दूध से दिमाग तेज होता है और भैंस के दूध से शरीर तंदरुस्त और मजबूत। फिर तेल मालिश और शरीर पर अखाड़े की मिट्टी। फिर दंड बैठक और मुगदर भाँजना। फिर कुश्ती ...तरह के दांव पेंच ...कभी धोबिया पाट.... तो कभी बाहुकंटक पाश.... ।

अभी कुछ महीने भी नहीं हुए थे कि पापा अचानक आए और उसे गाँव से वापिस पटना ले गए। इस तरह तुली के पहलवान बनने का सफर बीच मे ही खत्म हो गया। बहुत बाद मे तुली को समझ मे आया कि दादा जी उसे पहलवान क्यों बनाना चाहते थे। ... विभाजन का दंश सहा था उन्होने। वही कारत उप-महादेश का विभाजन...!


युग-त्रासदी

विभाजन की बात उठते ही ही दादाजी की याद आ गयी। कैसा लगा होगा उन्हे जब सब कुछ देश के विभाजन, पूर्वी पाकिस्तान, ढाका मे लुटाकर गाँव वापिस आए। केवल वे ही वापिस आये थे। घर परिवार के लोग तो पहले से ही गाँव आए हुए थे। इस कारण बच गए। नहीं तो सब कुछ लूट गया था। धन, माल, तीन पानी के जहाज और 10 नाव। 100 एकड़ खेत। सब छुट गया।

इतनी अफरातरी मे, इतनी जल्दी मे भागना पड़ा। किसी भी धन संपत्ति के कागज तक नहीं ले आ पाए । बाद मे जब यहाँ सबको हरजाना और अन्य भत्ता मिल रहा था, तब दादा जी को कुछ भी नहीं मिला। इसका उन्हे और हमे भी काफी अफसोस रहा। इतनी दहशत फैला पड़ा था चारो ओर! इतनी मार काट मची! भीषण नर संहार! घर जला दिये गए.। बहू बेटियाँ अगवा कर ली गयी। और पुरुष सदस्यों को बेरहमी से भीड़ गला काट देती।

उस रात दादा जी का सबसे विश्वासी कारिंदा, कारीमुल्ला आया था। --बाबूजी भाग जाओ यहाँ से। चले जाओ अपने देश। वे आपको मारने आ रहे है......

रातो रात देश भी बदल गया। जो कल तक अपना देश था... वो पराया बन गया। दादा जी तेजी से बदलते परिदृश्यीं की भयावहता से आतंकित हो उठे थे। उन्हे कुछ भी समझ मे नहीं आ रहा था। या जरूरत से ज्यादा समझ मे आ गया था।

उन्ही के कंपनी के लोग, पड़ोसी और जानकार! जिनके साथ रहे, जिनको नौकरी दी, गरीब और भूख से उन्हे निजात दिलाई... वही उन्हे मारने आ रहे हैं ... क्या वही लोग हैं और देश बदल गया। इसलिए सब कुछ बदल गया—जात धर्म और ईमान ... या लोग बदले हैं और देश वही है। उन्हे कुछ भी समझ मे नहीं आ रहा था।

बस उन्होने एक नाव ली और अपने दो तीन लोगों के साथ हुगली नदी के मुहाने पर आ गए। और वहाँ से कलकत्ता और कलकत्ता से अपने गाँव।

खाली हाथ गए थे दादा जी ढाका! धंधा करने, व्यापार और व्यवसाय करने। सब कुछ हो गया था धीरे धीरे। अपना व्यवसाय जम गया: पानी वाले जहाज और नाव-फेरि का बड़ा सा धंधा। १०० एकड़ जमीन भी खरीद ली थी। उस पर पटसन की व्यवसायिक खेती होती। एक आलीशान बंगला भी बना लिया था । फिर रातो रात सब छोड़ना पड़ा। गाँव आना पड़ा। वो भी खाली हाथ!

यहाँ भी अपने देश का भी वही हाल। लगता ही नहीं था कि अपने देश मे है! जब कि अब तक जो देश था अब एकाएक पराया हो गया था। इतना पराया कि वहाँ से खदेड दिये गए। मुश्किल से जान बचा कर भागे। यहाँ भी दादा जी को सब जगह से ठोकर ही खाने पड़े। विभाजन मे सब कुछ लूट गया था। ऐसे भगाये थे वहाँ से, कुछ भी नहीं ले आ पाये अपने साथ। न कागज और न घर-खेत और व्यवसाय के कागजात ही। न पैसा न सोना।

सब लूट लिया था उन वहशी लुटेरों ने। मानवता कितनी बार कलंकित और शर्मसार हुई, पता नहीं। पर यहाँ अपने देश मे केंद्र सरकार ने बोला राज्य सरकार से लो। राज्य सरकार ने बोला तुम बिहारी हो बिहार से लो। और वहाँ कि सरकार ने बोला ये मामला पश्चिम बंगाल सरकार का है। सो उनसे ही लो हरजाना और अन्य भत्ता।

मानव जाति के इतिहास मे ऐसा पहली बार हुआ। और शायद आखिरी बार हो। जब लाखो अनगिनत लोगो को एक दूसरे के उन्मादी और धर्मांध भीड़ के हवाले छोड़ दिया गया। पता नहीं कितने मारे गए! घर संपत्ति लूट ली गई। बहू बेटियों को अगवा कर लिया गया।

ऐसा नर संहार! कभी हुआ ही नहीं पहले। दोनो ओर के लाखो-करोड़ो लोग मारे जाते रहे। और आज़ादी की राजनीति की रोटियाँ सेंकने वाले सत्तासीन होते रहे! वे तो सत्ता भोग करते रहे। और लोग मारे जाते रहे। दोनों पक्षों के नेताओं ने इतनी क्रूररता और अमानवीयता दिखाई की सेना-पुलिस कुछ भी नहीं भेजा उनकी सुरक्षा के लिए।

कुछ इसी तरह के धर्म आधारित विभाजन हुआ था-- यूरोप के दो देशों के बीच, साइप्रस मे यूनान और टर्की के बीच। अपने देश और धर्म की सेना और पुलिस की देख- रेख मे उनका विभाजन हुआ। और यहाँ छोड़ दिया गया लाखो-करोड़ो लोगों को मरने।

और इसकी सजा आज तक किसी सी को नहीं मिली। उलटे जिनके कारण ये सब हुआ वो दोनों पक्षो के पूजनीय नेता और भाग्य विधाता बने हुए हैं। उनके नाम के माला जपा जाता है। उनके शान मे कसीदे पढ़े जाते हैं! हरेक साल ये सब होता है। और वर्षों से ऐसा होता आ रहा है।

और उन लाखो करोड़ो लोगों को, दोनों पक्षों के, उनके रिशतेदारों -परिवार वालों को आज तक न्याय नहीं मिल पाया है। उनकी आत्मा भटक रही है। उनकी रूहे आज भी कयामत के दिन का इंतजार कर रही है। क्या उनको न्याय मिल पाएगा? ऐसा लगता तो नहीं! जब इसे अपराध ही नहीं समझा जाता तो न्याय कैसे और क्यों कर मिलेगा!

पर कर्मों का--चाहे वो अकर्म हों या विकर्म या कुकर्म- और उनके परिणामों! कार्य कारण का जो अनंत सफर चलता रहता है, वो तो चल ही रहा है: कोई भी, चाहे वह इस पार का हो उस पार का, सुखी नहीं। उन करोड़ों लोगों की आत्मा और रूहे भटक रही लगती! और तभी तो शांति, सुख और समृद्धि का अभाव है इस महाद्वीप मे। लगता है जब तक इंसाफ नहीं मिलेगा उन्हे, इसी तरह से पिसते रहेंगे दोनों तरफ के लोग!

उसी युग त्रासदी और भीषण नर संहार से बच तो निकले तुली के दादा जी। पर यहाँ भी, अपने देश मे भी सब जगह से ठोकर ही खाने पड़े। विभाजन मे सब कुछ लूट गया था। यहाँ भी आए तो नेहरू जी ने बोला: राज्य सरकार के पास जाओ। राज्य सरकार ने बोला तुम बिहारी हो, बिहार से लो।फिर दादा जी राजनीति मे उतरे। पहले पंचायत के मुखिया या प्रधान बने। उसके बाद एमएलए, फिर एमपी बने। एक प्रसिद्ध समाजवादी के साथ रहे।

आज़ादी के बाद के देश-प्रदेश की समाजवादी राजनीति मे बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया। फिर समाजवादी राजनीति से भी निराश हो गए। सबों ने अपनी अपनी राजनिती की अलग अलग दुकान जो खोल ली थी! अलग अलग पार्टी बना ली। स्वांतरता के बाद की राजनीति से भी उन्हे कोई उम्मीद नहीं थी।

कैसे होती! गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों ने जो ले ली थी। ऐसी राजनीति से किसी को कैसे उम्मीद हो सकती। वही अँग्रेजी औपनिवेशिक कानून! वही लूट और शोषण की औपनिवेशिक नीति और मूल्य। वही व्यवस्था, वही संरचना, वही संस्था! बस उन पर प्रजातन्त्र, समानता, स्वत्ंत्रता, और अधिकार का जामा पहना दिया गया। पर वही सामाजिक विषमता! वही फुट डालो और शासन करो! वही भेद भाव, वही औपनिवेशिक लूट और शोषण।

प्रजातन्त्र भी शर्मसार और बदहाल होती रही। जिसकी लाठी उसकी भैंस की बलिवेदी चढ़ता हुआ सारा तंत्र भैंस तो वही रही-सत्ता की। पर लाठी बादल गयी—खोखली करिश्मा, पैसा, जाति और धर्म की उन्मादी लाठी! कभी बूथ लूटकर चुनाव जीतना, तो कभी खोखली और झूठ और प्रोपेगंडा पर आधारित करिश्मा पर विजय होना। कभी जाति तो कभी धर्म के शोले भड़का कर चुनाव जीतना।

तभी लोहिया जी के गुजर गए। दादा ने सन्यास ले लिया राजनीति से। और कबीर पंथी हो गए।

तुली के नाना, डॉ- लक्ष्मण रावत, तो उसके दादा से भी कहीं बड़े क्रातिकारी और समाजवादी नेता थे। जे पी और लोहिया के साथ वे स्वतंत्रता आंदोलन मे कूद पड़े। तुली के नाना दरभाँगा मेडिका कॉलेज से डॉक्टर की पढ़ाई करने के बाद, ब्रिटिश सरकार के प्रशासन मे सहायक सिविल सर्जक नियुक्त हुए। पर वहाँ से इस्तीफा दे कर स्वतंत्रता आंदोलन मे कूद पड़े। कई क्रांतिकारी कारनामे किए। कई बार जेल गए।

आजादी के बाद डॉक्टर साहब डॉ लोहिया जी के साथ हो गए। समाजवादी आंदोलन मे वे उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर चले। उनके साथ साथ आज़ादी के बाद भी जेल गए।। लोहिया जी उनके काम और समाजवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता से प्रभावित थे। तभी तो एक पूरा अध्याय ही लिख डाला लोहिया जी ने, अपनी किताब मे, डॉक्टर लक्ष्मण रावत पर। बाद मे वे एमएलए और एमपी भी बने। बिहार और उ प के कई समाजवासी नेताओं के गुरु रह चुके है! और जैसा की अक्सर होता है: गुरु गुड़ ही रह गए और चेले चीनी बन गए!

बाद मे डॉक्टर साहब का समाजवादियों से मोहभंग हो गया। लोहिया जी के जाते ही सामाजवादी आंदोलन बिखरने लगा था। ७० के दशक मे वे चोटी पर पहुँचने के बाद इसमे ह्रास आना शुरू हो गया। बावजूद इसके कि उनकी कई राज्यो मे मिली जुली सरकार भी बनी थी। डॉक्टर साब इस दौरान एमएलए बने और बिहार मंत्रिमंडल कुछ अवधि तक रहे। फिर इस्तीफा दे दिया। लोहिया के निधन के साथ ही समाजवादी टूटने और बिखरने लगे। वे अपने राग अपनी डफाली के तर्ज पर अलग दल बनाने लगे। और तुली के नाना इन सब से दुखी और हताश हो कर अपने आप को अलग थलग कर लिया।

तुली के नानी के घर के पास ही एक बाजार-ठेपहा है। वही पर नानाजी ने एक डिस्पेन्सरी खोल ली। और लोगों को बहुत कम रकम मे, एक तरह से मुफ्त इलाज करने लगे। राजनीति से सन्यास ले लिया और वो भी दादा जी की तरह कबीरपंथी हो गए। गरीबों का मुफ्त इलाज करते। और उनके यहाँ साधु संतो का जमावड़ा भी लगा रहता। संवाद, चर्चा और परिचर्चा चलती रहती। आध्यात्म से ले कर सांसारिक, सभी मुद्दों पर चर्चा होती रहती।

अभी तक याद है नाना का आखिरी चुनाव। लोक सभा का चुनाव था। नाना का सामना काँग्रेस के एक दिग्गज से था। हम लोग प्रचार मे लगे थे। तभी हमे खबर मिली कुछ विधान सभा क्षेत्रों मे जहां हमारे समर्थक थे, वहाँ विरोधी बूथ लूटने की योजना बना रहे थे। तुली नाना के पास गया।

--नाना! विरोधी दल हमारे इलाके के बूथों को लूटने की योजना बन रहे हैं!
--हूँ । बोलकर नाना चुप लगा गए जैसे उन्हे मालूम हो।
--उन्हे रोकना होगा। तुली ने बोला।
--ठीक है रोको। पर हिंसा नहीं होनी चाहिए । नाना ने शर्त रखी।
--पर नाना , अगर उन्हे रोकते है या उनके इलाके के बूथ लूटते है, दोनों स्थिति मे हिंसा की संभावना है। बिना हिंसा के यह नहीं हो पाएगा। तुली ने साफ बोल दिया।
--नहीं मुझे हिंसा नहीं चाहिय। चाहे हारू या जीतू.... । नाना ने कुछ कुछ चेतावनी के लहजे मे बोला।

तुली को थोड़ा अजीब सा लगा। फिर निर्णायक लहजे मे कुछ कुछ भविष्यवाणी करता हुआ बोला:
--नाना आप हार जाएंगे। अब गांधी और उनकी अहिंसा का जमाना नहीं रहा। अच्छा होगा आप राजनीति से सन्यास ले ले। बोल कर तुली वहाँ से निकल गया।

और वही हुआ। विरोधी उम्मीदवार ने जम कर बूथ लूटा। हम कुछ भी नहीं कर पाए। बस गांधी बाबा के तीन बंदर मात्र बन कर रह गए। न बुराई देखा, न बुरा सुना और न ही उसके बारे मे बोला ही। नाना के खोखले गांधीवाद के कारण। और नाना हार गए। उसके बाद से राजनीति से भी सन्यास ले लिया।

पर तुली नाना के पास जाता रहा। गर्मी की छुट्टियो मे नाना के यहाँ जाना: एक तरह से अनिवार्य सा बन गया था। नाना का व्यक्तित्व मे कुछ ऐसा था जो सबको अपनी ओर आकर्षित करता होता! उनकी जो बात तुली को सबसे अच्छी लगती: वो उनका धीर और गंभीर स्वभाव। किसी भी परिस्थिति मे उन्हे कभी घबराते हुए नहीं देखा। और कोई भी, चाहे वो बीमारी से परेशान और घबराया हुआ हो या किसी अन्य कारण से, उनकी उपस्थित मे शांत हो जाता।

एक और खासियत थी। नाना को कभी भी बेफिजूल की बाते करते नहीं देखा। उनसे यह भी सीखा तुली ने की कई बातो और प्रश्नो का जवाब चुप रहना भी होता है! नाना सादगी भरा जीवा बिता रहे थे। सुबह से लेकर शाम तक नाना की डिस्पेन्सरी खुली रहती। चाहे तो कोई रात मे भी आ सकता था। नाना कभी माना नहीं करते। फिर घर मे ही डिस्पेन्सरी थी। कोई समस्या नहीं होती मरोजों को देखने मे।

फिर नाना का घर चौबीसों घंटों खुला रहता साधु की तरह राजनीतिज्ञों और राजनीतिज्ञों की तरह साधुओं के लिए! सभी पंथ और संप्रदाय के साधु-संत आते रहते। पर नाना का लगाव कबीर पंथ से था। उन्ही से चर्चा-परिचर्चा मे नाना अपने अधिकतर समय व्यतीत करते। कोई मरीज आता तो उसको देख भी लेते और दवा भी दे देते।

नाना के यहाँ ही तुली ने कई जब्तशुदा किताबे देखी। और पढ़ी भी। उसमे एक था, १९५६ का लोहिया जी द्वारा लिखित किताब, ‘नेहरू पर एक दिन मे बीस हजार खर्च’। इसमे लिखा था: कैसे नेहरू जी के कपड़े प्रति दिन हवाई जहाज से पेरिस धुलने जाते। और बहुत सारी बाते थी जो नेहरू को अय्याश, और क्रूर बताती थी।

भगत सिंह और चंद्रशेखर की भी किताबे थी! जिन्हे अंग्रेर्जी सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा था। पर वो प्रतिबंध काले अंग्रेज़ो या देशी अंगर्जों ने बरकरार रखी हुई थी। आजादी मिलने के बाद भी!

नाना ने अपना कोई उत्तरधिकार भी नहीं छोड़ा। हमारे सारे मामा ऐसे थे भी नहीं कि राजनीति मे चले। नाना ने भी उन्हे राजनिती मे लाने की कोइ कोशिश भी नहीं की। उनका मानना था: जिसे जो बनना होगा वो बन जाएगा। किसी पर भी कोई चीज थोपी नहीं जानी चाहिए। वे किसी की सिफ़ारिश भी नहीं करते। चाहे उनका अपने बेटा या भाई ही क्यो न हो! जो होना होगा वो हो जाएगा और जिसे नहीं होना होगा वो नहीं होगा। इसलिय वे न तो सिफ़ारिश ही करते और न ही पैरवी।

तभी नाना ने वंशवाद नहीं चलाया। नहीं तो आज कल तो शीर्षथ नेता से लेकर छुटभैया तक वंशवाद स्थापित करने मे लगे हैं! न केवल राजनीति वरन हरेक क्षेत्र मे: चाहे वो व्यवसाय हो या फिल्म, साहित्य हो या शिक्षा या अन्य कोई सेवा और व्यवसाय। सभी अपने बेटे बेटियो को सेट करने मे लगे हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता: उनमे संबन्धित क्षमता और गुण है या नहीं!

इसका परिणाम सबके सामने है: हरेक क्षेत्र मे गिरावट आ रही है। भ्रष्टाचार और कदाचार बढ़ता ही जा रहा है। देश और समाज की जड़े खोखली होती सी लग रही है।

कितने अच्छे और दूरदर्शी थे हमारे नाना!... तुली सोच रहा था.... अगर वो अपने बेटे और भतीजो को राजनीति मे लाते तो क्या होता? वे खुद भी डूबते और नाना की राजनीति, उनके नाम, उनकी शोहरत उनके आदर्श—सबको ले डूबते।.... और अगर पापा या मुझे राजनीति मे लाना चाहते तो क्या होता? ये सोच कर ही घबड़ा जाता हूँ। काश! सभी नाना जैसे होते...ये वंशवाद का जहर जो हमारे देश और समाज को खोखला कर रहा है, हरेक क्षेत्र मे गिरावट और ह्रास का यही कारण लगता है...।

पर उस समय तुली और उसके सारे भाइयों और रिश्तोदारों को अच्छा नहीं लगता। उन्हे समझ मे नहीं आता: नाना क्यों ऐसा कर रहे है। जहां सभी अपने बेट बेटियों को स्थापित कर वंशवाद को फैलाने लगे है। वहाँ नाना हमारी सिफ़ारिश तक नहीं करते!

अब जा कर ये बात समझ मे आई! नाना की महानता पर आँसू छलक आते है! गर्व और खुशी के!

 

 

 

 

-वो भाई! कहाँ जाना है?

तुली, अतीत की वीथियों से वर्तमान मे पहुंच गया। कब और कैसे चंडीगढ़ आ गया था, पता ही नहीं चला। होश आया तो अपने आप को मनाली जाने वाली बस मे बैठा हुआ पाया।

--मनाली। सब उसकी ओर देखने लगे। किरया के पैसे देकर आराम से बैठ गया। और बाहर हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों की तेजी से बदलते सुंदर और अप्रतिम दृश्यों मे खो गया।

जब बस मंडी पहुंची तो ज्ञान भाई आ गए। वे अपनी गाड़ी से मनाली ले जाने वाले थे। तुली ने चंडीगढ़ से बस खुलने के बाद उन्हे बता दिया था। उन्होने बोला की वे मंडी मे ही हैं और साथ ही मनाली के लिए निकल लेंगे। ज्ञान भाई का मनाली मे दो तीन कॉटेज थे, जो वे लीज पर ले चला रहे थे। एक बार मनाली गया था । तभी से जान पहचान हो गयी थी।

--मनाली का मौसम खराब चल रहा है। ज्ञान भाई ने बताया। बंजार घाटी मे आपका इंतजाम कर दिया है।

बंजार घाटी। वहाँ पहुंचना भी अपने आप मे अडवेंचर से कम नहीं है! पहले मंडी से औट, फिर वहाँ से सेंज वेली। फिर सेंज से बंजार घाटी। बंजार घाटी से ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क। फिर तीरथन घाटी। रात के दस बज गए। पहाड़ो का नीम अंधेरा अपनी भयावह सुंदरता से घाटी घेर रखा था।

वहाँ से भी 10 किलोमीटर दूर, तीर्थन नदी के किनारे एक कॉटेज बुक किया था ज्ञान भाई ने। कॉटेज तीर्थन नदी के उस पार था। पास मे कोई पुल नहीं था। एक रोप ट्राली लगी था। इसी से जाना होता। उधर कॉटेज और गाँव भी थे।

ट्राली से नदी के बिचोबीच से गुजरते हुए। चारों अरफ ऊंची ऊंची पर्वत शृंखलाये। घने अंधेरे के साये मे लिपटे। उनके बीच गांवो और घरों के टिमटिमाती रोशनी की कहीं दूर से दिखती हुई। नीचे अंधेरे मे डूब कर बहती हुई तीर्थन नदी। हमारी ट्राली नदी के बीच मे पहुंची। एक धक्का सा लगा। और ट्राली थोड़ा अटकी। और फिर रुक गई।
एक पल के लिए दिल की धड़कने भी रुकी सी लगी। ट्राली पर कॉटेज के दो लड़के तुली के साथ थे। वे ट्राली को ठीक करने लगे। डर और आशंक की एक लहर सी दौड़ गयी।

ये जानते हुए भी यह केवल डर है, इसके मनोवैगनिक व शारीरिक प्रभाव ने अपना रंग जामा दिया। डर तो दिखा नहीं! कॉटेज के लड़के कहाँ डर रहे थे। वे तो झूले ठीक करने मे लगे थे! डर तो बिलकुल नहीं रहे थे। उल्टे उसे कह रहे होते: साब जी डरना नहीं। डर केवल उसका ही डर लग रहा होता। कहीं ये भी मन का विभ्रम तो नहीं!

और वही मन जीवन के पल पल बदलते दृश्य मे अटका, विभ्रमित हुआ: उसी को सच मान लेता! उसके ऐसा मानते मानते वो दृश्य कुछ और हो जाता है। और ये सिलसिला अनवरत और अनंत तक चलता रहता है! और मन अपने आक्षेप विक्षेप मे फंसा ब मकड़ी के जाले के तरह लटका रहता है। और एक दिन मृत्यु की गिरगिट उसे निगल लेती है!

ट्राली ठीक हो गयी। और डर गायब। कहाँ होते होता पहले जब नहीं था, और जो अब है। पर ये गारंटी भी कतई नहीं है कि बाद मे नहीं होगा।...क्या हमारा सारा जीवन इस झूले के तरह रस्सी को सांप और सांप को रस्सी समझने के विभ्रम और डर मे झूलते हुए नहीं बीत जाता! और जब तक पता चलता है की कौन क्या! बहुत देर हो हो जाती है!

कब कॉटेज आ गया, पता ही नहीं चला। जैसे सपने मे चल रहा हो! जैसे वो तुली नहीं! कोई और हो!

 

 

 

 



मोह

सुबह तुली उठा। कॉटेज के बाल्कनी मे आया। और वहाँ का नजारा देख कर दंग रह गया! सामने कॉटेज के बिलकुल पास से: कल कल करती कुछ इठलाती कुछ मचलती तीर्थन नदी बहती हुई। वहीं से एक खूबसूरत मोड लेती हुई। उसके पार ऊंचे ऊंचे बर्फ से आधे ढंके, आधे हरितम हरियाली ओढ़े पर्वत मालाओं की शृंखला। कॉटेज के पीछे ऊंचे ऊंचे, आधे उजले आधे भूरे पहाड़ झाँकते हुए।

वह बस देखता रह गया। दाहिनी ओर धौलधर के पहाड़-- बर्फ से लदे। और बीच मे तीर्थन घाटी। और सुंदर घाटी को दो हिस्सो मे बाँट कर बहती तीर्थन नदी। उधर कॉटेज के पीछे भूरा पहाड़, बर्फ लदे पहाड़ो के बीच आंखो को बांध लेने वाली छटा बिखेरता हुआ। सूरज की किरने सीधी पड़ती रहती हैं इस पहाड़ पर। बर्फ नहीं टिक पाती। उसके ऊंची चोटी पर एक सुंदर सा घर। कौन रहता होगा या होगी, ये सोच कर ही तुली रोमांचित सा होने लगा।

धीरे धीरे झुंड के झुंड बादल आने लगे। पहाड़ो को ढकते हुए घाटी मे उतरने लगे। देखते देखते पूरी घाटी बादलो की धुंध मे खो गयी। बादलों के गर्जन तर्जन से पूरी घाटी डोलने लगी। ज़ोरों की बारिश होने लगी। धीरे ठंड तेज होने लगी। ऊपर के पहाड़ों पर बर्फवारी होनी शुरू हो गई।

तुली कॉटेज के अंदर आ गया। मौसम खराब हो चला था। कहीं बाहर जाना संभव नहीं लगता। बाल्कनी मे खड़ा होना मुश्किल हो रहा था। कहीं घूमने जाना तो दूर कि बात लग रही थी। कमरे मे ही नाश्ता कर बेड पर लेट गया। सोचा थोड़ा सो लिया जाये। पर नींद कहाँ?

बाहर खिड़की से देखा: अभी भी बारिश हो रही होती। कॉटेज के चारो ओर बड़े बड़े शीशे की खिड़कियाँ थीलगी होती। बिल्कुल ग्लास हाउस सा दिखता हुआ।

तुली ने चाय का ऑर्डर दिया। और एक उपन्यास ले कर पढ़ने बैठ गया।

बारिश की आवाज धीमी हुई। बाहर देखा: कुछ कुछ धुंधलका था। हल्की बारिश हो रही होती। धीरे धीरे सब कुछ दृष्टिगोचर होने लगा। वो भूरा घर और सुंदर दिखने लगा। उसके ऊपर सतरंगी इंद्र्धनुष नज़र आने लगा था। बायीं ओर जहां से तीर्थन नदी का एक तीव्र मोड शुरू होता है, वहाँ कई कॉटेज और होटल थे। अब नज़र आने लगे थे।

धीरे धीरे बादलों का धुंध छटता हुआ। सभी कॉटेज के दरवाजे बंद थे ... शायद हनीमून कपल हों... अंदर बंद ... । थोड़ा रोमांच सा हुआ। पर अपने वैवाहिक जीवन की कटुता मे कहीं गुम हो गई। और उदासी के बादल आ कर तुली पर बरसने लगे।

बायीं ओर देखा: उधर के पहाड़ और घर अभी भी धुंध मे छिपे हुए लगते! बारिश फिर तेज होती हुई! काले काले बादलों का समूह फिर तेजी से उतरने लगे पहाड़ों से घाटी मे। और कुछ ही देर मे घटा टोप अंधेरा छाता हुआ। पर्वत शिखर पर वो भूरा घर अब भी दिख रहा होता। मानो बादलों से लड़ रहा हो जो उसके अस्तित्व को अपने आगोश मे लेने को आतुर लगते होते!

पता नहीं क्यों! उसे पहाड़ की चोटी पर बसे उस भूरे घर से अजीबा सा आकर्षण हो रहा था। ऐसा लगता जैसे वहाँ से कोई आगत या विगत रिश्ता हो! एक दो छाया सी आती जाती भी दिखी.... करने को कुछ और न था। तुली ने दूरबीन निकाली। आस पास के नजारे देखने लगा।

सब कुछ साफ दीख रहा होता। दूरबीन काफी शक्तिशाली लगता। एक अमेरीकन महिला पर्यटक से खरीदा था। उसका पर्स किसी ने चंडीगढ़ मे छीन लिया था। उसे मनाली जाना था। उसका दोस्त वहाँ इंतजार कर रहा था। उसी से खरीदा था।

सब कुछ दिखता हुआ: बादल, बारिश और धुंधलके के वावजूद। ...वो पहड़ उसके बाद... वो भूरा घर ... वो पर्वत शिखर क्लोज अप नोब घूमाने और साफ ... कमरे दरवाजे खिड़कियाँ फिर एक सुंदर सी लड़की बरामदे मे बैठी....फिर वो गुसलखाने की ओर जाती हुई। दिल की धड़कने तेज होती हुई... और कपड़े खोलते हुए .....नहीं नहीं ये ठीक नहीं है, गलत है... दूसरी ओर देखने लगता. फिर दूरबीन रख कर सोने की कोशिश करता हुआ। ।

बादलों का गर्जन तर्जन फिर से तेज होने लगा। बाहर से जोरों की बारिश की आवाजें आने लगी। तभी कॉटेज का लड़का आया।

-स्साब कुछ चाहिए?
चाय का ऑर्डर देकर फिर बाहर देखने लगा। दूरबीन से। सामने के पहाड़ से बादलों का जमावड़ा कुछ कम हुआ सा दिखने लगा.....उधर घर और गाँव ... रंग बिरंगे रंगों से पेंट किए हुए सुंदर पहाड़ी घर... गाँव की गालियां.... काम पर आते जाते लोग.... एक लड़का छतरी लिए हुए सेब की खाद की टोकरी पीठ पर लिए खेतो की ओर जाता हुआ... उसकी पत्नी उसकी ओर देखती हुई .... दूसरे कमरे मे एक बुजुर्ग खाँसते हुए हुक्का पी रहे हैं....सामने एक बुजुर्ग महिला भी मँजिए पर बैठी हुई।

एक सुंदर सी लड़की एक कमरे दूसरे कमरे ओर जाती हुई दिखी ...

तभी दरवाजे पर घंटी बनी। कॉटेज का लड़का था।
--स्साब जी लंच मे क्या लोगे?
--जो है... दे दो।

लंच कर के बाहर घूमने की सोचा। अभी तैयार हो कर बाहर ही निकला था कि बारिश फिर से होने लगी। बाल्कनी मे ही बैठ गया। बारिश बहुत तेज होने लगी। धीरे सब ओर पानी भरने लगा। कीर्तन नदी मे भी जल प्लावन उफान मार रहा था... धीरे धीरे लोगों का कोलाहल भी बढ़ने लगा... उधर मत जाओ... पानी बढ़ रहा...नदी मे बाढ़ आ गया ... लगता है कहीं बादल फटा है... घर आ जाओ पानी भर रहा है...

प्रकृति के आगे इंसान कितना मजबूर है! बेबस और लाचार है। कहने को तो कहते ही रहते है। और अक्सर दम भरते हैं कि प्रकृति पर विजय पा ली गई है। पर क्या सचमुस ऐसा है? ये बाढ़, ये बादल का फटना, ये मूसलाधार बारिश, पहड़ों का टूटना। कहीं इस खोखली विजय का परिणाम तो नहीं है? प्रकृति पर विजय के चक्कर मे जो इसका दोहन हुआ, जिस तरह इसका दुरुपयोग हुआ, उसी के शायद ये परिणाम है: बाढ़, सूखा, ग्लोबल वार्मिंग, प्राकृत आपदाओं और विपदाओं का बढ़ता कहर। इस खोखली विजय और विकास के चक्कर मे पूरी मानव जाति का अस्तित्व ही खतरे मे पड़ गया सा लगता है, तुली सोच रहा था।

तभी जोरों की आवाज हुई। जैसे बादल फटा हो, पहाड़ टूटा हो। इतनी तेज आवाज कि पाँच दस मिनट तक सुन्न सा बैठा रहा। फिर बाहर गया। बहुत सारे लोग इकट्ठे हो रखे थे। किसी ने बताया कि ऊपर कहीं बादल फटा है। वापिस कमरे मे जाने से भी डर लगाने लगा। कहीं बादल न फट पड़े। पर किया क्या जा सकता है? बाहर बारिश्, बर्फ और पानी। अंदर कॉटेज मे जाने के सिवा कोई चारा नहीं था।

अंदर कमरा काफी गरम था। बेड पर लेट कर बाहर देखने लगा। बारिश हुए जा रही थी।–कहीं फंस तो नहीं गया? कई तरह के अटपटे से विचार आने लगे। कहीं ये आखिरी रात न हो ...अगर यहीं इसी तरह महीनो रहना पड़े तो? अरे छोड़ो... ये मन की आड़ी तिरछी उड़ान है...इनपर अगर अटके तो गए काम से...

बैनॉकुलर से फिर बाहर देखने लगा तुली। बस यूंही... इधर उधर देख रहा होता... पानी ही पानी... सब जगह। एक जगह जब नज़र गई जिधर से बादल फटने की आवाज आयी थी। वहाँ का नज़ारा इतना भयावह कि लगा जैसे पानी घर मे ही घुस गया हो।

डर कर दूरबीन को रख दिया। कहीं ये केदारनाथ की तरह तो नहीं होगा। नहीं... नहीं... यह मन का वहम है। शायद दूरबीन के कारण ऐसा भयावह दीख रहा है। फिर दूसरी ओर देखने लगा। जीवन, पहाड़ी जीवन अपनी गति से चल रहा होता। इतनी बारिश के बावजूद। लोग अपने अपने काम मे लगे हुए। स्त्रियाँ रसोई की तैयारी कर रही होती। और पुरुष घर को लौट रहे होते थे। जानवर, पशु पक्षी भी अपने अपने ठिकाने को।

तुली कुछ आश्वस्त हुआ। बेड पर लेटते ही नींद आ गई।




अगले दिन सुबह तुली की नींद खुली। कीर्तन नदी का पानी कॉटेज के दरवाजे तक आ गया था। और अंदर घुसने के लिए सांप की तरह फुफकारे मार रहा होता! कॉटेज के लड़के कब से घंटी बजा रहे थे। आवाज़े भी लगा रहे थे। पता नहीं कब से। अब जा कहर नींद खुली उसकी।

--चलो! ऊपर वाले कॉटेज मे ... इधर पानी कॉटेज और घरों मे घुसने लगा है।

जल्दी जल्दी अपने समान व लगेज वगैरह को बैग मे डालने लगे। तब तक पानी हमारे कॉटेज मे घुस आया। हम दूसरे कॉटेज की ओर जाने लगे। एक लड़के ने मेरा समान ले लिया। दूसरा हमारे आगे आगे चलने लगा, रास्ता दिखाते हुए। बारिश अब भी हो रही थी। नदी के पानी का स्तर तेजी से बढ़ रहा होता। । हर तरफ पानी, कीचड़ और चिकड़। कई बार गिरते गिरते बचे, इतनी ज़ोरों की फिसलन हो रक्खी थी।

जिस कॉटेज मे तुली को ले जाया जा रहा था, वो तीर्थन घाटी के अपेक्षकृत ऊंचे हिस्से मे था। और उसके ऊपर बस वही भूरा घर था। कॉटेज पहुंचते ही, कॉटेज का मालिक अपनी बीबी के साथ आ गया। ---वैल्कम जी … वैल्कम।

नया कॉटेज एक पहाड़ी किसान का था। उसके सेब के बगीचे थे। उसने पंजाब के एक जोड़े को यह कॉटेज लीज़ पर चलाने को दे रखी थी। कॉटेज का मैनेजर अधेड़ उम्र का था। और उसकी बीबी मुश्किल से 20-25 की होगी। गोरी, छरहरा बदन, भरे पूरे वक्षस्थल। पतली कमर पर भारी नितंब मानो कोई अजंता की मूर्त! जींस और पुल्लोवर मे लिपटी हुई। वे कॉटेज से से जुड़े हुए आउट हाउस मे रहते। और कॉटेज के काम देखते।

नया कॉटेज भी पहले की तरह था। पर तीन तरफ से ही घाटी का नज़ारा दिखता होता। पराठे का नाश्ता कर बेड पर लेट गया। बाहर तो बारिश हुए ही जा रही थी। कब आँख लग गयी, पता ही नहीं चला। जब दरवाजे पर दस्तक हुई, तो नींद खुली।

मैनेजर की बीबी चाय लिए खड़ी थी। चाय को सेंटर टेबल पर रखते हुए बोली—साब! लच मे क्या लोगे?
--कुछ भी। उठकर बेड पर बैठेते हुए तुली ने बोला।
--लो साब! चाय पियो। वह उसके बेड के दूसरे किनारे पर बैठ गयी। थोड़ी सी उत्तेजना सी महसूस हुई जब उसकी खुशबू तुली को छु कर निकल गयी। तब तक उसका पति भी आ गया। और नमस्कार कर सोफे पर बैठ गया।

--साब जी जितने दिन रहना है आराम से रहो... ओ जी अपना ही कॉटेज समझो तुस्सी...। फिर अपनी बीबी की ओर देखते हुए कुछ रुक कर बोला—ओ साब जी अगर थोड़ा एडवांस दे देते... राशन पानी लाना है....वो दूर उस पहड़ पर बाजार है। अभी जाऊंगा तो शाम तक आ पाऊँगा।

तुली ने कुछ पैसे निकाल कर एडवांस मे उसके पति को देने लगा। पर उसकी पत्नी, चन्दा ने बीच मे ही उसके हाथ से पैसे लेते हुए बोली—स्साब इसको मत देना। ये बेवड़ा है... सारे पैसे दारू मे उड़ा डालेगा....।

उसमे से कुछ पैसे अपने पति को देते हुए चंदा बोली—जो समान की लिस्ट दी ले आना और छोटु को भी लेते जाना। और जल्दी आ जाना दारू पीने मत लगना... ।


--वो छोटू किधर गया।

एक नेपाली लड़का आया। बारह तेरह साल का। अपने पति के साथ उसे भेज दिया। और उन्हे जाते हुए देखती रही। जब वे नज़रों से ओझल हो गए, तो एक लंबी निश्वास छोड़ते हुए कहा---क्या करूँ साब! मेरी तो तकदीर ही फुट ही गई। ऐसे बेवड़े के पल्ले बांध दी बापू कि मत पुछो।

फिर कुछ रुकते हुए बोली –इसकी पहली बीबी भाग गयी किसी दूसरे मर्द के साथ... ये दारू पीता और मार पीट करता। तुली बेड पर बैठा था और चंदा भी दूसरे छोर पर बैठी थी। थोड़ा पास आ कर अपनी दुख भरी कहानी सुनाने लगी:
---हमारा परिवार पाकिस्तान के स्यालकोट से आया। हम कांगड़ा मे एक रिश्तेदार के यहाँ रहने लगे। हम पाँच बहने थी। तीन को दंगाई उठा कर ले गए। उनका कुछ पता नहीं चला। मेरी माँ सबसे छोटी थी आठ भाई बहनो मे। .....हम बहुत गरीब थी। जवानी मे ही पिता चल बसे। मेरी माँ विधवा हो गयी। वह एक जमींदार की रखेल बन गयी॥ वहीं एक भले आदमी ने उससे शादी कर ली। गरीबी के कारण ठीक से खाना पीना नहीं हो पाती । इस कारण उसे टीबी हो गया। और एक दो साल बाद वह गुजर गई.....

चंदा सुनाती रही आप बीती। बाहर बारिश होती रही। कभी तेज तो कभी जोरों से।

--माँ के गुजर जाने का बाद मैं बहुत अकेली हो गयी। मेरा सौतेला बाप मुझ पर गंदी नज़र रखने लगा। फिर एक दिन जब उसने जबर्दस्ती करने की कोशिस की...तो मैं किसी तरह बच कर घर से भाग निकली !तब मैं पंद्रह साल की थी। घर से भाग कर अपनी मौसी के यहाँ आ गई। ...वहाँ थोडी बहुत पदाई लिखाई की... पर वहाँ भी मौसा मुझे अकेली पा कर अक्सर छेड़ते रहता... एक दिन जब नहा रही थी तो गुसलखाने मे घुस आया और जबर्दस्ती करने लगा...

मौसी घर मे नहीं थी…. कहीं बाहर गयी हुई थी। मैं जोरों से चिल्लाई....खूब उठा पटक मची... फिर पड़ोसी आ गए, तब जा कर जान बची। इस घटने के एक महीने बाद ही मेरी मौसी ने इस बेवड़े से शादी कर दी.... और मैं इसके साथ आ गई...!

खिड़की से बाहर देखा। बारिश अब भी हो रही थी। और इधर चन्दा अपनी दुख भरी कहानी सुनाते सुनाते रोने लगी। तुली उसे चुप कराने लगा। पर वह चुप ही नहीं होती। वही बेड पर बैठी चंदा को तुली ने गले लग लिया... उसके बहते आँसू पोछ कर उसे प्यार करने लगा... चंदा ने भी अपने आप को उसके हवाले कर दिया ...फिर एक दूसरे कपड़े उतरने लगे...एक दूसरे से लिपटे वो प्यार करने लगे...!

तभी तुली को चंदा की हिचकी सुनाई पड़ी... वो रो रही थी सुबक सुबक कर...।

--नहीं साब जी ये गलत है... वो जैस भी वो मेरा खसम है .... नहीं... । कहते हुए चंदा छिटक कर तुली से दूर हो गई। और रोते रोते कपड़े पहनने लगी। तुली को भी अच्छा नहीं लग। उसे भी ऐसा नहीं करना चाहिए था।

पर वो उससे लिपट गयी थी... फिर स्त्री सहवास को भी काफी समय हो गया था। उसे अपने आप पर नियंत्रण नहीं रहा। जब हो चली गयी, तो तुली जेनेट की याद आने लगी। जेनेट......

 

 

 


जिंदगी तो नहीं

जेनेट। पूरा नाम जेनेट ली था उसका। एक दिन अचानक कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क मे उससे मुलाकात हो गई। वो भी क्या दिन होते! तुली का इंटेर्न्शीप चल रहा होता एक इंजीन्यरिंग फ़र्म। मे। सर्दियों के दिन थे। धुंध और ठंड से भरे।

कई दिनो से तुली को कुछ करने का मन नहीं कर रहा होता! न तो इंटेर्न्शीप वाले फ़र्म मे जाने का मन करता और न ही कही और ही! उस दिन सब कुछ ऐसा वैसा लगता हुआ। जैसे पहले कभी नहीं हुआ। जिंदगी बेमानी सी लगती लगती हुई। न ऑफिस जाने का मन करता होता। और न अपने किराए के कमरे मे। एक बेड रूम का घर किराये पर ले रखा था। एक दोस्त के साथ साझीदारी मे रह रहा होता। रूम पार्टनर भी अपने घर गया हुआ था।

उस दिन! कनाट प्लेस के सेंट्रल पार्क के एक बेंच पर बैठा: तुली सोच विचार मे उलझा होता। क्या किया जाए? कल भी ऐसा ही हुआ था। न तो कहीं जाने का मन कर रहा होता। और न ही कुछ करने का। बस कनाट सर्कल मे घूमने लगा। यूंही—बिना वजह के। लेकिन क्या बिना वजह कोई चीज या घटना होती है क्या! जो अब होती!

थोड़ी पी भी रखी थी। पी ब्लाक मे घूमते घूमते तुली की नज़र प्रसिद्ध चित्रकार, एम एफ हुसैन पर पड़ी। वे इंडिया टूड़े के आर्ट गैलरी के सामने खड़े थे। अपनी पूरी सादगी के साथ। किसी चित्र प्रदर्शनी का उदघाटन करने आए लगते होते।

--सर! मैं आपका बहुत बड़ा फैन हूँ। तुली ने हुसैन साहब से हाथ मिलाते हुए कहा।

और सर आपकी तरह मैं भी माधुरी दीक्षित का भी फैन हूँ। इस तरह हम दोनों प्रशंसक भाई हुए माधुरी दीक्षित के...।

यह सुनकर हुसैन साहब हँसे। ऐसी हंसी, जिसे न तो चित्रों मे कैद किया जा सकता है, न ही शब्दों मे ब्यान। वे तुली को अंदर आर्ट गेलरी मे ले गए। वहाँ उन्होने एक कागज पर माधुरी का रेखा चित्र बनाया। और तुली का उससे नाम पूछ कर उसका नाम लिख दिया: तुली को सप्रेम—एम एफ हुसैन।

बहुत अच्छा लगा था तुली को। ऐसी खुशी का एहसास हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ!

पर आज दिन कैसा भारी भारी सा लग रहा होता । क्या किया जाय? तुली सोच विचार मे लगा होता। तभी जेनेट प्लाज़ा सिनेमा तरफ से सेंट्रल पार्क आती हुई दिखी। लगभग ६ फीट लंबी, ब्लोण्ड बाल, गोरा चेहरा, लंबी नाक और नीली आंखे। तुली उसकी ओर देख ही रहा होता कि उसने पूछा—कॉफी किधर मिलेगी?

--उधर। उस तरफ। मैं भी काफी पीने की सोच रहा....।

तुली जेनेट के साथ हो लिया। कॉफी होम मे ही जान पहचान हो गई। उसके बाद जेनेट ने किसी पार्क मे बैठने का सुझाव दिया। वह अपनी किसी समस्या के बारे मे तुली से राय लेना चाहती होती। और शायद उसे परखना चाहती। वे जंतर मंतर के पार्क मे आ बैठे।

जेनेट ने बताया : वह अमेरीकन है। और अपने स्पेनिश बॉयफ्रेंड के साथ चेन्नई मे रह रही है। वीजा की तारीख बढ़ाने दिल्ली आई हुई थी। पैसे की कमी के कारण रेलवे स्टेशन के लेडी वेटिंग रूम मे ठहरना पड़ा उसे। वहाँ के बीट कांस्टेबल ने उसे आश्रम ले जाने का वादा किया था। वहाँ रहने की व्यवस्था करने के लिए उसका समान विदेशी पंजीकरण कार्यालय मे रखा हुआ था।

तुली को अजीब सा लगा। जैसे कहीं कुछ गड़बड़ है। कुछ नहीं बहुत गड़बड़ लगा।
--अगर रहने का प्रोब्ल्र्म है…. तो आप मेरे स्टुडियो फ्लॅट मे रह सकती हो। मैं अपने रूम पार्टनर के साथ रहता हूँ। और अभी घर गया है ,,,,सो

पर वह एकाएक कैसे विश्वास कर लेती उस पर।

--पर तुम क्यों मदद करना चाहते हो?

तुली कुछ भी बोल नहीं पाया।तब जेंनेट ने बोला:

--आज कल लोग दो कारण से मदद करते है-पैसे और सेक्स।आई कनॉट अफोर्ड बोथ...
--बट सम पीपल हेल्प फॉर हेल्प शेक ...केवल मदद के लिए मदद करते है।

जेनेट कुछ देर तक चुप रही। तुली को एकटक देखती रही।

--वेट... । जेनेट अपने पर्स से टैरोट कार्ड निकालने लगी। कार्ड निकाल कर उसे मिलाया, ताश के पत्तों की तरह। और तुली को कोई एक कार्ड चुनने को बोला। उसने एक कार्ड चुना। वह जेमिनी का चिन्ह निकला -दो जुड़वा बच्चो का। जेनेट के चेहरे पर एक चमक सी आई।

--येस्स….। फिर दूसरा कार्ड चुनने को बोला। तुली ने इस बार जो कार्ड चुना उसमे सूरज, चाँद और तारों के चित्रा बने थे।
--येस। ई कैन ट्रस्ट यू। जेनेट ने कुछ चहकते हुए से बोला।

और वह तुली के साथ चल पड़ी। पहले लंच किया। फिर इधर उधर घूमे। थोड़ी बाते हुई। आईआईटी कैम्पस के बाहर ही तुली ने एक स्टूडियो फ्लैट किराये पर लिए हुए था। जेनेट को वहाँ ले गया। फ्लैट दिखाया।
--ये मेरा बेड है और ये आपका।
जेनेट खुश हो गई। रसोई भी था। पर वे बाहर ही नाश्ता, और खाना खाते होते।

--एंड हाउ मच आइ हैव टु पे? जेनेट के चेहरे पर शरारत भरी मुस्कान फ़ैली पड़ी थी।
--ओनली फ्रेंड्शिप।
--बट आइ विल क्लीन हाउस एंड उटेन्सिल इन रिटर्न फॉर बोर्डिंग अँड लॉजिंग यू आर प्रोविडिंग.....
--ओके..... ओके...।

जेनेट और तुली आईआईटी कैम्पस से जे एन यू आ गए। वहाँ लंच करने लगे। उसके बाद आस पास की पहाड़ियो पर घूमने निकले। घूमते घूमते वहाँ वे एक शिला खंड पर बैठ बाते करने लगे।
--यू आर सो गुड। आइ लाइक यू। जेनेट ने उससे इस लहजे मे कहा मानो फायर ही कर रही हो!

तुली थोड़ा भावुक हो गया। और दो तीन चुंबन कर डाले। जेनेट की आंखो मे आँसू आ गए। शायद खुशी के थे। फिर शिला खंड पर लेट गयी और अपने सिर को तुली के गोद मे रख कर अपनी कहानी सुनाने लगी। और तुली बीच बीच मे चुंबन करते जाता। जैसे वह अपनी सहमति जता रहा हो।

-- अब तक मेरे १३ बॉयफ्रेंड रह चुके है.... पहला जब मैं १३ साल की थी...फिर दूसरा... तीसरा...पार्टी..... जेंगल... न्यू यॉर्क... चौथा...पांचवा...न्यू जेरसी .....दसवां बारह... चेन्नई मे ...

तुली सुन कर भी नहीं सुन रहा होता! वह तो अपनी गोद मे लेटी ब्लोण्ड सुंदरी को आत्ममुग्ध सा देखे जाता। जब वो खुश होती तो वो भी खुश होता। और जब किसी से ब्रेक अप की बात करती होती, तो वो भी दुखी होता। और तुली बीच बीच मे चुंबन लेना नहीं भूलता।

--हम लोग गरीब थे... तब यूरोप मे रह रहे होते... निदरलैंड मे ...हमारे पास हीटिंग का प्रबंध नहीं होता ...जब ठंड लगती..... हम भाई बहन नाच नाच नाच कर रात काटते... ताकि ठंड न लगे.और हम जिंदा रह सके ...। यह बताते हुए जेनेट की आंखे नाम हो उठी। तुली ने उस पर च्ंबनो की बौछार कर दी। उसके आंसुओं को पोछने के लिए।

उधर शाम जे एन यू की अरावली पहडितों पर उतरने लगी थी। उसके एक्स-बोयफ़्रींड्स की कतार और उनके किस्से खत्म ही नहीं हो रहे होते! हरेक से ब्रेक अप के बाद जोरों से जेनेट को चुम्मी देता। और वो मस्त लगती और खुश भी । बीच बीच मे दुखी भी हो जाती। पर दुख भी तो सुख का ही हिस्सा है जिसकी बुनियाद इसी के साथ रख दी जाती है। वो कभी हँसती, कभी रोती, कभी उदास होती तो कभी खुश। अपनी तेरह पुरुष दोस्तों की दास्तान सुनाते सुनाते।

तेजी से गहराते शाम का साये। गोद मे लेटी हुई जेनेट-- जीवन के अप्रतिम सुख दुख मे डूबी। तुली भी उसी के साथ किनारे पर बैठा जीवन सुख सरोवर मे गोते लगा रहा होता। पर सीपी भी जाना था। वहाँ पुलिस वाले से जेनेट का समान और लगिज वगैरह भी लेने थे।

वो पुलिस वाला शायद विदेशी पंजीकरण कार्यालय का बीट इंचार्ज था। वह जेनेट का समान पंजीकरण कार्यालय के स्टोर रूम मे रखे हुए था। जहां हम पहुंचे तो ऐसे मिला जैसे हमारा ही इंतजार का रहा हो। और हमसे पचास तरह के सबाल करने लगा।
--मैं पत्रकार हूँ और एक स्थानीय पेपर मे काम करता था। तब जेनेट से जान पहचान हुई। तुली ने बताया
--अभी कैसे मिले? पुलिस वाले ने प्रश्न दागे।
--अभी जे एन यू मे रहता हूँ । ये लड़की मेरे एक सीनियर की कज़िन है जो विदेश से आई है। थोड़ा रूक कर फिर तुली ने कहा:

--मैं इसे ले जाने आया हूँ। उसे अपने आई कार्ड दिखाते हुए बताया।

पर शायद वो पुलिस वाला जेनेट को आश्रम का झांसा दे कर फंसाना चाहत था। जेनेट थी ही इतनी सुंदर और सेक्सी! कोई भी उसे पाना चाहेगा। पर उसकी नियत ठीक नहीं लग रही होती। वह हमे जाने नहीं दे रहा था। इधर उधर की बातों मे उलझाए हुए था।

फिर वह हमारे लिए चाय बनाने लग। पर चाय स्टोव पर रख कर, अचानक वह कहीं गायब हो गया। हमे थोड़ा शक होंने लगा। हमने वहाँ से निकल जाने का निर्णय लिया।

पुलिस वाले के चंगुल से जेनेट को छुड़ाने के बाद चैन मिला। हमने काफी होम मे कॉफी पी। और वापिस अपने स्टुडियो फ्लॅट मे।

डिनर करने के बाद हम आराम करने लगे। जेनेट गिटार बजाने लगी। प्रेम और विरह के धुनो ने मंत्र मुग्ध सा कर दिया। उसे गले लगा कर प्यार करने की कोशिस करने लगा। पर उसने बीच मे ही रोक दिया।
--नो। नोपस। लेटस गो टु स्लीप। गुड नाइट।

मैं अपने बेड पर लेट गया। और उसकी ओर देखने लगा। जेनेट सोने की तैयारी करने लगी। पहले जीन्स उतारे...फिर टी…… केवल अंडी और और बानियान ...अपने आप को रोक नहीं पाय.... हम दोनों आलोंगन मे...फिर चुंबनो की बौछार...
--नो गो टु स्लीप। उसने रोक दिया।

रात के दो तीन बजे होंगे। अजीब सी आवाज सुनाई पड़ी। मेरी नींद खुलती हुई.... ओह गाड आई एएम डाइंग... हेल्प मे....जेनेट कराह रही थी। शायद उसे ठंड लग रही थी। सारे कपड़े उतार कर जो सोयी थी। कहीं कुछ हो न जाये। मैं अपनी रज़ाई को लेकर उसके उसके साथ लेट गया। उसके ही स्लीपिंग बाग मे। और उसे गर्मी देने लगा।

साँसो से सांस मिलने लगे। देह से देह । हम दोनों उत्तेजित हो चले थे। अभी सुख सागर मे प्रवेश करने ही जा रहे होते! तभी जेनेट की हिचकी सुनाई पड़ी। पहले लगा उसे षड मजा आ रह हो! पर बाद मे लग वो शायद रो रही....। उसे लगा कुछ गलत हो रहा है॥ उसे अपने प्रेमी की याद आने लगी रही थी। वह उसके साथ धोखा नहीं कर सकती। ....इट्स चीटिंग...आई लव हिम वो गॉड .... नो । और

और तुली पीछे हट गया। पर वे दोनों एक दुसरे के आलिंगन मे सोते रहे। बिना प्यार किए। पर तुली को क्या मालूम एक और प्यार उसके इस नहीं होते हुए प्यार को देख कर रूठ जाएगा।
हुआ यों की सोनी आई थी अपने सब कुछ समर्पित करने। पर जब उसने खिड़की से तुली और जेनेट, दोनों को सोये हुए देखा तो उल्टे पाँव लौट गई। सोनी तुली के साथ उसी फ़र्म मे इंटेर्न्शीप कर रही होती। वह उसे प्यार करती थी। पर तुली का तो करुणा से दिल टूट जाने के बाद प्यार-व्यार से नफरत सी हो गई लगती!

यह बात सोनी को पता था। फिर भी उसे चाहती रही। पर तुली की तरफ से कोई साकारात्म्क जवाब नहीं मिल रहा था। आखिरकार वह अपने माँ पापा के पसंद के लड़के से शादी करने को तैयार हो गयी। लेकिन शादी के पहले वह अपना सब कुछ अपने प्यार पर निछावर करना चाहती! अगर तुली नहीं करता कोई बात नहीं! वो तो करती है। शादी के पहले वो अपने अधूरे प्यार की ख़्वाहिश को पूरा करना चाहती होती। इसी इरादे वो सुबह सुबह ही आई थी। वो वही पास ही रहती थी।

पर जब वहाँ आई, तो खिड़की से तुली एक सुंदर सी लड़की के साथ सोये हुए दिखा। वह रोती हुए उल्टे पाँव लौट गयी। प्यार का यह कैसा मंजर था! महबूबा एक तरफा प्रेम के बावजूद उस पर अपना सब कुछ लुटाने आई। पर यह भी उसके किस्मत मे न था। यह बात उसने तुली को बाद मे बताई, जब उसकी शादी हो चुकी थी।

चंदा के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ। जाम होठों तक आते छलक गया। और तुली प्यासा का प्यासा ही रह गया।

पर जेनेट दो तीन तक तुली के साथ रही। रहने और सोने के ऐवज मे वो कमरे की सफाई करती। तुली के कपड़े धोती। इसी तरह एक दो तीन गुजरे। फिर एक दिन सुबह सुबह तुली को जागा कर उसने कहा— आई एम गोइंग ... बाए .... यू आर वेरी गुड ---यू विल गेट लव ऑफ ब्यूटीफूल गाल ... । उसने मुझे बाइबल दिया। और मैंने उसे गीता।

इससे पहले जेनेट ने एक दिन रेस्तरां मे लंच करते बताया था।
-- तुम बहुत अच्छे हो। मैं तुमसे शादी बना कर इंडिया मे ही सैटल करना चाहती थी। पर तुमने घर मे मुझे ऑर्डर देते हुए कुछ मांगा था। मुझे बहुत खराब लगा। और मैंने अपन फैसला बादल दिया।

एक तरह से अच्छा ही हुआ। इतनी सी बात के लिए इतना बड़ा फ़ैसला बदल दिया। फिर तो कुछ भी हो सकता है!

पर जेनेट के जाने के दो साल बाद तक उसके विरह मे तड़पता रहा। उसकी याद आ कर मुझे उदास कर जाती। दो तीन दिनो मे ही उसे ऐसा लगा था जैसे उससे जन्मो का प्यार मिला हो।

 


जीवन-मृत्यु

उस दिन चन्दा चली तो गई। पर जाते जाते जीने की कोई चिंगारी छोड़ गई शायद। तभी उसके जाने के बाद, तुली उसके सपने देखते देखते सो गया।

पर जब नींद खुली तो शाम हो चुकी होती। सब ओर अंधेरा दीख रहा होता। आउट हाउस का लाइट भी बुझा हुआ। गेट और चारदीवारी के लाइट भी नहीं जले होते। अपने कमरे से तुली बाहर निकला।

चंदा के कॉटेज मे भी घना अंधेरा छाया हुआ! मानो कोई मनहूस सी चुप्पी लटकी पड़ी हो। चहुं ओर।

एक दो बार आवाज़ भी लगाई। पर कोई नहीं लगता। कहाँ गए सब? चंदा के कमरे मे भी अंधेरा था। उसके कमरे मे गया। जब लाइट जलाया तो चन्दा औंधे मुह लेटी हुई मिली। बीच बीच मे सुबक कर रो भी रही होती।
--क्या हुआ? चंदा... ।

चन्दा तुली से लिपट कर रोने लगी। और सुबक सुबक कर, तो कभी हिचकियाँ लेते हुए बताने लगी:
--- वो.... मेरा... खसम... नहीं रहा….. रहा . बाबूजी.... वो पानी मे बह गया...लड़के को बोला.... चलो आता हूँ... और दारू पीने बैठ गया। पानी का रेला आया और पूरा शराबखाना बह गया... वो भी॥ । चन्दा ज़ोर से रोने लगी। उसे चुप कराने लगा। उसे फ्रेंच कीस कर रोना बंद कराया, वो चुप हो गयी। पर ऐसे लिपट गयी जैसे कभी दामन ही न छोड़े!

फिर वे धीरे धीरे प्यार करने लगे। पिछली बार की तरह कोई पहल नहीं की तुली ने। चन्दा पर ही छोड़ दिया। धीरे रात के अंधेरे साये पिघलने लगे। वे ऐसे मिले जैसे बरसो से प्यासे हों। फिर ऐसे सोये जैसे बरसो से सोये ही ही नहीं। न मैं होता और न वो । बस वो ही होता! जब एक हो जाये, न मैं रहे न तू! न वो या और कोई। बस वही रहे जो सदा से है। कहीं ये मंजिल तो नहीं जीवन का?

अगले दिन सुबह सब लोग जल्दी से उठे। पानी का जल स्तर तेजी से बढ़े जा रहा होता! अपने अपने सामान, जरूरी राशन पानी लिया। हम ऊपर पहाड़ की चोटी की ओर रवाना हो गए। कीर्तन घाटी के सभी घरों और कॉटेज मे पानी घुस चुका था। लोग अपने अपने घरों को छोड़ कर अपने रिशतेदारों और जानकारों के यहाँ चले गए थे। एक दो ही बचे होते। वे भी जाने की तैयारी कर रहे होते!

--पर हम कहाँ जाएँ। तुली सोच रहा था ... पर यह सबाल बहुत विकट था। न कोई घर, न जान पहचान। न रिश्तेदार न यार दोस्त। बिलकुल अकेला इस कयामत से लगते जल आप्लावन के बीच। पर कयामत के समय सभी अकेले ही होते है! चाहे भीड़ मे हो या अपनों के साथ। मौत के सामने सभी अकेले और बेबस ही होते है!

--बाबूजी हमने एडवांस लिया है तीन दिनो का... हम आपके रहने का इंतजाम करेंगे। चन्दा बोलने को तो बोल गई। पर वो भी तो यहाँ के लिए परदेशी ही थी। न घर न रिश्तेदार। बस कॉटेज लीज़ पर लिया था अपने पति के साथ मिलकर।

तीनों- तुली, चन्दा और बहादुर चड़ाई चढ़ रहे थे। किसी ऊंची जगह मे जाने क लिए। शायद उस भूरे घर की ओर। वही तो एक बचा हुआ था पूरी घाटी मे जहां पानी नहीं पहुँचा था। और न पहुँच सकता। क्योंकि वह चोटी पर था।
--हम कहा जा रहे हैं, तुली ने पूछा। चंदा उसके आगे आगे चल रही थी। बीच वो नेपाली लड़का। और वह सबसे पीछे।
--हम उस भूरे घर जा रहे हैं। वहाँ आपके लिए दो तीन दिन ठहरने का इंतजाम कर दिया है।
--क्या वहाँ भी कॉटेज है?
-- नहीं वहाँ एक लड़की रहती है जिसे लोग पागल कहते है। पर वो वैसी नहीं है। वह अपने पिता के साथ रहती है। एक गोद लिया हुआ छोटा भाई भी है। अपने पति के साथ अभी सुहागरात मना ही रही थी कि बीच मे उसके पति के लिए जंग का बुलावा आ गया। उसका पति सेना मे था। उसके बाद लौटा ही नहीं। कुछ पता नहीं चला उसका। पर वो अभी तक उसके लौटने का इंतजार कर रही है!

तुली उस लड़की के घर पहुँचते पहुँचते बुरी तरह थक चुका था। इतनी खड़ी चड़ाई। ऊपर से बारिश, और ठंड। एक पेड़ के नीचे बैठते हुए।
--चन्दा तुम जाओ, मेरे रहने की बात कर आओ। मुझसे चला नहीं जाता अब। मैं आराम करता हूँ तब तक....

तुली ने बहदुर को भी बैठ जाने का इशारा किया। चंदा उस घर की ओर जाने लगी। बारिश अभी भी हो रही थी। पर थोड़ी कम गई थी। अजीब सा लग रहा होता। चरो तरफ पानी ही पानी। ऊपर आसमान से बारिश हो रही होती। नीचे भी तीर्थन नदी का सैलाब बढ़ता ही आ रहा था।

प्यास बुझाने वाला और शीतलता देने वाला जल तत्व कैसा भयंकर और विकराल लगता होता! जैसे पानी न हो कर साक्षात मृत्यु का ही रूप हो। आसन्न मृत्यु का भय उसे डराने लगा। पर वह जीना चाहता। अभी तो उसे बहुत कुछ करना है, देखना है। अभी तक वह ठीक से जिया ही नहीं है।

कैसी विडंबना है! कल तक वह जीवन से भाग रहा होता। जीवन बेमानी सा लगता हुआ....एक बोझ सा जिसे ढोते जाना जीवन क़हते हैं। कल तक उसकी जिंदगी स्वतंत्र थी। कहीं भी जा सकता था। कुछ भी कर सकता था। जो मन मे आया करता रहा। फिर भी जीने से भाग रहा होता!

आज एकाएक उसी जीवन से मोह सा हो गया! जब मृत्यु पास आती दिखी, तो लगाने लगा: अभी तो जिंदगी जी ही नहीं है! बहुत कुछ करना, देखना है और जीते जाना है....जब सब ओर मौत और विनाश का तांडव हो रहा होता। जब ऐसे बुरे फंसे हैं, चरो तरफ पानी --- बाढ़ का पानी... बादल फटने की जल राशि मे जीवन अंत होना करीब तय सा लगता हुआ...तब जीने की इच्छा बढ़ती जाती ...जैसे जीने की बदती इछा और आसन्न मृत्यु के बीच कोई गहरा संबंध हो.... ।

बाद मे जब तुली ने कोपाल से पूछा था इस अजीबो गरीब जिजीविषा के बारे मे। तो उसने कहा था-- यह जीवन ही जो मृत्यु के रूप से तुम्हें डरकर जीने के नए आयाम, नई राह और नई वजह देने को प्रस्तुत हुआ था। अस्तित्व ही तुम्हें ये विकल्प दे रहा है। जीवन और मृत्यु मे कोई विरोधाभास नहीं है। वो तो तो जीवन का पहलू है जैसे पर्दे का उठना और गिरना एक ही नाटक का हिस्सा है। पर हमे लगता है जैसे सब कुछ खत्म। मरने के बाद सब खत्म। एक शून्य। जबकि वो एक दूसरे नए जीवन की शुरुआत होती। ज्ञात से अज्ञात। फिर अज्ञात से ज्ञात। यानि नया जीवन।

सच ही कहा था उसने। उसी समय जब मृत्यु समीप सी लग रही होती: तब सोच रहा होता—अभी तक तो कुछ किया ही नहीं। जिया ही नहीं। इंजीनियर तो ठीक से बन पाया नहीं क्योंकि बनना नहीं चाहता था। पर अब जो बनना चाहता हूँ वो तो बन सकता हूँ...क्यो नहीं सामाजिक इंजीन्यरिंग किया जाये...क्यो नहीं इस जाति व्यवस्था को ही तोड़ दिया जाये। एसी सामाजिक व्यवस्था जिसने जीवन के हरक पहलू को संकीर्ण कर रखा है। जहां सब कुछ थोपा जाता है...जाति, धर्म और पेशा...जीवन जीने की शैली…… ।

क्यों न एक ऐसे समाज की संरचना की जाये जहां कोई छोटी और बड़ी जात न रहे.... न ये संकीर्ण और आत्मघाती जाति व्यवस्था हो, न ही जाति, धर्म और पेशा थोपा जाये...सबको जीवन जीने की, जाति, धर्म और पेशा चुनने की स्वत्तंत्रता हो...

एक नए जोश का संचार होता हुआ। जीवन जीने की इच्छा बलवती हुए जाती!

--चलो बाबूजी आपके रहने का इंतजाम हो गया है। चंदा एक अति सुंदर लड़की के साथ आती दिखी।

--बाबूजी इनसे मिलिये...ये हैं चंद्रिका... इन्ही की कृपा से आपको एक रूम मिल गया है। जब तक पानी नहीं उतरता... यहीं रहे...मैं भी आप लोगों की सेवा मे रहूँगी....!

 

 


१०
नया ठिकाना

ये तुली के लबे ईमेल एटेचमेंट का दूसरा या तीसरा अंतिम अध्याय है, जो उसने कोपाल को भेजा था। वैसे तो तुली ने कहा था: ये एक कहानी है जो उपन्यास बन सकता है। पर कोपाल को मालूम है ये उसकी आपबीती ही है:

--नए कॉटेज जिसमे हम आए .... वो स्विस पद्धिती का बना हुआ था। सुंदर भूरे रंग का डुप्लेक्स कॉटेज। भूरे पहाड़ के भूरे शिखर की पृष्ठभूमि मे वो भूरा घर... बहुत ही सुंदर....और उसकी मालकिन चंद्रिका भी बहुत सुंदर...उससे कहीं अधिक,… । उसने जो कमरा मुझे रहने को दिया वो वही अधूरी सुहागरात वाला, अधूरी शादी वाला कमरा...

--कैसी भी अभागिन हूँ मैं! अभी सुहाग भी नहीं सजा था कि जंग का फरमान आ गया...वो चला गया बिना अपना बनाए.... । कमरा दिखाती चन्द्रिका पर जैसे बादल की छाया पड़ी हो। और कमरे मे अंधेरा उसकी जिंदगी के अंधेरे से मिलता हुआ।

--पर एसी तो कोई जंग हुई नहीं कि सुहागरात छोड़ कर जाना पड़ा हो। मुझे कुछ अजीब सा लगा। कुछ गड़बड़ भी।

चंद्रिका ने फिर अपने पापा से मिलवाया। वे किसी पहाड़ी राजा के यहाँ वीणा बजाते थे। वैसे वीणा वादन उनका शौक भी रहा है। अब भी, बूढ़े होने पर वीणा बाजन छोड़ा नहीं उन्होने। चंद्रिका भी नर्तकी थी। कभी बहुत अच्छा नृत्य करती थी। पर अब सब कुछ छोड़ दिया है, उसके पापा ने बताया।

-- अब उदास रहती है ....कभी मन करता है तो नाच लेती है-। कभी हवाओं के साथ तो कभी पेड़ पौधों के साथ या बारिश के साथ भी...फिर उदास हो जाती जब उस हादसे की याद आती। ....एक बार तो इतना नाची कि नाचते नाचते बेहोश हो गई। और घर मे ही पड़ी रही और हम उसे बाहर खोज रहे थे॥ कहाँ कहाँ नहीं खोजे ... और बाद मे अपनी ही घर मे पड़ी हुई मिली!

उसके पापा बहुत प्यार करते थे! तभी तो अपनी बेटी का सोच कर उन्होने दूसरी शादी तक नहीं की। जबकि चन्द्रिका बहुत छोटी ही थी जब उसकी माँ गुजर गयी। लोगों ने बहुत समझाया: दूसरी शादी कर लो। पर उन्होने नहीं की...जिंदगी भर ...

--चलो कुछ दिन के लिए चैन से रहेंगे। पर क्या ऐसी परिस्थिति, ऐसी विकट घड़ी मे चैन से रहा जा सकता है। चारो तरफ पानी ही पानी । जल सैलाब अभी भी बढ़ रहा है। यहाँ तक तो पहुंचेगा नहीं, अगर ऐसा हुआ तो... इसके बाद तो कुछ भी नहीं...बचेगा। तुली सोच रहा होता।

पानी का स्तर बढ़ना बंद हो गया था। पर अगर फिर से बारिश होना शुरू हो जाये, तो मुसीबत। फिर दूरबीन निकाल कर आस पास देखने लगा। तभी चंद्रिका आ पहुंची कमरे मे। खुसबूदार हवा की झोंके की तरह।

--क्या देख रहे हो, बेड के पास वाले सोफ़े पर बैठते हुए पूछा। उधर ही देखने लगी जिधर तुली देख रहा होता। दूरबीन से वहाँ जहां पानी ठहरा हुआ था, रुका हुआ था वो दीख रहा होता। पानी वही पर रुका हुआ था और वहाँ एक छोटा सा झील सा भी कुछ दीख रहा था। इसी कारण पानी बाजूवाली घाटी मे नहीं जा पा रहा होता। वहीं जहां कीर्तन नदी एक तीव्र मोड लेकर ब्ंजार घाटी मे प्रवेश करती होती। है। उस पर दो तीन बड़े बड़े चट्टान एक दूसरे ऊपर जुड़े हुए से पानी को रोके हुए थे। उन विशालकाय चाटनों के बीच दो तीन विशालकाय देवदार और चीड़ के पेड़ भी फंसे पड़े थे।

-जरा उधर देखो तो। चंद्रिका को दूरबीन देते हुए तुली ने बोला।

चन्द्रिका उधर देखने की कोशिश करने लगी, जिधर इशारा किया था। पर वो उधर देखने लगी जिधर के दृश्य काफी भयावह थे। तुली भी डर सा गया जब पहली बार देखा था। पर चंद्रिका तो चीख कर उससे लिपट ही गयी....कुछ समझ मे नहीं आया। इससे पहले की कुछ होता: वह छिटक कर दूर भी हो गई। एक सुंदर स्त्री का आलिंगन भी कुछ एहसास नहीं जगा पाया!

क्या मृत्यु के साए मे कुछ भी रास आ सकता है! मौत के बढ़ते कदम की पृस्ठभूमि मे कोई भी सुख भा सकता है भला! कुछ ऐसा ही लगा था उस शाम मुझे। पर क्या मृत्यु सब कुछ का अंत है या एक नए जीवन की शुरुआत ? क्या यह जीवन का अंत है। अगर अंत होता तो जीवन कैसे अबाध सा चलता होता!

क्या जीवन या अस्तित्व देहांत के बाद खत्म हो जाता है। चेतना का का क्या होता? आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के मनीषीयो को जब इसका उत्तर नहीं मिला तो, इसके अस्तित्व को ही नकार दिया। भगवान के साथ आत्मा या चेतना को भी खारिज कर दिया। और साथ ही ज्ञान को भी पदार्थ का प्रतिक्षेपण बना दिया जैसे चेतनता को बना दिया। पर जो साक्षी रूप और ज्ञान स्वरूप हमारा निज स्वरूप है वो कैसे खत्म हो सकता है?

तुली जीवन मृत्यु के विचारों मे कुछ उलझ सा गया। चरो तरफ पानी ही पानी! उस पर तीर्थन नदी की बढ़ती जल राशि। धीरे धीरे घाटी, घर, खेत खलिहान को लीलते हुए। थोड़ी सी और बारिश काफी थी जीवन लीला समाप्त करने के लिए। पर अगर थोड़े गहरे जाएँ, तो पूरा जीवन ही मृत्यु या इसके डर पर आधारित सा लगता है। जन्म के साथ मृत्यु की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। ऐसा लगता है जैसे मृत्यु मंजिल है और जीवन उस तक जाता एक सफर। फिर एक नए दूसरे जीवन सफर की तैयारी करता हुआ।

पर हमारी पूरी सभ्यता और संस्कृति इस मृत्यु या इसके डर पर आधारित सी लगती है!बल्कि खूब फल फूल भी रही है! कई व्यवसाय, पेशा और उद्योग इससे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े है। चिकत्सा से लेकर स्वास्थ्य और सौंदर्य प्रसाधन उदद्योग, कानून, पुलिस और राजनीति तक व्यक्तिगत व समष्टिगत क्षय या मृत्यु या इसके डर पर फल फूल रहे हैं।

कुछ अजीब सा नहीं लगता। जीवन को छोड़ कर मृत्यु की चिंता मे लगी है दुनिया। और इस दुनिया के लोग! जीवन और उसके हरेक पल की उपेक्षा करते हुए लोग! मृत्यु से बचने और लड़ने मे लगे है। वो मृत्यु जो निश्चित है क्योंकि जीवन का ही हिस्सा है। मृत्यु कल है, जीवन आज है! और कल कभी नहीं आता। आज ही कल बनता जाता है, जैसे जीवन ही मृत्यु बनता है-- एक नए जीवन की शुरुआत करने के लिए। फिर भविष्य कहाँ है? कहीं नहीं जैसे अतीत हो कर भी नहीं है अभी!

फिर भी लगे हैं हम उसी से लड़ने मे। कभी बचते हैं तो, कभी उससे भागते है। कभी उसे भगाने की नाकाम कोशीश करते है! तो कभी उससे बचने की कोशिश मे और पास जाते होते है! ऐसी है मृत्यु, जिसे कभी स्वयं किसी ने कभी अनुभव नहीं किया। अगर किया भी तो अनुभव बताने के लिए वापिस नहीं आए!

ऐसा लगता है जैसे मृत्यु का सारा दुख प्रपंच कुछ उसी तरह फैला पड़ा है, जैसा कि सुख प्रपंच: विभिन्न मत-वाद और धर्मों का! वामपंथ, दक्षिणपंथ और सभी धर्म सुख प्रपंच और स्वप्न जाल ही तो फैलाते रहे हैं! वर्ग विहीन समाज का! स्वर्ग, जन्नत और हूर का। सुदूर किंगडम ऑफ गॉड! भविष्य मे होंगे, कल होगा। एक दिन ऐसा होगा! और वो दिन सदियों से होने मे ही लगा है! होते होते न होता आया है! और शायद ही हो।

.... ये सब सोच सोच कर तुली की नींद उड़ गयी। एक बार जो उडी तो फिर पकड़ मे नहीं आई! फिर एकाएक एक सुंदर सी तितली रात के अंधेरे मे भटकी हुई सी, उसके कमरे मे आ गयी। उसको देख कर एक कविता निकल पड़ी। जिसका शीर्षक, बाद मे कोपाल ने दिया: जीवन तो नहीं!

जीवन तो नहीं!

सोचता बैठा कोई
हिमालय की गोद मे
चहुं ओर पहाड़ों
बहते झरनो के बीच
जीवन का अर्थ,
क्यों, कैसे और कब
तभी एक सुंदर नीली-पीली
तितली आई सुदूर क्षीतिज से
बैठ कर एक पल उसके बालों पर
फिर उड़ चली उसी क्षितीज की ओर
कहीं वो फूल तो नही
इस सोच मे पड़ गया वो
फिर शुरू हुआ वो सिलसिला
जिसे जीवन कहते है!

.. काफी रात हो चली ...फिर भी नींद के कहीं नामोनिशान नही.... उस नीरव शांति मे जब पानी का कोलाहल भी शांत पड़ गया था। एक सरसराहट सी होती हुई... जैसे कोई दबे पाँव चल रहा हो! फिर वो आवाज पास आती हुई। कुछ डर सा लगता हुआ। फिर दरवाजे खुलने की आवाज! अरे! ये तो हमारे ही कमरे का दरवाजा है। कुछ डरता हुआ सा तुली ।

एक साया! उजली दूधिया चाँदनी मे नहाई हुई ... जैसे संगमरगर मे तराशी हुई कोई नग्न मूर्ति...थोड़ी सहमी सी... सपनीली सी... अंदर आती हुई... बाहर फैली स्फटिक चाँदनी से मिलती हुई। बाहर की चहंदनी अंदर से मिलती हुई। जैसे घटाकश आकाश मे मिलता है। और मैं कहाँ होता .. उसी घाटकाश चाँदनी मे मे मिल हुआ या उसका विस्तार... मैं उस चाँदनी का हिस्सा या चाँदनी ही होता हुआ सा लगता। सब जगह नहीं, इस लिए एक जगह था। या जो सब जगह होता वो कहीं नहीं होता। क्योंकि वो सब जगह होता है!

तभी संसार की सीमा। नाम, रूप, देश, काल और तिथि।

--मैं तुम्हारा पति नहीं हूँ! मैं तुली ..... तुली चंद्रिका को मदहोशी की तंद्रा से जागा रहा होता! उसके कंधों के हिलाते हुए। वो निर्वस्त्र किसी अजंता की मूर्त से कहीं अधिक खूबसूरत लग रही होती! अपना सब कुछ समर्पण करने को हाजिर। सब कुछ छोड़ कर यहाँ आई थी। पर उसे ये हकीकत बताना जरूरी कि वह उसका पति नहीं।

पर वो नींद से जाग ही नहीं हो रही होती! या जागना नहीं चाहती! वो समझ नहीं रही होती: तुली उसका पति नहीं है! या समझना नहीं चाहती!। पता नहीं...पर समर्पण को आतुर नारी, वो भी चंद्रिका जैसी सुंदर, को कोई रोक सका है भला!

 

 

 

 

११

सुबह नींद खुली। तुली ने चन्द्रिका को चाय लिए हुए देखा। हँसती हुई, कुछ शर्माती पर खुश। वो उसे ऐसे जगा रही होती जैसे लोरी सुना रही हो। फिर से सुलाने के लिए!

--चाय। रखते हुए, बिना उसकी ओर देखते हुए बोली। नजरें नीची। कुछ शर्मीली सी पर उसमे आत्मविश्वास भरा हुआ।
-आप वो तो नहीं ..उससे कम भी नहीं! कह कर चन्द्रिका चल दी। और तुली अभी ठीक से नींद से जागा भी नहीं होता! कहीं ये सपना तो नहीं! कहीं वो तो नहीं!

क्या हमारा सारा जीवन ही इस वो तो नहीं की संभावना से प्रेरित हुआ नहीं लगता! मन की अनिश्चित, असंगत, अकसर टेड़ी, उलझन मे डालने वाली चालो और उड़ानॉ पर भटकती होती है जिंदगी। ‘है या नहीं ‘के दो पाटो के बीच पीसने को विवश। अक्सर वो तो नहीं की छांव मे थोड़ा शुकुन पाती हुई! पर अगर मगर के चक्कर सब कुछ गडमड सा लगता हुआ। कही वो तो नहीं, कहीं ये तो नहीं! इन दो धुरियों मे घुमता ही रहता है। जीवन चक्र!

पर तुली का तन मन रोमांचित हो गया सा लगता! इस आकस्मिक मिले प्रेम से! इतना कि उसे बहुत कुछ करने का मन करने लगा: नाचने, गाने, घूमने और न जाने क्या क्या...पर ऐसे माहौल मे? जब मौत का तांडव पानी के आप्लावन के बीच हो रहा होता! पर कमरे मे रहना मुश्किल होने लगा। थोड़ी ही देर मे बस बाहर निकल पड़ा।

चारो तरफ पानी! जिधर देखो पानी ही पानी! इतना पानी कि टेनिसन की कविता भी सटीक नहीं लगती होती इस उमड़े जल सैलाब के लिए । पहले पहाड़, घाटी, खेत, जंगल और रास्ते हुआ कराते! अब सारे जलमग्न हो कर अदृश्य हो गए। मौत, विनाश और दहशत का जल तांडव चरो तरफ दृष्टिगोचर होता हुआ!

कैसा संयोग! कैसे रंग है जीवन के! जब जीना चाहा, जब प्यार चाहा, मिला नहीं। जिसके लिए सब कुछ छोड़ कर उसका होना चाहा, वो भी नहीं हो पाया। जिसे भी चाहा मिला नहीं! और जब प्यार और खुशियाँ मिली भी तो अब! जब जीवन ही दांव पर लगा है। ऐसा लगता हुआ कि सब कुछ खत्म होने वाला है।

याद है शायद.... हाँ... अब याद आया। एक शौकिया ज्योतिष ने बताया था: उसके हाथ मे चंद्र और बृहस्पति का कुछ लोचा है। इस लिए जो भी चाहेगा नहीं मिलेगा। अगर वैसे भी देखे तो चाहा हुआ कहाँ किसी को मिलता है! एक दो अपवाद छोड़ कर। पर तुली को बहुत खराब लगा था यह जान कर। उसके अहम को ठेस लगी। इतनी की इस भविष्यवाणी को गलत साबित करने के लिए चाहतों की अंबार लगा दी। केवल इसे झूठ साबित करने के लिए। पर वो भविष्यवाणी थोड़े ही न थी, वो तो यथार्थ वाणी थी!

और फिर वही हुआ जो अक्सर होता आया है। कोई भी चाहत पूरी नहीं हुई। एक भी, किसी की भी चाहत फलीभूत नहीं हुई। पर उसने चाहना छोड़ा नहीं। जिंदगी जीना कैसे छोडता! एक दो चाहत तो पूरे भी हुए। पर वे ऐसी ऐसी मुसीबतें खड़ी कर के गए कि अपने चाहत पर ही अफसोस होने लगा।

पर क्या चाहना छोड़ जा सकता है! पर चाहत छोड़ना जिंदगी छोड़ना नहीं है! जिंदगी और चाहत, स्वांतरता बनाम स्वछ्ंदता और बंधन, परतंत्रता! कहीं शरीर की सीमा तो कहीं मन की असीम उड़ान! खूब चाहो, सब कुछ चाहो। कुछ भी गलत बुरा नहीं। बस चाहत ही सब कुछ है, जिंदगी है। एक नहीं कई रास्ते है सत्य और जीवन के! सभी सत्या हैं! केवल सत्य ही सत्य नहीं है। कई और भी सत्य हैं! यही है आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता!

पर तुली के लिए ही क्या, सबके लिए चाहत के बिना जिंदगी बेरंग है। वस्तुतः जिंदगी ही नहीं लगती इसके बिना! उसने प्यार चाहा, नहीं मिला। जिससे शादी करनी चाही उससे नहीं हो पायी। जो बनना चाहा बन नहीं पाया। जो करना चाहता हो नहीं पाया।

फिर इना मीना डिका की चाहत कैसे पूरी होती! बस एक दिन उसने तय किया की चाहना ही छोड़ देगा। अगर जिंदगी भी छोडना पड़े तो! वैसे भी जो जिंदगी मिली है वो वाकई मे जिंदजी ही है क्या? अगर ऐसा है तो ऐसी जिंदगी से तो जिंदगी न हो या कुछ भी न हो तो बेहतर हो, तुली सोच रहा होता!

तुली ने चाहना छोड़ने की सोची तो जरूर! पर उसे क्या मालूम! चाहत छोड़ने की चाहत भी एक चाहत है! और फिर इसके भँवर जल मे फंस गया। फँसता ही गया। जितना ही निकलने की कोशिश करता उतना फँसता ही जाता। पर चंद्रिका के प्यार मे, उसकी चाहत मे वह चाहने और न चाहने से परे चला गया। जो मिलता स्वीकार, नहीं तो आगे बढ़ते चलो!

पर बाढ़ मे फंसे होने और आसन्न मृत्यु ने उसे फिर से आहत कर दिया। वह थोड़ा थोड़ा भावुक होने लगा। जब जब जीना चाहा, जब जब थोड़ी बहुत खुशी मिलती होती, तब तब कुछ न कुछ लोचा जरूर हो जाता। ऐसी अद्भुत और सतरंगी है ये जीवन! भी! जो जैसा है दिखता नही और जो दिखता है वो होता नहीं। ज्ञानी लीग इसे माया बोलते है। कबीर आदि विचरकाओ ने इसे ‘माया महा ठगानी जानी... ‘कहा है।

जीवन के घट घट बदलते रंग! एक दृश्य दृष्टिगोचर होता भी भी नहीं कि दूसरा आ उपस्थित होता रहता है! और हम और हमारी स्थिति बिना पतवार के नाव जैसी। जो हरेक लहर पर, संसार के हरेक दृश्य से, हरेक रंग मे डूबता उतराता: इंद्रियों और शरीर की सीमितताओ पर पछाड़े खाता हुआ। इधर से उधर, यहाँ से वहाँ डोलता ही रहत । भ्रमित होता रहता है।

हमारा पूरा जीवन, तुली सोच रहा था, अपने ही जाल मे फंसे मकड़े के समान हो जाता। लटकते ही रहते, फंस कर अपने ही वासनाओं, इचछाओ, और अहम के जाल मे। एक से उबरते भी नहीं कि दूसरे जाल मे उलझ जाते होते!। फिर एक दिन इसी तरह लटके लटके जीवन लीला समाप्त। ... आसन्न मृत्यु से डरा हुआ तुली का मन थोड़ा बहुत दार्शनिक और अध्यत्मिक हुआ जाता!

तभी उसकी नज़र तीर्थन नदी के उस तीव्र मोड की ओर गई। वही जहां पानी का बहाव अटका पड़ा होता। उठकर वो वहाँ तक गया जहां तक जा सकता। फिर गले मे लटक रहे दूरबीन से देखने लगा।
--तो ये है हमारे जीवन-मृत्यु का निर्णयाक फ्लैश पॉइंट। वह उसके ऊपर वाले बाईं ओर के पहाड़ो की ओर देख रहा होता। जो एक दूसरे के पास पास लगते होते। इन दोनों के बीच मे लंबे और मोटे तने वाले चीड़ के पेड़ फंसे थे: दो तीन बड़े बड़े शीला खंडो के बीच। ऐसे कि उनके सिरे जहां तुली खड़ा था, उस पहाड़ को छू रहा होता। इसी कारण पानी का बहाव रुका पड़ा होता।

तुली ने देखा कि पानी के तेज बहाव से भी ये नहीं हटने वाला। क्योंकि नदी के तीव्र मोड़ लेने के कारण बहाव कुंद हो जाती। और उसकी धार मंद पड़ जाती। वह इस बाधा बिन्दु को गौर से देखने लगा। फिर काफी माथा पच्ची और यांत्रिक विज्ञान के सारे सिद्धांतों को खँगालने लगा।

फिर एक नतीजे पर पहुंचा। अगर 100 टन के चट्टान को ऊपर पहाड़ की चोटी पर से इस तरह से लुढ़काया जाए कि शिला खंडों के बीच फंसे पेड़ों के सिरे पर गिरे। तो यह कृत्रिम झील के पिछले सिरे को तोड़ देगा। रुका पड़ा पानी बह निकलेगा। चट्टान के गिरने से जो विक्षेप पैदा होगा उससे सारी बाधा हट जाएगी।

पर इसमे एक समस्या थी: चट्टान को तोड़ कर कैसे गिराया जाए। वैसे एक शीला खंड थोड़ा बाहर निकाल हुआ था उसी चोटी पर। अगर उसे तोड़ कर लुढ़काया जाए तो? ऊपर चोटी पर जा कर उस चट्टान को देखने लगा तुली। उसमे दरारे पड़ी हुई थी। पानी रिसा हुआ था, काई भी लगी हुई थी। इसे आसानी से तोड़ा जा सकता है और लुढ़काया जा सकता है: यह निर्णय ले कर तुली वापिस कॉटेज लौट पड़ा।

कॉटेज मे चंद्रिका, चंदा और सारे लोग इंतजार का रहे थे। थोड़ा चिंतित से लगे। तुली को देख कर खुश हो गए।

--कहाँ चले गए थे॥ हमारी तो जान ही निकाल गई थी। ...किसी ने कुछ खाया पिया भी नहीं... । चंद्रिक ने प्यार भरे चिंता के साथ कहा।

तुली ने सारी बाते बताई। सब राजी हो गए। और उसी वक्त वहाँ पहुँच गए। चन्दा, चंद्रिका, बहदुर, एक पड़ोस के किसान भाई और तुली। सभी मिलकर आगे की ओर निकले उस चट्टान को तोड़ने लगे। तीन चार घंटो मे टूट गया। और अब एक धक्के से इसे लुडकाया जा सकता। शाम भी होंने को आई थी।

तुली ने एक बार फिर से मुआयना किया सारे क्षेत्र का। चट्टान को उस बाधा बिन्दु की ओर लुढ़काए जाने के पहले, गौर से देखा। अगर यहाँ से लुढ़काया जाय तो उस बिन्दु पर जरूर गिरेगा। नीचे जा कर भी देखा। सब ठीक था।

फिर सब ने मिलकर चट्टान को धक़्क़ा दिया। एक दो बार ज़ोर लगाने पर भी नहीं हिला। फिर उसके तल्ले को तोड़ा जाने लगा। जब वो हिलने लगा, तो सब ने मिल कर एक बार फिर ज़ोर लगाया। और चट्टान टूट कर लुढ़कने लगा। और वह उसी दिशा मे गिर रहा होता जिधर वो बाधा बिन्दु था।

एक ज़ोर की आवाज हुई। इतने ज़ोरो कि चंद्रिका तुली से लिपट गई। चन्दा बेहोश हो गयी। और बहादुर डर से काँप रहा होता! पर तुली ने देखा: रुका हुआ पानी बह निकला। वो बाधा बढ़ा टूट चुका था। और देखते देखते दो तीन घंटो मे पानी बह निकला। डूबे घर, मकान, पहाड़, खेत खलिहान फिर से दीखने लगे।

धीरे धीरे लोग भी वापिस आने लगे। खुशियाँ मनयी जाने लगी। प्रैस वाले भी आ गए थे। नेता लोग उससे पहले ही आ चुके थे। तुली, चंद्रिका और चंदा की भी काफी तस्वीरे छपी। टीवी चैनलवाले भी आए हुए होते। सब कुछ लाइव टेलीकास्ट होने लगा। एक फोटोग्र्फर ने तो चंद्रिका और चंदा से गले मिलते हुए तस्वीर उतार कर प्रैस और मीडिया मे दे दिया।

तुली रातो रात लोकप्रिय हो गया । पूरे देश का हीरो बन गया। विदेशो मे भी उसकी चर्चा होने लगी।

एक सप्ताह के बाद तुली वापिस अपने घर आया। वहाँ तलाक का नोटिस पहले से ही पहुंचा हुआ था। उसकी बीबी ने भिजवाया था। साथ मे एक चिट्ठी भी थी! और चंद्रिका और चन्दा से गले मिलते कुछ तस्वीरें जो प्रैस मे छपी थी!

 


१२

तुली के इस लंबे ई-मेल अटैचमेंट के साथ एक पत्र भी था:

प्रिय कोपाल

बस यही है कहानी है। कब प्रथम पुरुष से तृतीय मे बदल गया, यह प्राक्कथन, पता ही नहीं चला। ऐसा भावुकता के कारण हुआ। तुम समझ सकते हो। आशा है इससे परेशानी नहीं होगी।
तुम्हारा
तुली

फिर कोपाल ने भी एक जवाबी पत्र भेजा, ई-मेल के जरिये।

डीयर तुली,

तुम्हारा लंबा ईमेल अटैचमेंट पढ़ा। यह तो एक पूरी कहानी है जिसमे उपन्यास बनने की काफी संभावना है। अगरचे इसे थोड़ा और विकसित किया जाय।

तुम्हारी कहानी, इसकी संघर्ष भरी दास्तां पढ़ कर लगा: तुममे एक सफल सामाजिक इंजीनियर बनने की क्षमता है। हम एक बहुत बड़ा काम करने जा रहे हैं। इसमे तुम्हारा सहयोग अपेक्षित है। तुम कर सकते हो। करीब करीब इंजीन्यरिंग जैसा है। पर है काम सामाजिक इंजीन्यरिंग का।

तुम दिल्ली चले आओ। जल्द ही एक जन आंदोलन शुरू होने जा रहा है। इसका संबंध देश समाज के भविष्य से है।

यार! तेरी चाहत वाली बात चुभ गयी। शायद ठीक शब्द नहीं है। लग गई, शब्द कहीं ज्यादा सटीक लगती है। तुम्हारी चाहत वाली बात मे दो तीन दिनो तक उलझा रहा।

ऐसा लगा जैसे पूरा अतीत, विशेष कर चाहतों का। एक एक कर नहीं होने की कसौटी पर खरा उतरता रहा। जिसे भी चाहा, जिस चीज़ की भी हसरत उठी, वो मिली नहीं। तुम्हारी तो दो तीन चाहत, जैसा तुमने कहा है, पूरी हुई। मेरी तो एक भी नहीं।

आधुनिक युग, विशेष कर फ्रायड के बाद से यह माना जाने लगा हैं कि, यह जीवन अतृप्त वासनाओ और इच्छाओ का खेल है। इन्ही कभी खत्म न होने वाली और न कभी तृप्त होने वाली वासनाओ के हवाले जिंदगी को छोड़ दी गई है। आदमी या औरत कोई भी इच्छा करते है। वो अगर पूरी नहीं होती, तो उसे असंतोष होता है। उसके आत्म सम्मान को, उसके स्व को ठेस पहुँचती है। उस असंतोष को दूर करने के लिए वो दूसरी तीसरी...एक तरह से अनंत शृंखला सा सिलसिला चलते जाता है। पूरा जीवन अतृप्त वासनाओ और इच्छाओ और उनके पूरे न होने से असनातोष और स्व-प्रताड़ना का क़बरगाह बन जाता है।

अभी तक मनोवैज्ञानिक विचारधारा मन की इन्ही अतृप्त वासनाओ और इच्छाओ से उपजे असंतोष और उनसे आहात और टुकड़े टुकड़े हुआ निज स्वरूप के आस पास ही घूम रही है। एक और अहम चाटना हुई है: स्वतरता और आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता से जोड़ दिया गया है। बदलते परिदृश्य, प्रककथनों की बहुतायता, और चीज़ों को तोड़ कर देखने के कारण सत्य, ज्ञान और नैतिकता को नकार दिया गया है । सबका अपना अपना सत्य है।

खैर गौर करने वाली बात है: वासनाओ और इच्छाओ की कब्रगाह पर जन्मे आधुनिक मानव का जीवन व व्यक्तित्व कभी संतुलित रह सकता है? क्या इतने अलग –स्व (बीइंग), उसके इतने टुकड़े और हिस्सो के बीच क्या वह कभी सुख और शांति से रह पाएगा?

छोड़ो मनको विचलित कर देने वाली इन ऊंची ऊंची बातो को! मतलब की बाते करते हैं। तेरी चाहत की त्रासदी के बारे मे जान कर अपनी वाली भी याद आ गयी। तेरी कहानी मे तो थोड़ी बहुत खुशी है, प्यार और बहुत कुछ है। पर मेरी कहानी मे तो बस त्रासदी ही त्रासदी ही।

पहली बार जब किसी लड़की ने मुझे चाहा, तब मैं उसे चाह न सका। क्योंकि मैं किसी और को चाहता होता। जब उसने जिसे मैं चाहत था, मेरे प्यार को ठुकरा दिया, तो मैं उसे चाहने की कोशीश करने लगा जो मुझे चाहती चाहती होती पर मैं नहीं। पर अब चाहने लगा था। लेकिन उसने बोला अब वो मुझे नहीं चाहती!

इस तरह शुरू हुआ हमारी चाहतों की कहानी।

फिर दूसरी, तीसरी, चौथी, पाँचवी...न जाने कितनों को चाहा! पर चाहत कबूल न हो कर वापिस होते रही। और अंत मे जो बचा वो था चाहतों की कब्र! ऐसा बगान, जिसका बागबान सिर्फ मैं ही होता! वैसे पता नहीं कितनों ने मुझे चाहा । और उधर भी इसी तरह चाहतो की श्मशान भूमि बनती रही। उसमे एकाध की चिता अब भी जल रही है हो शायद। इन असफल चाहतो के पीछे का दर्द, आत्म प्रवंचना, खुद से लड़ना और पता नहीं क्या क्या।

फिर एक दिन लगा: चाहत ही हूँ! और अगर चाहत ही चाहत करे तो क्या मिलेगा? पानी अगर पानी की चाहत करेगा तो क्या मिलेगा। कुछ भी नहीं, अगर गहरे मे देखा जाये तो। क्योंकि मैं खुद चाहत ही हूँ, अब किस की चाहत नहीं उठती। जो मिलना होता वो मिल गया। और जो नहीं मिलना होता नहीं मिला। फिर जो नहीं मिला! वो मेरा कभी था ही ही नहीं। प्रेम तो पहले ही सब से था । अब इस बात का अहसास भी हो गया है।

आशा है मैं तुम्हें बोर नहीं कर रहा हूँ ये सब बात सुना कर। तुम हताश मत होना। उदास और दुखी मत होना। हिम्मत नहीं हारना। जिंदगी मे ऐसा ही होता है। जिंदगी ऐसी ही है! और इसी का नाम जिंदगी है।

जितनी जल्दी संभव हो तुम दिल्ली आ जाओ। हम एक जन आंदोलन शुरू करने जा रहे है। तुम्हारी हिस्सेदारी अपेक्षित है। और फिर तुम्हें भी जीने का नया मकसद भी मिल जाएगा।

तुमहार मित्र
कोपाल

 


भाग ४

विकर्म

कारत के हजारों साल पुराने इतिहास मे! ऐसा पहली बार हुआ! एक हंगामा! एक सामाजिक राजनैतिक उथल पुथल! आमूल-चूल परिवर्तन की तेज हवा के थपेड़ो से! पूरा कारत वर्ष आप्लावित सा लग रहा होता! हजारो साल से चली आ रही जाति-आधारित सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था! और उनकी खोखली जड़ें हिलने लगी थी।

कोपाल ने तुली, कायमा, दायमा, नवीन, श्याम, अरिहंत, कृष्णमूर्ति, नायर और रेड्डी तथा इन हरेक के नेतृत्व मे तीन स्तरीय अखिल कारतीय समूह बनाया था। बिना किसी शोर शराबे के। अवांछित प्रचार और प्रसार से दूर एक अखिल कारतीय समूह। जो एक सप्ताह के अंदर वृहत जन आंदोलन करने की योजना और संरचना के साथ तैयार था।

कोपाल पिछले तीन चार साल से इस पर चुपके से। बिना किसी शोर शराबे के काम करता रहा। पहले उसने अपने जान पहचान के लोगों से संपर्क किया। फिर जे एन यू के पढ़ाई के दिनो के मित्रों तथा विभन्न सामाजिक-राजनैतिक मुहिमो से जुड़े लोगों से।

कई बैठके हुईं। विशेषज्ञों और आम लोगो से मिलना। सलाह मशविरा करना। फिर हरेक क्षेत्र मे—उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिमी और मध्य कारत- का एक एक प्रमुख संचालक चुना गया। तुली को उत्तर, कायमा को मध्य, दायमा को पूर्वी; श्याम को पश्चिमी और कृष्णमूर्ति, और नायर को दक्षिणी क्षेत्र का दलपति नियुक्त किया गया। इसका निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया।

फिर इन क्षेत्रीय दलपति ने राजकीय स्तर पर चार चार उप-दलपति नियुक्त किए, जिन्हे अपने अपने क्षेत्र की जिम्मेवारी दी गई । फिर उन चार उप दलपति ने हरेक जिला और पंचायत स्तर पर एक सहायक दलपति नियुक्त किए। इस तरह एक अखिल कारतीय संगठन तैयार हो गया था।

कोपाल ने दिल्ली मे इन क्षेत्रीय दलपतियों की बैठक बुलाई थी। तुली भी आ गया था दिल्ली और उसे उत्तर क्षेत्र का दलपति बनाया गया।

पर कायमा से मिलना सबसे अलग! रोमाँच और अक्षय ऊर्जा से भरा हुआ था। एक ऊर्जा का संचार हो जाता है उसकी उपस्थिती मात्र से। वैसे भी बिना मिले हुए भी उससे जुड़ा रहा! उसके रेडियो कार्यक्रम और सोश्ल मीडिया के जरिये। इस लिय तो कायमा को मध्य क्षेत्र का कमान दिया गया था। इसके अलावे उसे प्रचार, मीडिया, और जन संपर्क का प्रभारी बनाया गया था।

जब पहली बार कायमा से मिला। मतलब रुबरु हुआ। बहुत ही सुंदर समा बंधा था। कितनी बार सोचा उससे मिलने का। पर हर बार ऐसा कुछ हो जाता कि हमारा मिलना नहीं हो पाता। पता नहीं कब से हम एक ही शहर मे रह रहे थे।

वो एक सेलेब्रिटी और अपना कुछ पता नहीं। पर सबसे बड़ी बात यह कि उससे मिलना खतरो से खाली नहीं होता!। अनावश्यक मुसीबतों और फालतू की परेशानियों का सबब बन सकता था उससे एक छोटी सी मुलाक़ात भी! उससे मिलना कई गंभीर संभावनाओ को लिए हुए थे। कहते है कि जब किसी चीज की होने की संभावना होती है तो वो अकसर हो ही जाती है।

फिर हमारा मिलन भी ऐसे मोड पर हुआ! जहां एक तरफ गहरी खाई तो दूसरी तरफ समंदर। तभी तो न ये, न वो पर इनसे किसी तीसरे विकल्प पर कायम रहा। वो विकल्प था: कोई चुनाव नहीं। जो भी मिलता रहा कायामा से! जो भी सहज रूप से मिला वही था सब कुछ। वही प्यार, प्रेम या स्न्हे मान लेता! अगर ऐसी आधी अधूरी मुहब्बत और दोस्ती का रोना रोते, तो वो भी नहीं मिलता! जो कुछ भी एक दूसरे को मिला। या जो नहीं मिल पाया मिल कर भी!

श्याम, दायमा, कृष्णमूर्ति और नायर से तो मिलते ही रहा। कई बार उनके क्षेत्र मे गया। वो भी आये। हम एक दूसरे से मिलते रहे। सोश्ल मीडिया, कॉलेज-विश्वविद्यालयों मे चर्चे कराते रहे मिल जुल कर। जातिवाद और उस पर आधारित और प्रभावित अब तक के कारतीय इतिहास, सभ्यता और संस्कृति की चर्चा होती रही। जातिवाद को खत्म करने के आधे अधूरे प्रयासो पर विशेष ध्यान दिया गया। क्योंकि इसके बाद से जाति व्यवस्था और मजबूत होती रही है। और इन सबों के प्रयास और लगन से एक अखिल कारतीय संस्था बन ही गयी।

कोपाल सबसे पहले उत्तर कारत गया। फिर पश्चिम, पूर्व, दक्षिण और फिर मध्य कारत। दक्षिण कारत मे तो कृष्णमूर्ति और मदन नायर ने खूब मदद की। अगर वो न होते, उधर कुछ भी कर पाना संभव नहीं हो पाता। कैसे होते वे दिन भी! आशा और निराशा के बीच डूबते उतराते! कभी कभी ऐसा लगता जैसे कुछ भी नहीं हो पाएगा। कभी शक होता क्या हो पाएगा?
‘संशय आत्मा विनश्याति...’, सोच कर हिम्मत नहीं हारी कोपाल ने। वो चलता रहा, आगे बदता रहा। परिणाम और होनी न होनी के संशय को दूर भगाता हुआ।

उत्तर कारत मे कोपाल ने साइकिल यात्रा की। पहले 30 लोगो का ग्रुप निकला। धीरे धीरे कारवां बढ़ता गया। जातिवाद, इसके दुष्परिणाम, और इसके इतिहास, सभ्यता और संस्कृति पर दूरगामी नाकरत्म्क परिणामों की पर चर्चा-परिचर्चा होते रही। मीडिया मे भी चर्चे होने लगे। खबरे छापने लगे, संपादकीय लिखे जाने लगे। सोश्ल मीडिया पर तो पहले से ही हंगामा मचा हुआ था। फालतू और अनावश्यक प्रचार और प्रसार से बचते रहे।

उत्तर कारत मे तुली के साथ जन संपर्क अभियान भी चलाया कोपाल ने। इसी दौरान उत्तर के हरेक राज्यों के सह दलपति भी नियुक्त किए जाते रहे। ऐसा सभी क्षेत्रो मे किया गया। पूरब मे तो जाति व्यवस्था की बुराई, इसके सुदूरगामी परिणाम, और इसका हमारी सारी समस्याओ के जड़ मे होने पर ज़ोर देने के लिए रथ यात्रा निकाली गई। ‘जाति तोड़ो रथ यात्रा।

लोगों को बताया जाता कि कैसे इस जाति की सड़ांध व्यवस्था के कारण एक हजार साल की गुलामी सही। फिर जब से देश आज़ाद हुआ है तब से देशी शोषको का शिकार बने रहे है। कैसे इसके कारण पीढ़ी दर पीढ़ी रुग्ण, अदूरदर्शी और बेवकूफ होती जाती रही। कुछ लोग तो नाराज हो गए: कैसे कहा जा सकता है। इतिहास देखिये कारत का, वर्तमान की विषमता, पिछड़ापन, विरोधाभास, लूट और शोषण पर गौर करे। अपने ही लोग ही कर रहे है। जैसे अपने ही लोगों ने विदेशियों से मिल कर गुलाम बनाया था!

ऐसे ही मध्य मे कायमा और उसकी टीम ने काफी अच्छा काम किया। और पूरब मे दायमा ने। दक्षिण के कृष्णमूर्ति और नायर ने तो वहाँ के ब्राह्मण विरोधी आंदोलन से जोड़ने की कोशिस की इस जाती तोड़ आंदोलन की। द्रविड़ आंदोलन पर गौर करने को कहा गया और उससे जुडने का प्रस्ताव किया गया। पर ऐसा करने से माना कर दिया गया। क्योंकि इस आंदोलन का मकसद जाति तोड़ना था। किसी जाति विशेष का विरोध करना या किसी अन्य को आगे बढ़ाना नहीं।

फिर कृष्णमूर्ति और नायर ने भी दक्षिण मे कोपाल के मार्गदर्शन मे हरक क्षेत्र के चार सह-दलपतिओ की नियुक्तियाँ की। और फिर उन्होने जिला और पंचायत स्तर पर उप या सह दलपति की नियुक्ति की।

इस प्रकार हरेक क्षेत्रीय संघटन का प्रारूप तैयार किया गया। चार स्तरीय अखिल कारतीय संघटन उंच नीच जाति व्यवस्था जैसे न हो कर सामानांतर होती! हरेक स्तर के दलपति स्वतंत्र्त निर्णय ले सकते। उन्हे बस इस आंदोलन के लक्ष्य व आदर्शो के अनुरूप ही निर्णय लेना होता। और उन्हे इससे संबंधी रिपोर्ट जमा कराने होते। इस रिपोर्ट पर केंद्रीय कार्यकारिणी चर्चा करती। जो भी निष्कर्ष निकलता या कुछ सुझाव आते इससे संबन्धित क्षेत्रीय अधिकारी को बता दिया जाता। अगर निर्णय मे कोई खामी रही या किसी नीतिगत मुद्दे या किसी पहलू को अधिक प्रभावी बनाने संबंधी अगर कुछ सुझाव आते तो उन्हे बता दिये जाते। ताकि भविष्य मे इन पर ध्यान रखा जा सके।

इस तरह कोपाल ने समूहिक नेतृत्व के मापदंडों और सनदों का इस आंदोलन मे प्रयोग किया। कोपाल इस समूहिक नेतृत्व और आंदोलन का सूत्रधार था। पर उसने अदृश्य और गौण रहने की भरसक प्रयास किया। क्षेत्रीय दलपति मे केवल तुली और कायमा को पता था। तुली के जरिए वो सारा काम करवाता। लोगों को लगता: तुली ही नेता है और कायमा उप-नेता। उन्हे भी उसने संशय और अनिर्णय की स्थिति मे रखा था जहां तक नेतृत्व का प्रश्न था।

यहाँ तक की तुली को भी पता था कि, कोपाल से ये सब उसके गुरु करवा रहे हैं। कोपाल केवल अपने गुरु का कठपुतली मात्र है। वस्तिवाकता मे तो गुरु कहीं नहीं थे! पर कहने को हिमालय मे कही रहते होते! अदृश्य और गुमनाम रहना बहुत जरूरी था कोपाल का। इस जाति तोड़ो आंदोलन की सफलता के लिए। नहीं तो फूल बनने के पहले यहाँ कलियाँ मसल दी जाती हैं।

कारत के पिछड़ेपन और इस दुर्दशा का कारण यही जाति व्यवस्था रही है! और इसके सबसे बड़े परोकार और समर्थक ऊपर की दो जतिया—कामन और कतरीय। इन्हीं दो के कारण ये अमानवीय और जघन्य व्यवस्था अभी तक गर्त मे ले जा रही होती इस सभ्यता को। ये ही सबसे जायदा ऐश और फायदा उठाते रहे हैं इसका। ये दोनों मात्र बीस प्रतिशत हो कर 80 प्रतिशत को हजारो साल से गुलामी से भी बदतर स्थित मे रखे हुए हैं।

ये दोनों जातियाँ ही सब जगह छाए हुए हैं! सत्ता, राजनीति, अर्थव्यवस्था और सामाजिक-सांकृतिक क्षेत्रो मे। ये इतने शक्तिशाली है और इस जाति व्यवस्था को बरकरा रखने को इतने कटिबद्ध हैं कि कुछ भी कर सकते है। एक को खरीद जा सकता है, पाँच-दस को नहीं। एक को खत्म किया जा सकता है समूह को नहीं।

इसलिय समूहिक नेतृत्व। अगर समूह को भी खत्म कर दिया गया, तो अदृश्य और गुमनाम हो कर कोपाल तो बचा रहेगा इस मशाल को जलता रखने के लिए। जब साइकल यात्रा या रथ यात्रा या पैदल यात्रा पर गया कोपाल, जन समपर्क अभियान के दौरान। तो उसने अपने गुरु की तस्वीर लिए रखी। हर समय और हर जगह जहां कही भी गया। सबको बताता भी रहा की गुरु ही करवा रहे हैं ये सब। वो तो बस एक दूत भर है। वे पहाड़ो पर रहते हैं और लोगों से मिलना जुलाना पसंद नहीं करते।

एक कवच, एक सुरक्षा ढाल चाहिए। कृष्ण के द्वारिक की तरह, उपमा के तौर पर । जहां से आप सब पर आक्रमण कर सके पर आप तक कोई नहीं पहुंच सके। अदृश्य और गुमनाम रह कर ही इस तरह के कठिन और मुश्किल लक्ष्य प्राप्त किए जा सकते है। इसी कारण कोपाल ने ऐसा सुरक्षा घेरा बनाया: उस तक पहुँचने वाला हमेश तीन कदम पीछे और वो तीन कदम आगे। और इस प्रकार न केवल अपनी रक्षा कर पाएगा बल्कि आंदोलन भी निर्बाध रूप से चलता रहेगा।

उस दिन जाति तोड़ आंदोलन के अखिल कारतीय नेताओं की बैठक थी। सुबह ९ बजे शुरू हुई। और देर शाम तक चली। सभा की औपचरीकता के बाद कोपाल ने अपना फाउंडेशनल अभिभाषण दिया:

--भाइयों व बहनो! मैं अपने गुरु श्रीगोपाल जी महाराज का संदेश आप को पढ़ कर सुना रहा हूँ। ये जो कुछ भी हुआ है, जो हो रहा है, और जो कुछ भी होगा, वो हमारे गुर श्रीगोपाल जी के मार्गदर्शन और नेतृत्व मे। ये सब उन्ही के विचार है। मैं बस उनका एजेंट हूँ। चेला भी नहीं कह सकते। दूत कह सकते है।

अब गुरु जी का प्रस्ताव है कि एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जाय। जाति को प्रतिबंधित करने संबंधी कानून बनाने की। १० करोड़ लोगों के हस्ताक्षर लेने है। यह अभियान ऑनलाइन भी चलेगा और दर-दर, गली गली, मोहल्ला मोहल्ला, शहर शहर गाँव गाँव भी।

गुरु ने उत्तर, पूरब और मध्य कारत मे लोगों की प्रतिक्रिया पर चिंता जताई है। आप संबन्धित नेताओं से निवेदन है कि एक एक कर अपने अपने रिपोर्ट दे।

पूरब के दलपति ने बताया:--परिस्थिति खराब है। हम जाति तोड़ने की बात करते हैं। वे और उनके मठाधीश हमे ही तोड़ने की बात करते है। और हमे तोड़ने की योजना भी बना रहे है... जैसा कि सुनने मे आया है..।

उत्तर और मध्य के दलपति भी कुछ इसी तरह के रिपोर्ट पढ़ने लगे। कोपाल को बीच मे ही बोलना पड़ा:-- देखिये, इस तरह की खबरें सब तरफ से आ रही हैं। ऐसा होना था। आगे शायद कुछ और दूसरे तरह की समस्या खड़ी हो जाए । इन सबों से निबटने के लिय, हमारे गुरु का विचार है कि सर्व प्रथम एक जाति तोड़ो आंदोलन रक्षा सेना बनाना पड़ेगा। मार्शल कौम के वीर और लड़ाकू--यादव, गुज्जर, जाट, मराठा, नायर आदि को लेकर सेना बनाना पड़ेगा। वह सेना हम सब की रक्षा करेगी। इसके संघटन का जिम्मा मुझ पर छोड़ दिया जाय।

कृष्णमूर्ति और नायर की ओर मुखातिब होते हुए कोपल ने पूछा—दक्षिण से क्या खबर है?

--वहाँ तो अभी उच्च और निचली जातियों मे काफी विरोध और वैमनस्य है। हमे हमारे कॅम्पेन को एंटी-ब्रहमीन बोलता उचि जाति का लोग! और छोटी जाति के लोग चाहता जात पात टूटे... खत्म हो।

मूर्ति के रिपोर्ट से सहमति जताते हुए, कोपाल ने उनसे बोला: द्रविड़ आंदोलन के नेताओ से हमारे गुरु मिलना चाहते हैं। एक मीटिंग अरैंज करवा दो....

फिर पश्चिम के दलपति श्याम को संबोधित करते हुए कोपाल ने कहा —बाबा साहब की पार्टी से समनव्य और तालमेल स्थापित करने संबंधी एक बैठक बुलाई जाये...जल्द से जल्द...

फिर कायमा की ओर मुखातिब होते हुए कहा:-- मध्य कारत से भी हिंसा की खबरें आ रही हैं ... आप महिला और अल्पसंख्यक संघटनों और संस्थाओ से तालमेल बढ़ाने की कोशिश करें ... उन्हे भी हमारे मुहिम से जोड़े...!

इसके बाद सभा दूसरे चरण के अभियान पर विचार विमर्श करने लगी। जैसा कि गुरु ने प्रस्ताव रखा था १०० करोड़ लोगो का हस्ताक्षरा लिया जाए जाति को प्रतिबंधित करने संबंधी कानूनऔर विधेयक लाय जाआए। और लागू किया जाय। शादी और विशेष कर अपने जाति मे शादी करने पर निषेध लगे। । इस पर विचार विमर्श कर सुझाव देने के लिए सभा से अनुरोध किया गया। और साथ ये भी गुजारिश की गई की सभा इस मुड़े पर कोई निर्णायक सहमति दे।

इस प्रकार, इस प्रस्ताव को आम सभा मे रखा गया। काफी देर तक बहस चली। और वो भी बहुत गहमागहमी से। दो मत बन गए थे: इस हस्ताक्षर अभियान को लेकर। एक दल चाहता कि हस्ताक्षर अभियान अभी न चलाया जाए । इसमे हिंसा और अन्य लफड़े की संभावना है। दूसरे वर्ग का ये विचार होता कि इस अभियान को अविलम्ब शुरू किया जाए!

पर किसी भी तरह से आम सहमति नहीं हो पा रही थी। अंत मे यह तय हुआ कि इस विषय पर गुप्त मतदान लिया जाए। जिस पक्ष को बहुमत मिले उसका निर्णय सर्वमान्य होगा। और तभी अभियान चलाया जाएगा। दोपहर के सत्र मे इस प्रस्ताव को मतदान के लिए रखा गया सभा के सम्मुख।

और मतदान का परिणाम भी इस मसले की पेचीदा और चुनौतीपूर्ण निकाला। दोनों पक्षो को बराबर मत मिले थे। यानि कि टाय हो गया था।

कोपाल से बोल गया: वो अपना मत दे कर टाय को तोड़े! ताकि सभा किस निर्णय पर पहुँच सके। पर कोपाल ने अपना मत देने मे असमर्थता जताई। उसका कहना था कि वह अपने गुरु का एजेंट या दूत है। मत देने का अधिकार गुरु को ही है। और गुरु अभी विदेश मे है या पहाड़ो पर, पता करना पड़ेगा। उसने सभा से अपील की कल तक समय दिया जाय। गुरुजी से संपर्क कर उनके टाय ब्रेयाकिंग मत के बारे बता दिया जाएगा।

सभा का फैसला कल तक के लिए स्थगित कर दिया गया।


गुरुजी ने, जैसा कोपाल ने बताया, अपना मत हस्ताक्षर अभियान बना किस विलंब के चलाये जाने के पक्ष मे दिया। उसके साथ ही हस्ताक्षर अभियान चल पड़ा। जातिवाद को अवैध घोषित करने तथा इस पर आधारित किसी तरह के व्यवहार और रिश्ते गैर कानूनी करने संबंधी कानून बनाए जाने पर। खूब ज़ोश खरोश के साथ। पर बिना किस अनवांछित शोर शरबे के।

हस्ताक्षर अभियान का मसविदा गुरु जी ने बनाया। इसमे जाति को अवैध घोषित करने, इसपर आधारित किस तरह के कार्य-कलाप व व्यवहार का निषेधा करने और विशेष कर अपने ही जाती मे शादी पर निषेध होगा। दलित पिछड़े और नीची जाति के लोगों ने इसका स्वागत किया। फटाफट अपने हस्ताक्षर देने लेगे। न केवल खुद के हस्ताक्षर करते वरन औरो से भी करवाते।

पर ऊंची जाती के लोगों बीच हड़कंप मच गया। कंडित और काजपूत बहुल क्षेत्रों मे इसका जम कर विरोध होने लगा।। मीडिया मे भी इसकी आलोचनाएं छपने लगी। सोश्ल मीडिया पर भी लोग उसके खलाफ़ बोलने लगे। जो भी थोड़ा बहुत समर्थन मिला वो छिटपुट और सहमा दबा सा मिला। राजनैतिक हल्कों मे भी घरबराहट होने लगी। वामपंथी से लेकर दक्षिणपंथी तक, समाजवादी से लाकर जातिवादी दल—सभी विरोध करने लगे।

उधर जगह जगह हस्ताक्षर अभियान के मसौदे पर हस्ताक्षर करने के बजाय फाड़ा जाने लगा। हस्ताक्षर दल के साथ हिंसा भी होनी शुरू हो गयी कई शहरों और गावों मे! उनके साथ मार पीट होने लगे। कई ऊंची जाति बहुल क्षेत्रो मे तो घुसने तक नहीं दिया गया हमारे दल को। आंदोलन के क्षेत्रीय और केन्द्रीय कार्यालयो के सामने विरोध प्रदर्शन होने लगे। कई जगहों पर तो पथराव भी हुई और हिंसा भी। पुलिस और प्रशासन बुत बने देखते रहे।

कुछ दिनो के अंदर हालात ऐसे हो गए कि हस्ताक्षर अभियान बंद करना पड़ा। कुछ क्षेत्रीय नेताओं और कार्यकर्ताओं व समर्थको के साथ हिंसक वारदाते हुई। उन्हे जान से मारने की धमकी दी जाने लगी। उत्तर और पुरब के कई नेता गंभीर रूपसे घायल भी हो गए थे। अधिकतर लोग अंडर ग्राउंड हो होने लगे। और हस्ताक्षार अभियान बंद हो गया।

कोपाल इन सारी घटनाओ, घटनाक्रमो और गतिविधियो पर नज़र रखे हुए रहा। अभियान के शुरू के ही दिनो मे ऐसा होने की आशंका थी। कोपाल ने उन्हे सुझाव दिया कि दलित-पिछड़ो के दल के साथ अभियान पर निकले। विशेष कर ऊंची जाति के क्षेत्रो मे जाने के पहले। दलित-पिछड़ों की भीड़ अपने साथ ले लें। पर ऐसा किसी ने भी नहीं किया।

और जैसा कि कोपाल को आशंका थी वैसा ही हुआ। ऊंची जाति के दो जाति-कंडित और काजपूत इस अभियान से बौखला गए थे। हजारो साल तक इन दलित पिछड़ो पर राज करते आ रहे थे। उन्हे गुलाम बना कर और पशुओ से बदतर जिंदगी जीने पर मजबूर करते रहे। यहाँ तक उनपर अपने वर्चस्व बनाए रखें के लिए विदेशी बर्बर कबीलाई लोगों की मदद भी ली। पर उन बर्बर कबीलाइयो ने इन्हे गुलाम भी बना लिया। उनकी हजार सालों की गुलामी मंजूर पर इन पर अपना वर्चस्व बनाए रखेंगे। इन पर शासन करते रहे।

अब जब उनके वर्चस्व पर खतरा नज़र आया तो बौखल उठे। इस सड़ांध और कमजोर, अदूरदर्शी और बेवकूफ पीढ़ियाँ पैदा करने वाली जाति व्यवस्था के जरिये ही उन पर शासन करते रहे। यहाँ तक कि खुद भी उन बार्बर और कबीलाई विदेशियों के गुलाम बने। पर अपना वर्चस्व नहीं छोड़ा इनके ऊपर से। जब गुलामी की कीमत पर भी इन पर अपनी पकड़ नहीं छोड़ा तो अब वे छोड़ेगे भला।

पूरे कारत मे इन दो ऊपरी जाति के लोगो ने एक प्रति-आंदोलन शुरू किया, जाति व्यवस्था के समर्थन मे। जैसे जैसे हमने किया था, वे भी वैसे ही करने लगे। ऊंची जाति वालों ने भी एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जाती व्यवस्था को और मजबूत करने का। और इसके खिलाफ जानेवालों पर प्रतिबंध लगाने की भी सिफ़ारिश थी। वो भी सरकारी तंत्र की देख रेख मे तथा पुलिस सुरक्षा मे।

भला ऐसा क्यों नहीं होता! सारी व्यवस्था- पुलिस, सरकार, कानून और सब कुछ पर उनका ही कब्जा था। वे ही थे सब जगह राज कर रहे होते। बस फिर क्या था! उनका प्रति-आन्दोलन तो सफल रहा। और इसके साथ ही जाति तोड़ आंदोलन का दमन शुरू हो गया। कोपाल अपनी जिंदगी मे पहली बार इतना असहाय और कमजोर महसूस किया था। वे लोग कुछ भी नहीं कर पा रहे थे। सभी अंडर ग्राउंड हो गए थे। जो नहीं हुए थे, होने की तैयारी कर रहे थे।

कायमा और तुली नेपाल चले गए। ऊंची जाति के गुर्गे इन दोनों के पीछे हाथ धो कर पीछे पड़े थे। मजबूरन उन्हे नेपाल भागना पड़ा। उनका शक कोपाल पर भी था। लेकिन कोपाल ने ऐसा कोई सूत्र नहीं छोडा जिससे वे इस शक की पुष्टि कर सके। कुछ लोग आए भी थे। पर कोपाल ने साफ मना कर दिया। लेकिन उसने बोला इस आंदोलन का समर्थक है। उसे तरह तरह से डराने धमकाने की कोशिस करने लगे। पर कोपाल पर कहाँ असर होने वाला था।

इससे ज्यादा वे कुछ कर भी नहीं सकते। उन्हे मालूम था कि वह भी यादव है। और यादव से पंगा लेना मधु मक्खी के छत्ते मे हाथ डालने के बराबर है! उसका यादव होना सबसे बड़ा सुरक्षा कवच है। और इस सुरक्षा कवच को भेदने की जुर्रत शायद ही कोई करे। पहले तो वे उस तक पहुँच ही नहीं पाएंगे। अगर पहुँच भी गए तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।

प्रश्न उसकी अपनी सुरक्षा का नहीं था। इस मामले मे कोपाल को कोई शक सुबा नहीं था। उसे तो बस चिंता थी: अपने सहयोगियों और आंदोलन का। उसे थोड़ी ग्लानि भी हो रही होती। सबको बीच मझधार मे छोड़ सा दिया। और अपने सुरक्षा कवच के घेरे मे बैठा रहा! कुछ करना चाहिय। पर क्या, समझ मे नहीं आ रहा होता। एक अपराध बोध सा होने लगा था। जैसे उसने कुछ गलत किया हो। उनकी सुरक्षा का इंतजाम न कर के।

पता नहीं क्यों! उसे कृष्ण और यादवों के अटूट संबंध बार बार याद आ रहे होते। और समझ मे नही आ रहा होता: इससे इसका क्या संबंध है! शायद कोपाल यादवो की मदद लेना चाहता होता! पर जातिवाद को खत्म करने के एक जाति का सहारा लेना क्या उचित होगा? क्या यह ठीक होगा....!

पर क्या लोहा लोहे को नहीं काटता? लोहे को काटने के लिए लोहे की जरूरत पड़ती है... पर हीरे को काटने के हीरा नहीं शीशे की जरूरत पड़ती है... कोपाल सोच विचार कर रहा होता.... पर यादवों की एक ऐतिहासिक खासियत रही है .. अगर किसी बात पर उनकी आम सहमति बन जाती, तब वो दुर्जेय योद्धा ही हो जाते रहे हैं। फिर तो लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते। फिर वे जातिवाद के खिलाफ भी रहे है। इस जातिवाद का कृष्ण के समय से ही यादव गण विरोध करते रहे है।

यादवों की मदद ली जा सकती है। पर उनको एक जगह लाना अपने आप मे चुनौती है! पर इस चुनौती को स्वीकार करना होगा। यादवों की मदद लेनी होगी। उन्हे इस मुहिम मे शामिल करना होगा। नहीं तो कुछ भी नहीं किया जा सकता है इन दो.....। पर कैसे, यह भी एक विकट समस्या है। कायमा और तुली भी पास नहीं हैं जिनसे सलाह मशविरा किया जा सके। फिर उनसे मिला भी नहीं जा सकता। वे दोनों अंडरग्राउंड हैं । और उनसे मिलना उनके लिय नई मुसीबत खड़ी कर सकता है।

पहले ही तुली और कायमा को बहुत परेशान किया गया था। वे लोग तुली को इस आंदोलन का सूत्रधार और नेता मान रहे होते। और कायामा को नंबर दो! कायमा ने तो एक रेडियो स्टेशन ही खोल लिया था इस आन्दोलन के लिए। एक सामुदायिक रेडियो जो मोबाइल रहता और कहीं से भी ब्रॉडकास्ट का सकता है। ये तुली और कायमा के इंजीन्यरिंग का कमाल था।

कायमा के मोबाइल रेडियो स्टेशन ने तो पूरे देश मे धूम ही मचा दिया था। जातिवाद और उसके दुष्परिणाम! कैसे हमारा देश व समाज इसके कारण पिछड़ा और संकीर्ण हो कर रह गया है! किस तरह हम एक देश और समाज के रूप मे फैलने की जगह सिमटते जा रहे हैं! इसके अन्य दुष्परिणामों पर जींगल, कहानी, नज़्म और गानो के माध्यम से जन जन तक पहुंचा रही होती! गाने और नज़्म भी ऐसे ऐसे सुनाती की लोगो के खून मे रवानी आ जाती!

कायमा ने तो मन, वचन, कर्म, तन और धन –सब इस जाति तोड़ आंदोलन को दे रखा था। लोग समझते उसके पीछे दक्षिण पंथियो का हाथ है। हिन्दू दक्षिण पंथी तो उसे मुस्लिम समाज का ही प्रतिनिधि मानते होते!। पर कोपाल को अच्छी तरह मालूम था वह किस कारण इससे जुड़ी है। अपनी प्रतिबद्धता और .........।

शायद इसी कारण विरोधियों के आक्रमण का मुख्य केंद्र कायमा रही। और तुली भी। तुली को तो इस आंदोलन का प्रमुख नेता ही मान रहे होते वे लोग! और कोपाल को इस आंदोलन का चाणक्य । पर कोपाल अभी चन्द्रगुप्त चाणक्य खेलने की मनस्थिति मे नहीं था। उसका तो जैसे पूरा जीवन ही दांव पर लगा हुआ लगता होता। पर कहीं गहरे मे एक विश्वास भी: जो कुछ भी हुआ उसमे आगे का मार्ग और दिशा निर्देशन छिपा है। बस उसे समझने की जरूरत है! और कोपाल शायद उसी मे लगा हुआ था।


कोपाल देर से उठा। रात देर तक जागता रहा। बंद हुए जाति तोड़ आंदोलन को फिर से शुरू करने की सोच विचार मे लगा रहा। पर कुछ राह नहीं सूझ रही होती! आंदोलन के सारे नेता, कार्यकर्ता और समर्थक सहमे हुए से थे। अधिकतर तो अंडरग्राउंड हो गए थे। जो बचे थे वे इतने डरे और सहमे की इसका नाम लेने मे या इसके बारे मे बात करने पर घबराते!

जब नींद खुली तो वही सबा कुछ फिर शुरू हो गया। कैसे फिर से प्रारम्भ किया जाय इस बंद हुए आंदोलन को?

इसी विचार विमर्श मे खोया हुआ था। तभी नेपाल से, एक दूत कायामा और तुली का संदेश ले कर आया। वह एक पत्र देकर चला गया। अपने किसी नेपाली रिश्तेदार के पास। वे दोनों सुरक्षित थे। और वे दोनों आंदोलन को फिर से शुरू करने मे लगे थे। सुनकर अच्छा लगा। किसी मे तो चिंगारी बची है। पर वे क्या कर पाएंगे? वे केवल हौसलाफजाई ही कर सकते है। और क्या किया भी क्या जा सकता इस परिस्थिति मे?

पर कुछ तो करना होगा,,, कोपल सोचने लग...ऐसे मे केवल यादव ही काम आ सकते हैं.... यादवों की मदद लेनी पड़ेगी... उनको संघटित करना पड़ेगा...उनकी मदद से ही ये आंदोलन सफल हो सकता है। नहीं तो उंची जाति के लोग हमे और हमारे मुहिम को चींटी की तरह मसल देंगे। इसका ताजा ताजा नमूना हमे अभी देखने को मिला।

...पर यादवों को कैसे संगठित किया जाय? उनकी मदद कैसे मिलेगी? उनको कैसे अपने मुहिम से जोड़ पाएंगे। ये जरूरी नहीं है कि उन्हे बोला जाय और वो मान ले, क्योंकि मनी भी एक यादव हूँ...फिर यादवों के नेता भी तो ऐसे ऐसे रहे ....हे। उनको पिछड़ा और अशिक्षित और बेरोजगार रख कर अपना उल्लू सीधा करते रहे हैं। ... समाज कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करते रहे हैं... ऐसी स्थिति मे कैसे यादवों का समर्थन लिया जा सकता है। यह एक अहम साबल बन गया था।

कोपाल को कुछ समझ मे नहीं आ रहा होता! कैसे ये सब होगा? वह अपनी साइकल निकाल कर दिल्ली और हरयाणा की अरावली पहाड़ियों की ओर निकाल पड़ा। दिल्ली मे तो अरावली के पहाड़ तकरीबन खत्म हो चले हैं। कुछ पहाड़ियाँ और जंगल धब्बों से बचे हुए थे। वो भी शायद ही रहे।

दिल्ली की सीमा समाप्त हो गयी थी। सूरजकुंड और पाली के पहाड़-जंगल शुरू हो गए। ताजी हवाओं के झोंके तन मन को शीतलता और तरो ताजगी देने लगे। पर इधर भी जंगले काटे जा रहे थे। पहाड़ तोड़े जा रहे थे।सब जगह वही लूट और खसोट। प्रकृति को कैसे छोड़ेंगे जब वो इन्सानों को नहीं छोड़ते। वही मानसिकता! कमजोर है दबाओ । लूटो खसोटो या पहले कमजोर बनाओ सामाजिक प्रताड़णा और आर्थिक शोषण के द्वारा, उंच नीच के भेद के द्वारा और न जाने क्या क्या....!

तुली सोचने लगा। इसके साथ ही विचारों के क्रम शुरू हो गए। जैसे उन्हे नयी उड़ाने मिल गई हो..... यादवों के इतिहास का आवोकन करने लगा। मन ही मन।... अगर उनके गौरवमय इतिहास को याद दिला कर, ये बताया जाए ... और आज जो उनकी बदतर स्थित है वो इसी जाति व्यवस्था का परिणाम है… तो शायद वे साथ देने को तैयार हो जाए । इसमे कोई शक की गुंजाइश नहीं है कि एक क्षत्रिय को, जिसकी 18 शाखाएँ पूरे कारत मे फैली हैं , जिंनका मध्य युग तक शासन रहा, उसे पिछड़ा और नीची जाति का बना दिया गया!

यादवों की बदहाली और पतन का कारण यही जाति व्यस्था रही है। और उसके दो पेरोकार रहे है- कंडित और काजपूत। कंडितों और काजपूतों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए यादवो को नीचे गिराया। बहुत ही योजनाबद्ध ढंग से उन्होने यादवों को घेरा। उनको तोड़ा, उनको देशी-विदेशी बर्बर कबीलों से भिड़ा दिया। पहले तो अलग अलग क्षेत्रों के हिंसक आदिवासी और क़बीली जातियो को क्षत्रियत्व का दर्जा दिया। और उनको यादवों से भिड़ा दिया।

फिर विदेशियों को बुलवा कर यादवों को खत्म करने की कोशिश की। जैसे राणा कांगा ने जैसलमर के यादवो को खत्म करने के लिए काबर को बुलाया था। यह दूसरी बात है है यादव तो खत्म हुए नहीं! अलबता राणा खुद ही खत्म हो गया। और गुलामी की बीज बो गया!

कोपाल सोचे जा रह था... उसकी बाइक पाली से मांगर गाँव की ओर जा रही होती जो बिलकुल मिनी शिमला-मनाली जैसा लगता! ...कृष्णदेव राय के बारे मे भी बताया जाना चाहिय॥ । एक आधुनिक युग का यादव सम्राट, कृष्ण देव राय, जिसका साम्राज्य अकबर और अशोक के बराबर था। बल्कि बीस ही था उन्नीस नहीं। उनके बारे मे बताया तक नहीं जाता कि वे यादव है..

और इतिहास के पन्नो मे कृष्णदेव राय के नाम मात्र एक या दो पैरा होता है। जबकि इन दो सम्राटों की शान मे न जाने कितने पन्ने रंगे जा चुके है। कैसे बताया जाता भला! जब हिन्दू राजाओ ने विदेशी कबीलों से मिल कर उनका और उनके साम्राज्य को खत्म कर दिया। और कारत पूर्ण गुलामी की ओर अग्रसर हो गया। इससे क्या फर्क पड़ता है! कंडित और काजपूत का वर्चस्व तो बना रहा। चाहे देश गुलाम हो गया हो!

अगर ये सब बातें उन्हे बताई जाय और इसे जातिवाद से जोडा जाय, जो की वास्तविकता ही है। कोइ प्रोपेगंडा नहीं होगा... तो यादव गण जरूर जाति तोड़ आंदोलन की मदद करने को तैयार हो जाएँगे। जरूर करेंगे, क्यो नहीं करेंगे जब इसी जातिवाद और इसके दो परोकर जातियों ने केवल यादवों को पदच्युत कर दिया, बल्कि इसके साथ पूरे देश को गुलाम और बदहाल बना दिया। और ऐसे नमूने और बुद्धू नेताओं के हाथों मे छोड़ दिया.... जो जिस पेड़ पर बैठे हैं, जिसके फल खा खा कर अपनी आगे और पीछे कि सात सात पुश्तें सँवारते रहे हैं.. उसी पेड़ के डाल को काटते रहे हैं। उसकी जड़े खोखली करते रहे हैं.... कोपाल सोचे जा रहा होता।

पता नहीं कितनी देर तक कोपाल साइकलिंग करता रहा। जब होश आया तो अपने आपको फरीदाबाद और गुड़गांव की सीमा पर स्थित मांगर गांव मे पाया। मांगर—चारो ओर ऊंचे ऊंचे पहाड़ो से घिरा, सुंदर और मनोरम घाटी मे बसा गाँव। क्रिकेट और फुटबाल ग्राउंड भी है। यही से एक किलोमीटर दूर पर्वतारोहण प्रशिक्षण स्थल भी है।

वहाँ से थोड़ी दूर पर फरीदबाद-गुड़गाँव हाइवे पर स्थित एक ढाबे पर कोपाल रुका। चाय का बोलकर मँजी (खटिया) पर लेट गया। सामने के पहाड़ और जंगल दिन के उजाले मे चमक रहे होते! ऊपर विस्तृत और खुला आसमान। कहीं दूर ले गया कोपाल को। शायद भविष्य के उधेड़ बुन मे। तभी हवा का एक तेज झोंका आया। दूर से कहीं, एक संदेश लिए हुए। पर उसकी साइकल गिर गई। उसका ध्यान उधर गया... ढाबे का लड़का साइकल सीधी करने लगा....

तभी एक विचार कौंधा। क्यों नहीं अकेले, एकल साइकल यात्रा पर निकला जाय। यादवों का समर्थन जाति तोड़ आंदोलन के लिए पाने के लिय... बिना किसी शोर शराबे के। छै-आठ महीनो मे तो यादव बहुल क्षेत्रो मे जन संपर्क अभियान पूरा हो ही जाएगा।

साइकलिंग से घर आने मे काफी देर हो गयी। दो बज चुके थे। पर कोपाल उसी सोच विचार मे लगा हुआ होता। कैसे सब कुछ हो पाएगा? वो भी अकेले …. किसी से सहयता तो दूर की बात! इसके बारे बात करना भी खतरे से खाली नहीं था... किस पर भरोसा किया जाय... अपनी ही जाति मे शादी करते रहने से एसी मूर्ख, मोरोंन और कमजोर पीढ़िया पैदा होती रही है! लोग एक बोतल दारू पर बिक जाते हैं! चंद सिक्कों के लिए अपने ही जड़े खोदने को राजी हो जाते है... ऐसों पर भरोसा किया जा सकता है भला!

…. मुझे पता है, कोपाल सोच रहा होता ... पूरा सरकारी तंत्र, पुलिस, खुफिया एजेन्सी, ऊंची जाति की सेना के लोग सभी निगाह रखे हुए हैं। अभी जब साइकलिंग कर रहा होता। तब भी वे पीछे लगे हुए थे। अपनी सुरक्षा का भी ख्याल रखना पड़ेगा...तभी तो कुछ हो पाएगा। एक सुरक्षा दल का भी गठन करना पड़ेगा ।

फिर कभी कभी लगता: कैसे होगा ये सब? वही दुविधा, आशंका और संशय! फिर अकेले होना... कैसे होगा? पर क्या मैं अकेला हूँ? अगर अकेला होता तो अकेलापन महसूस होना चाहिए होता, जो कि नहीं है। एक मैं हूँ और एक जो इस मैं का साक्षी रूप या जो इसे देख रहा है: सब कुछ करते हुए... सब कुछ होते हुए.... वो दर्शक है... वही मेरे जनों जन्मांतर का साथी....

अपने ही इस विशिष्ट ज्ञान की विशिष्टता पर! कोपाल थोड़ा विभ्रमित सा हुआ। पर ये तो सच्चाई है! कोई भी अकेला नहीं होता अकेला रह कर, अगर आत्मवादी के दृष्टिकोण से सोच जाय तो। वैसे भी एक प्रतिछाया होती शरीर का। और उन सबका द्रष्टा, साक्षी और देखने वाला, जिसे कृष्ण ने सखा कहा है उपमा के तौर पर ही, हमारा निज स्वरूप जिसे आत्मा भी बोला जाता है, अगर मानते हो तो।

अगर द्रष्टा भाव आ गया तो! फिर कर्ता भाव भी धीरे धीरे क्षीण पड़ने लगता है। कर्मो की अपनी संरचना है! उनकी अपनी ही गति है और नियम। बस हो ही जाता है सब कुछ। अगर अपने को बीच न लाएँ और परिणाम की चिंता न करते हुए उनपर ही छोड़ दिया जाए!

 

छलांग लगाना! चाहे वह सांसारिक हो या आध्यात्मिक या दार्शनिक! चाहे वो ज्ञान प्राप्त करना हो किसी भी तरह का, एक सरल सा प्रस्ताव दिखता है। ऊपर से तो आसान सा लगता। मसलन तैरना ही ले ले। इसे सीखने के लिए तो पानी मे कूदना ही पड़ेगा। तभी तैरना सीखना संभव हो पाएगा। अगर नहीं तो फिर कोई बात ही नहीं!

पर अपने जीवन का या संसार का हश्र है। जो दिखता है वह नहीं होता!। अभी है पर अगले पल नहीं है। और वो बाद मे नहीं दिखेगा। जो हमेशा रहता है--हमारा अस्तित्व या जीवन का अस्तित्व, वो दिखता नहीं!

हर पल बदलता ये संसार। प्रत्येक पल मे बदलता पल। फिर इस पल से बने जीवन और संसार तो बदलता ही रहेगा। प्रति पल बदलते इस दृश्य पटल, जो संसार पटल भी और जीवन पटल भी है। मन अगर कहीं इस भँवर मे फंस जाय बिना आत्म ज्ञान और स्व-नियंत्रण के! तो फिर चक्कर ही ही चक्कर।

पर क्या ये चक्कर! ये भँवर! ये उठा पटक ही तो जीवन नहीं है! फिर क्यों हम इससे बचना चाहते है? शायद चाहते हैं ये दृश्य न बदले । या हमारे अनुसार हो! बस जहां अपने अहम का विक्षेप हुआ, हम दृश्य ही बन जाते है शायद इसके कारण!

जो होता है उसके होने को स्वीकार न करना। अपनी होनी अनहोनी की मर्जी थोपना—क्या यही द्वंद या संघर्ष का कारण तो नहीं है? फिर अगर जो कारण है वही कार्य बनता है। या जो कार्य है वही कारण भी उस कार्य का। हरेक चीज अपने पीछे की चीज या स्वरूप से जुड़ी सी लगती है।

ये शृंखला है कार्य और कारण का जो अपनी ही प्रकृति से, अपने ही आंतरिक गतिविधिओं से परिणाम मे बदल जाते है। और फल, परिणाम देते होते। हमारा स्वरूप ऐसा है कि हमारी उपस्थित मे ये सब होता है। फिर हमे अक्सर अपने आप को बीच मे क्यों ले आते है? क्या शायद इसका कारण तो यह नहीं है कि इस चक्कर मे फंस जाने का: द्रष्टा-दर्शक दृश्य ही बन जाता है! कर्ता कारक बन कर परिणाम के मकड़ जाल मे फंस कर पल दुख सुख, आशा निराशा के द्वंद मे डूबता उतराता रहता है!

ऐसे ही कुछ द्वन्द और संघर्ष मे फंसा हुआ था कोपाल। स्थगित हो गए आंदोलन को शुरू करने के लिए। यादवो की सहायता लेने के संदर्भ मे। उसका छलांग लगाना—यादवों की सहायता मांगने के लिए। साइकल यात्रा पर निकलना जरूरी हो गया था। समय बीतता जा रहा होता!

जन मानस भी इस मुद्दे को भूलने लगा था। विरोधी भी अब आश्वस्त हुए से दिख रहे होते: जाति तोड़ आंदोलन कुचल दिया गया। अब और देर करने पर बहुत देर हो जाएगी। फिर कुछ भी नहीं हो पाएगा।

और एक दिन कोपाल ने छालंग लगा ही दी! वह निकल पड़ा साइकल यात्रा पर। यादवों की मदद लेने ताकि जाति तोड़ आंदोलन को फिर से प्रारभ किया जा सके। निकला तो अकेले ही! पर जैसे जैसे कारवां बढ़ता गया काफिले दर काफिले जुडते गए।

पहले कोपाल ने उत्तर कारत मे अपनी साइकल यात्रा की। उसका लक्ष्य था: पूरे कारत के यादवों मे से २० लाख यादव परिवारो से एक एक बंदा मांगना जाति तोड़ आंदोलन के लिए। और फिर बाकी के बचे यादव परिवार से १००-१०० रुपये चंदा के तौर पर लेना। इस तरह जन और धन दोनों का इंतजाम हो जाएगा। इससे आंदोलन चल निकलेगा।

कारत के उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिमी हिस्से के यादव बहुल क्षेत्रों का दौरा किया कोपाल ने। इसमे करीब ६-७ महीने लग गए। और एक अखिल कारतीय जाति तोड़ दल तैयार हो गया। इनकी संरचना भी पिछले दलों के समान ही थी। तीन स्तरीय-राज्य, जिला और पंचायत।

पर एक अंतर था। उत्तर के सभी राज्यों का एक संचालक होता जिसके नेतृत्व मे सारे राज्य आते होते। उन राज्यों के एक राज्य संचालक अपने क्षेत्र मे पड़ने वाले जिलों का संचालक नियुक्त करेगा। जिलों के संचालक पंचायत के संचालक को नियुक्त करेगा। इस क्रम वे अपने कार्यों का भी निष्पादन करेंगे और रिपोर्ट भी देंगे। और इसी क्रम मे अपने कार्यों के प्रति उत्तरदायी भी होंगे। यादवों के समर्थन दल की संरचनात्मक ढांचा वही रखा गया है जो पहले से चला आ रहा होता।

कोपाल ने कारत की यात्रा दो चरणों मे की। पहले चरण मे जन संपर्क अभियान चलाया। सबसे मिलना। हरेक क्षेत्र के राज्यों के लोगों से मिलना। इस दौरान ही उसने दस बारह संचालको की पहचान कर ली थी। उनको बता भी दिया गया कि उन्हे अपने क्षेत्र के संचालन का कार्य भार दिया जा सकता है। और रही बात जातिवाद तोड़ आंदोलन के लिए सुरक्षा दल के गठन का, लाखो युव यादव तैयार हो गए। और अपनी सुरक्षा के लिए उसने ग्यारह लड़ाकू यादवा का एक दल दल बना लिया। और खुद अपने दो पिस्टल रखे अपनी सुरक्षा के लिए।

जाति तोड़ आंदोलन के लिए सुरक्षा दल का गठन हो गया। कोपाल ने पहले ही चरण के दौरान कर लिया। कारत के हरेक ज़िले मे सुरक्षा दल बनते गया। ऐसा हुआ कि जहां जाता, जब लोगों को बताता की कैसे ऊंची जाती के लोगों ने हमारे लोगों के साथ मार पीट की। ऊंची जाती के क्षेत्रों मे पत्थर बरसाए जाते। और किस तरह हस्ताक्षर अभियान के कागज फाड़ देते। ऐसे सुनते ही युवा यादव तुरंत तैयार हो जाते सुरक्ष दल मे शामिल होने के लिए।

इस प्रकार हरेक जिले मे सुरक्षा दल तैयार हो गया। उसमे अधिकतर यादव ही थे जो लड़ने मरने को तैयार होते! कोपाल ने उन सबको आश्वासन भी दिया: कुछ फंड उन्हे उपलब्ध भी कराया जाएगा ताकि वे अपना काम कर सके। उन्हे कुछ फंड अपने स्तर पर भी प्रबंध करने को बोला गया।

दूसरे चरण मे, हरेक क्षेत्र के संचालको का चुनाव किया गया। और वे संचालक अपने मातहत सारे राज्यों, जिलों, और पंचायत के सह-संचालको का चुनाव करेगे। और कोपाल को सूचित कर देंगे। राज्य संचालक क्षेत्र संचालक को, जिला सह-संचालक राज्य संचालक को और पांचायत सहायक जिला सह-संचालक को रिपोर्ट करेंगे और उनके प्रति उत्तरदायी होंगे। तथा सभी रिपोर्ट केन्द्रीय कार्यालय को भेजा जाएगा।

इस प्रकार जाति तोड़ आंदोलन को यादवों का पूरा समर्थन मिल गया। इस यात्रा के दौरान कोपाल रातो रात लोकप्रिय हो गया। मीडिया मे उसके चर्चे होने लगे। कुछ मीडिया वाले साक्षात्कार के लिए आए भी। पर कोपाल ने मना कर दिया। । उसने कहा: वह तो बस एजेंट है अपने गुरु का। उन्ही के नेतृत्व और मार्गदर्शन मे सब कुछ कर रहा। और ऐसे हैं गुरु! उन्हे न तो प्रचार चाहिए, न पैसा, न शोहरत। बस वे चाहते: जाति व्यव्स्था पूरी तरह से टूटे और इसे अवैध घोषित किया जाए।

जाति तोड़ आंदोलन को फिर से शुरू करने के लिए, यादवों का समर्थन लेने निकले जन संपर्क यात्रा के दौरान! कोपाल की मुलाक़ात मथुरा के एक परिवार से हुई। ये यादव थे और उनका परिवार, विशेष कर बड़ा भाई नितेश, स्थानीय राजनीति से जुड़ा हुआ था। वे पाँच भाई थे! पर पर केवल नितेश की शादी हुई थी। उसकी पत्नी का नाम कलावती: बहुत सुंदर!

पता नहीं उस परिवार मे क्या था! कुछ ऐसा कि उनसे विशेष संबंध जुड़ गए। पांचों भाई कोपाल के कट्टर समर्थक बन गए। न केवल समर्थक बल्कि उसके अंगरक्षक और जाति तोड़ आंदोलन सुरक्षा दल का भी कमान संभाल लिया।

पांचों भाइयों मे केवल नितेश ने ही शादी की थी। दूसरे भाई—उमेश जो पहलवान था, ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का निर्णय लिया था। वह राष्ट्रीय स्तर का पहलवान रह चुका होता। कुश्ती मे कई राजकीय और केंद्रीय मेडल का विजेता रहा है। तीसरा भाई-- रितेश उसका एक ऊंची जाति की लड़की से प्यार हुआ। वह उसी से शादी करना चाहता।

पर लड़की के घरवाले ने नीची जाति मे! अपनी बेटी का हाथ देने से मना कर दिया। और रितेश की जिद होती कि वह उसी से शादी करेगा। नहीं तो शादी ही नहीं करेगा। और उसकी शादी नहीं हो पाई।

चौथे भाई रमेश को एक आदिवासी लड़की से प्रेम हुआ। और लड़की के घरवाले राजी भी हो गए होते। रमेश को अपनी बेटी देने को। पर रमेश के घरवाले नीची जाति मे! शादी करने को राजी न हुए। पांचवे भाई, सोमेश ने शादी ही नहीं की। जात पात के इन लफड़ों, ऊंची जात और नीच जात के पचड़ों और अपने भाइयों के शादी मे हुए झगड़े टंटे को को देख कर!

कोपाल की मुलाक़ात इनके बड़े भाई नितेश से दिल्ली मे हुई थी। वह प्रदेश का उभरता हुआ युवा नेता हुआ करता। पर वह प्रदेश की भीषण जातिवादी और संप्रदायवादी राजनीति का शिकार बन गया। फिर उसके राजनीति मे आगे बढ़ने के पहले ही उसके बहुत दुश्मन बनने लगे।

नितेश किसान परिवार से था। और उसकी काफी खेती बारी होती। किसान और खेती के मुद्दों को लेकर पहले स्थानीय स्तर पर काम किया। लोगों को जागरूक बनाया। उसके बाद, फिर राज्यकीय स्तर पर ले गया। किसानो को बताया जाने लगा: कैसे कृषि और किसान पर पूरा देश चलता होता। उद्योग से लेकर व्यापर इससे फल फूल रहे हैं। पर किसान और खेती कि हालत खराब ही रही है। विकास और प्रगति शहर और उद्योग केन्द्रित रहे हैं। और कृषि और कृषक गौण रहे हैं।

नितेश ने फिर राष्ट्रीय स्तर पर किसान आंदोलन का सूत्रपात किया। इस तरह राजनीति मे प्रवेश हुआ। पर ऊंची जाति के किसान नेताओ ने बड़ी चालाकी से उसके मुद्दे पर ही उसको ही किसान विरोधी बता दिया। और उसे आंदोलन से बाहर कर दिया। किसान माफिया नहीं चाहते होते: किसानो की समस्या सुलझे। अगर ऐसा हो जाएगा तो उनकी राजनिती कैसे चलेगी?

इस तरह नितेश किसान माफिया की गंदी जातिवादी राजनिती का शिकार हो गया। नितेश अपने लिए कोई राजनैतिक मंच तलाश रहा होता। इसी दौरान समाजवादी राजनीति की ओर उसका झुकाव हुआ। वहाँ उसने कुछ प्रारम्भिक कार्य भी किए। पर वहाँ तो अपने ही जाति के महंत पहले से बैठे हुए होते!

जब समाजवादी राजनीति के उन महंतो को पता चला! रितेश समाजवादी आंदोलन को एक नया आयाम देना चाहता है। जाति और पिछड़ेवाद के शिंकाजे से मुक्त कर एक सुधारवादी रुख देना चाहता है। तो उनके हाथ के तोते उड़ गए। बस क्या था! यहाँ भी नितेश के लिए गड्ढे खोदे जाने लगे। जैसा कि किसान आंदोलन के संदर्भ मे हुआ था।

चाहे राजनीति हो या व्यवसाय! नए के प्रवेश के पहले बहुत सारी अडचने खड़ी की जाती हैं। ताकि वह अपने इरादा बदल दे। उसकी राहों मे रोड़े अटकाए जाते! अडचने डाली जाती। डराया धमकाया भी जाता। फिर भी वह अगर डटा रहा। डरा नहीं, हिला नहीं, डगमगाया नहीं उसका विश्वास अगर तो। ऐसों को प्रवेश अक्सर मिल जाया करता है।

नितेश भी डटा हुआ रहा। पर उसे यहाँ भी अपना कोई भविष्य नज़र नहीं आता होता! यहाँ भी समाजवादी माफिया डरे हुए थे उसके सुधारवादी अजेंडा से। पता नहीं क्या है इस देश की मिट्टी मे! जहां जाओ, जिस क्षेत्र मे देखो: वहीं कोई न कोई माफिया मिल जाता। देश और समाज की जड़े खोदता हुआ। यह भी जातिवाद का छद्म प्रतिफलन लगता होता!

नितेश धीरे धीरे समाजवादी राजनीति से बेदखल किया जाने लगा। उसे समझ मे आ गया: यहाँ भी कुछ होने वाला नहीं। और अपने लिए नई राजनैतिक जमीन की तलाश करने लगा। तब उसकी मुलाक़ात दिल्ली मे कोपाल से हुई।

उस समय नितेश यादवों के खोये हुए क्षत्रियत्व को वापिस दिलाने के लिए राजनैतिक जोड़ तोड़ कर रहा होता। वह पचास के दशक मे हुए त्रिवेणी संगम आंदोलन को फिर से पुनर्जीवित करना चाहता होता! यादवों के साथ कुर्मी, जाट, गुज्जर, कोयरी आदि अन्य पिछड़ी जातियों को एक कर क्षत्रितव या ऊंची जाति का दर्जा दिलाना चाहता। जैसा पहले भी हुआ था, सभी अपनी अपनी दशा सुधारने मे लग गए। सरकारी नौकरियाँ लेना और आरक्षण तक ही सिमट कर रह गया उनका आंदोलन।

जब कोपाल के समक्ष नितेश ने यह प्रस्ताव रखा तो कोपाल ने कहा था—ये सब अब संभव नहीं है। पहले भी नहीं हो पाया जबकि किया जा सकता था। अब तो बिलकुल ही संभाव नहीं है।

फिर कोपाल ने उसे याद दिलाया: पूरे कारत की बदहाली और पिछड़ेपब का कारण यही जातिवादी व्यव्स्था है। इस व्यवस्था को ही जड़ मूल से उखाड़ फेंकना है। इसकी पकड़ और मकड़-जाल गहन पर अदृश्य है। यह समाज के हरेक क्षेत्र और पहलू को खोखला कराते आ रहा है। कोपाल ने सारी बातें बताईं। काफी देर तक उसे समझाता रहा।

अंत मे नितेश को समझ मे आ गया। इस जाति तोड़ आन्दोलन से उसका राजनैतिक भविष्य सुधर सकता है। फिर यह उसके सुधारवादी अजेंडा से मेल भी खाता होता। और करीब करीब उसी के अनुरूप भी लगा। उसे अपना राजनैतिक भविष्य इसमे साफ नज़र आने लगा।

नितेश एक आदर्शवादी नेता के आलवे अवसरवादी और चालाक भी था। उसे बार बार यही आशंका हो रही होती: कहीं करे धरे सब वो और क्रेडिट ले जाय कोई और। कहीं कोपाल उसके द्वारा बनाए गए राजनैतिक महल पर कब्जा न कर ले। बाकी सब तो ठीक लगा। पर इसी बात की आशंका होती रही। दूध का जला नितेश अब छांछ भी फूँक फूँक कर पी रहा होता!

--सब तो ठीक है। पर आपके बिना हम एक कदम भी नहीं चल पाएंगे। आपका साथ चाहिय चौबीसों घंटे..। नितेश ने कोपाल से कहा।
--पर मैं तो आपके साथ ही हूँ.... । कोपाल ने बोला।
--वो तो है। पर आपको हमारे साथ घर पर रहना होगा।

कोपाल को कुछ अटपटा सा लगा था। एक शक सा भी हुआ: कहीं कोई जाल तो नहीं फेंक रहा है!

--पर इसकी क्या जरूरत है? कोपाल ने नितेश से पूछा।
--सर जी! आपकी जरूरत हर कदम पर पड़ेगी। आपके बिना हम एक कदम भी नहीं चल सकते।
--देखीय नितेश जी! पहली बात तो सब कुछ तैयार है—दल, अजेंडा, संघटन, अखिल कारतीय नेटवर्क, जन संपर्क ... फंड और उसके अक्षय स्रोत...

नितेश ने बीच मे बोलते हुए कहा—पर मैं जन संपर्क अभियान फिर से करूंगा....अगर मुझे पूरा नेतृत्व देना चाहते हैं तो...

--ठीक है कर लीजिएगा... मैंने कब मना किया… पर ये समझ ले.... इसका सामूहिक नेतृत्व होगा..... एकल नहीं। जरूरत पड़ी तो राजनैतिक दल भी बनाया जा सकता है... सामूहिक नेतृत्व होगा... और आप केंद्रीय संचालक होंगे।

कोपाल ने कुछ ऐसे निर्णायक लहजे मे बोला कि नितेश को खराब लगा।

--कोई बात नहीं...ऐसा ही होगा.... पर आप कुछ दिन तो हमारे साथ रहेंगे...,
फिर थोड़ा रुकते हुये नितेश ने बोला—मैं तो कहता हूँ की आप दिल्ली छोड़ कर मथुरा ही रहे हमारे साथ॥
--पर...
--पर से काम नहीं चलेगा...आपको चलना ही पड़ेगा...

नितेश के स्नेह और आग्रह भरे जिद के आगे कोपाल की एक न चली। उसे नितेश की बात माननी ही पड़ी। जाति तोड़ आंदोलन के लिए। लेकिन किसी परिवार के साथ रहना उसे कुछ अटपटा सा लगता होता! किस दूसरे परिवार के साथ रहना... चाहे थोड़े दिनो के लिए क्यों न हो?

.....पर नितेश दूसरा कैसे?.... जब अपना मान कर.... वो मुझे अपने साथ रहने को बोल रहा है तो... । कहीं वो तो नहीं!... नहीं नहीं.... वैसे भी दूसरे का अस्तित्व ही कहाँ है... जब वही एक सब बन गया है तो। एक से दूसरा है न की दूसरे से एक!

 

 

मथुरा मे नितेश के घर आते ही कोपाल, उसके घर का हिस्सा बन गया। नितेश और उसके भाई ऐसे घुल मिल गए जैसे सगे भाई हों। कोपाल को लगा: जैसे उनसे पहले से भी कोई रिश्ता हो!

और कलावती भाभी! नितेश की पत्नी! वो तो बिलकुल अपनी भाभी सी लगती हुई! जैसे अपनी ही हों! उसका पल पल हर पल ख्याल रखती होती! जैसे उनसे भी जन्मो का रिश्ता हो। कहीं वो तो नहीं!

पर चार पाँच दिन ही मथुरा मे रहना हो पाया। कोपाल को नितेश के साथ फिर से जन समपर्क अभियान पर निकलना पड़ा।

इस दौरान उसने नितेश को सारे क्षेत्रीय, राजकीय, और जिला स्तर के संचालको और सह संचालको से मिलवाया। सबको बताया: अब से नितेश ही नेतृत्व और संचालन का काम देखेगा। पूरे कारत की यात्रा मे 3-4 महीने लग गए।

और नितेश! आश्वस्त सा दिखा। उसे यकीन हो गया लगता: इससे उसका राजनैतिक भविष्य सुधर सकता है।

नितेश के दोनों भाई-- रमेश और उमेश को सुरक्षा दल का नेतृत्व दे दिया गया। उन दोनों को सुरक्षा दल के सभी नेता, उप नेता और सहनेता से भी मिलवा दिया गया।

पर उनमे से एक नेता ने कोपाल को अलग से एकांत मे बुलाया। उसे आगाह किया: एक ही परिवार के लोगों को नेतृत्व न दिया जाय सारा। कही वे सब कुछ ले कर आपको ही अपदस्थ न कर दे।

कोपाल ने हंस कर टाल दी थी। उसे तो काम से मतलब है। उसका जाति तोड़ आंदोलन सफल हो जाय। और क्या चाहिए! कोई भी नेतृत्व करे! या क्रेडिट ले, या राजनीति करे! बस आंदोलन सफल होना चाहिए ।

पता नहीं क्यों? कोपाल को कायामा का अपने बारे मे रेडियो पर दिया गया मंतव्य याद आ गया। --कैसा है वो भी! न धन चाहिय, न शोहरत, न नाम ,न लड़की न प्यार...किस तरह का इंसान है वो भी .... क्या वाकई कोई ऐसा हो सकता है?

--अब वापिस घर चले। नितेश ने कहा।

कोपाल की सोच शृंखला बिखर गई।

--हाँ हाँ क्यो नहीं? अब तो सारा काम हो ही गया है। चल सकते है... !
कोपल ने कुछ अचकचाते हुए कहा।

 



सभी वापिस घर आ रहे थे। मथुरा! पर नितेश दिल्ली मे रुक गया। बोला-- आप लोग चलो मैं आता हूँ।

कोपाल को कुछ अजीब सा लगा।

जब उसने कहा था कि चंडीगद अपने घर जाएगा, तो नितेश बोला—बाद मे चले जाइए। आपकी भाभी ने सूचना दी है: आपको जरूर लेते आना। एक गिफ्ट देना है?
--गिफ्ट...
--हाँ... हाँ... पता नहीं.....इन औरतो को ही जानते ही हैं आप। नितेश ने बोला।

कोपाल को कुछ कुछ शक सा होने लगा। कहीं ये कोई जाल तो नहीं! अजीब सा... कुछ कुछ असंगत सा लागत हुआ! इतने दिनो बाद घर लौट रहे होते सब। कलावती भाभी भी इंतजार कर रही होगी नितेश का। पर वो दिल्ली मे रुक गया! और हमे भेज दिया। क्या बात है? कहीं वो तो नहीं!

कुछ दिनो से कोपाल को कुछ अवांछित घटित हुआ सा लग रहा था। नितेश और उसके भाई उससे कुछ कटे कटे से रह रहे होते! आंखे मिलाने तक मे उन्हे समस्या हो रही होती! उससे आंखे नीच कर के बाते करते। कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं? इनके मन मे कुछ खिचड़ी पक रही क्या?

कोपाल को उस नेता की बात याद आ गई! उसने बोला था: इनसे सावधान रहना! सब कुछ इनको मत दे देना। वह इन्हे जानता था। कहीं उसे धोखा तो नहीं देंगे? कहीं बाजी और खेल को पूरी तरह से हड़प कर उसे खत्म तो नहीं करे देंगे!

फिर उसने मन के इस शक को हंसी मे टाल दिया। सब कुछ तो उनको दे ही दिया गया है। अब क्या चाहिय?

हम वापिस घर मथुरा आए। कलावती दरवाजे पर ही हमारे स्वागत के लिए खड़ी मिलीं। मन मोहक हंसी, प्रिय मिलन को आतुर प्रेमिका जैसी चितवन फेरती हुईं!

सुंदर और मादक चेहरेरे पर कोई शिकन नहीं! कोई भी एक रंग नहीं दिखा। जैस इस बात का कोई मलाल ही नहीं हो: नितेश हमारे साथ नहीं है! सोचा था कुछ नाराज या दुखी होगी। पर वो तो देवरों और उसे देख कर ऐसे खुश जैसे मिलन को आतुर कोई विरहनी!

सबसे गले मिलती रही। ऐसे जैसे बरसो बाद मिले हों! फिर एक एक कर सारे भइयों को अपने अपने कमरे मे भेजने लगी।
--जाओ नहा धो कर फ्रेश हो लो।

सभी भाई अपने अपने कमरे मे चले गए। कोपाल वहीं खड़ा खड़ा मिलन विरह का अजीबोगरीब खेल देख रहा होता। जिससे मिलन होना था वो आया नहीं! जिससे विरह नहीं होना होता उसकी विरह मे आतुर! और कामातुर सा उस न हुए विरह का मिलन!

एक अनहोनी सी लटकी हुई। उस न हुए विरह के बाद का मिलन! कहीं वो तो नहीं!

....... फिर वो मेरी तरफ आती हुई.... उनसे नज़रे मिलती हुई... उन आँखों की गहराई मे खोता हुआ पूरा वजूद... पहली बार उससे अकेल मे मिल रहा होता... लंबा छरहरा बदन, सुडौल छतियाँ और भारी नितंब... ऐसी मनमोहक और मादक सुंदरता! पहले शायद ही कहीं देखा हो।

पर नितेश क्यों नहीं आया? कहीं वो तो नहीं....

--आप अकेले आए? नितेश को नहीं लाए? शरारत भरी मादक नज़रों से देखते हुए कलावती भाभी बोली।

जैसे नितेश को साथ न लाना मेरी कोई चाल हो! पर शिकायत नहीं थी, इशरा था। वो इशारा दे रही होती: वो समझ गयी है उसके प्रति मेरी रुझान। या एक इशारा जैसे कि मैंने जानबूझ कर उसे नहीं लाया। जबकि वास्तविकता कुछ और ही थी।

और फिर ऐसे गले मिली, जैसे छोड़े ही नहीं.... एक पल के लिए सब कुछ ठहर सा गया। जैसे मैं नहीं रहा। उनकी मदहोश आगोश मे सब कुछ भूल गया। फिर एक झटके से अलग हो गया जैसे कुछ गलत हो। .
--ओह गॉड! बहुत थक गया हु। बोलते हुए उनके आगोश से मुक्त हो कर सोफ़े पर बैठ गया।

फिर वो कुछ हड्बड़ाती हुई चली गयी।

उस दिन पूरी दुपहरी सोते रहा। इतना थका हुआ कि होश ही नहीं रहा। बेड पर जाते ही सो गया। एक बार आंखे खुली तो कलावती भाभी जगा रही होती। खाना खाने के लिए।

खाना खा कर फिर सो गया। जब नींद खुली तो भाभी बिलकुल बेड के पास खड़ी दिखती हुई। सोते हुए देखे जा रही होती! जब उन्हे लगा कि जाग रहा हूँ तो अपने देवर के कमरे मे चली गयी।

उस दिन सोता जागता रहा। बीच बीच मे दो तीन बार उठा भी। भाभी अलग अलग सोने के ड्रेस मे देवरों के कमरे मे आते जाते दिखी। पहले कुछ अजीब सा लगा। बाद मे समझ मे आ गया! सब कुछ।

पर वो रात! नितेश के घर की आखिरी रात! फिर बाद मे ऐसी रात बन गयी जिसकी सुबह नहीं हो पायी है अब तक।

उस रात के अंधरे मे दूधिया खूबसूरत चाँदनी! कमरे उतरी तो थी... और बरसती भी रही दो तीन पहर तक। और नहाता रहा उस चाँदनी मे...

पर जब सुबह हुई: उजाले की जगह अंधेरे! वो भी नीम अंधेरे उतरने लगे थे वजूद पर... सब कुछ निगलने लगे...

कुछ पहर तक उस उजाले के नीम अंधरे मे गुम... फिर जागता हुआ सबेरा……। .. जो अपनी बीबी को प्रयोग....वो कुछ भी कर सकता...नहीं करने वाला है.... या कर रहा है.... या कर चुका है!

फिर निकल पड़ा कहीं। दूर... कहीं दूर। बहुत दूर। अनंत सफर की राही तरह अनंत सफर पर। खेल, खिलाड़ी और तमशाई की तिकड़ी: उनके खेल से परे जाते हुए! खेल ही खत्म!

और फिर एक नए खेल की शुरुआत पर!



कर्म फल

बहुत साल बीत गए। कोपाल अब बूढ़ा हो चला। नहीं, वो नहीं! उसका तन हुआ है। मन नहीं: वो नहीं! पर कोई तो हुआ है!

वह अब पहाड़ों पर वानप्रस्थ सा जीवन बीता रहा होता! अपनी पत्नी के साथ। दोनो बच्चे विदेश मे बस गए थे।

मथुरा से उस रात भाग कर वह गुमनाम जिंदगी जीने लगा। उसे डर था: कहीं उसे खत्म न कर दिया जाय। परिवार सहित। किसी अज्ञात जगह चला गया अपने परिवार के साथ। पहले खुद गया। फिर परिवार को बुलाया। चपके चुपके रातो रात!

हर जगह खतरा हो गया था। उंची जाति के लोग, सरकार और पूरा तंत्र पहले से उसके खिलाफ था। अब तथाकथित अपने भी!

पर अज्ञातवाश मे- जो नेपाल की तराई मे कहीं पर था-- अपने नए प्रोजेक्ट, ‘एक दुनिया एक सरकार”, पर काम करता रहा।

सब कुछ हो जाने के बावजूद! कोपाल को विश्वास था नितेश पर। वह जरूर जाति तोड़ आंदोलन को सफल बनयेगा। इसमे उसे अपना राजनैतिक भविष्य नज़र आ गया था। तभी तो कोपाल को रास्ते से हटा कर अपने नाम सब कुछ करना चाहता था!

पर कम से कम जाति तोड़ आंदोलन को तो जरूर सफल बनाएगा!

एक दिन कि बात है! कोपाल बाज़ार से गुजर रहा होता। उस दिन पता नहीं क्यों! उसे कारतीय समाचार पत्र देखने की इच्छा हुई। सामुदायिक हाल के पास के किताबों के दुकान से दो तीन पेपर खरीद लिए।

पर जब हेडलाइन पर नज़र पड़ी तो कारत के प्रधान मंत्री का फोटो छपा दिखा। और वो फोटो नितेश का ही था।

और उसका वक्तव्य छपा था: ये जाति व्यवस्था, यह वर्ण व्यवस्था हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है! इसने हजारो साल से हमारी रक्षा की है! इसके कारण ही आज हम बचे हुए हैं! नहीं तो.... अतः जाति व्यवस्था के खिलाफ कुछ भी बोलना या करना राष्ट्रद्रोह होगा...... ।

आगे कोपाल कुछ नहीं पढ़ पाया। एक शून्य सा छा गया। उसके पैरों के नीचे से जमीन खसकती सी लगी। उसका जीवन ताश के पत्तों की तरह गिरता हुआ नज़र आया।

क्या उसे फिर से जन्म लेकर आना पड़ेगा? या शायद कोई इस काम को पूरा करे? पर कब? कौन और कैसे?

क्या हमारा देश, समाज, संस्कृति और सभ्यता इसी तरह धीरे धीरे सिमटती, सिकुड़ती जाएगी... और एक दिन..... ,या कोई आधुनिक संस्कृत इसे आत्मसात कर लेगी ...।

... और हम पानी पर खिची लकीर की तरह कही नहीं होंगे या हर जगह होंगे!

जब आधुनिक युग की दो तथाकथित आधुनिक संस्कृतियाँ सबको आत्मसात करना चाहती होती। अपना आपना वर्चस्व बनाए रखना चाहती। शायद उसी तरह जैसे कारत की दो ऊंची जातियो ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कारत को क्षत विक्षत कर दिया!

पर कोई बात नहीं.... पानी पर खिची लकीर की तरह सभी है... हर जगह हैं पर कही नहीं... जो हर जगह होता वह कही नहीं होता !

पर जो कार्य शुरू हो चुका है: वो अब कर्ता, कारक और कारण से परे हो गया है! अनंत कार्य और कारण शृंखला का हिस्सा बन चुका है!

‘उधो! कर्मण की गति न्यारि......’

समाप्त--एक नए प्रारंभ के लिए।