प्रेम की पराकाष्ठा Ekta Vyas द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेम की पराकाष्ठा

अंततः मेरे सामने वह शख्सियत खडी़ थी जिसकी तलाश उसे पिछले १०वर्षों से थी.उसने अपनीतलाश में कोई कसर नहीं छोड़ी थी पर आज उम्मीदों के बुझ जाने के बाद फिर से जाग जाना किसीचमत्कार से कम नहीं था. मैंने चुपचाप अपने बैग से एक पुरानी डायरी निकाली और उसमें रखीतस्वीर से सामने बैठे पुरुष के चेहरे का मिलान करने लगी. एक-एक अक्स, एक-एक कटाव, हू--हू वही था. कुछ देर तक मुझे यकीन नहीं हुआ. सचमुच वही अर्थपूर्ण आंखें, मौन हुए होंठ औरएक ईश्वरीय मुस्कान. हाँ एक अंतर जरूर था--पुरानी तस्वीर की आँखों में जो,शरारत के साथ जोभोलापन था अब वह प्रौढ़ता और गंभीरता में एक ठहराव के साथ चुपचाप चेहरे पर पसरा था. मैं जाने कब तक तस्वीर और सामने बैठे पुरुष को अपलक निहारती रहती अगर सामने से एक गंभीरआवाज़ आती- "कहिए मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ? "

मुझे फिर अपनी स्थिति का भान हुआ. मैं जिस काम के लिए आयी थी वह तो भूल भूल ही गईथी .अपने आप को संयत करने में मुझे थोड़ा समय लगा. फिर निश्चिन्त होकर धीरे-धीरे मैंने अपनीबात रखी. दरअसल मैं अपनी बेटी की प्रिंसिपल से मिलने आई थी. मेरी बेटी बचपन से ही अस्थमाजैसी गंभीर बीमारी से लड़ रही थी. डॉक्टर के निर्देश से बेटी को बदलते मौसम और धूल से उसेएलर्जी थी. उसकी सांसें फूलने लगती. और विशेष देखभाल की जरूरत थी . लगभग उसेएकांतवास में रह कर अपनी एलर्जी से लड़ना था . यों तो मैं अक्सर बच्चों के स्कूल में आती हूँ परसामने बैठे शख़्स को आज पहली बार देख रही थीं. आज पहली बार बात करने में इतने कठिनाई होरही थी और ठीक से में अपना पक्ष कह बिना पा रही थी वैसे तो मैं पढ़ी-लिखी थी. ओर पाँच बहनोंके परिवार में दादाजी घर के मुखिया थे. स्वतंत्रता सेनानी दादाजी का मानना था कि लडकियों कोउच्च शिक्षा दी जानी चाहिए थी शिक्षा के ताकि उनके मानसिक और आर्थिक विकास में कोई कमी रहे हैं ।अपनी पाँच पोतियों के पढ़ाने के मामले में उनकी धारणा बिल्कुल अडग थी. मुझे यादहै अचानक ही दिन किसी तरह घर पर थोड़ी- बहुत तैयारी के साथ दीदी को वनस्थली भेज दियागया था और हम सब छोटी बहनों को गाँव के ही स्कूल में दाख़िल करवा दिया गया। समय कापहिया ऐसा घूमा की धीर -गम्भीर दीदी ने शादी करने का निर्णय सुना दिया और गाँव के ही स्कूलमें शिक्षिका कि नौकरी कर ली समय अपनी गति से चलता रहा और हम सब बहने धीरे -धीरेअपनी उच्च शिक्षा और घर गृहस्थी की ओर बढ़ रही थी ऐसे में अचानक एक दिन रात के सोएँपिताजी सुबहे उठे ही नहीं मेरी दी शादी हो गई और आज वह अपने ससुराल में एक कुशलगृहिणी और एक आदर्श बहू के रूप में अपनी सारी जिम्मेदारियों को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ीथी मेरा बेटा तो पढ़कर निकल चुका था पर छोटी बेटी के लिए मैं स्कूल आयी थी.

प्रिसिंपल को अपनी बेटी के बारे में पूरी बात बतायी और उनकी स्वीकृति लेकर आश्वस्त होगई. चलते- चलते मुझे इच्छा हुई कि वह प्रिंसिपल से कुछ और बातें करे... वे ढेर सारी बातें जिन्हेंमैंने वर्षों से अपनी कल्पना में संजो कर रखा था किसी बेहद खूबसूरत सुनहरे ख्वाब की तरह. परहिम्मत नहीं हुई. जाने कहाँ से साहस बटोरा और अचानक डॉ अनिल मिश्रा की चरणों में झुक गईऔर सामने उनकी आंखों में एक प्रश्नचिन्ह छोड़ती हुई तेजी से निकल गई.

सारे रास्ते में उन पुरानी यादों में खोयी रही. पाँच बहनों का भरा-पुरा परिवार... दिन कैसे बीतजाता पता ही नहीं चलता. अम्मा तो दिन-दिन भर बनाते- खिलाते ही थक जाती. पर अम्मा को कभीभी थकते नहीं देखा. दादाजी की लाडली बहू जो थी.

बड़ी बहनें बाहर वनस्थली में रह कर पढ़ा करते.... घर से बहुत दूर. केवल छुट्टियों में ही आतीथी और तब धमाचौकड़ी खूब मचती. वे बाहर शहर जाकर क्या पढ़ती क्यों पढ़ती….आज तक मेरीसमझ से बाहर था दीदी बहुत शांत स्वभाव की थी, सबसे अलग. सभी बहने उनसे डरती थी ।ऐसीबात नहीं थी कि बडे़ दी किसी को डांटती या मारती.वे तो कभी किसी से ऊंची आवाज में बात भीनहीं करती.

जब कभी उन्हें फुर्सत मिलती खूब गाने सुनते... रेडियो से पुरानी धुनों को सुनते वक़्त दीवाने सी होजाती है वाली- -पीया तोसै नैना लागे रै ".. " लिखे थे जो ख़त की तेरी याद में….”

जाने कितनी देर तक वो रेडियो के गीतों में खोई सी रहती , मेरे लिए तो आदर्श थी.




.इस बात पर कई बार मैं अपने पति से भी लड़ जाती थी और थोड़ी नोकझोंक के बाद मुस्कुरा करपति मान भी जाते थे.

पर दी के व्यक्तित्व के ऊपर परत-दर-परत चढ़ी धूल तो तब साफ होने लगी जब अम्मा केअचानक अकारण गुजर जाने पर रहने के लिए मायके आई थी. अम्मा का श्राद्धकर्म हो जाने के बादसभी सगे- संबंधी अपने- अपने घरों को लौटने लगे. छोटी बहनें भी रोती-बिलखती अपने ससुराललौट गई. रह गई अकेली मैं …..दिन काटे कटता था. दी है तो और भी चुप हो कर रह गई थी. पूरेघर में बहुत कम आवाजें आतीं.. बस काम भर की ही.

मुझे आज भी याद है. अम्मा के गुजर जाने के बाद टूटती- लड़खड़ाती आवाज में दादाजी ने कहाथा-"अब बड़ी की शादी हो जानी चाहिए. घर अब काटने को दौड़ता है". इस घर की ज़िम्मेदारियों सेएक एक कर निवृत होकर मैं भी बैकुंठ वासी हो जाऊँ

और पहली बार दीदी ने किसी के सामने इतनी ऊँची आवाज़ में कहा था--"दादाजी! मुझेशादी नहीं करनी है. अब आप छोटी बहनों की शादी करवा दें." बार-बार दादाजी का आग्रह औरबार-बार बड़ी दी का दृढ़ इनकार... अंत में वयोवृद्ध दादाजी को बडे़ पोती के अटल निश्चय के सामनेझुकना ही पडा़ और लगभग साल भर बाद ही मंझले दी की शादी हो गई. सूना निर्जन आंगन फिर सेपहुनै और बच्चों की किलकारियों से भर गया. फिर... अपने भरे-पुरे लहलहाते परिवार को फलता- फूलता देख दादाजी ने अपनी अंतिम साँसें लीं.

अम्मा के जाने के बाद जब मैं गाँव में ही थी एक दिन मुझको जाने क्या सूझा... सोचा..आज अम्मा के कमरे की सफाई ही कर दूं. जाने कितने दिनों से कमरे की सफाई नहीं हुईथी. अम्मा के कमरे में जाने से जाने क्यों सब कतराते थे. बाबूजी तो पहले ही चले गए थे.तीन- चार दिन लग गए पूरे कमरे को व्यवस्थित करने में. नौकरों ने पूरी मदद की. गद्दों को धूप लगाया.. चादर बदली.. आलमारियों के कपड़े सुखाए. अम्मा का एक पुराना बक्सा भी था जिसमें ताले लगेरहते थे. एक दिन दी ने कहा-"छोटी !ये चाभी ले और उसे भी झाड़ दे. उनके कपड़ों को धूप लगा दे. जो तेरी लायक हो लेती जाना. अम्मा का आशीर्वाद है."

मैं ने भींगे नयनों से अम्मा के बक्से को खोला था. कई पुरानी तस्वीरें और ढेर सारे पुराने पत्र.. उन पत्रों को पढ़कर मेरी की आंखें भर-भर आईं. अम्मा के नैहर के पत्र, उनके भाई- बहनों के पत्र.... दिन भर सबकी नजरें बचाकर रोती रही वह. उन तमाम पत्रों में बड़े दी के लिखे पत्र भी थे जो उन्होंनेअम्मा को लिखे गए थे. उन पत्रों को पढ़ने के बाद पता चला कि चुप और गंभीर रहने वाली दी अम्माके कितने करीब थी.लगभग सभी बातों को सांझा करते रही होगी अम्मा के साथ. लम्बे- लम्बे पत्रअम्मा के नाम... और तभी एक लिफाफा मैरै हाथों में आया. उसमें के पत्र के साथ- साथ एक तस्वीरभी थी. बहुत ही प्यारा और लंबा गेंहूआ हैंडसम और शरारती आंखों वाली, बिल्कुल तराशी हुईमूरत. दी ने अम्मा को लिखा था- "अम्मा! यह अनिल मिश्रा हैं. मेरे क्लास में पढ़तै हैं. अम्मा! मेरीशादी इन से करा दे. दादाजी से बात कर अम्मा! ये बहुत अच्छै हैं. तुम मेरी मदद करोगी ना अम्मा!"

पूरा पत्र पढ़ने की हिम्मत जुटा नहीं पाई थी मैं .पत्र आंसुओं से भींग गया. किसी तरह आंचलसे पोंछ कर तस्वीर साफ की लेकिन उसके बावजूद आंखों का धुंधलका कम नहीं हुआ. मुझे कोलगा जैसे मेरा दम घुटा जा रहा है. शाम को बड़ी दी के सामने ऐसे ढीठ की तरह खडी़ हो गई जैसे दीसे वह कुछ कहना कुछ पूछना. पर बात गले के अन्दर ही रह गई. बड़ी दी को बहुत ताज्जुब हुआ किआखिर नजरें मिलाकर में क्या कहना चाहती है? पर वे मन की बात पढ़ नहीं पाई और मैं उन्हें बतानहीं पाई. लेकिन अम्मा का अधूरा काम तो पूरा करना था. एक गंभीर व्यक्तित्व वाली दी जो पूरीतरह से परिवार के लिए समर्पित थे, एक सौम्य, शिष्ट,, उद्दात व्यक्ति अंदर से कितनी पीड़ा थामेअंतर्द्वंद्व से जूझ रहा था, में महसूस कर रही थी.

मैंने तमाम कोशिशें कीं थीं उस तस्वीर के बारे में पता करने की पर हर बार मेरी हथेलियाँ खालीही रह जाती थी. शायद ही कोई दिन हो जब एक बार उस ने उस तस्वीर को नज़र भर देखा हो.

तमाम कोशिशों के बावजूद में अपने प्रयास में हमेशा चूक जाती थी. दिन बीतते जा रहे थे औरदी का खिलता चेहरा मुरझाया जा रहा था. मैं अपने आप से हारने लगी थी.

आज तस्वीर के अक्स से पहली बार सामना हुआ था. मेरे पास कोई शब्द थे. क्या करेवह? क्या कहे वह?क्या बडी दी को फोन करे? लेकिन कहेगी क्या?

गाड़ी घर के सामने रुक गई थी. मुझ को ख्यालों में डूबा देख बेटी बोला-"मम्मी! उतरो ना घर गया है." मैं कल्पनाओं के स्वर्णिम उड़ान से कब यथार्थ की धरातल पर गिरी पता भी नहींचला. मैन ने अपने होशोहवास को संभाला. पुरानी यादों में वह कितनी उलझ गई थी.घर में घुसते हीदी को फोन लगाया और बड़े प्यार और मनुहार से उन्हें आने के लिए कहा. बेटी की बीमारी काबहाना करके रोना है का नाटक भी किया दी ने भी मेरा मान रखा और अगले ही दिन अपनी दुलारीबहन के सामने उपस्थित भी हो गई मेरे बार-बार आग्रह करने पर बिट्टू का मेडिकल सर्टिफिकेट जमाकरने के लिए स्कूल जाने को भी मान भी गई.




दी के स्कूल जाते ही मुझ को लगा एक बड़ा भारी पत्थर मैंने कलेजे से उतार दिया गया होऔर वह भारहीन महसूस कर रही हो जैसे किसी बहुत बडे़ दायित्व से मुक्त हो रही हो. लेकिनव्यग्रता और व्याकुलता से ना मुझ से कुछ खाया गया ना ही कोई दूसरा काम ही कर पाई. एक-एकपल वर्षों- सा भारी महसूस हो रहा था. इतना व्याकुल और बेसब्र तो वह अपने जीवन में कभी नहींहुई.

आज इतनी चंचलता क्यों? इतनी व्याकुलता क्यों? इतनी अधीरता क्यों? समय जैसे हमेशा के लिएठहर- सा गया हो.

करीब दो घंटे बाद दी लौटी.बिल्कुल हमेशा की तरह गंभीर, शांत, सामान्य, निश्चिन्त, निर्विकार. निर्विवाद. किसी का कोई जिक्र भी नहीं किया... वे स्कूल गई, किससे मिली, क्या बातें हुईं? धैर्य कीसीमाएँ आज टूट ही गईं. जिस आवेग को पिछले वर्षों से ख़ुद को मैं ने बड़ी मजबूती और हिम्मत सेबांधकर रखा था, आज वह बांध टूट ही गया. सैलाब बह निकला. उन्होंने पूछ ही डाला-"तू बावलीहो गई है बिट्टू ! क्या इसी के लिए मुझे बुलाया था? मैं जानता हूँ वे इसी शहर में हैं. उनकी पत्नी हैं. दोबच्चे हैं. उनके पत्नी उनका बहुत मान करती हैं. वे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं. वे अपने जीवन से बहुतखुश हैं. मुझे इस बात की खुशी है और निश्चिन्तता भी."

मैं जड़वत उन्हें सुन रही थी...

"प्यार का मतलब छीनना नहीं है बिट्टो! संदेह नहीं है, विनाश नहीं है, किसी को पीड़ा देना नहीं है,यहतो मेरी आराधना है,तपस्या है, समर्पण है,एक दूसरे में लीन हो जाने का दूसरा नाम है. मुझे ईश्वर सेकोई शिकायत भी नहीं है. वे मुझे नहीं मिलैइसका मुझे अफसोस भी नहीं है. वे मुझसे अलग कहाँहैं? वे तो मेरे रोम-रोम में समाय हुईं हैं,मेरी हर साँस में उनका आना- जाना है, वे तो मेरा अभिमान हैं, मेरा स्वाभिमान हैं. मुझे खुशी है कि वे अपनी दुनिया में बहुत खुश हैं, संतुष्ट हैं, जिम्मेदार हैं. अगरकभी मौका आया तो मैं अपने जीवन का कतरा- कतरा उन के नाम कर दूंगीप्रेम की परिभाषानहीं,प्रेम की सीमा नहीं, पर इतना कुछ तो है जो प्रेम की परिधि में समा जाता है."

पहली बार जीवन में दि को इतना बोलते सुना था.. जैसे उनका सारा व्यक्तित्व ही बाहर कैनवासपर छलक आया हो. आसमान के काले बादल अब छंटने लगे थे. धुंध भी हटने लगे थे. धूप विशालपेड़ों की ऊंचाई से होते हुए धीरे- धीरे उतर कर फूलों पर निखरने लगी थी.

मैं निरुत्तर खडी़ रही. तस्वीर मैरी हथेलियों से फिसल कर दूर जा गिरी थी. दी ने बड़े प्यार से उसेउठाया और इत्मिनान से सहेज कर बटुए में रख लिया. फिर... रिक्शे वाले को आवाज लगाने लगीस्टेशन की ओर ले चलने के लिए.... और मैं तब थी इस प्रेम की पराकाष्ठा को देखती ही रह गई