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बालऋषि नचिकेता


भारत की पावन धरा पर अनेक ऋषि मुनि, साधक व संन्यासी अवतरित हुए हैं जिन्होंने अपने तप, त्याग व आध्यात्मिक बल पर समाज का मार्गदर्शन किया व लोगों में सांस्कृतिक मूल्य एवं आदर्श गुण रोपित किए।

इन ऋषियों का जीवन अत्यंत पवित्र था। उनका जीवन ध्येय था— 'सर्वे सुखिना भवंतु' (सब की भलाई हो, सब सुखी हो)। वेदों का अध्ययन-अध्यापन करना, यज्ञ-तप करना, दान दक्षिणा और चिंतन-मनन करना ही इनकी दिनचर्या थी। इनका निवास तपोवन में था। घास व पत्तों की झोपड़ियाँ ही इनका घर कहलाती थीं।

ऐसे ही एक तपोवन में उद्दालक नाम के ऋषि अपनी पत्नी विश्ववरा के साथ रहते थे। उद्दालक बड़े चरित्रवान विद्वान थे। उन्होंने कई यज्ञ किये थे। दान-पुण्य में उनका नाम सर्वप्रथम रहता था व उनका वंश इसके लिए प्रसिद्ध था। इसलिए लोग उद्दालक को 'वाजश्रवस' नाम से भी पुकारते थे। 'वाजश्रवस' का अर्थ है विशेष अन्नदान करने वाला। वाजश्रवस सदगुणी थे, परन्तु उनमें एक गम्भीर दोष भी था। वह अग्नि की भाँति क्रोधित हो जाते थे।

उद्दालक की पत्नी विश्ववरा शान्त स्वभाव की धार्मिक प्रवृति वाली पतिव्रता नारी थी। वह घर-गृहस्थी का काम सुचारु रूप से संभालती थी और पति के यज्ञ कार्यों में सहायता करती थी। ऋषि दम्पति इस बात से दुःखी थे कि उनका कोई पुत्र नहीं है।

विश्ववरा प्रतिदिन भगवान से प्रार्थना करती थी— "हे भगवान, हमारे वंश को आगे चलाने हेतु एक पुत्र दो।" पत्नी को दुःखी देखकर वाजश्रवस उसे सांत्वना देते "विश्ववरा, धैर्य रखो, दुःखी मत होओ।" सुपुत्र को प्राप्त करने हेतु वे यज्ञ करके देवताओं को प्रसन्न करने का प्रयास करते थे।
अन्ततः वह शुभदिन आया जब विश्ववरा ने एक पुत्र को जन्म दिया। दोनों पति-पत्नी अत्यंत प्रसन्न हुए। बालक के जातकर्म, नामकरण आदि संस्कार हुए। पुत्र का नाम रखा गया— 'नचिकेता'।

नचिकेता धीरे-धीरे बड़े हुए। वह बहुत सुन्दर, स्वस्थ व आकर्षक बालक थे जिनके मुख पर सदैव मुस्कान रहती थी। उनकी लुभावनी लीलायें प्रत्येक को अच्छी लगती थीं। अब वे पिता के यज्ञ मंडप तक जाते तथा एकाग्रचित्त होकर मंत्र पाठ सुनते थे। माँ स्तोत्र पाठ करती तो वे ध्यानपूर्वक सुनते और कहते "माँ, मुझे भी पाठ करना सिखाओ।" इस प्रकार उन्होंने माँ से कुछ स्तोत्र सीख लिये। वह एक बार जो सुन लेते थे उसे स्मरण रखते थे। नचिकेता बहुत बुद्धिमान और सात्विक विचारों वाले बालक थे। सूर्योदय से पहले उठना, स्नान, स्तोत्रपाठ करके पूजा के लिए बगीचे से फूल-पत्ते तोड़ लाना तथा फिर माँ के साथ नित्य गौपूजा करके ही दूध पीना ये उनके नित्यकर्म बन गये।

वाजश्रवस की गौशाला में सैकड़ों गायें थीं जो उन्हें दान-दक्षिणा स्वरूप प्राप्त हुई थीं। उस काल में गोधन ही सर्वश्रेष्ठ धन माना जाता था। जिसके पास जितनी अधिक गायें होती थीं, वह उतना बड़ा धनी होता था।

एक दिन गौपूजा करते हुए नचिकेता ने माँ से पूछा "माँ, गाय की पूजा क्यों की जाती है?"‌माँ— "बेटा, गाय हमें दूध देती है। दूध सर्वश्रेष्ठ आहार है। हम दूध पीकर बुद्धिमान और तेजस्वी बनते हैं। इसलिए गाय को 'गोमाता' या गऊमाता भी कहते हैं।"
नचिकेता— "वह सब ठीक है। परन्तु क्या दूध देने के कारण ही उसकी पूजा करनी चाहिए ?"
माँ ने कहा— "गाय को पूजना व उसे नमस्कार करना मातृपूजा व मातृवंदना के समान पुण्यदायक है। उसकी परिक्रमा करने से तीर्थ यात्रा के पुण्य प्राप्त होते हैं।"
"पुण्य से क्या लाभ होता है?" नचिकेता ने तुरन्त प्रश्न किया।
"बेटा, पुण्य से स्वर्ग मिलता है। स्वर्ग देवलोक है। वहाँ पुण्यात्माएं रहती हैं। वहाँ देवतागण निवास करते हैं। सभी प्रकार के सुख वहाँ मिलते हैं," माँ ने कहा।
माँ की बातें सुनकर जिज्ञासु मन नचिकेता को तुरन्त अपने मित्र सोमा का विचार आया। सोमा एक निर्धन ऋषि का पुत्र था। वह बोले, "माँ, सोमा के घर में तो एक भी गाय नहीं है। चलो, एक बूढ़ी-सी गाय उसे दे दें। उसकी पूजा करके वह भी पुण्य प्राप्त करेगा और उसे भी स्वर्ग मिलेगा।"
विश्ववरा ने बीच में ही कहा— "नहीं बेटे, यह उचित नहीं होगा। बूढ़ी गाय दान में देने से पाप लगेगा। क्योंकि वह दूध नहीं देती। इससे सोमा के परिवार को कोई लाभ नहीं होगा। ऐसी गाय के दान से तो हम स्वर्ग नहीं, नर्क में जायेंगे।"
"क्या नर्क में मनचाहे सुख नहीं होते हैं?" नचिकेता ने पूछा।
माँ— "बेटा, पाप करने वालों को सुख कहाँ से मिलेगा? उन्हें तो यमदेव कठोर दंड देते हैं। इन सब बातों को जानने समझने के लिए विद्या प्राप्त करनी पड़ती है।"
“तो माँ, मैं तुरन्त विद्या प्राप्त करूंगा।” नचिकेता तपाक से बोले। उस दिन से नचिकेता ने निश्चय किया कि वे किसी भी प्रकार से विद्यार्जन करेंगे।
ऋषि वाजश्रवस भी यही चाहते थे। उन्होंने नचिकेता को शिक्षा देना आरम्भ किया। कुशाग्रबुद्धि नचिकेता ने कुछ ही दिनो में छोटे-छोटे वाक्य लिखना व उनका उच्चारण सीख लिया।

एक दिन वाजश्रवस की कुटिया में एक आचार्य आये। बालक नचिकेता के लिए वे आम लाये। नचिकेता ने आचार्यजी को प्रणाम किया और उनकी गोद में जा बैठे । आचार्य जी ने बालक को स्नेहपूर्वक फल दिये।
नचिकेता बोले— "मुझे फल नहीं चाहिये।"
"और क्या चाहिये आपको, बेटे?" आचार्यजी ने पूछा।
नचिकेता— "मुझे केवल विद्या चाहिये।"
"तुम्हें कैसी विद्या चाहिये ?" आचार्य ने पूछा।
नचिकेता— "मुझे ज्ञान देने वाली विद्या चाहिये।"
वाजश्रवस ने नचिकेता को झिड़क कर कहा— "चलो, अंदर जाओ। बड़ों से ऐसी बातें नहीं करते।" नचिकेता निराश हो गए। वे अंदर माँ के पास जाकर रोने लगे।
आचार्य जी को यह बुरा लगा। उन्होंने वाजश्रवस से कहा
“ऋषिवर, आपने बालक को डाँट कर अच्छा नहीं किया। यह बालक कितना बुद्धिमान है। उसे फल की चाह नहीं। वह तो केवल शिक्षा में रुचि रखता है। आपको तो प्रसन्न होना चाहिये। मुझे तो उसमें महापुरुष के लक्षण दिखाई पड़ते हैं। आप उसका उपनयन संस्कार करके विद्याभ्यास कराइये।"
वाजश्रवस जी को आचार्य जी की बातें सही लगीं। वाजश्रवस बोले "मैं वहीं करूंगा लेकिन आपसे एक प्रार्थना है।"
"बताइए?" आचार्य जी बोले।
वाजश्रवस— "ऋषिवर, आप ही नचिकेता को शिक्षा प्रदान करें। आचार्य— "ऐसा सुयोग्य शिष्य और कहाँ मिलेगा? ऐसे शिष्य को पढ़ाकर गुरु की ही गरिमा बढ़ती है।"

तपोवन में ही नचिकेता का उपनयन संस्कार हुआ। उपनयन का अर्थ है— 'गुरु के पास ले जाना।' वेद विद्या सीखने से पहले 'उपवीत' करना पड़ता है। तभी वेद विद्या का अधिकार प्राप्त होता है। उपनयन संस्कार के पश्चात् बालक को 'ब्रह्मचारी' या 'बटु' कहते है।

नचिकेता का उपनयन संस्कार हुआ। जब नचिकेता आचार्य के
साथ गुरुकुल में जाने लगे तो पिता वाजश्रवस ने आशीष दिया, "बेटा नचिकेता, जाओ, विद्या ग्रहण कर विद्वान बनो। ऐसा कोई काम न कर जो गुरुजी को अप्रिय लगे। विनय और सेवा से उनको प्रसन्न रखना सदैव उनकी आज्ञा का पालन करना।"

गुरुकुल में विद्यार्थी गुरु के आश्रम में ही रहकर विद्याभ्यास करते थे। उन्हें 'भिक्षा' माँग कर अपना भोजन प्राप्त करना पड़ता था। गुरुकुल के नियमों का कठोरता से पालन करना होता था।
फिर नचिकेता माता की अनुमति लेने गये। माँ को प्रणाम करके वह बोले "माँ, मुझे आशीर्वाद दो।" विश्ववरा अपने पुत्र को गुरुकुल जाते देखकर बहुत प्रसन्न थी। परन्तु अपने इकलौते पुत्र के घर छोड़कर जाने पर वह थोड़ा भावुक हो गई। वह बोली "बेटा, आज से तेरे गुरुजी ही तेरे माता-पिता है। गुरुकुल ही तेरा घर है। गुरु ही तेरे लिये ज्ञान दाता व भगवान है। उनकी आज्ञा का पालन करना ही तुम्हारा व्रत है।"

इस प्रकार माता-पिता को छोड़कर नचिकेता ने गुरुकुल में प्रवेश किया। आरम्भ में वहाँ के नियम उन्हें कठिन लगे। बालक नचिकेता को माता पिता व घर की याद सताती रही लेकिन धीरे-धीरे नियमों का पालन करना उनका नित्यक्रम बन गया। आश्रम, गुरुजी, विद्या— इनमें उनका मन रमने लगा। आश्रम में अन्य विद्यार्थी भी थे। परन्तु निष्ठा, नियम पालन व अनुशासन मे नचिकेता सबके आदर्श बन गये।

वे प्रात: सबसे पहले उठकर नदी के ठंडे पानी से नहाते और प्रार्थना कर लेते था। सूर्योदय के साथ ही विद्यामंदिर में वेदपाठ सत्र आरम्भ हो जाते थे। वहाँ वे एकाग्रचित होकर उनमें रूचि लेते था।

अध्ययन के बाद तपोवन के अन्य ऋषियों के घर भोजन हेतु 'भिक्षा' के लिए जाना होता था भिक्षा में जो भी मिलता था, उसे सब के साथ बाँट कर खाना पड़ता था। फिर आश्रम में विभिन्न काम होते थे, जैसे— कपड़े धोना, पाठशाला को साफ करना, यज्ञ के लिए आवश्यक समिधा लाना, आश्रम के पेड़ पौधों को पानी देना, गायों को चारा खिलाना आदि आदि।

अपने आचार-व्यवहार, अनुशासन व लगन से नचिकेता अपने गुरुओं के प्रिय शिष्य बन गये। कठिन से कठिन पाठ भी नचिकेता एक ही बार में याद कर लेते थे। उनकी स्मरण शक्ति भी अद्भुत थी।

एक बार आश्रम में एक दुखद घटना घटी। तब नचिकेता की आयु 12 वर्ष थी। उनकी प्रिय काली गाय मर गयी। नचिकेता उसके गले से लिपट कर रोने लगे।
आचार्यजी ने उन्हें समझाते हुए कहा— “नचिकेता, वह बूढ़ी गाय थी, उसका जीवन काल समाप्त हो गया था। वह मर गयी। अब रोने से क्या होगा? एक दिन तो सबको मरना ही है। जन्म-मरण, जीना मरना प्रकृति का नियम है। इस व्यवस्था को कोई भंग नहीं कर सकता।”
“गाय तो यहीं है, गुरुजी” नचिकेता ने कहा।
"बेटा, यह तो केवल गाय का शरीर है। उसके प्राण तो यमराज ले गये हैं। यमराज मृत्युदेवता हैं।" आचार्य ने कहा।
नचिकेता को तुरंत अपनी माँ की बातें याद आयीं। वह बोले "हाँ, गुरुजी, मेरी माँ भी यही कहा करती थी। तभी से मुझे यमराज को देखने की इच्छा है।"
आचार्य जी हँसते हुए बोले— "नचिकेता, यमराज को देखना उतना सरल नहीं है क्योंकि यमराज के पास मृत्यु के पश्चात् ही जाते हैं। मृत प्राणी फिर से जीवित नहीं हो सकते।"
नचिकेता निराश होकर बोले, "तो गुरु जी, यमराज से मिलना किसी भी प्रकार से भी संभव नहीं है?" आचार्य ने कहा, "यह कार्य अत्यंत साहसी व घोर तपस्वियों के लिए ही संभव हो सकता है लेकिन वैसा प्रयास किसी ने अभी तक नहीं किया।"
आचार्य जी अपनी बात कह कर चले गये। नचिकेता की जिज्ञासा और बढ़ने लगे। उनका मन गहन विचार क्रांति में उलझा रहा कि किसी न किसी दिन यमराज से अवश्य मिलना है।

इधर नचिकेता के पिता वाजश्रवस ने विश्वजीत यज्ञ का संकल्प लिया। वे स्वयं गुरुकुल में आये और आचार्य जी को सभी शिष्यों के साथ यज्ञ में आने का निमंत्रण दिया। निश्चित दिन आचार्य अपने शिष्यों को लेकर चल पड़े।
नचिकेता ने आचार्य जी से पूछा— "गुरु जी, हमारे पिता जी विश्वजीत यज्ञ क्यों कर रहे हैं?"
आचार्य— "बेटा, विश्वजीत का अर्थ होता है— विश्व पर विजय पाना, उसे जीतना। जगत् में सुकीर्ति प्राप्त करना व स्वर्ग में अपार सुख प्राप्ति आपके पिता जी के यज्ञ का उद्देश्य है।"
"परन्तु गुरु जी, माँ ने तो कहा था कि पुण्य कार्य करने से स्वर्ग मिलता है।" नचिकेता ने उत्सुकतावश पूछा।
आचार्य— “हाँ नचिकेता, यह यज्ञ एक महापुण्य है। इसमें अपार अन्नदान करना पड़ता है। असंख्य गायों का दान किया जाता है और यहाँ तक कि अपना सर्वस्व दान-दक्षिणा में दिया जाता है। यही इस महायज्ञ का नियम है।”
नचिकेता ने चकित होकर पूछा, "आचार्य जी, इस यज्ञ में क्या क्या दान किया जाता है?"
आचार्य— ऐसी वस्तुएं जैसे धनराशि, अन्न, वाहन व अन्य बहुमूल्य वस्तुएं जो स्वयं को अत्यंत प्रिय व दूसरों के लिए उपयोगी हो, को दान में दिया जाता है। जितनी अधिक दान की मात्रा होगी उतना अधिक पुण्य प्राप्त होगा।"
नचिकेता के मन में प्रश्न उठा, “गुरु जी मैं अपने पिता का बहुत प्रिय पुत्र हूं क्या वह मुझे दान में दे सकते हैं?”
नचिकेता के प्रश्न पर आश्चर्यचकित होकर आचार्य बोले— “बेटा तुम चिंता मत करो ऐसा विचित्र प्रश्न मत सोचो तुम्हें वह दान में नहीं देंगे।”

विश्वजीत यज्ञ आरंभ हुआ हजारों विद्वानों व मुनियों की उपस्थिति थी। वेदमंत्र घोष गूंज उठे। मंगल वाद्य बजने लगे। शंखध्वनि व पावन वाद्यो से पूरा वातावरण संगीतमय हो गया।
आरम्भ में ही ऋषियों ने वाजश्रवस को बता दिया था कि वह यज्ञ के अंत तक अपने क्रोध पर नियंत्रण रखें और अपने वचन का पालन करें। अन्यथा यज्ञ का लक्ष्य पूर्ण नहीं होगा। वाजश्रवस शांत होकर यज्ञ करते रहे।

गोदान का समय आ गया। पुरोहित ने कहा— “वाजश्रवस जी दान-दक्षिण के लिए गायों को ले आइए।”
वाजश्रवस के आदेश पर गौशाला से गायों को लाया गया। सैकड़ों गाय यज्ञ मंडप के सामने पंक्ति में खड़ी हो गई नचिकेता गायों को गौर से देखने लगे उन्होंने देखा कि बहुत सी गाय काफी दुर्बल बूढ़ी थी इनमें कोई भी गाय दूध देने वाली नहीं थी।

नचिकेता को यह देखकर बहुत दुख हुआ। वह सोचने लगे पिताजी ने ऐसा क्यों किया। जिन गायों का कोई उपयोग नहीं उन्हें दान देने से पुण्य कैसे मिलेगा? मैं पिताजी को यह कैसे समझाऊं क्योंकि मेरी बात पर वे क्रोधित हो जाएंगे। बार-बार इस बात का विचार कर वह व्यथित हो गए।

आखिर नचिकेता को एक उपाय सूझा। वह सोचने लगे “यज्ञ का नियम है अपनी सभी प्रिय वस्तुओं को दान में दे देना। इसका अर्थ यह हुआ कि पिताजी का सबसे प्रिय में ही हूं। यदि वे मुझे ही दान में दे दें। तो सब कुछ ठीक हो जाएगा पिताजी पाप के प्रकोप से बच जायेंगे।"
नचिकेता ने अपने पिता के हित के लिए स्वयं को ही दान में दिलाने का निश्चय किया। यह अपने पिता के लिए पुत्र का त्याग था। वे पिता के पास जाकर धीमी आवाज में बोले— "पिता जी, आप मुझे किसे दान मे देंगे।"
वाजश्रवस चौककर पुत्र की ओर देखने लगे। वह भीतर से क्रोधित थे‌। परंतु शांत रहें। नचिकेता ने पुनः प्रश्न किया— “बाबा आप मुझे किस को दान में देंगे”
यह सुनकर वाजश्रवस को पुत्र पर बहुत क्रोध आया। परन्तु यज्ञ की मर्यादा के अनुरूप वे शान्त रहे। नचिकेता ने पुनः ऊँचे स्वर में सबको सुनाते हुये पूछा "बताइए बाबा, आप मुझे किसको दान में देंगे।"
इस बात को सभी ने सुन लिया। वाजश्रवस अपने क्रोध को रोक नहीं पाये। वह गरज उठे, “मैं तुझे मृत्यु देवता यमराज को देता हूँ। जाओ।" सभी ऋषिगण घबरा गये। मंत्रपाठ बीच में रोक दिया गया।
पुरोहित ने चौंक कर कहा "वाजश्रवस जी, यह आपने क्या किया? आपने यज्ञ का नियम तोड़ दिया है। क्रोधित होकर आपने अपने पुत्र को मृत्युदेवता को दान में दे दिया। यज्ञ में दिये गये वचन को पूरा करना अनिवार्य है, वरना यज्ञ व्यर्थ जाता है...अब क्या किया जाये?"
वाजश्रवस ने तुरन्त अपनी गलती को स्वीकार किया। वे पश्चाताप करने लगे "क्रोधवश मैंने कैसा अनर्थ कर दिया। हे प्रभु, मुझे क्षमा करें।"
विश्ववरा ने जब यह देखा तो उसे गहरा आघात लगा। नचिकेता भी माता-पिता की दशा देखकर बहुत दुःखी हुए। वे सोचने लगे “पिताजी इतने दुःखी क्यों हैं? मृत्युराज यमराज को मेरा दान देकर उन्होंने क्या बुरा किया है? मेरा कर्तव्य है उनकी आज्ञा का पालन करना। मैं देख लूँगा यमराज जी कैसी आज्ञा देते हैं?"

मन में यह निश्चय कर वे पिता से बोले "बाबा, आप दुःखी न हों। गौतम, आरुणियों का पवित्र वंश है हमारा। वे सब सत्यवादी थे। आपका कथन भी सत्य होकर रहेगा।" पुत्र की बात सुनकर वाजश्रवस अत्यंत भावुक हो कर कहने लगे—
"बेटा, मैंने बहुत बड़ी गलती की है। अगर मेरी बातों का रास्ता हो तो कर दिखाओ।"
नचिकेता पिता की आज्ञा मानकर तुरंत पद्मासन लगाकर बैठ गए। वे आँखे मूंद कर मृत्यु देव यमराज का ध्यान करने लगे। ध्यानस्थ स्थिति में लम्बा समय बीत गया। धीरे-धीरे वे बाहरी दुनिया भूल गये।

अचानक उन्हें लगा कि कोई उन्हें बुला रहा है। नचिकेता ने आँखें खोलीं। वहाँ न आश्रम था, न माता-पिता, न यज्ञशाला थी और न कोई पुरोहित। वे सोच में पड़ गये कि वे कहाँ आ गये है? यह विचित्र लोक, इतना भव्य नगर, सामने विशाल महल। स्वर्ण की दीवारें। यह सब नचिकेता को स्वपन जैसा लगा। वह उठकर महल के प्रमुख द्वार तक आ गए। वहाँ दो भीमकाय सेवक खड़े थे उनका काला रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें। एक बार तो उन्हें देखकर नचिकेता सहम गये। फिर धैर्य जुटा कर पूछा, "मान्यवर, आप लोग कौन हैं? यह कौन सा स्थान है? यह किसका महल है?"
सेवक बोले— “यह संयमिनी नगर है। यह यमराज जी का महल है। आपका यहाँ कैसे आना हुआ?”
नचिकेता— "ओह! तो मैं धन्य हुआ। महाशय! मैं वाजश्रवस ऋषि का पुत्र नचिकेता हूँ। पिताजी की आज्ञा पाकर मैं यमराज जी से मिलने आया हूँ।"
दोनों सेवक अंदर गये व थोड़ी देर में वापस आकर बोले— "बालक, यमराज जी किसी कार्यवश बाहर गये हैं। उनके आने में तीन दिन लगेंगे। लेकिन महारानी ने कहा है कि आप महल में पधारकर आतिथ्य स्वीकार करें।”
नचिकेता ने विनम्रता से कहा— “मान्यवर, मेरे पिताजी का आदेश है कि मुझे यहाँ पर केवल यमराज जी की आज्ञा का ही पालन करना है। उनके आगमन तक मैं यहीं रहकर प्रतीक्षा करूंगा।” यह कहकर नचिकेता महल से थोड़ी दूरी पर आसन लगाकर यमराज जी का ध्यान करने लगे। ध्यानस्थ स्थिति में तीन दिन बीत गये। नचिकेता बिना भोजन-पानी के ध्यानमग्न बैठे रहे। उनकी तपस्या देखकर देवलोक के सभी देवता चकित रह गये।

तीन दिन के पश्चात् यमराज जी आये। नचिकेता के बारे में उन्हें सारी बातें मालूम हुई रानी ने कहा "घर आये मेहमान को इतने दिनों तक भूखा रखना अच्छा नहीं आप तुरंत उसे बुलाइये।"

यमराज जी नचिकेता की तपस्या से प्रसन्न हुए। वे बालक नचिकेता के पास आकर बोले “अरे ब्राह्मणकुमार।” नचिकेता ने आँखे खोलीं। सामने यमराज जी को देखकर प्रणाम किया और बोले “भगवान धर्मराज जी, मैं पिताजी की आज्ञा से यहाँ आया हूँ। अब मैं आपके आदेश का पालन करूंगा।”
यमराज नचिकेता को महल के अंदर ले गये। उन्हे प्रेमपूर्वक बैठाकर फलाहार कराया और फिर बोले— "कुमार नचिकेता, दुनिया में सबसे बड़ा देव अतिथि है। मेरे अतिथि होकर तुम्हें तीन दिन भूखा रहना पढ़ा इसका मुझे दुःख है। मैं क्षमा चाहता हूँ। अपने अपराध के बदले में तुम्हें तीन वर दूंगा जो चाहो, वह माँगो।"
“धर्मराज जी” नचिकेता बोला “आपकी कृपा और आशीर्वाद से मेरी कोई माँग नहीं है। मैं केवल आपकी आज्ञा का पालन करना चाहता हूँ।”
यमराज— “नचिकेता, यह तुम्हारी विनम्रता है। किंतु मैं अपने वचन को वापस नहीं ले सकता। तुम्हें वर माँगने ही पड़ेगे। यह मेरी आज्ञा है।”
विनम्र नचिकेता बोले “धर्मराज जी, मैं समझता हूँ कि क्रोध किसी भी मनुष्य के लिए उचित नहीं है। क्रोध में व्यक्ति कुछ भी कह देता है और बाद में अपनी कथनी के लिए पछताता है। अगर मेरे पिता यज्ञशाला में यज्ञ संयम से करते, तो उन्हें दुःख नहीं भोगना पड़ता। शांत स्वभाव होने से मनुष्य कई प्रकार के कष्टों से मुक्त हो जाता है। यज्ञ के मध्य में रुक जाने से मेरे पिता संकट में है। कृपया आप मेरे पिता को क्रोधमुक्त करें और मेरा उनसे स्नेह मिलन हो।”

यमराज— “नचिकेता, इसमें चिंता करने की कोई बात नहीं है। 'ऐसा ही होगा।' अब दूसरा घर माँगो।”

नचिकेता ने कहा— “यमराज जी, मैंने सुना है स्वर्ग में देवता निवास करते हैं। वे भय व जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हैं। देवत्व की प्राप्ति के लिए अग्निविद्या का ज्ञान आवश्यक है। इसलिए मुझे 'अग्निविद्या' देने की कृपा करें।”

नचिकेता की बातें सुनकर यमराज बहुत चकित हुये। छोटा सा बालक और इतनी बड़ी विद्या की कामना। अद्भुत!
“नचिकेता”, यमराज बोले, “तुम में अपार श्रद्धा है। तुम निष्ठावान हो। ऐसा व्यक्ति कोई भी विद्या प्राप्त करने योग्य हो जाता है। मैं तुम्हें अवश्य अग्निविद्या सिखाऊँगा।”

यमराज ने नचिकेता को अग्निविद्या पर प्रवचन दिये, उसके रहस्यों से अवगत कराया और अंत में कहा— "पुत्र, अगर तुम्हारी मेधाशक्ति श्रेष्ठ होगी, तभी यह विद्या तुम्हारे पास रहेगी।” फिर यमराज ने नचिकेता से कहा, “अब तक मैंने जो कुछ भी सिखाया है, उसे सुनाओ।”

नचिकेता कुशाग्र बुद्धि का बालक थे। उनकी स्मरण शक्ति भी तीव्र थी। यमराज द्वारा सिखायी विद्या का पाठ उन्होंने अक्षरश: प्रस्तुत कर दिया। यमराज प्रसन्न होकर बोले “बस, तुम परीक्षा में उत्तीर्ण हुये। मैं अपनी ओर से तुम्हें एक वर देता हूँ। मैंने तुम्हें जो अग्निविद्या सिखायी, वह तुम्हारे ही नाम से "नचिकेताग्नि" के रूप में विश्व में प्रसिद्ध होगी। 'नचिकेताग्नि' की उपासना करने वालों को देवत्व प्राप्त होगा। तुम्हें स्वतः देवत्व प्राप्त होगा।” यह कहकर यमराज ने नचिकेता के गले में एक रत्नमाला पहना दी।

अब तीसरा वर बाकी था। नचिकेता को गुरुकुल की याद आयी। वहाँ काली गाय की मृत्यु, अपना दुःख, आचार्य की बातें, माता-पिता का दुलार, सब कुछ स्मरण हो आया। नचिकेता हाथ जोड़कर यमराज से बोले— "धर्मराज, इस जगत् में जो भी जन्म लेता है, उसकी मृत्यु निश्चित होती है। पाप व पुण्य के आधार पर प्राणी अनेक सुख-दुःख भोगते हैं। विद्वान लोग कहते हैं कि शरीर के नाश होने के बाद भी आत्मा अमर रहती है। इसका रहस्य क्या है? क्या दुःखों से मुक्ति का कोई उपाय नहीं है? कृपया बतायें। यही मेरी तीसरी माँग है।"

नचिकेता की बात सुनकर यमराज जी चौके। उन्हें लगा कि एक छोटा बालक कैसे इतने गम्भीर विषयों पर सूक्ष्म विचार कर सकता है। यमराज ने कहा— “नहीं वत्स, कोई अन्य वस्तु माँगो। विश्व का राजमुकुट, धन, स्वर्ण, माणिक आभूषण, जो भी माँगो मैं दे दूंगा। लेकिन जो गूढ़ ज्ञान व रहस्य तुम जानना चाहते हो, उसे आत्मविद्या कहते हैं। इसे प्राप्त करना देवताओं के लिए भी सुगम नहीं है।”
परन्तु नचिकेता अपनी बात पर अटल रहे। अग्निविद्या की प्राप्ति के बाद अन्य सुखों की क्या आवश्यकता है? उन्होंने विश्व कल्याण के अपने ध्येय हेतु 'आत्मविद्या' प्राप्त करने का दृढ निश्चय किया।

नचिकेता विनम्र होकर बोलें “धर्मराज जी, आप वर देने के लिए वचनवद्ध हैं। कृपया मुझे आत्मविद्या प्रदान करें। यह मेरी सविनय प्रार्थना है।”

अंततः यमराज जी को विवश होकर नचिकेता को आत्मविद्या प्रदान करनी पड़ी। उन्होंने नचिकेता को 'योगविद्या' भी सिखा दी। मानव कल्याण की कामना करते हुए यमराज जी बोले— “कुमार नचिकेता, दुनिया में मानव जन्म ही पुण्य का फल है। सज्जनों की संगति, सद्विद्या की प्राप्ति व सबके कल्याण हेतु कार्य करना ही पुण्य कार्य है दुर्जनों की कुसंगती में पड़कर दूसरों को कष्ट देना ही पाप है। बुरे कार्य से दुखदाई परिणाम प्राप्त होता है। जो पाप नहीं करता वही ज्ञानी है। पाप करने वाला अज्ञानी है। अज्ञानी अपने पापों के कारण पुनर्जन्म लेकर दुःख भोगता है। इसलिए ‍ कहां जाता है— आत्मा अमर है। दुःखमुक्त होना ही मोक्ष है। मोक्ष का मार्ग ईश्वरभक्ति है।
ईश्वर सर्वशक्तिमान है। परब्रह्म परमात्मा परमेश्वर आदि कई नामों से उसकी पूजा होती है। वही सूर्य, चंद्र, मानव, प्राणी आदि सभी रूपों में विद्यमान होता है। इसीलिए हम कहते है कि भगवान सर्वत्र है, वह कण-कण में है। इसलिए हमें सबको समान देखते हुये ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं करना चाहिये। सबकी भलाई करना ही प्रभु पूजा और सेवा है। यही मोक्ष का मार्ग है। नचिकेता, तुम ईश्वर भक्त बनकर सबकी भलाई करो।"

इस प्रकार नचिकेता को ज्ञान प्राप्ति हुई। वह आनन्दित होकर बोले "ਧमराज जी आपको शत्-शत् प्रणाम।" इस दिव्य अवसर पर देवताओं ने पुष्पवर्षा की।

फिर यमराज जी बोले “नचिकेता! उठो, अब तुम अपने पिता के पास जा सकते हो। जो ज्ञान तुमने प्राप्त किया है, उसका प्रचार-प्रसार करो।” फिर उच्च स्वर में विश्व को सम्बोधित करते हुए यमराज बोले— "उत्तिष्ठित जाग्रत हो प्राप्यवरान्निबोधता।” “विश्व के लोगों, उठो, जागो, प्रबुद्ध लोगों से ज्ञान प्राप्त करो व सन्मार्ग को जानो।”

यमराज जी का आह्वान पूरे जगत् में गूंज उठा। वाजश्रवस के
मंडप में भी वह आवाज गूंज उठी। आश्रम के सभी लोग आकाश की ओर देखने लगे। एक विलक्षण प्रकाश पुंज आकाश से नीचे उतरा और यज्ञमंडल के सामने स्थिर हुआ। उसमें से नचिकेता प्रत्यक्ष हुए।

नचिकेता को देखते ही उनके माता-पिता की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही। दोनों ने अपने प्रिय पुत्र को गले लगा लिया। माँ ने पूछा तुम्हारे चेहरे पर यह नई कांति कहाँ से आयी, बेटा? यह रत्नों की माला तुम्हें कैसे मिली?

नचिकेता ने माता पिता को सारी बातें बता दी। उपस्थित महर्षियों ने नचिकेता को शुभकामनायें व आशीष दिये और उनके पिता से कहा— "आप धन्य है। आपका पुत्र धर्मराज से साक्षात्कार करके लौटा है। ऐसे पुत्र को पाना विलक्षण पुण्य का ही फल है। इसके अदभुत प्रयासों से आपके यज्ञ का फल दुगुना हुआ। आपको देवत्व प्राप्त हुआ। नचिकेता ने 'नचिकेताग्नि' विद्या को प्राप्त कर हम सब के लिए महान उपकार किया। आत्मविद्या प्राप्त कर नचिकेता बालऋषि बन गया। भविष्य में इसकी कहानी का विशेष स्थान होगा और वह वेदों में शास्वत हो जाएगी।"


कठोपनिषद्
नचिकेता की कहानी हमारे पवित्र पुराणों, ग्रंथों व वेदों में भली-भाँति समाविष्ट है। यजुर्वेद का एक भाग कृष्ण यजुर्वेद है। कठोपनिषद् उसका एक वेदांत भाग है। नचिकेता ने यमराज के पास जाकर जो वर प्राप्त किये, जो उपदेश, प्रवचन आदि सुने— इन सबका विवरण इसमें है। इस अत्यंत पवित्र उपनिषद् का पाठ लोग आज भी करते हैं। विश्व की विभिन्न भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं। केवल भारतीय ही नहीं, अन्य देशों के विद्वानों ने भी इस उपनिषद् पर कई ग्रंथ लिखे हैं।

यह हमारे लिए अत्यंत गौरव की बात है कि बालऋषि नचिकेता भारत की पवित्र धरा पर अवतरित हुये और अपनी अपार दिव्यता व अद्भुत बौद्धिक जिज्ञासा द्वारा भारतीय संस्कृति का दर्शन कराया।

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