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उमंग और ख़ुशी के साथ सलोनी और माँ घर लौटीं तो घर में हंगामा मचा हुआ था। भाग्या का सोने का कंगन गुम हो गया था, जो कभी माँ ने उसे दिया था।
‘सलोनी, मेरा तो यहाँ आना ही ख़राब हो गया। मेरा सोने का कंगन गुम हो गया। यहाँ आते हुए मैंने अपनी अटैची में रखा था। मेरी सास को पता लगेगा तो मेरा जीना दूभर कर देगी। हे भगवान, अब मैं क्या करूँ? कल से घर में नौकर घूम रहे हैं, इतने रिश्तेदार आए हैं, अब मैं किस-किस की तलाशी लूँ?’ ज़ोर-ज़ोर से रोती हुई भाग्या चिल्लाए जा रही थी।
‘दीदी, तुम चिंता ना करो, तुम्हारा कंगन कहीं नहीं जाएगा। अपने घर में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं आया जो चोरी करे। तुम शान्ति से बैठो, हम ढूँढते हैं तुम्हारा कंगन।’
सलोनी ने अटैची को तलाशना चाहा तो भाग्या ने रोक दिया, ‘दस बार तो एक-एक कपड़ा बाहर निकालकर झाड़ चुकी हूँ, फिर भी तुम्हें देखना है तो देख लो।’
सलोनी ने अपना इरादा बदल लिया और पूछा, ‘दीदी, क्या तुमने कंगन अटैची से निकाला था?’
‘यहाँ आने के बाद तो नहीं निकाला।’
‘कहीं रास्ते में तो नहीं निकल गया?’
‘नहीं छुटकी, अटैची को घर से ताला लगाकर लाई थी और यहाँ फ़्लैट में आकर ही ताला खोला था। पता नहीं, यहाँ की ज़मीन निगल गई या आकाश उठाकर ले गया!’
‘ख़ैर, तुम चिंता मत करो। हम शान्ति पूर्वक तुम्हारा कंगन अवश्य ढूँढ देंगे। सब रिश्तेदारों को खाना खिलाकर विदा कर देते हैं, फिर हम तुम्हारा कंगन ढूँढ देंगे।’
भाग्या चुप हो गई, परन्तु उसके चेहरे पर परेशानी की रेखाएँ बनी रहीं।
सबने मिलकर खाना बनवाया और खाया, परन्तु कंगन खो जाने से सभी दुखी थे। शाम होते-होते सभी रिश्तेदार चले गए। उनके जाने के बाद सब जगह, दोनों फ़्लैटों में अच्छे से खोजी अभियान चलाया गया, लेकिन सब व्यर्थ।
‘भाग्या दीदी, क्या यही है तुम्हारा सोने का कंगन?’ अचानक सलोनी ज़ोर से बोली।
भाग्या ने एकदम भागकर देखा, ‘हाँ, यही है, कहाँ मिला?’
‘तुमने जब अटैची से सामान निकाला, तब सामान से छिटककर अलमारी के नीचे चला गया होगा। ध्यान से काम करती नहीं, फिर मेहमानों पर शंका करती हो! पता है, सबको कितना बुरा लगा होगा!’
‘सॉरी छुटकी, सॉरी,’ कान पकड़ती हूँ, ‘मैं क्या करती? मैंने तो ठीक से सँभाल कर अटैची में रखा था। जब ना मिला तो मेरे हाथ पाँव फूल गए। …. छुटकी, तुम नहीं जानती, हमारे घर में कोई लापरवाही करे, सामान गुम करे तो मेरी ज़ालिम सास सारा घर सिर पर उठा लेती है। तुम ग्रेट हो छुटकी, ग्रेट। आज तुमने मुझे बचा लिया।’
‘अच्छा, अब सँभाल कर रखना नहीं तो तेरी …।’
‘सचमुच छुटकी, थैंक्यू, थैंक्यू,’ ख़ुशी और उपकार से भाग्या के आँसू निकल आए।
……
भाग्या भी अपने बच्चों के साथ ट्रेन से चली गई। घर में फिर से सूनापन पसर गया। सलोनी अपने कमरे में गई तो लौटकर नहीं आई। पूजा करने के बाद माँ उसे देखने गई तो सलोनी को देखकर चौंक गई, ‘सलोनी, आज छुट्टी करेगी या स्कूल जाएगी?’ कहते हुए माँ ने उसे छुआ तो चौंक गई। उसका सारा शरीर ज्वर से तप रहा था। ‘सलोनी, क्या हुआ तुझे,’ माँ घबरा गई, ‘मैं डॉक्टर को बुलाती हूँ।’
‘नहीं माँ, दो दिन की भागदौड़ के कारण हमें ज्वर आ गया है। आप हमारी दराज से बुख़ार की एक गोली निकालकर गर्म पानी के साथ दे दे।’
‘सलोनी, ख़ाली पेट गोली कैसे दे दूँ? गोली खाने से पहले चाय बिस्कुट ले ले। बाद में गोली दे दूँगी,’ माँ ने ठीक से व्यवस्थित करके उसे लिटा दिया और चाय बनाने के लिए किचन में आ गई।
अपने हाथ से माँ ने उसे चाय बिस्कुट खिलाया। सिरहाने बैठकर माथा सहलाती रही। थर्मामीटर लगाकर देखा तो 102 बुख़ार था। पाँच मिनट बाद गर्म पानी के साथ माँ ने सलोनी को बुख़ार की गोली दी। पतली चादर से ढककर माँ घर के काम में व्यस्त हो गई।
अचानक माँ को कुछ ध्यान आया तो वह तेज़ी से सलोनी के कमरे में गई, ‘सलोनी!’ माँ ने घबराकर उसे जगाया।
‘हाँ माँ,’ अर्ध चेतनावस्था में सलोनी ने आँखें खोलीं।
‘बेटी, तूने कैंसर वाली अपनी दवा ली या नहीं?’
‘दो-तीन दिन की भागदौड़ में लेना भूल गई। अब बुख़ार उतर जाएगा तो ले लूँगी।’
‘छुटकी, तुझे सब की चिंता रहती है, परन्तु अपनी नहीं। यह लापरवाही अच्छी नहीं। मैं सोचती थी, तू पढ़ी-लिखी है, अपनी बीमारी का ख़्याल स्वयं रख लेगी, परन्तु अब सब काम छोड़कर मैं ही तुझे सँभालूँगी। यदि तुझे कुछ हो गया तो मेरा तो घर ही बंद हो जाएगा।’
अचानक सलोनी का उल्टी करने को मन हुआ। उसने माँ को संकेत से समझाया। माँ झटपट प्लास्टिक का टब और तौलिया ले आई। सलोनी का माथा पकड़ कर उल्टी करने में सहयोग किया। एक बार ज़ोर से उल्टी आई। सलोनी ने संकेत किया तो माँ ने पानी से सलोनी को कुल्ला कराया और लिटा दिया। टब उठाकर बाहर निकली तो उसे उल्टी में खून के छोटे-छोटे कतरे दिखाई दिए। यह देखकर माँ सहम गई, लेकिन सलोनी को कुछ नहीं बताया।
‘छुटकी, तेरी तबीयत ठीक नहीं है, मैं स्वामी जी से बात कर लेती हूँ। कहेंगे तो मैं तुझे हॉस्पिटल ले चलूँगी।’
‘माँ, उल्टी निकलने से हमें आराम है। दिन में आराम ना हुआ तो कल सुबह चल पड़ेंगे। आज हम आराम करना चाहते हैं।’
‘कुछ खाने का मन है?’
‘अभी नहीं, कुछ देर बाद।’
‘ठीक है,’ कहकर माँ वहीं कुर्सी पर बैठ गई।
उन्होंने सिमरन की माँ को फ़ोन कर दिया कि सिमरन स्कूल से आए तो उसे सलोनी के पास भेज देना, आज उसकी तबीयत ख़राब है।
…….
दिनभर सलोनी ने कुछ नहीं खाया। ज्वर एक बार कम हुआ तो फिर एक सौ एक पर पहुँचकर अटक गया। बड़ी मुश्किल से दो-तीन चम्मच दूध ही सलोनी ने लिया। दोपहर बाद सिमरन भी आ गई, लेकिन उसके साथ भी बतियाने का सलोनी का मन नहीं हुआ।
माँ उसे कैंसर की दवा खिलाना चाहती थी। प्रातः खिलाई थी तो उल्टी आ गई और डॉक्टर ने कह रखा था कि दोनों गोलियाँ खाना खिलाने के बाद ही देना, ख़ाली पेट न देना। इसलिए माँ ने उसके लिए खिचड़ी बनाई।
‘छुटकी बेटे, थोड़ी-सी गरम-गरम खिचड़ी खा ले, शरीर में जान आ जाएगी। बोल घी में खाएगी या दूध के साथ?’
‘माँ, बिल्कुल मन नहीं करता।’
‘खाना तो पड़ेगा, बेटी। बिना खाए कैसे काम चलेगा? दिनभर तूने कुछ नहीं खाया …. तुझे मेरी सौगंध है जो इस बार मना किया तो,’ माँ ने उसे विवश किया।
सौगंध के बाद सलोनी माँ की ओर देखकर मुस्कुराई। माँ ने इसे उसकी स्वीकृति समझा और खिचड़ी दूध ले आई। एक छोटी कटोरी में खिचड़ी और दूध डालकर मिक्स किया और सलोनी के मुँह में दो-तीन चम्मच डाले। माँ ने सौगंध दे रखी थी, इसलिए वह बलपूर्वक एक-एक चम्मच नीचे उतार रही थी। दस-बारह चम्मच खाने के बाद उसने बिल्कुल मना कर दिया। फिर भी माँ को संतोष हुआ कि कुछ तो पेट में गया। कम-से-कम अब दवा दी जा सकती थी।
पास बैठे-बैठे माँ ने उसका मस्तक सहलाया। माँ को सेवा करते हुए देखकर अन्दर-ही-अन्दर सलोनी का मन आहत हुआ। ‘हम भी कैसे भाग्य के मारे हैं, सेवा तो हमें अपनी माँ की करनी चाहिए, परन्तु माँ हमारी सेवा कर रही है! … हमने इस दुनिया में आकर समाज को दुखों के सिवा क्या दिया …. सुकांत बाबू ने जीवन भर हमसे अगाध प्रेम किया …. हमारी सभी शर्तों को सहर्ष स्वीकार किया, आत्मसमर्पण किया … लेकिन हम उन्हें दुखों, बेवफ़ाई के अतिरिक्त कुछ नहीं दे पाए।… लोग समझते हैं, हमने अपनी नानी की सेवा की, परन्तु सच यह है कि वही हमारी रखवाली करती रही। हमारे पास आज जो कुछ भी है, नानी का दिया हुआ है।
‘ले बेटी, अब गोली ले ले,’ माँ हाथ में गोली और पानी का गिलास लिए खड़ी थी।
मन तो नहीं करता था, फिर भी सलोनी ने गोली और पानी का गिलास पकड़ लिया। गोली लेते समय एक बार तो उल्टी आने को हुई, परन्तु कोशिश करके उसने पानी के साथ गोली निगल ली। माँ ने सहारा देकर उसे लिटा दिया।
माँ रसोई में चली गई तो सलोनी मोबाइल पर सुकांत बाबू के लिए पत्र लिखने लगी -
‘प्रिय सुकांत बाबू,
बहुत सपने संजोए थे आपके साथ सुखद जीवन जीने के, परन्तु लगता है, एक भी सपना पूरा नहीं हो पाएगा। परिवार के उत्तरदायित्व पूरे करते-करते हमारी यात्रा मध्य में ही अधूरी छूटती लगती है। अब हमें अपना अंतिम समय दिखाई देने लगा है।
हम स्वयं को पूर्णतया दोषी पाते हैं। लोग प्यार करते हैं और कर्त्तव्य से आँखें मूँद लेते हैं। हमने इसका उल्टा किया। हमें तो उल्टा करने की सज़ा मिलनी ही थी, परन्तु इस सज़ा में हमने आपको भी हिस्सेदार बना लिया। हमारा अपराध ऐसा तो नहीं था, जिसे माफ़ ना किया जा सकता, परन्तु आपने सदैव हमारी ज़िद को माना है। एक अंतिम ज़िद और … कोई जीवनसाथी अवश्य तलाश लेना, हमें सुकून मिलेगा।
‘कैंसर का विरोध’ अभियान चलाते-चलाते हमारा संकल्प अधूरा रह गया। आप इस आन्दोलन को आगे बढ़ाना, हमारी आत्मा को शान्ति भी मिलेगी और आपको आगे बढ़ने में सहायक भी होगी।
हमारे हाथ काँपने लगे हैं। हम इस अधूरे पत्र को मेल कर रहे हैं … शायद बाक़ी मन की बातें कभी नहीं कर पाऊँगी।
अधूरी यात्रा की हमसफ़र,
आपकी,
सलोनी
रात को कोई कठिनाई न आए, इसलिए माँ ने सिमरन को अपने पास रोक लिया। दोनों ने मिलकर खाना खाया। फिर सिमरन का बिस्तर भी सलोनी के कमरे में लगा दिया। सलोनी की हालत देखकर माँ को घबराहट हो रही थी। बार-बार उसे देखने, पानी पिलाने के लिए वह वहीं कुर्सी पर बैठी रही। अपना बेड उसने इस लिए नहीं लगाया कि कहीं आँख न लग जाए और सलोनी की हालत बिगड़ जाए!
रात के लगभग बारह बजे सलोनी की हालत एकदम बिगड़ गई। प्लास्टिक का टब लेकर माँ ने उल्टी कराई। इस बार सलोनी के पेट से खून की गाँठें निकलीं।
‘हे भगवान, अब आधी रात को किसका दरवाजा खटखटाऊँ! सुबह सात बजे आश्रम की एंबुलेंस आएगी इसे ले जाने के लिए, लेकिन तब तक …?’ माँ सोचती रही, ‘किसको फ़ोन किया जाए रात के एक बजे, इस समय कौन फ़ोन उठाएगा, अब तो सुबह की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,’ सोचकर माँ अपने देवी-देवताओं को स्मरण करते हुए मन्नत माँगती रही, सलोनी के सिरहाने बैठी उसका माथा सहलाती रही।
एंबुलेंस में हॉस्पिटल का एक वार्ड बॉय भी आया था। जीना तंग था, इसलिए सलोनी को स्ट्रेचर पर लिटाकर नीचे नहीं ला सकते थे। सलोनी को होश नहीं था। माँ के तो हाथ पैर फूल गए। घरवाली स्टील की चेयर पर सलोनी को गमछे से बाँधकर वार्ड बॉय और सिमरन ने मिलकर नीचे उतारा और एंबुलेंस में चढ़ाया। पड़ोसन को समझाकर, घर की चाबी सौंपकर माँ एंबुलेंस में सलोनी के पास आ बैठी।
माँ ने सलोनी का हाथ पकड़कर नब्ज टटोलने की कोशिश की, परन्तु उसकी समझ में कुछ नहीं आया। सीने की धड़कन देख माँ कुछ आश्वस्त हुई। माँ के साथ वार्ड बॉय बैठा था।
‘माँ जी, परसों तो आश्रम में इतनी धूमधाम से नानी की छमाही बरसोंदी की थी और आज सलोनी इतनी बीमार ….अचानक यह कैसे हो गया?’
‘बेटे, वैसे तो आश्रम के हॉस्पिटल में इसका इलाज भी चल रहा है, परन्तु इधर-उधर की भागदौड़ में ना तो दवा ले पाई और ना ही आराम कर पाई।’
अचानक सलोनी का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। साँस तेज चलने लगी। माँ ने बारी-बारी दोनों पाँवों के तलवों को रगड़ना आरम्भ किया।
हॉस्पिटल पहुँचते ही डॉक्टर भाटिया ने उसे स्ट्रेचर पर लेकर बनावटी साँस देने का प्रयत्न किया, परन्तु सब व्यर्थ। सलोनी की आत्मा उसके शरीर को छोड़कर चली गई थी। स्वामी जी को खबर हुई तो वे भी अपनी पूजा अधूरी छोड़कर आ गए।
‘स्वामी जी, सलोनी हमको छोड़कर चली गई,’ माँ विलाप करने लगी।
‘नहीं ज्योत्सना, सलोनी कभी मर नहीं सकती। सलोनी ने हॉस्पिटल में कितने रोगियों को रोशनी दी है। वह सदैव हमारे हॉस्पिटल में ज़िंदा रहेगी। सलोनी को आपने जन्म अवश्य दिया था, परन्तु वह इस आश्रम की छुटकी दीदी थी। सभी रोगियों की छुटकी दीदी …।’
स्वामी जी ने छुटकी पर भगवा रंग की शाल उढ़ाकर फूल माला चढ़ाई और प्रणाम करके उसे एंबुलेंस में वापस घर भेज दिया। आश्रम की दो सेविकाएँ तथा हॉस्पिटल से एक वार्ड बॉय भी साथ भेजा ताकि उन्हें कोई परेशानी न हो। ज्योत्सना के कंधे से लगकर सिमरन रोए जा रही थी।
ज्योत्सना ने स्वयं को व्यवस्थित किया, फिर सिमरन को हौसला दिया। सबसे पहले उसने पड़ोसन को फ़ोन करके बताया कि घर का ताला खोल दे, हम लोग मृत सलोनी को लेकर आ रहे हैं। दूसरा फ़ोन भाई सीताराम को, तीसरा भाग्या को और चौथा फ़ोन बनर्जी मैम को किया ताकि स्कूल में सूचना हो जाए।
एंबुलेंस घर पहुँची तो कुछ पड़ोसी उनकी प्रतीक्षा में खड़े थे। सबने मिलकर एंबुलेंस से मृत शरीर को नीचे उतारा। पार्किंग में दरी बिछा दी गई। एक ओर पुरुष और दूसरी ओर महिलाएँ बैठ गईं।
आसपास के रिश्तेदार भी एकत्रित होने लगे और अंतिम संस्कार की तैयारियाँ होने लगीं।
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