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एक माह पूर्व ज्योत्सना कोलकाता आ गई। उसके साथ सिमरन भी कोलकाता घूमने आ गई। उसके स्कूल की छुट्टियाँ थीं तो उसके पापा ने उसे भी भेज दिया।
सामान की गिफ़्ट पैकिंग होने लगी। बच्चे का जन्म कानपुर में होना था और उसके स्वागत की तैयारी कोलकाता में हो रही थी। एक दिन सुबह-सवेरे सलोनी का फ़ोन बजा तो ख़ुशी का समाचार सुनकर वह उछल पड़ी। बड़ी दीदी भाग्या को जुड़वाँ बच्चों का जन्म हुआ था।
माँ किचन में थी और नानी पूजा गृह में बैठी थी। सलोनी वहीं से चिल्लाई, ‘अरे सुनो भाई, सुनो, हमारी बड़ी दीदी भाग्या के घर कन्या-लौकरिया की जोड़ी आ गई है।’
सुनकर माँ किचन से निकल आई, ‘क्या, जुड़वाँ बच्चों ने जन्म लिया है?’
‘हम दो, हमारे दो और एक साथ-साथ दो दो।’
‘अरी बेटी, दोनों बच्चे और हमारी भाग्या का स्वास्थ्य कैसा है?’
‘वह सब पूछ लिया। नॉर्मल डिलीवरी हुई है। माँ और बच्चे सब ठीक-ठाक हैं।’
पूजा गृह में बैठी नानी को सब सुनाई दे रहा था, ‘हे भगवान, हमारी वर्षों पुरानी मुराद पूरी हो गई।’ भगवान के सामने हाथ जोड़कर वह भी उनके पास आ गई।
‘कानपुर जाना है तो सबसे पहले अपनी टिकट बुक करवा दे।’
‘आप कहो तो हम अपने साथ सिमरन को भी कानपुर ले जाएँ?’
माँ के बोलने से पहले ही सिमरन चहक उठी, ‘हाँ दीदी, मुझे भी साथ ले चलो। भाग्या दीदी और उनके बच्चों को देखना मुझे अच्छा लगेगा।’
‘ठीक है, इसकी भी टिकट अपने साथ करवा ले, दोनों मिलकर जाओगे तो अच्छा रहेगा,’ माँ ने कहा।
‘हमको क्या-क्या तैयारी और करनी है,’ माँ ने नानी की ओर घूम कर पूछा।
‘तुझे कुछ चिंता करने की ज़रूरत नहीं, मैंने सब तैयारी कर रखी है। बस फल और मिठाई का प्रबन्ध करना है।’ नानी ने समझाया तो सलोनी बीच में ही बोल पड़ी, ‘नानी, फल-मिठाई की चिंता आप मत करें। हम जीजू से बात कर लेंगे। वे वहीं से फल और मिठाई ख़रीद लेंगे। हम उनको पैसे दे देंगे। इतनी दूर से फल-मिठाई ले जाने का कोई औचित्य नहीं है।’
‘सलोनी, क्या यह अच्छा लगेगा कि हम अपना काम उनको सौंपें?’
‘आप कुछ चिंता मत करें। हम जीजू से बात कर लेंगे और भाग्या दीदी से भी पूछ लेंगे, ठीक है?’
केवल सलोनी ही नहीं, पूरा घर आनन्द और उत्साह के साथ भर गया था।
…….
सलोनी छुछक लेकर सिमरन के साथ पहुँची तो जीजा जी स्टेशन पर प्रतीक्षा कर रहे थे। कुली से उठवाकर उन्होंने सब सामान गाड़ी में रखवाया और स्वयं गाड़ी चलाते हुए घर की ओर चल पड़े।
‘सलोनी, कानपुर की यात्रा कैसी रही?’
‘जीजा जी, अभी तो हम कानपुर पहुँचे हैं। यात्रा कैसी रही, यह तो हम जाते हुए बताएँगे,’ सुबह-सुबह धूप अभी तेज नहीं हुई थी और खुली खिड़की से आती हवा सलोनी के बालों के साथ अठखेलियाँ कर रही थी। उन्हें सँभाल कर खिड़की से बाहर देखते हुए वह बोली, ‘आपका शहर तो अच्छा लगता है, जीजू।’
‘जब हम यहाँ रहते हैं तो शहर अच्छा ही लगेगा।’
गाड़ी घर पहुँची तो सलोनी को अच्छा लगा। न जाने दोनों नवजात बच्चों के अभिनन्दन में या सलोनी के स्वागत में साफ़ सुथरा और सजा-धजा था घर।
भाग्या दीदी के कमरे में पहुँची तो वह गले मिलकर खिल गई। गले मिलने लगी तभी एक बालक ने सूसू कर दी।
‘तुम्हारे स्वागत में जल छिड़क दिया।’
‘वाह-वाह, खूब स्वागत किया है अपनी मौसी का। दीदी, क्या नाम रखा है शरारती का ..?’
‘हम तो इनको बबुआ और बेबी कहते हैं। अब तुम आ गई हो तो तुम ही रखना इनके सुन्दर से नाम,’ भाग्या ने बबुआ की लँगोटी बदलते हुए कहा।
‘अरे, यह सिमरन है, हमारी दिल्ली वाली! अब तो बड़ी हो गई है,’ भाग्या ने पूछा।
‘हाँ दीदी, मैं वही सिमरन हूँ जो आपके लिए पड़ोस के पेड़ से कच्चे आम तोड़कर लाया करती थी।’
सब एक साथ ज़ोर से हँसने लगे।
सिमरन का परिचय होने के बाद वह उत्साहित हो गई, ‘दीदी, बेबी की शक्ल तो सलोनी दीदी पर गई है और बबुआ अपने पापा पर गया है।’
‘वाह जीजा जी, आपने भी कमाल कर दिया। एक तीर से दो निशाने। बड़े चतुर हो!’ सलोनी ने जीजा जी की ओर घूमकर कहा।
‘मेरा नहीं, यह कमाल तो तुम्हारी दीदी का है।’
‘मेरा कैसे? एक की शक्ल तो मौसी पर और दूसरे की शक्ल पापा पर … मैं तो बस दूध पिलाने वाली आया ही बनी।’
‘नहीं दीदी, यह कमाल किसी का नहीं है, यह तो दोनों अँगूठियों का कमाल है, जो कन्यादान में मिली थीं,’ सलोनी ने दहेज को लेकर उनपर व्यंग्य किया।
‘तुम लोगों ने दो अँगूठियाँ दीं तो हमने उनके दो हीरे बना दिए। यदि तुम लोगों ने एक दी होती तो एक हीरा बनता।’
‘और यदि हमने चार दे दी होती तो!’
‘तो अपनी बहन से पूछो, हम तो फिर चौका लगाकर बाउंड्री पार कर देते,’ ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए जीजा जी ने उपहास किया।
तभी अम्मा जी ने कमरे में प्रवेश किया।
‘तुम इतना सामान काहे ले आई, सलोनी बेटा! कपड़ा-लत्ता, फल-मिठाई, हमारी समधन बहुत हिम्मत वाली है। सबके लिए अलग-अलग उपहार भेजे हैं,’ अम्मा ने अपनी ख़ुशी और धन्यवाद प्रकट किया।
सुनकर सबको बहुत संतोष हुआ।
‘तुम अपनी दीदी के पास बैठो, मैं यहीं पर तुम्हारे लिए नाश्ता भिजवा देती हूँ,’ कहने के साथ अम्मा और जीजा जी बाहर चले गए।
‘कैसा लग रहा है, दीदी?’ सबके जाने के बाद सलोनी ने भाग्या के मन की बात पूछी।
‘यहाँ सब अच्छा है, परन्तु ये दोनों बच्चे रात को बहुत तंग करते हैं। बबुआ को दूध पिलाओ तो बेबी रोने लगती है और बेबी को पिलाओ तो यह बबुआ चिल्लाने लगता है। हाँ, दिन में तो मेरी सास दोनों को सँभाल लेती है,’ चेहरे पर परेशानी, परन्तु यह सब बताते हुए अन्दर से भाग्या का मन ख़ुशी से उछल रहा था।
‘अब परेशान करते हैं तो भविष्य में बच्चों का सुख और सहारा भी मिलता है,’ कहते हुए सलोनी ने बेबी को गोद में उठा लिया।
‘सलोनी, सुख और सहारे का तो कोई पक्का विश्वास नहीं, ज़माना बदल रहा है। खैर, अब तुम अपनी बताओ, शादी कब कर रही हो? कहो तो कानपुर में देख लूँ तुम्हारे लिए … मेरी सगी ननद का लड़का है …।’
‘नहीं दीदी, अभी बिल्कुल नहीं। सबसे पहले हमें अपना कोर्स पूरा करना है। फिर नौकरी पकड़ कर अपने पाँव पर खड़ा होना है। बाद में शादी भी करूँगी तो हमारी कुछ शर्तें हैं,’ सलोनी ने स्पष्ट किया।
‘क्या हैं तुम्हारी शर्तें, ज़रा मैं भी तो सुनूँ?’
‘हमें ऐसा साथी चाहिए जो नानी और माँ का भी सहारा बन सके। अपने सुख के लिए इस अवस्था में हम उनको अकेला नहीं छोड़ सकते।’
‘बात तो छुटकी, तुम्हारी ठीक है, परन्तु ऐसा दुल्हा न मिल पाया तो?’
‘ना मिला तो ना सही। हम अकेली ही माँ और नानी का सहारा बनेंगे।’
‘क्या सारी उम्र?’
‘जब तक माँ-नानी हैं, तब तक। उससे आगे कुछ सोचा नहीं।’
‘ठीक है, आज तुम्हें माँ के पास जाना है तो फटाफट स्नानादि करके तैयार हो जा।’
सलोनी तैयार होने के लिए अटैची से अपने कपड़े निकालने लगी।
कोलकाता लौटी तो माँ और नानी दोनों उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं।
माँ ने पूछा, ‘सलोनी, भाग्या कैसी है?’
‘बहुत अच्छे से है। सब लोग उसे बहुत प्यार करते हैं और उसका पूरा ख़्याल रखते हैं।’
नानी ने पूछा, ‘दोनों बच्चे कैसे हैं, सलोनी?’
‘बहुत अच्छे हैं। कह रहे थे, हमारी अम्मा की नानी को हम दोनों का प्रणाम कहना।’
सलोनी के उपहास को सुनकर सब हँस पड़े।
‘बेटी, छुछक में दिया सामान उनको पसन्द आया या नहीं,’ नानी ने फिर प्रश्न किया।
‘सब सामान उनको बहुत अच्छा लगा। भाग्या की सास कह रही थी, इतना सामान देने की क्या आवश्यकता थी, और कह रही थी कि हमारी दोनों समधन बहुत हिम्मत वाली हैं।’
‘अच्छा हुआ सलोनी, सब काम ठीक से निबट गया और सारा सामान उनको पसन्द भी आ गया,’ कहते-कहते माँ गंभीर हो गई, ‘बेटी की ससुराल से माँ को ख़ुशी का समाचार मिलता रहे तो मन ख़ुशी से भर जाता है। उन्होंने भी बहुत फल-मिठाई तुम्हारे साथ भेजे हैं। आज मन बहुत खुश है। सब बाडी वालों को फल-मिठाई बाँटते हैं।’
‘जी,’ कहते हुए सलोनी सिमरन के साथ अपने कमरे में चली गई।
…….
खिड़की में लटकते हुए रुमाल को देखकर सलोनी ने समझ लिया कि सुकांत बाबू घर पर हैं। सलोनी जानती थी कि नानी कुछ समय पूर्व ही सुकांत बाबू की मम्मी के साथ मन्दिर के लिए निकली हैं। लगभग एक घंटा वहाँ पूजा पाठ करती हैं। वह फटाफट तैयार हो गई। सिमरन हर समय उसके साथ चिपकी रहती थी, परन्तु आज सलोनी ने उसको कुछ नहीं बताया और वह एक सुन्दर डिब्बे में फल-मिठाई लेकर घर से निकल पड़ी।
‘नानी कहाँ है, सुकांत बाबू?’
‘मन्दिर गई है।’
सुकांत बाबू जानते थे कि सलोनी को नानी के विषय में सब पता है, फिर भी पूछ रही है।
‘सलोनी, आज मुझे तुमसे बहुत महत्त्वपूर्ण बात करनी है।’
‘ठीक है, कर लीजिए, परन्तु पहले ये फल-मिठाई रख लीजिए। बड़ी दीदी ने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया है। हम उनके यहाँ शगुन देने गए थे।’
‘लाओ,’ सुकांत बाबू ने डिब्बा पकड़ कर मेज़ पर रख दिया और गंभीर होकर बोले, ‘सलोनी, शादी के बारे में तुम्हारे क्या विचार हैं?’
‘सुकांत बाबू, पहली बात तो यह है कि अभी एक वर्ष हमारी पढ़ाई का शेष है। फिर हमें अपने पाँवों पर खड़ा होना है।’
‘उसके बाद?’
‘फिर भी एक कठिनाई है। अभी हमारी माँ और नानी ज़िंदा हैं। अब तक वे हमारी देखभाल करती रही हैं। अब जब तक वे इस दुनिया में रहेंगी तो हमको उनका सहारा बनना है।’
‘तो क्या तुम…?’ आश्चर्य से सुकांत ने अपना प्रश्न अधूरा छोड़ दिया।
‘मेरा मतलब है, हमको कोई ऐसा साथी चाहिए जिसके साथ मिलकर हम दोनों की देखभाल कर सकें।’
‘बात तो सलोनी, तुम्हारी ठीक है, परन्तु विचार करना पड़ेगा।’
‘अरे, कर लेना सुकांत बाबू … अभी कौन सी जल्दी है। कम-से-कम एक वर्ष तक तो हमें अपने आपको आत्मनिर्भर बनाना है,’ सब बातें उसने हँसते खिलखिलाते कह दीं जैसे किसी अन्य के विवाह की बात कर रही हो! परन्तु सुकांत बाबू बहुत गंभीर थे और बहुत साहस करके उन्होंने सलोनी के सामने बात छेड़ी थी।
‘सुकांत बाबू, अब हम चलते हैं,’ कहते हुए सलोनी कमरे से बाहर आ गई।
‘सलोनी, तुम्हारे लिए एक सूचना है। डिप्लोमा होल्डर के लिए सेन्ट्रल स्कूल में बहुत सी वेकेंसियाँ निकली हैं। तुम वहाँ अपना प्रार्थना पत्र भेज दो। मुझे विश्वास है, वहाँ तुम्हारी नियुक्ति हो जाएगी,’ सलोनी के पीछे आते हुए सुकांत बाबू ने बताया।
‘आपके मुँह में घी शक्कर।’
‘केवल हवा हवाई …!’
‘अभी नौकरी भी तो हवा हवाई है। जब लग जाएगी तो उसकी सच में पार्टी दूँगी। अच्छा, सूचना देने के लिए आभार,’ कहती हुई सलोनी आँगन में चली गई।
सलोनी घर लौटी तो माँ सामने आ गई, ‘सलोनी, कहाँ गई थी?’
‘वह पड़ोस में नानी है ना, सुकांत बाबू की अम्मा, उनके घर फल-मिठाई देने गई थी। वह हमारी नानी की सहेली है,’ सलोनी का स्वर लड़खड़ा गया था।
‘लेकिन, वह तो माई के साथ मन्दिर गई थी।’
‘हमें मालूम नहीं था,’ माँ से बचकर सलोनी अपने कमरे में जाने लगी तो माँ ने उसे रोक लिया, ‘बेटी, आख़िर मैं तुम्हारी माँ हूँ। तुम्हारे मन की बात सब समझती हूँ। बोल, तुझे सुकांत बाबू पसन्द है क्या?’ माँ ने उसका हाथ पकड़कर पूछा।
‘हमने पहले भी आपको बता दिया था, हमें अभी अपने पाँव पर खड़ा होना है। शादी के नाम पर हम किसी पुरुष की दासता स्वीकार नहीं कर सकते। हम अपने साथी के साथ चल तो सकते हैं, परन्तु बंधना नहीं चाहते। दूसरा, हमें आप दोनों की भी चिंता है। आप ही बताओ माँ, क्या माँ-बाप अपनी औलाद को इसलिए पालते हैं कि जब वे थक जाएँ, मजबूर हो जाएँ तो बच्चे उनकी उँगली झटककर अपनी रंगीन दुनिया में चले जाएँ,’ सुबकते हुए सलोनी ने कहा। फिर आँसू पोंछकर कहा, ‘माँ, आपको हम पर भरोसा है ना, तो हमें अपनी ज़िन्दगी के फ़ैसले अपने आप करने दो।’ इतना कहकर सलोनी अपने कमरे में चली गई। अब माँ ने उसे रोका नहीं।
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