पुस्तक मेला, गजल सभा और दही-बड़े
यशवन्त कोठारी
श्रीमती दही-बड़ा, श्रीमती पानी-पूरी और श्रीमती पाव-भाजी ने मिलकर तय किया कि पुस्तक मेले में आयोजित गजल सभा का आनंद लिया जाए। आप श्रीमती दही-बड़ा, श्रीमती पानी-पूरी व श्रीमती पाव-भाजी से कन्फ्यूज मत होइए। ये नाम क्रमशः श्रीमती शर्मा, श्रीमती वर्मा और श्रीमती जैन के मोहल्ले के बच्चा लोगों ने उनकी खाने की पसंद के आधार पर रखे हैं।
पुस्तक मेले में बड़ी भीड़ थी। साहित्य, संस्कृति और कला संबंधी स्टॉलों पर पुस्तकें तो थीं, मगर इन स्टॉलों पर भीड़ नहीं थी। भीड़ खाने-पीने के स्टालों फैशन शो के पंडालों और केटवाक के लिए नियत स्थान पर थी। श्रीमती शर्मा गोलमटोल तो थीं ही, उनहें खाने-पीने का भी विशेष शौक था। श्रीमती शर्मा ने श्रीमती जैन को बच्चों सहित खाने-पीने के स्टॉल पर पहुँचने का आदेश दिया। ‘हर पुस्तक एक मशाल है’ की तर्ज पर हर स्टॉल पर खाने की अपनी तमन्ना बच्चा लोगों ने पूरी की। आइसक्रीम खाने के बाद उन्हें याद आया कि गजल सभा का लुत्फ तो लिया ही नहीं गया। वे मेले का एक राउंड लगाकर गजल सभा के लिए निर्धारित स्थल पर जा पहुँची। गजल का स्टेज शानदार था। गजल गाने वाली भी सुंदर व शानदार थी, मगर गजल सुनने वाले प्रबुद्ध श्रोताओं का अभाव था। गजल चलने लगी। बीच में एक प्रबुद्ध श्रोता ने कहा, ‘‘इरशाद! मुकर्रर!’’
श्रीमती जैन ने पूछा, ‘‘ ये इरशाद भाई, मुकर्रर भाई कौन हैं ? अभी तक आए क्यों नहीं ?’’
श्रीमती वर्मा ने पानी-पूरी की डकार मारते हुए कहा, ‘‘ पता नहीं, कोई नया गजल गायक होगा।’’
गजल सुर में बहने लगी। श्रीमती शर्मा ने श्रीमती वर्मा से कहा, ‘‘ ये नेकलेस मैंने असली डायमंड का बनवाया है। पूरे एक लाख का है।’’
‘‘हाँ-हाँ क्यों नहीं, महँगाई कितनी बढ़ गई है। हाँ देखों , कार चार लाख की आ रही है।’’
‘‘और नहीं तो क्या ?’’ श्रीमती जैन बोल पड़ीं।
शाम घिरने लगी, गजल की महफिल जवाँ होने लगी। पुस्तकें बिना बिके ही शेल्फों में बंद होने लगीं। गजल गायिका ने फिर नई गजल छेड़ी। श्रीमती जैन ने कहा, ‘‘मैंने बच्चे को महाराष्ट्र में एडमिशन दिलाया है। पूरे बीस लाख लग गए । मगर लड़का बाप की तरह ही डॉक्टर बन जाएगा।’’
‘‘मेरा बच्चा तो मेरिट से एडमिशन पा जाएगा।’’
‘‘ वह ठीक है भाभीजी, मगर इन सरकारी मेडिकल-इंजीनियरिंग कॉलेजों में पढ़ाई होती कहाँ है ! पब्लिक स्कूलों की तरह ही प्राइवेट कॉलेजों में अच्छी पढ़ाई होती है।’’ श्रीमती वर्मा ने हाँ में हाँ मिलाई।
गजल चलती रही। रात भर गाती रही। पुस्तक मेले में रोशनी होती रही। साहित्य की पुस्तकें , समाजशास्त्र की पुस्तकें , विज्ञान की पुस्तकें , कला-संस्कृति की पुस्तकें न बिकनी थीं, न बिकीं।
श्रीमती शर्मा ने श्रीमती वर्मा से फिर कहा, ’’ ये गजल सुनना भी जरूरी था। साहब ने पाँच हजार का डोनेशन दिया है। डोनेशन कार्ड के कारण आना पड़ा।’’
श्रीमती वर्मा कहाँ चुप रहने वाली थीं। बोलीं, ’’पिछली बार गुलाबो का डांस करवाया था। पूरे समय केवल हमारे फार्म हाउस पर रही। पार्टी समेत एक लाख बैठ गए थे, मगर मजा आ गया।’’
गजल सभा समाप्त होने को आई। बच्चों ने दोबारा आइसक्रीम की माँग की। श्रीमतियों ने इस माँग को पूरा किया। आइसक्रीम पार्टी के बाद तीनों मैडमों ने बाजार से चटनी-साहित्य, अचार-साहित्य, रेसिपी बुक्स, मोटापा कैसे घटाएँ, कोलेस्टेरोल कम करना, योग से स्वास्थ्य जैसी पुस्तकें खरीदीं। बच्चों ने मेले का मजा लिया और घर आ गए।
मित्रों यहीं पर एक प्रश्न उभरकर आता है कि पुस्तक मेले में समोसे, चाट-पकौड़ियों का क्या योगदान हो सकता है ? दही-बड़े, पानी-पूरी और पाव-भाजी का साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। साहित्य नहीं बिकता है, मगर दही-बड़े और पानी-पूरी बिकते हैं। गजल को श्रोता नहीं मिलते हैं, डोनर खूब मिल जाते हैं। डोनर कार्डधारी शान से सपरिवार आगे बैठ जाते हैं। बीच-बीच में बतियाते हैं, हँसते हैं, कलाकार का मजाक उड़ाते हैं, गजल को शर्म आती हैं। मगर क्या करें ? आजकल हर स्टेज पर प्रायोजकों के झंडे, पंडे और अंडे लटक जाते हैं। गायक कलाकार बेचारा मन मसोसकर रह जाता है। चाहकर भी वह इन पंडो और झंडो से बच नहीं पाता है। एक गंभीर गजल के बीच में फूहड़ हँसी सब मजा किरकिरा कर देती है; मगर ये नए दौलतमंद किसी की परवाह नहीं करते है। वे हर चीज को चाँदी के तराजू में तौलते हैं और उनके पास इतनी दौलत है कि किसी को भी खरीद सकते हैं। पुस्तक मेला हो या कोई और मेला, हर तरफ पैसे की चकाचौंध है और अमीरी को दिखाने का बहाना है।
गजल या कविता कोई नहीं सुनना चाहता है। केवल दूसरे दिन अपने मितत्रों , परिचिटन रिश्तेदारों को सेलफोन पर खबर करनी है कि कल वे गजल सुनने गए थे। गजल के बोल क्या थे, गजलकार कौन थे और गायक कलाकार कौन था- इन पर कोई चर्चा नहीं होती है। वे तो महँगी साड़िया,कारों विदेशी दौरों और नई कंपनियों के शेयरों की बाटन में मशगूल रहते हैं। सॉफ्टवेयर का जमाना है, मगर सॉफ्ट ड्रिंक बंद है-सब तरफ हार्डवेयर और हार्ड ड्रिंक। सब हँसते हैं, तब वे भी हँसते हैं। सब तालियां बजाते हैं तो वे भी तालियाँ बजाते हैं। ’वाह-वाह’ भी कर देते हैं। बेचारी गजल रो पड़ती है।
मगर गजल की महफिल में ये कैसे श्रोता आ गए हैं, जो साहित्य, संस्कृति और कला की तौहीन करते हैं ! केवल इसलिए कि वे पैसे वाले हैं। वे गजल पर दाद, खाज, खुजली सब एक साथ दे देते हैं। बस, चुप ही नहीं रहते।
गजल सुने , मगर सज्जनता के साथ, प्यार के साथ, इसरार के साथ, मुकम्मल इबादत के साथ। खुदा की इबादत की तरह है गजल सुनना। गजल जीना एक जिंदगी जीना है। हर पुस्तक एक गजल है। हर गजल एक पुस्तक है। उसे धीरे-धीरे पढ़ो, कहीं ऐसा न हो कि गजल कभी आपका अपमान कर बैठे। गजल जीने का सलीका सिखाती है। गजल आत्मा की तड़प है। इसे शिद्दत से महसूस करे और अंत में एक शेर के साथ रुखसत होने की इजाजत चाहता हूँ-
एक ही उल्लू काफी था, बरबाद-ए-गुलिस्ताँ करने को,
हर शाख पे उल्ले बैठा है, अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा ?
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यशवन्त कोठारी
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