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कैक्टस के जंगल - भाग 3

3

हौंसलों का सफर

लाॅकडाउन का दूसरा चरण शुरू हो गया था। किशन का काम बन्द हुए लगभग एक महीना हो गया था। वह यहां गुड़गांव में एक प्राइवेट कम्पनी में काम करता था। अपनी पत्नी राजबाला के साथ वह यहां एक किराए का कमरा लेकर रहता था। उसका दो साल का बेटा था। वे लोग देवरिया जिले के रहने वाले थे।

तीन साल पहले उसने अपने छोटे भाई रमेश को भी गाँव से यहीं बुला लिया था। वह यहां फलों का ठेला लगाता था। वह भी किशन के पास ही रहता था। गुजर-वसर आराम से हो रही थी। दोनों भाई थोडे़ बहुत रुपए बचाकर हर महीने गाँव में रह रहे माँ-बाप को भेज दिया करते थे।

लाॅकडाउन के कारण दोनों का काम बन्द था इसलिए इस महीने वे गाँव भी रुपए नहीं भेज पाए थे। उनकी जमा-पूँजी भी धीरे-धीरे खत्म होती जा रही थी और राशन के डिब्बे खाली होते जा रहे थे।

गाँव से पिताजी का फोन आया था कि तुम्हारी माँ की तबियत कई दिनों से खराब है। लाॅकडाउन के कारण कहीं दवाई नहीं मिल पा रही है इसलिए उनकी हालत धीरे-धीरे बिगड़ती जा रही है। वे कह रही हैं कि किशन से कह दो कि सब लोग गाँव आ जायें। वह सबको देखना चाहती हैं। जब से फोन आया था तब से किशन बड़ा परेशान था।

इधर आज एक नई मुसीबत खड़ी हो गई थी। सुबह मकान मालकिन ने उसकी पत्नी राजबाला को अपने पास बुलाया और कहा-“देखो राजबाला कालोनी वालों ने तय किया है कि कोरोना के खतरे को देखते हुए सभी लोग प्रवासी मजदूरों से अपने-अपने कमरे खाली करा लें। मुझे तुम लोगों से कोई शिकायत नहीं है, मगर कालोनी वालों का कहना तो हमें मानना ही होगा।“

“क्या ?“ राजबाला के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी। उसने कहा-“आंटी जी, हम लोग ऐसे में कहां जायेंगे ?“

“अब मैं क्या बताऊँ। मगर तुम लोगों के लिए कालोनी वालों से तो बैर मोल नहीं ले सकती।“ मकान मालकिन ने टका सा जवाब दिया।

राजबाला के बहुत मिन्नतें करने पर उन्होंने उसे कमरा खाली करने के लिए चार दिन की मोहलत दे दी।

जब राजबाला ने किशन को यह बात बताई तो वह और परेशान हो उठा। शाम को खाना खाने के बाद सब आपस में सलाह-मशविरा करने बैठ गए।

पता नहीं इन हालातों में कहीं दूसरी जगह भी कमरा मिले या न मिले। ऐसे में क्या किया जाये। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। किशन ने राजबाला और रमेश की ओर देखते हुए कहा।

कमरे में काफी देर सन्नाटा पसरा रहा। फिर रमेश बोला-“भइया चलो गाँव लौट चलें। माँ की तबियत भी खराब है। कुछ दिन उनके पास रह लेंगे फिर जब लाॅकडाउन हट जायेगा तो वापस यहां लौट आयेंगे और कहीं दूसरा कमरा तलाश कर लेंगे।“

देवर जी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। चलो अपने गाँव चलते हैं वहीं जो कुछ रुखी-सूखी रोटी मिलेगी खा कर गुजारा कर लेंगे। लाॅकडाउन का क्या पता, कब तक चले मान लो कहीं कमरा मिल भी जाए तो यहां खाली बैठकर खायेंगे क्या ?“ राजबाला बोली।

उन दोनों की बातें सुनकर किशन सोच में पड़ गया। वह सोचने लगा कि अगर गाँव में दोनों वक्त भर पेट रोटी मिलने का साधन होता तो वे लोग यहां इतनी दूर आते ही क्यों। मगर वह इस समय यह बात कह कर उन लोगों का दिल नहीं दुखाना चाहता था। इसलिए वह बोला-“कह तो तुम लोग ठीक रहे हो, मगर लाॅकडाउन के कारण इस समय टेªनें, बसें तो सब बन्द हैं गाँव पहुंचेंगे कैसे ?“

कमरे में एक बार फिर खामोशी छा गई। गाँव यहां तो रखा नहीं था वह तो यहां से सात सौ किलोमीटर दूर था। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था।

तभी रमेश बोला-“मेरा ठेला तो है ही। उसी पर सारा सामान रख लेंगे और उसी को ठेलते हुए चल देंगे, कुछ दिन में गाँव पहुंच ही जायेंगे।“

किशन बोला-“तुम्हारा प्रस्ताव बुरा नहीं है, मगर यह तो सोचो कि इस तरह ठेले से इतनी लम्बी यात्रा कैसे पूरी कर पायेंगे ?“

“यहां खाली बैठे रहने से भी तो काम नहीं चलेगा। अभी तो हम लोगों के पास थोड़े-बहुत रुपए हैं। दस-पांच दिन के खाने के लिए राशन भी है। इस आपदा का क्या पता कब तक चले। यहां भूखों मरने से तो अच्छा है यही कि जैसे भी हो गाँव लौट चलें। रास्ते में जो कुछ होगा, देखा जायेगा।“ राजबाला गहरी श्वांस लेते हुए बोली।

किशन को राजबाला की बात जच गई उसकी इस बात में सच्चाई थी कि अगर कुछ दिन और यहां इसी तरह खाली बैठे रहे तो सारी जमा-पूँजी खर्च हो जायेगी और फिर गाँव लौटना भी कठिन हो जायेगा। फिर सबने मिलकर तय किया कि कल दस-पन्द्रह दिन का खाने-पीने का सामान जुटा लेंगे और परसों सुबह गाँव जाने के लिए निकल पड़ेंगे।

अगले दिन किशन गली की किराने की दूकान से बीस किलो आटा, दस किलो चावल, तीन किलो दाल और घी, नमक, मिर्च, मसाला खरीद लाया। अपने बेटे के लिए दूध का पाउडर भी खरीद लिया। दो-तीन दिन के लिए सब्जी भी लेकर रख ली।

उनके पास गैस का एक छोटा सिलेण्डर था जो खाली हो गया था। गली में ही एक दूकान पर उसमें गैस भर जाती थी मगर लाॅकडाउन के कारण इन दिनों दूकान बन्द थी। राजबाला दूकानदार के घर जाकर उसकी खुशामद करके सिलेण्डर में गैस भरवा लाई।

यह सब सामान खरीदने के बाद उन तीनों के पास केवल दो हजार रुपए बचे थे जिनके सहारे इतना लम्बा रास्ता तय करना था। शाम को ही तीनों ने अपना सारा सामान ठेले पर रख लिया था। राजबाला ने सुबह कमरा खाली करने की बात मकान मालिक को बता दी। वह सन्तुष्ट हो गई।

अगले दिन सुबह चार बजे ही वे ठेला लेकर इस सफर पर निकल पड़े। जैसे-जैसे सूरज चढ़ता गया वैसे-वैसे गर्मी बढ़ती गई। ऊपर से आग बरसाती सूरज की किरणें और नीचे तपती हुई सड़क। मगर यह हौंसलों का सफर था जिसके आगे रास्ते की हर बाधा अैर हर कठिनाई वेमानी थी।

इक्कीसवीं सदी में पैदल ठेला ढकेलते हुए सात सौ किलोमीटर का सफर तय करने की बात देखने-सुनने में असम्भव सी लगती थी, मगर उन लोगों के दिल में जज्बा था और गाँव पहुंचने की ललक इसलिए उनका सफर जारी था।

जब किशन ठेला लेकर चलता तो रमेश और राजबाला ठेले में बैठ जाते और फिर रमेश ठेला चलाने लगता। राजबाला के दो वर्षीय बेटे को बड़ा आनन्द आ रहा था। वह अपने दोनों हाथ फैला-फैला कर बड़े कौतूहल से रास्ते में आ रही नई-नई चीजों को देख रहा था और खुश हो रहा था।

पहले दिन रमेश और किशन ही ठेला चलाते रहे और राजबाला पूरे समय बेटे के साथ ठेले पर बैठी रही। मगर दूसरे दिन जब उसने देखा कि काफी समय से ठेला चलाते-चलाते रमेश थक गया है तो वह रमेश से बोली-“अब तुम बैठ जाओ देवर जी, लाओ मैं ठेला चलाती हूँ।“

“नहीं-नहीं भाभी यह मर्दों का काम है। तुमसे नहीं हो पाएगा।“ रमेश मुस्कराते हुए बोला।

“क्यों नहीं हो पाएगा। मैं एक मजदूर की बेटी हूँ और एक मजदूर की पत्नी भी। मजदूर के तो हाथ-पांव ही उसका सबसे बड़ा गहना होते हैं। तुम बैठो ठेले पर।“

फिर वह ठेला चलाने लगी और रमेश ठेले पर बैठ गया। रास्ते में दोपहर में वे लोग जब एक पेड़ के नीचे बैठकर खाना खा रहे थे तो रमेश किशन की ओर देखकर बोला-“भइया, भाभी तो दुर्गा हैं दुर्गा।“ यह सुनकर किशन मुस्कराने लगा।

राजबाला बोली-“चिन्ता मत करो देवर जी लाॅकडाउन खुल जाने दो तुम्हारे लिए भी ऐसी ही एक दुर्गा ढूंढ़ दूंगी।“ इस पर रमेश शरमा गया।

रास्ते में कई जगह उन्हें रोका गया। कई जगह चेकिंग हुई, थर्मल स्क्रीनिंग हुई। पुलिस वालों ने तरह-तरह के सवाल पूछे। इन सारी मुसीबतों के बाद भी उनकी यात्रा जारी रही।

वे रोज चैदह घंटे चलते। किशन और रमेश पांच-पांच घन्टे ठेला चलाते और राजबाला चार घन्टे। बाकी घन्टे खाने-पीने और सोने में निकल जाते। वे रात में कहीं पेड़ के नीचे रुक जाते। राजबाला खाना बनाती और सब खा-पीकर पांच-छः घन्टे सोते। दिन में दोपहर में भी खाना खाने के बाद दो घन्टा आराम करते।

एक रात बहुत तेज आंधी आ गई। वे लोग एक पेड़ के नीचे लेटे थे। आंधी इतनी तेज थी कि उनका ठेला ही सामान सहित खिसकने लगा। किशन और रमेश ने उसे रस्सी से कसकर पेड़ से बांधा तब कहीं जाकर वह रुक सका। आंधी के साथ ही बारिश भी होने लगी। राजबाला ने अपने बेटे को तो कपड़ों में लपेट कर किसी तरह बचा लिया, मगर वे तीनों बुरी तरह भीग गए।

जब मन में दृढ़ संकल्प हो और आपस में सद्भाव हो तो कठिन से कठिन काम भी आसान बन जाता है। राजबाला, किशन और रमेश के आपसी स्नेह ने दुश्वारियों से भरे इस सफर को भी आसान बना दिया था। तीनों हर समय एक दूसरे की मदद को तैयार रहते।

उन्हें गुड़गांव से चले बीस दिन हो गए थे। पैदल चलते-चलते तीनों के पैर सूज गए थे और ठेला चलाते-चलाते सबके हाथ बुरी तरह दर्द करने लगे थे। पूरा बदन टूटने लगा था, मगर मन में अब भी गाँव पहुंचने की ललक और उत्साह बना हुआ था।

“अब यहां से अपना गाँव लगभग नब्बे किलोमीटर दूर रह गया है।“ किशन ने दोपहर में एक छायादार पेड़ के नीचे ठेला रोकते हुए कहा।

“इसका मतलब गाँव पहुंचने में अपनी तीन दिन और लग जायेंगे भइया ?“ रमेश बोला।

“हाँ, बस समझो अब अपने लोग गाँव के काफी नजदीक आ गए हैं।“ किशन उत्साहपूर्वक बोला।

देवरिया जिले की सीमा में पहुंचते ही उन्हें अपनेपन का अहसास होने लगा, सबका मन प्रफुल्लित हो उठा। उनमें एक नई ऊर्जा का उत्साह आने से उन्होंने तीन दिन की यात्रा दो दिन में ही पूरी कर डाली। अब उनकी सारी थकान गायब हो चुकी थी।

शाम को छः बजे जब वे गाँव पहुंचे तो वहां एस.डी.एम. के साथ दो डाक्टर, ग्राम प्रधान एवं गाँव के अन्य लोगों को देखकर उन्हें बड़ी हैरानी हुई। एस.डी.एम. के आदेश पर डाक्टरों ने उनकी थर्मल स्क्रीनिंग की और  कोरोना की जांच के लिए चारों का ब्लड सैम्पल लिया। एस.डी.एम. ने ग्राम प्रधान से कहा-“यह लोग गुड़गाँव से आए हैं और इतने लम्बे सफर में जगह-जगह से गुजरे हैं इसलिए जब तक इनकी रिपोर्ट लैब से नहीं आ जाती तब तक इन्हें गाँव के स्कूल में क्वारंटीन करना पड़ेगा। इन्हें चैदह दिन तक वहीं रहना होगा। आप स्कूल  में ही इनके रहने खाने का इन्तजाम कर दो।“

किशन और रमेश ने सबकी बहुत खुशामद की मगर एस.डी.एम. ने उनकी एक नहीं सुनी और उन्हें गाँव के स्कूल में पहुंचा दिया गया।

ग्राम प्रधान ने आटा, चावल, दाल और सारी चीजें उनके लिए भिजवा दीं। उनके रहने का इन्तजाम कमरों में करके विद्यालय के गेट पर बाहर से ताला डाल दिया। चाबी प्रधान ने अपने पास रख ली।

स्कूल पहुंचकर किशन ने घर पर फोन किया। बेटों और बहू के आने की खबर सुनकर उनकी माँ कटोरी देवी को तो मानो संजीवनी मिल गई थी। दसियों दिन से बिस्तर पर पड़ी हुई कटोरी देवी यह खबर सुनकर उठकर बैठ गईं फिर वे डंडा टेकते-टेकते स्कूल जा पहुंची।

किशन के पिताजी प्रधान को बुला लाए थे। उनके खुशामद करने पर प्रधान ने स्कूल का ताला खोल दिया। मगर उसने दोनों को हिदायत दी कि वे दूर से ही बेटे बहू से बात करें उनके पास ना जायें।

अपने बेटों, बहू और पोते को देखकर खुशी के मारे कटोरी देवी की आँखों में आंसू आ गए। किशन, राजबाला और रमेश की आँखें भी गीली हो गई थीं। किशन के पिताजी दूर खड़े सबको देख रहे थे। सब काफी देर तक बातें करते रहे।

कटोरी देवी किशन के पिता जी के साथ बिना नागा किए रोज डंडा टेकते-टेकते स्कूल आ जातीं और कफी दूर बैठकर उनसे घन्टों बातें करती रहतीं। गाँव के और लोग भी उन तीनों से मिलने और उन्हें देखने आ जाते। प्रधान और गाँव वालों ने उन लोगों को खाने-पीने की कोई कमी नहीं होने दी।

लैब से उन चारों को लगातार दो बार रिपोर्ट निगेटिव आने के बाद डाक्टरों की सलाह पर एस.डी.एम. साहब ने आठवें दिन उन्हें अपने घर जाने की अनुमति दे दी।

घर पहुंचकर सबने जब अपने पिता जी और अम्मा जी के पैर छुए तो कटोरी देवी ने अपने बेटों और बहू को बाहों में भरकर अपने कलेजे से लगा लिया। किशन के पिता जी अपने पोते को खिलाने लगे।

“चिन्ता मत करो अम्मा अब हम लोग तुम दोनों को छोड़कर कहीं नहीं जायेंगे। गाँव में जो कुछ रूखी-सूखी मिलेगी उसे खाकर ही गुजर कर लेंगे“ राजबाला बोली।

तुम ठीक कह रही हो राजबाला। अपना गाँव अपना ही होता है। अब हम सब यहीं रहेंगे।

यह सुनकर किशन के पिताजी और किशन की अम्मा की आँखों में खुशी की एक नई चमक आ गई थी।

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